Thursday, December 10, 2020

संशोधनों के लिखित प्रस्तावों के बाद भी,कृषि कानूनों का विरोध-भ्रम में कौन है आन्दोलनकारी किसान या केन्द्र सरकार...?

 -तुषार कोठारी



 केन्द्र सरकार द्वारा कृषि कानूनों में संशोधन के लिखित प्रस्ताव दिए जाने और आन्दोलनकारी पंजाब के किसानों द्वारा इन प्रस्तावों को सिरे से खारिज कर दिए जाने से अब यह निर्विवाद रुप से स्पष्ट हो गया है कि राजधानी की सीमाओं पर कब्जा जमाए बैठे प्रदर्शनकारियों को किसानों के हित की कोई चिंता नहीं है,बल्कि उनका एकसूत्रीय एजेण्डा किसी ना किसी तरह हालात को बिगाड कर रखना और केन्द्र सरकार को बदनाम करना ही है।



प्रदर्शनकारी किसानों से सरकार कई दौर की चर्चाएं कर चुकी है। लेकिन प्रदर्शनकारी किसानों का रवैया हर चर्चा में सिर्फ मामले को उलझाने का ही रहा है। चर्चा करने वाले किसान नेता पिछले दौर में बनी सहमति  को अगले दौर में नकार देते है और बात फिर से वहीं पंहुच जाती है,जहां से शुरु हुई थी। आन्दोलनकारी किसानों का रुख बिलकुल भी स्पष्ट नहीं रहा है। कहने को तो वे तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने की मांग पर अडे हुए हैैं लेकिन सरकार से हुई चर्चाओं में उन्होने संशोधनों की बात भी कही थी। जब सरकार ने किसानों द्वारा सुझाए गए समस्त संशोधनों को स्वीकार करने का लिखित प्रस्ताव सामने रख दिया,तब तो प्रदर्शन को तुरंत बन्द कर दिया जाना चाहिए था,लेकिन जैसे ही संशोधनों को स्वीकारने का लिखित प्रस्ताव सामने आया,किसान नेताओं ने इसे सिरे से खारिज करते हुए फिर से कृषि कानूनों को रद्द करने की रट लगा दी।

ऐसी स्थिति में सरकार को भी कडा रुख अपना लेना चाहिए था। लेकिन हाल फिलहाल सरकार कडा रुख अपनाने के पक्ष में नजर नहीं आ रही है। यह भी तब है जब दिल्ली और आसपास के लाखों लोगों का जनजीवन सडक़ों पर कब्जे की वजह से अस्त व्यस्त है रहा है और करोडों की हानि हो रही है। अब जबकि यह स्पष्ट हो गया है कि आन्दोलनकारी समस्या को सुलझाने की इच्छा ही नहीं रखते,उनके विरुद्ध कडी कार्यवाही न किया जाना समझ से परे है।

 नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में पिछले  छ: वर्षों से चल रही केन्द्र सरकार की छबि सख्त निर्णय लेने वाली सरकार की रही है। पाकिस्तान पर सर्जिकल स्ट्राइक करने और धारा 370 को एक झटके में हटा देने जैसे साहसिक फैसले लेने वाली सरकार घरेलु मोर्चे पर इतनी लचर क्यो साबित हो रही है,यह किसी की भी समझ में नहीं आ रहा है।

इसे समझने के लिए हमें कुछ पीछे जाना होगा। मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में नोटबन्दी और जीएसटी जैसे बडे फैसले लिए गए थे। विपक्ष और देश में पनप चुके टुकडे टुकडे गैैंग ने उस समय भी विरोध किया था,लेकिन उस समय का विरोध आमतौर पर बयानबाजी तक ही सीमित रहा था। विपक्ष को कहींं      ना कहीं ये उम्मीद थी कि इन कडे फैसलों के कारण सरकार को नुकसान उठाना पड सकता है। लेकिन उनके अनुमान गलत साबित हुए और 2019 में नरेन्द्र मोदी ने जीत के नए रेकार्ड बना दिए। इस जीत के बाद मोदी को और भी कडे फैसले लेने का बल मिला और उन्होने ऐतिहासिक फैसले किए। लेकिन इसी बीच जब सीएए कानून लाया गया,विपक्ष और टुकडे टुकडे गैैंग ने विरोध का नया तरीका निकाला। शाहीन बाग की तर्ज पर हजारों स्थानों पर सडक़े जाम कर दी गई। मजेदार तथ्य तब भी यही था कि सीएए में विरोध करने के लिए कोई तथ्य ही नहीं था। लेकिन विरोधी पक्ष ने बिना किसी आधार के होते हुए भी फर्जी आधारों पर आन्दोलन खडा किया। इस आन्दोलन को सरकार द्वारा सख्ती से निपटा जाना चाहिए था,क्योंकि यह पूरी तरह स्पष्ट हो चुका था कि इस आन्दोलन में देश विरोधी तत्व अपना एजेण्डा चला रहे है लेकिन दिल्ली विधानसभा चुनाव में लाभ लेने के चक्कर में उस समय इस आन्दोलन पर सरकार ने सख्ती नहीं दिखाई। दिल्ली के आम नागरिक महीनों तक परेशान होते रहे। सरकार आन्दोलनकारियों के कथित भ्रम को दूर करने के लिए प्रयास करती रही। जबकि आन्दोलनकारी किसी भ्रम में नहीं थे। वे जानते थे कि सीएए किसी की नागरिकता छीनने का नहीं बल्कि प्रताडित लोगों को नागरिकता देने का कानून है। वे उस एनआरसी का विरोध कर रहे थे,जिसका कोई अस्तित्व ही  उस समय नहीं था। आखिरकार दिल्ली के दंगों में उस आन्दोलन की परिणति हुई। कई निर्दोष लोगों की जान गई। दुनिया में भारत की छबि बिगाडने का प्रयास किया गया। सरकार को दिल्ली चुनावों में कोई लाभ नहीं मिल पाया।


बस तभी से देश विरोधी शक्तियों को यह बात समझ में आ गई कि घरेलु मोर्चे पर मोदी सरकार सख्ती से नहीं बल्कि ढीले ढाले तरीके से काम करती है। किसान कानूनों के विरोध के पीछे भी यही कहानी है। खालिस्तानी तत्व आन्दोलन में सक्रिय हो गए। विपक्षी पार्टियां भी आन्दोलन में कूद पडी। सरकार ने सडक़ों से हट कर मैदान में प्रदर्शन करने का निवेदन किया,जिसे सिरे से खारिज कर दिया गया। 

अब स्थिति देखिए। पूरे देश में किसानों को कृषि कानूनों से कोई परेशानी नहीं हैैं लेकिन पंजाब में कांग्र्रेस सरकार के होने से पंजाब के किसान कथित तौर पर इस कानून को काला कानून बता रहे है। मुख्य धारा के मीडीया का रवैया भी वही है कि अगर कुछ किसानों को गलतफहमी है तो इस गलतफहमी को दूर करने की जिम्मेदारी सरकार की है। सरकार फिर से इसी भ्रम में आ गई है कि किसान भ्रमित है और उनके भ्रम दूर करना जरुरी है। भाजपा के प्रवक्ता टीवी की बहसों में यही कह रहे है कि हम किसानों के भ्रम दूर करेंगे। सरकार के वरिष्ठ मंत्री कई दौर की बैठकें इस कथित भ्रम को दूर करने के लिए कर चुके है। लेकिन भ्रम है कि दूर ही नही हो पा रहा। कथित किसानों ने अपने आन्दोलन को और तेज करने की घोषणाएं कर दी है।

अब बडा सवाल यही है कि भ्रम में कौन है,सरकार या आन्दोलनकारी। सामने मौजूद तथ्य तो यही बताते है कि आन्दोलनकारी कतई भ्रम में नहीं है,वे तो भ्रम में होने का नाटक कर रहे है। सूरज को देखकर यदि कोई उसे चांद ही कहता रहेगा,तो समझाने वाला उसे कैसे समझाएगा कि यह चांद नहीं सूरज है। ठीक यही कहानी प्रदर्शनकारियों की है।  लिखे हुए कानून को वे पढना नहीं चाहते,पढते है तो समझना नहीं चाहते,क्योंकि उनका एजेन्डा कानून या किसान नहीं बल्कि अव्यवस्था और अराजकता फैलाना है। दूसरी ओर सरकार अभी भी इसी भ्रम में है कि किसान भ्रमित है और समझाने से समझ जाएंगे। आने वाले दिनों में अगर सरकार इससे सख्ती से नहीं निपटती तो कोई बडी बात नहीं कि इस आन्दोलन की परिणति भी सीएए विरोधी आन्दोलन की तरह हो जाए।

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