(सन्दर्भ- मन्दसौर में महिलाओं की कथित पिटाई)
-तुषार कोठारी
मध्यप्रदेश के मन्दसौर रेलवे स्टेशन पर हुआ महिलाओं का आपसी विवाद,देश की प्रमुख समस्या का रुप ले चुका है। दो महिलाओं की,महिलाओं द्वारा कथित पिटाई के विडीयो पूरे दिन भर कुछ टीवी चैनलों पर गौरक्षकों की गुण्डागिर्दी के नाम से चलाए जाते रहे। हद तो तब हो गई,जब राज्यसभा में इस मुद्दे को लेकर हंगामा भी कर दिया गया। देश के कई सारे सैक्यूलर पत्रकार,ट्विटर पर भी इस मुद्दे को लेकर भडास निकालते रहे। देश के तमाम सैक्यूलरवादियों को बैठे बिठाए महिलाओं का पिटाई का मुद्दा मिल गया। उन्होने भी बिना तथ्यों पर ध्यान दिए इस पूर्णत: महत्वहीन मामले को राष्ट्रीय मुद्दा बनाने के लिए पूरी ताकत झोंक दी।हांलाकि इस पूरे घटनाक्रम पर हाय तौबा मचाने वालों के लिए पहला दिन थोडा भारी था। इसकी वजह यह थी कि मांस लेजाती महिलाओं की पिटाई करने वाली भी महिलाएं भी थी। जितने भी विडीयो फुटेज सामने आए,उसमें महिलाओं पर पुरुषों द्वारा हाथ चलाए जाने का कोई दृश्य नहीं था। इस टीवी न्यूज चैनल ने अपनी खबर में बडे दु:ख के साथ यह कहा कि महिलाओं को हिन्दूवादी महिलाओं ने जमकर लात घूंसे बरसाए,लेकिन गनीमत रही कि वहां मौजूद पुरुषों ने उन पर कोई बलप्रयोग नहीं किया। लेकिन यह नैतिकता पहले दिन तक ही रही। चूंकि महिलाओं मारपीट महिलाओं के साथ होती है,तो इसमें कोई बडी सनसनी नहीं मिलती है,इसलिए अगले दिन धीरे से महिलाओं की पिटाई करने वालों में महिलाओं के साथ हिन्दूवादी पुरुषों का जिक्र भी शुरु हो गया। देश की राजधानी से प्रकाशित होने वाले अंग्रेजी के राष्ट्रीय अखबारों ने इस खबर को अपने अखबार की फस्र्ट लीड तक बना डाला। इन खबरों में बडी चतुराई से मांस ले जाने वाली महिलाओं की पिटाई करने वालों में महिलाओं के साथ साथ पुरुषों का जिक्र भी जोड दिया गया।
देश का दुर्भाग्य देखिए कि राजनीति चमकाने के चक्कर में तमाम महत्वपूर्ण मुद्दों को ताक पर रख कर तमाम सैक्यूलरवादी ताकतें,पूरी ताकत से दो महिलाओं के मामूली विवाद को राष्ट्रीय मुद्दा बनाने पर तुल गई। किसी ने इस बात पर ध्यान देने की जहमत नहीं उठाई कि वास्तव में हुआ क्या था? राजनीति की मजबूरी देखिए कि दिल्ली में मुद्दे के उछलने के बाद जब मीडीयावालों ने मध्यप्रदेश के गृहमंत्री से इस बारे में सवाल जवाब किए तो वे भी दबाव में नजर आए। उन्होने भी स्वीकार किया कि कानून को हाथ में लेना गलत है। ताबडतोड में मांस ले जाने वाली महिलाओं के साथ मारपीट करने वाली महिलाओं के खिलाफ आपराधिक प्रकरण दर्ज कर लिए गए। इन महिलाओं को फौरन रिहा कर दिया गया।
इस सबके बावजूद देश भर में सैक्यूलर वादियों की चीखपुकार हाय तौबा चालू है। दो महिलाओं का कुछ अन्य महिलाओं के साथ हुआ विवाद देश के तमाम मुद्दो को पछाड कर सबसे आगे चल रहा है। किसी तथाकथित विद्वान सैक्यूलर मीडीयाकर्मी ने तथ्यों की ओर देखने की जरुरत तक नहीं समझी। किसी ने इस तथ्य को रेखांकित नहीं किया कि गौमांस की युक्तियुक्त आशंका के बावजूद महिलाओं पर किसी पुरुष ने बलप्रयोग करने का प्रयास नहीं किया। जहां हर दिन महिलाओं पर पुरुषों द्वारा अत्याचार करने की खबरें छाई रहती है,वहां गौमांस जैसे अतिसंवेदनशील मुद्दे पर भी कथित तौर पर हिन्दूवादी संगठनों के पुरुष कार्यकर्ताओं ने जो संयम दिखाया,उसे कहीं भी सराहना नहीं दी गई।
अब बात करें,तथ्यों की। जावरा की दो महिलाएं,तीस किलो मांस लेकर ट्रेन के डिब्बे में सवार होती है। सामान्य व्यक्ति भी जानता है कि निरामिष,शाकाहारी व्यक्ति के लिए मांस की दुर्गन्ध को सहन करना बेहद कठिन होता है। मांस जैसी अप्रिय वस्तु को किसी व्यक्ति द्वारा विक्रय के लिए खुले आम ले जाना न सिर्फ प्रतिबन्धित है,बल्कि गैरकानूनी भी है। ट्रेन के डिब्बे में मांस लेकर सवार हुई महिलाओं के पास से आ रही दुर्गन्ध से परेशान कोच की अन्य महिलाओं ने जब इस पर आपत्ति ली तो मांस ले जा रही महिलाओं ने इस पर खेद व्यक्त करने की बजाए विवाद शुरु कर दिया। अल्पसंख्यक समुदाय की उक्त दोनो महिलाएं,साडी पहने हुए और बिन्दी लगाए हुए थी,जिससे यह प्रतीत होता था कि वे हिन्दू है। ऐसी स्थिति में आपत्ति लेने वाली महिलाओं का आक्रोश और अधिक था। वे समझ रही थी कि हिन्दू होकर भी ये महिलाएं गौमांस का घृणित व्यापार कर रही है। मांस ले जाने वाली महिलाओं ने खेद जताने की बजाय विवाद करना शुरु कर दिया,जिसकी परिणति हल्की मारपीट में हुई। मन्दसौर रेलवे स्टेशन पर जल्दी ही जीआरपी ने इस महिलाओं को अपने कब्जे में ले लिया।
अब सवाल उठता है कि यात्री ट्रेन के डिब्बे में पशु मांस लेकर चलना क्या उचित है? भारी मात्रा में मांस को सिर्फ देखकर क्या यह पता लग जाता है कि यह मांस किस पशु का है। सामान्यतया ऐसी स्थिति में पहली आशंका गौमांस की ही होती है। महिलाओं के साथ महिलाओं द्वारा जो मारपीट की गई,वह किस श्रेणी की थी। महिलाओं के साथ मारपीट करने वाली महिलाएं भी सामान्य महिलाएं ही थी और खाली हाथ थी। सिर्फ हाथों से एक दो तमाचे जड देना क्या राष्ट्रीय समस्या हो सकता है। पिटाई की शिकार हुई महिलाओं के मेडीकल चैकअप में भी स्पष्ट हुआ है कि उन्हे कोई चोटें नहीं आई। परिणामत: पुलिस ने अज्ञात महिलाओं के विरुध्द भादवि की धारा ३२३ और ३४१ का प्रकरण दर्ज किया है। भारतीय दण्ड संहिता के मुताबिक धारा ३२३,साधारण उपहति के लिए है,जिसमें एक वर्ष का कारावास या एक हजार रु.अर्थदण्ड का प्रावधान है,जबकि धारा ३४१ किसी व्यक्ति को अवैध तरीके से बाधित करने या रास्ता रोकने के सम्बन्ध में है,जिसके लिए एक माह की सजा या पांच सौ रु.अर्थदण्ड का प्रावधान है। देश की अदालतों के आंकडे देखने से स्पष्ट होता है कि इन धाराओं में दर्ज होने वाले प्रकरणों में अन्तत: मामला या तो अर्थदण्ड से समाप्त हो जाता है या इनमें दोनो पक्षों में राजीनामा हो जाता है क्योकि ये अत्यन्त साधारण प्रकृति के अपराध है। इतना ही नहीं,जिन महिलाओं को इस कथित रुप से बडी त्रासदी का शिकार बताया जा रहा है,उनमें से एक के खिलाफ पहले से आपराधिक मामले दर्ज है।
लेकिन टीवी और अखबारों की खबरों के लिहाज से देखें तो ऐसा लगता है मानों हिन्दूवादी कहे जा रहे लोगों ने कोई ऐसा जुर्म कर दिया है,जिसमें उन्हे फांसी दे दी जाना चाहिए। जो खबर स्थानीय अखबारों में कुछ लाईनों से अधिक स्थान नहीं पा सकती,उसे राजनीति ने बडे राष्ट्रीय अखबार की हेडलाईन बना डाला है। अब तो इस पर बडी बडी बहस भी की जाने लगी है। इन अतिविद्वान सैक्यूलर पत्रकारों और नेताओं को कब यह समझ आएगी कि झूठे मुद्दे ज्यादा देर तक अधिक लोगों को प्रभावित नहीं कर सकते। महिलाओं के आपसी विवाद को इतना बडा हौवा बनाने की कोशिशों को सामान्य लोग भी मूर्खता भरे प्रयासों के रुप में देखते है। नन्ही बालिका और उसकी माता के लिए अभद्रता भरी भाषा का इस्तेमाल करने और फिर अपनी गलतियों को सही ठहराने के प्रयासों में बुरी तरह मात खा चुकी बहन जी को लगा कि वे इस बहाने से अपनी दागदार हो रही छबि को सुधार लेंगी,लेकिन दोनो मामले पूरी तरह अलग है। लोकसभा और राज्यसभा में बेवजह की बातों को मुद्दा बनाकर हंगामा करने वालों को देश के मतदाता अच्छी तरह से पहचानने लगे है।
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