Tuesday, April 23, 2013

रेप की राजनीति


(तुषार कोठारी)
कुछ दिनों से दोबारा ऐसा लगने लगा है,जैसे भारत में रेप और गैंग रेप के अलावा कोई दूसरा काम ही नहीं हो रहा है। जिस टीवी न्यूज या अखबार को देखिए,सिर्फ और सिर्फ रेप या गैंग रेप। रेप पर विद्वानों के बहस मुबाहसे। व्यवस्था को दोष देते चीखते चिल्लाते चेहरे। चारो ओर यही माहौल। एक घटना पर देश के प्रधानमंत्री,गृहमंत्री,प्रदेशों के मुख्यमंत्री और तमाम पुलिस अधिकारी कर्मचारी सब के सब कटघरे में खडे किए जा रहे है। जैसे रेप के दोषी ये लोग ही हो।

स्थिति की गंभीरता देखिए,कि पहले तो पूछा जाएगा कि ये जो घटनाएं हो रही इन पर आपका क्या कहना है? यदि जवाब देने वाले ने कहीं नैतिकता या संस्कारों की बात कर दी तो सारे लोग उसी के पीछे पड जाएंगे,जैसे वह रेप का समर्थक हो। सवाल पूछने वाले चाहते है कि जवाब में सिर्फ व्यवस्था को लताडा जाए।
 अपराध शा का अध्ययन करने वाले जानते है कि अपराध करने वाले एक विशेष आपराधिक मनोवृत्ति से ग्रसित होते है। यौन अपराध करने वाले तो वास्तव में मानसिक तौर पर रुग्ण होते है। इनमें भी नन्हे बच्चों यै बच्चियों का यौन शोषण करने वाले लोग तो पूरी तरह से मानसिक विकृति के शिकार होते है। इस तरह के मनोरोगी पहले भी थे। घटनाएं पहले भी होती थी। वर्तमान समय में अन्तर यह आ गया है कि अब इस तरह के मनोरोगी अपराधियों की संख्या में तेजी से इजाफा हो रहा है।
 बलात्कार के मुद्दों पर टीवी शो में गर्मागर्म बहस करने वाले विद्वान सारे मुद्दों पर बात करने को राजी है,लेकिन समस्या की वास्तविक जड के बारे में चर्चा करने को कोई तैयार नहीं। वे समस्या पर चर्चा करते है और हल के नाम पर कानूनों को कडे किए जाने और व्यवस्था को ठीक करने के अलावा अन्य महत्वपूर्ण विषयों को गायब कर देते है।
 दुनिया में इतने घृणित लोग भी मौजूद है जो पशुओं तक से यौन करने के प्रयास कर चुके है। इस तरह के मनोरोगियों की मौजूदगी में बकरियां और कुतियाएं तक सुरक्षित नहीं रह पाती। सवाल उठता है कि आखिर मानवीय मस्तिष्क में इतनी गंभीर विकृतियों के आने का कारण क्या है?
 माहौल को देखिए। पश्चिमी जीवनशैली को अपनाना विकासशील या प्रगतिशील होने का एकमात्र मापदण्ड बन चुका है। साडी पहनी ी प्रतिगामी या पुरातनपंथी कहलाती है वहीं आधुनिक फैशन में रहने वाली ी प्रगतिशील मानी जाती है। भारत के सन्दर्भों में देखा जाए तो टीवी और फिल्मे,लोगों के मानस को प्रभावित करने के दो सर्वाधिक सशक्त माध्यम है। इन दोनो माध्यमों में खुलेपन और आधुनिकता के नाम पर सिर्फ सैक्स परोसा जा रहा है। स्थिति इतनी खराब हो चुकी है कि धार्मिक चैनलों के कमर्शियल  ब्रैक में भी सेक्स का बोलबाला है। आधुनिकता के नाम पर नन्हे बच्चों को भी कण्डोम के विज्ञापन दिखाए जा रहे है। यहां तक कि छोटे बच्चों के लिए आने वाले कार्टून सीरीजों में भी नन्हा नायक दिन भर अपनी कक्षा की सहपाठी बालिका को प्रभावित करने  की योजनाएं बनाता है। टीवी और फिल्मों के लिहाज से किसी मानव के लिए सेक्स के अलावा दूसरा कोई काम नहीं है जो कि किया जाए।
देश की आबादी को देखिए। बडा वर्ग गरीब और अशिक्षित है। टीवी से पहले संपन्न वर्ग की गतिविधियों को देखने जानने के लिए उसके पास बेहद सीमित अवसर थे,लेकिन एकता कपूर मार्का टीवी सीरीयलों के जरिये अब वह रोजाना उच्चवर्ग के किचन तक की गतिविधियां देख रहा है। इसी के साथ उसके सामने लगातार सेक्स परोसा जा रहा है। अपने जीवन की कठोर वास्तविकताओं और टीवी  पर दिखाई जी रही उच्चवर्ग की चमक दमक के अन्तर्विरोध में फंसा गरीब अनपढ व्यक्ति लगातार कुण्ठित होता जाता है और कुण्ठा के इस निराशाजनक दौर में टीवी और फिल्मों में परोसा जा रहा सैक्स उसे पूरी तरह मनोविकारों की गिरफ्त में ला देता है। अपनी दमित और कुण्ठित यौन इच्छाओं की पूर्ति के मामले में उसकी मानवीय प्रवृत्ति गायब हो जाती है पाशविक प्रवृत्ति के हवाले होकर वह कुछ भी करने को राजी हो जाता है। नन्हे मासूम बच्चे हो या बकरी जैसे पशु,उसे जो नजर आता है,उसी को वह अपना शिकार बनाने की कोशिश करता है। पाशविकता इतनी हावी हो जाती है कि पैशाचिकता या हैवानियत के स्तर तक जा पंहुचती है,जिसकी एक स्वस्थ मस्तिष्क का व्यक्ति कल्पना तक नहीं कर सकता। इस तरह के मनोरोगियों की संख्या अब लगातार बढ रही है और इसी का नतीजा है कि घृणित अपराध बढते जा रहे है। ऐसा नहीं है कि सभी में मनोविकृति आ रही हो,लेकिन एक छोटा वर्ग ऐसा है जिस पर यह असर हो रहा है।
निश्चित रुप से ऐसे अपराधी के लिए मृत्युदण्ड भी एक छोटी सजा है। लेकिन इसके साथ इस पहलू पर विचार किया जाना भी जरुरी है कि इस तरह की मनोवृत्तियों की वृध्दि को कैसे रोका जाए। जब हम इस पहलू पर विचार करेंगे तो बात वहीं पंहुचेगी। नैतिकता और संस्कारों की बात सामने आएगी। यह बात भी सामने आएगी कि खुलेपन और आधुनिकता के नाम पर सैंसर बोर्ड फिल्मों में जिस तरह के दृश्यों को अनुमति दे रहा है,वह दी जाना चाहिए या नहीं। यह विषय भी उठेगा कि टीवी पर दिखाए जा रहे अश्लील विज्ञापनों पर रोक लगना चाहिए या नहीं। आधुनिकता वादी विद्वानों को पहनावे के तौर तरीको पर उठाए जाने वाले सवालों पर तगडी आपत्ति होती है। इसी तरह आधुनिक महिलाओं और उनके संगठनों को भी इस पर भारी आपत्ति होती है। लेकिन अन्तत: समस्या मानव मस्तिष्क की भीतरी प्रवृत्ति से जुडी है,इसलिए जिन कारकों का असर प्रवृत्तियों पर पडता है,उन पर चर्चा तो जरुरी है। आधुनिकतावादियों के तर्क भी बडे हास्यास्पद है। शेविंग क्रीम  के विज्ञापन में बिकिनीधारी महिलाओं को दिखाए जाने पर उन्हे कोई आपत्ति नहीं होती,लेकिन यदि कोई संत या समाजसेवी महिलाओं को गरिमामय परिधान धारण करने की सलाह दे दे तो न सिर्फ वे बल्कि तमाम मीडीया ऐसे व्यक्ति को जैसे बलात्कारी का सहयोगी बनाने पर आमादा हो जाता है। जरुरत इस बात  की है कि समस्या के समाधान के लिए ईमानदार कोशिश हो। जब तक समस्या को टीआरपी बढाने का नुस्खा माना जाता रहेगा तब तक सही समाधान पर चर्चा संभव नहीं है। रेप की यह राजनीति अब बन्द होना चाहिए।

No comments:

Post a Comment

अयोध्या-3 /रामलला की अद्भुत श्रृंगार आरती

(प्रारम्भ से पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करे )  12 मार्च 2024 मंगलवार (रात्रि 9.45)  साबरमती एक्सप्रेस कोच न. ए-2-43   अयोध्या की यात्रा अब समाप्...