(तुषार कोठारी)
देश में जब जब आर्थिक सुधारों की बात चलती है,देश के मध्यमवर्गीय और गरीब लोगों को घबराहट होने लगती है। जब भी बडे अर्थशाी देश की अर्थव्यवस्था के मजबूत होने का दावा करते है,गरीबों को लगता है कि उन पर कहर टूटने वाला है। जब भी देश का वित्तमंत्री या प्रधानमंत्री जीडीपी के उपर चढने और मुद्रास्फीती के गिरने का दावा करता है,गरीबों की पहले से खाली थाली में कोई और चीज कम होने की आशंका पैदा हो जाती है।
दिन भर खेतों में पसीना बहाने वाले,फैक्ट्रियों में जान झोंकने वाले,दिहाडी मजदूरी कर जैसे तैसे रोटी का जुगाड कर पाने वाले और इस तरह के हर आदमी के लिए अर्थशा की उंची उंची बातें हमेशा डर पैदा करने वाली साबित होती रही है। ताजा मामला फिर से लाए जा रहे आर्थिक सुधारों का है। पहले देश के एक बडे अर्थशाी कौशिक बसु के बयान और बाद में वित्तमंत्री द्वारा आर्थिक सुधार करने की घोषणा ने फिर यही साबित किया है।
इस बार के आर्थिक सुधारों में पहली मार डीजल की कीमतों पर पडेगी। सरकार सुधारों के नाम पर डीजल के मूल्य को नियंत्रण से मुक्त करने जा रही है। यानी आर्थिक सुधार होते ही गरीबों को जीवन चलाने के लिए लगने वाली तमाम वस्तुएं और महंगी हो जाएगी। सरकार घोषणा करेगी कि देश की अर्थव्यवस्था और मजबूत हो गई है। गरीब अपनी जेबें टटोलेगा कि उसे क्या मिला? बडी विदेशी कंपनियों को रिटेल मार्केट में लाने की भी तैयारियां हो रही है। यानी देश के बडे बडे शहरों में बडे बडे चमचमाते मॉल्स खुलेंगे।
लेकिन मंझले शहरों,कस्बों और गांव में रहने वाले देश के आदमी का क्या होगा। देश की अर्थव्यवस्था की मजबूती पर देश के बडे उद्योगपति,नेता और नौकरशाह अपनी अपनी राय पेश करेंगे। लेकिन महंगाई का क्या होगा? दिनभर मजदूरी करने के बाद शाम के भोजन के लिए पांच रुपए का तेल और मिर्च मसाले खरीदने वाले आदमी के लिए अर्थव्यवस्था की यह मजबूती भूखे मरने की स्थिति खडी कर देगी।
अर्थशा के बडे बडे तकनीकी शब्दों को समझ पाने में असमर्थ एक सामान्य व्यक्ति समझ ही नहीं पाता कि आखिर अर्थव्यवस्था है क्या बला? जब जब यह मजबूत होती है गरीब आदमी तबाह होता है। जब सरकार कहती है कि देश का जीडीपी बढ गया है और यह देश के लिए बडी अच्छी बात है। गरीब आदमी भी खुश होने की असफल कोशिश करता है। लेकिन आर्थिक तंगी,और महंगाई की मार उसे खुश होने ही नहीं देती। वह समझ नहीं पाता कि अखबारों में छपने वाले लेख और टीवी चैनलों पर होने वाली बहसों में मजबूत अर्थव्यवस्था और साहसिक फैसलों के लिए सरकार की तारीफें तो की जाती है लेकिन उसकी दिक्कतों पर कोई चर्चा क्यों नहीं करता? आर्थिक सुधारों की मार अब रसोई गैस पर भी पडने वाली है। यही हाल रहा तो आने वाले दिनों में केरोसीन भी नियंत्रण मुक्त किया जाएगा। तब क्या होगा। उस समय देश के अर्थशाी और बडे दावे करेंगे। मुद्रास्फीती की दर को नीचे लाने के भी दावे किए जाएंगे।
आखिर अर्थव्यवस्था का लक्ष्य क्या है? देश के उच्चवर्ग और उच्च मध्यम वर्ग से कई गुना संख्या उन लोगों की है जो मध्यम और निम्न मध्यम वर्ग के है। यदि वे दुखी और परेशान है तो अर्थव्यवस्था को मजबूत क्यो कहा जाता है? जरुरी वस्तुओं के दाम बढाने को आर्थिक सुधार क्यों कहा जाता है?
मुद्रास्फीती और जीडीपी के आंकडों से भूख नहीं मिटाई जा सकती। अर्थशा के ज्ञाता कहलाने वाले विद्वान नेता और अधिकारियों को इतनी आसान बात समझ में क्यों नहीं आती। अर्थव्यवस्था की वास्तविक मजबूती को देश के गरीब व्यक्ति के जीवन स्तर से जोडने की बजाय २७ रुपए कमाने वाले को गरीबी रेखा से बाहर करने के उपायों से स्थितियां भयावह होती जाएगी। यदि गरीबों पर पडने वाली मार को आर्थिक सुधार कहा जाता रहा तो देश किसी भी समय अराजकता की स्थिति में पंहुच जाएगा।
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