Sunday, January 22, 2017

दलितों और वंचितों का ही हक छीन रहा है आरक्षण

-तुषार कोठारी

आरक्षण को लेकर मची बवाल पहली बार नहीं है। बिहार चुनाव के पहले भी लालू से लेकर मायावती तक तमाम नेता आरक्षण को खत्म करने की कथित कोशिशों को लेकर रौर्द्र रुप दिखा चुके है। वे अपने बयानों से पूरी तरह ये साबित करना चाहते है कि दलित,शोषित और पिछडे वर्गों के सच्चे रहनुमा सिर्फ वे ही है।
 लेकिन बात इतनी सीधी नहीं है। आरक्षण को बनाए रखने के लिए चीख पुकार मचाने वाले इन नेताओं की हैसियत देखिए। कोई दो बार मुख्यमंत्री रह चुका है। कोई मुख्यमंत्री और केन्द्रीय मंत्री जैसे उच्च पदों को सुशोभित कर चुका है। ये सभी वे लोग है जो समाज के सर्वाधिक शक्तिशाली और रसूखदार तबके में शामिल है।
देश के दूरस्थ ग्रामीण अंचलों में छुआछूत का दंश झेल रहे,दो जून रोटी को तरस रहे दलित,पीडीत और शोषित लोगों को जिन्हे आरक्षण की वास्तविक दरकार है,वे इन नेताओं के बयानों पर फिदा होकर उन्हे फिर से सत्ता के सिंहासन पर आसीन कर देते है।  पिछले सत्तर सालों से दलित,पीडीत और शोषित वर्ग की संख्या में ना तो कमी आ रही है,और ना ही उनकी स्थिति सुधर रही है। वे सत्तर सालों में समाज की मुख्य धारा में शामिल भी नहीं हो पाए है। उन्हे आरक्षण का कोई लाभ नहीं मिला है।
 समाज की वास्तविकता देखिए। बडी इमारतों के निर्माण में या पत्थर की खदानों में कौन काम कर रहा है। क्या इनमें उंची जाति के लोग होते है। इक्का दुक्का मामलों को छोड दीजिए तो अधिकांशत: मजदूर वर्ग नीची जातियों यानी आरक्षित वर्ग से होता है। शहर की सड़कों पर सफाई कौन कर रहा है? क्या इनमें कोई सवर्ण होता है? ये सभी काम आज भी आरक्षित वर्ग के ही जिम्मे है। सत्तर साल से मिल रहे आरक्षण के लाभ के बावजूद स्थितियां जैसी की तैसी ही है। तो इन सत्तर सालों में बंटी आरक्षण की मलाई कौन चाट गया? ये है वो लाख टके का सवाल,जिसका उत्तर सबसे पहले खोजा जाना चाहिए था। लेकिन जब भी कोई इस बारे में सवाल उठाने की कोशिश करता है,दलितों की रहनुमाई करने वाले नेता इतना बवाल खडा कर देते है,कि वास्तविक समस्या परिदृश्य से गायब ही हो जाती है।
तस्वीर का दूसरा रुख देखिए। आरक्षण की ही व्यवस्था के कारण देश के सर्वोच्च पदों तक आरक्षित वर्ग के लोग पंहुच चुके है। राष्ट्रपति,उपराष्ट्रपति,प्रधानमंत्री से लगाकर तमाम महत्वपूर्ण और शक्तिशाली पदों तक उन वर्गों के लोग पंहुच चुके है,जिन्हे समाज में सबसे पीछे की श्रेणी का माना जाता था और किसी वक्त इन वर्गों की छाया से भी सवर्ण दूर रहा करते थे। सांसद,विधायक,निगमों के अध्यक्ष,राज्यों के मुख्यमंत्री,मंत्रीमण्डल के सदस्य,ऐसा कोई पद नहीं बचा है,जिसपर दलित,पिछडे अति पिछडे आदि समुदाय के व्यक्ति नहीं पंहुच सके हो। यही नहीं सरकारी सेवाओं में भी उच्चतम पदों तक आरक्षित वर्ग के लोग पंहुच चुके है। आईएएस,आईपीएस जैसी सर्वोच्च शक्तिशाली सेवाओं से लगाकर सरकारी दफ्तरों के निचले पदों तक बडी संख्या में आरक्षित वर्ग के लोग आज जगह पा चुके है। 
आजादी के बाद के इन सत्तर सालों में आरक्षण को लेकर कई बार बवाल मचे है। लेकिन आज तक एसा कोई अध्ययन नहीं किया गया है कि आरक्षण की व्यवस्था से अब तक कुल कितने व्यक्ति और परिवार सक्षम हो चुके है। पिछले सात दशकों में राजनीति और सरकारी सेवाओं के अलावा शैक्षणिक संस्थाओं में दिए गए आरक्षण के चलते किन जातियों के कितने लोग आर्थिक और सामाजिक तौर पर सक्षम हो चुके है,इसका कोई आंकडा सरकारों के पास नहीं है। जबकि आज भी लाओं करोडों दलित वर्ग के लोग आरक्षण के लाभ से पूरी तरह वंचित है।
वास्तविकता यह है कि आरक्षण की वर्तमान व्यवस्था,सवर्णो का उतना नुकसान नहीं कर रही है,जितना नुकसान वह स्वयं आरक्षित वर्ग का कर रही है। आरक्षण की वर्तमान व्यवस्था में एक ही व्यक्ति बार बार आरक्षण का लाभ लेता है। पहले उसे प्रतियोगी परीक्षाओं में आरक्षण का लाभ मिलता है,उसके बाद नियुक्ति में लाभ मिलता है। इसके बाद पूरे सेवा काल में सदैव पदोन्नति इत्यादि में भी उसे आरक्षण का लाभ मिलता है। हर बार आरक्षण का लाभ पाकर आर्थिक और सामाजिक तौर पर बेहद मजबूत हो चुके ऐसे व्यक्ति के बच्चे महंगे स्कूलों में पढते है। महंगी कोंचिंग लेते है। फिर जब वे प्रतियोगी परीक्षाओं में उतरते है,तो उन्हे वहां भी जातिगत आरक्षण का लाभ मिलता है। इस प्रतियोगी परीक्षा में किसी छोटे स्थान से आया कोई गरीब प्रत्याशी महंगे स्कूल में पढे प्रत्याशी से कैसे जीत पाएगा। आरक्षित वर्ग के प्रत्याशी का मुकाबला आरक्षित वर्ग के ही प्रत्याशी से होता है। एक प्रत्याशी महंगे स्कूल और महंगी कोचिंग से पढकर आया है,जबकि दूसरा साधनहीन है। परिणाम क्या आएगा? यह हर कोई समझ सकता है। प्रतियोगी परीक्षा में वही सफल होगा,जिसके पिता आरक्षण का लाभ लेकर सक्षम हो चुके है। एक गरीब मजदूर का बेटा आरक्षण के लाभ से वंचित रह जाएगा। उसके आरक्षण का लाभ आरक्षित वर्ग का ही एक व्यक्ति छीनकर ले जाएगा।
 आरक्षण की पिछले सत्तर सालों की व्यवस्था ने देश में एक नया वर्ग पैदा कर दिया है। इस वर्ग में अनुसूचित जाति जनजाति के वो लोग है,जो पीढियों से आरक्षण का लाभ लेकर मजबूत और ज्यादा मजबूत होते जा रहे है। सरकारी सेवाओं और राजनीति में आरक्षण से मिलने वाला सारा लाभ यही वर्ग छीनकर ले जा रहा है। जिसे आरक्षण की सर्वाधिक आवश्यकता है,वह बेचारा ताकता ही रह जाता है। इस नए वर्ग की एक और खासियत है। आरक्षण का लाभ लेकर जबर्दस्त तरीके से मजबूत हो चुके इस वर्ग के लोगों में सवर्ण वर्ग के प्रति घृणा का भाव उत्पन्न किया जा रहा है। सरकारी दफ्तरों में बडे पदों पर आसीन इस वर्ग के लोग अपने अधीनस्थ सवर्ण वर्ग के कर्मचारियों पर बेवजह न सिर्फ रौब झाडते है,बल्कि उन्हे येन केन प्रकारेण प्रताडित भी करते है। इतना ही नहीं,इनमें से अधिकांश सक्षम हो जाने के बाद अपने ही समुदाय से कटने भी लगते है। वे जानते है कि उनके अन्य गरीब नाते रिश्तेदार यदि इस व्यवस्था में घुस आए,तो उनके स्वयं के अवसर कम हो जाएंगे। दलितों की प्रताडना को मुद्दा बनाने का काम भी इसी वर्ग के लोग करते है। वे जानते है कि समाज में यह भ्रम फैलाए रखना जरुरी है कि आज भी जाति के आधार पर भेदभाव किया जा रहा है। किसी विभाग के जिलाधिकारी जैसे महत्वपूर्ण और शक्तिशाली पद पर आसीन व्यक्ति पूरी बेशरमी से यह आरोप लगाने को तैयार रहता है कि उसे जाति  के कारण प्रताडित किया जा रहा है। हाल ही में मध्यप्रदेश की एक वरिष्ठ आईएएस अधिकारी ने ऐसा ही आरोप लगाया था।
 ऐसे माहौल में जरुरत इस बात की है कि आरक्षण की खिलाफत का मुद्दा स्वयं आरक्षित वर्ग के लोग उठाएं। जब भी यह मुद्दा अन्य वर्ग के लोग उठाते है,आरक्षित और अनारक्षित वर्ग के बीच घृणा उत्पन्न होने लगती है। जबकि वास्तविकता यह है कि वास्तविक दलित,शोषित और पीडीत वंचित लोगों का हक सवर्ण नहीं छीन रहे,बल्कि उन्ही के समुदाय के लोग छीन रहे है। यह तथ्य आरक्षित वर्ग के लोगों के ध्यान में लाए जाने की जरुरत है। जब भी यह तथ्य इस वर्ग के बहुसंख्यक लोगों के ध्यान में आएगा,आरक्षण का लाभ सिर्फ एक बार दिए जाने की मांग भी इसी वर्ग से उठने लगेगी। इतना ही नहीं, जिस तरह देश में एलपीजी सबसीडी छोडने का अभियान चलाया गया था,उसी तरह आरक्षण का लाभ छुडवाने का भी अभियान आरक्षित वर्ग के लोगों द्वारा ही चलवाया जाना चाहिए।
बिहार चुनाव के पहले चिराग पासवान और जीतनराम माझी इन दो नेताओं ने स्वेच्छा से यह घोषणा की थी,कि वे अब जीवन में आरक्षण का लाभ नहीं लेंगे। हांलाकि उनकी इस उल्लेखनीय पहल को वो महत्व नहीं दिया गया,जिसके वो हकदार थे। लेकिन अब समय आ गया है कि आरक्षित वर्ग के लोग अपने ही वर्ग के सक्षम लोगों को आरक्षण छोडने के लिए तैयार करे। तभी जाकर जिन्हे आरक्षण की वास्तविक आवश्यकता है,उन्हे इसका लाभ मिल सकेगा।

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