- (तुषार कोठारी)
लगता है डर और घबराहट हमारा राष्ट्रीय चरित्र है। जब भी सीमा पर तनाव की स्थिति बनती है,हमारा डर अहिंसा की आड में झलकने लगता है। एक आम आदमी से लेकर सत्ता के शीर्ष पर बैठे व्यक्तियों तक हर किसी की शायद यही समस्या है। कुछेक अपवाद जरुर होंगे लेकिन देश का जो चेहरा नजर आता है,वह यही है। हमारे इसी राष्ट्रीय चरित्र की एक और खासियत है कि हम अपने गुस्से का प्रदर्शन करने में कोई कमी नहीं करते,चीख पुकार मचाने में हमें कोई समस्या नहीं होती,लेकिन जब भी मुद्दों की गहराई में जाकर ठोस कदम उठाने की बात आती है, डर और घबराहट का हमारा राष्ट्रीय चरित्र फिर सामने आ जाता है।
पिछले एक महीने में देश ने दो घटनाएं देखी। एक मासूम युवती का पाशविक बलात्कार और नृशंस हत्या। दो सैनिकों की पैशाचिक तरीके से हत्या,हत्या के बाद सैनिकों का सिर काट दिया जाना। दोनो घटनाओं पर देश की सामान्य प्रतिक्रिया देखिए। युवती के मामले में पूरे देश को गम और गुस्से में बताया गया। यहां तक तो सही था। चूंकि मामला देश का भीतरी मामला था और इसमें अन्तत:सख्त कानून बनाने और सुरक्षा के उपाय,मानसिकता में बदलाव जैसी बातें होना थी। इसलिए जिसे देखो वह पूरे जोर शोर से मामले को उठा रहा था। दूसरा वाकया सीमा का था। सीधे सीधे देश की सुरक्षा और सम्मान से जुडा। इसमें युध्द का खतरा भी सामने था,कि यदि इसमें आप ज्यादा उग्र हुए तो मामला युध्द तक जा सकता है।
सैनिकों के सिर काटे जाने के बाद की खबरें,बयान और टीवी पर दिखाई जा रही गर्मागर्म बहसों को देखिए,आपको लगेगा कि डर और घबराहट का हमारा राष्ट्रीय चरित्र कितना जोर मार रहा है। जहां एक घटना पर देश भर में ना जाने कौन कौन से संगठन और संस्थाएं कैण्डल मार्च और अन्य प्रकार के प्रदर्शन कर रहे थे,सैनिकों का सिर काटे जाने जैसी दुखद,शर्मनाक और अतिगंभीर घटना पर सड़कों पर आने वाले लोगों की तादाद उंगलियों पर गिने जाने के लायक थी। हमे सिर काटने की पैशाचिकता पर गुस्सा तो आता है,लेकिन हमे डर भी लगता है कि कहीं युध्द ना हो जाए। निश्चित रुप से सैनिकों और सेना को डर नहीं लगता,उल्टे हमारी सेनाएं विश्व की सर्वश्रेष्ठ सेनाओं में है। लेकिन इसके ठीक विपरित हम भारतीय,हमारे बुध्दिजीवी,विचारक और नेता बेहद डरपोक है।
संयुक्त राष्ट्र संघ में कुल 192 देश पंजीकृत हैं। विश्व के इन 192 राष्ट्रों में यदि सर्वे किया जाए तो सबसे ज्यादा डरपोक शायद हम भारतवासी ही साबित होंगे। यह बात हमे बेहद बुरी लग सकती है,लेकिन यदि हम तथ्यों को देखें तो लगेगा कि यही सच है।
बात शुरु करें भारत की स्वतंत्रता के समय से। स्वतंत्रता प्राप्ति के फौरन बाद यानी कि 1948 में भारत पर हमला हुआ। यह युध्द हमारी बहादुर सेनाओं ने हमे जीता दिया। इसके बाद 1962 में फिर युध्द हुआ,इस युध्द में हमे चीन से करारी हार का सामना करना पडा। इसके बाद 1965,1971 और हाल में 1999 में हम पर युध्द थोपे गए। इन पांच युध्दों में से एक हमने हारा और बाकी के जीते।
युध्दों में मिली जीत हमारी सेनाओं की बहादुरी की जीत थी। लेकिन हमारे नेतृत्व ने इन युध्दों के दौरान क्या किया। हर युध्द हमारे नेतृत्व की हार साबित हुआ। 1948 का युध्द हमने जीता लेकिन दो तिहाई काश्मीर हम गंवा चुके थे। 1962 के चीन युध्द में हमारी हजारों वर्गमील जमीन पराई हो गई,यहां तक कि हमारा वन्दनीय कैलाश मानसरोवर तक पराया हो गया। 1965 में फिर हमने युध्द जीता लेकिन फिर समझौते की टेबल पर हम हार गए। 1971 के युध्द में विश्व के नक्शे पर हमने एक नया देश खडा कर दिया लेकिन भारत के हाथ क्या आया? पहले एक दुश्मन था,अब दो दुश्मन हो गए। 1999 का कारगिल युध्द भी हम जीते लेकिन हासिल क्या हुआ? हमारे हजारों बहादुरों ने अपनी जान गंवाई और कुल मिलाकर हमने हमारी जमीन पर घुस आए घुसपैठियों को बाहर निकाल दिया। लेकिन हमे हासिल कुछ नहीं हुआ।
दुनिया का कोई भी देश जब कोई युध्द करता है तो किसी न किसी लाभ के लिए करता है। केवल भारत दुनिया का अकेला देश है,जो थोपे गए युध्द का ही जवाब देता है। 1947 से लगाकर आज तक हुए कुल पांच युध्दों में हमने सिर्फ गंवाया ही गंवाया है। जब कश्मीर का दो तिहाई हिस्सा पाकिस्तान ने कब्जा किया तो हमने उस हिस्से को पाक अधिकृत कश्मीर कहना शुरु किया। संसद ने संकल्प पारित किया कि यह हमारा अविभाज्य अंग है। लेकिन पिछले 65 सालों में इस कश्मीर को वापस हासिल करने के लिए भारत ने कभी कुछ नहीं किया। जो कुछ किया और जब भी कुछ किया,पाकिस्तान ने ही किया। हर युध्द और तनाव के बाद भारत की जनता,बुध्दिजीवी और नेता तनाव घटाने और रिश्ते सुधारने की दुहाई देने लगते है। वार्ता की शुरुआत की जाती है। लेकिन आज तक जितनी भी वार्ताएं हुई,उनमें कभी भी उस कश्मीर को वापस लेने की बात ही नहीं की जा सकी। जब भी वार्ता शुरु होती है,तब पाकिस्तान कई नए मुद्दे खडे कर चुका होता है। हम आतंकवाद से निपटे उस पर चर्चा करें कि हमारे कश्मीर को वापस लेने पर चर्चा करे। 65 साल इसी उहापोह में निकल चुके है।
मजेदार बात यह है कि दुनिया के सारे देश जानते है कि भारत के नेता,बुध्दिजीवी और जनता डरपोक है। हमारे दुश्मन तो खासतौर पर इस तथ्य से परिचित है। इसी का नतीजा है कि उन्हे कोई भी कदम उठाने में कभी कोई हिचकिचाहट नहीं होती। वे चाहे कश्मीर दबा लें,आतंकवाद फैलाए,कारगिल में घुसपैठ कर लें या भारतीय सैनिकों के सिर काट कर ले जाए। उनके हर कृत्य में उनका कोई न कोई निहित स्वार्थ होता है। यह निहित स्वार्थ आंतरिक अस्थिरता से निपटना,सैनिक शासन स्थापित करना या आतंकवादियों की घुसपैठ कराना,कुछ भी हो सकता है।
इसके विपरित हम हमारे पंचशील,अहिंसा और शांतिप्रियता के सिध्दान्तों की दुहाई देकर आत्मप्रवंचना करते रहते है। टीवी पर बहस करते हमारे बुध्दिजीवी अपना ज्ञान इसी दिशा में बघारते है कि सैनिकों के सिर काटे जाने के बावजूद भी सीमा पर तनाव को कम कैसे किया जाए? चौराहों पर होने वाली चर्चाओं में हमारे विद्वान नागरिक इस डर से जूझते दिखाई देते है कि यदि युध्द हुआ और अगर चीन ने पाकिस्तान की मदद की तो क्या होगा? युध्द के बयानों के दौरान अगर पाकिस्तान के किसी फौजी अफसर ने सारे विकल्पों (परमाणु अ) का उपयोग करने की बात कह दी तो हमारे नेताओं में घबराहट होने लगती है।
भारत में इस बात की कल्पना भी नहीं की जा सकती कि कभी भारत अपने हितों को साधने के लिए आक्रामक पहल कर सकता है। इस तरह की कल्पना करना भी इस देश में अपराध माना जा सकता है। पाकिस्तान में सैकडों आतंकी प्रशिक्षण शिविर चल रहे हैं,यहां निर्दोंषों को बम से उडाने वाले वहां सम्मानित नेता हैं। वे जब चाहे युध्द विराम का उल्लंघन कर सकते है और जब चाहे हमारे सैनिकों के सिर काट कर ले जा सकते है। क्योकि वे जानते है कि हम भारत है। हम भारतीय डरपोक है। टीवी के बहस मुबाहसों से सरकार की नीतियां नहीं बनती,इसके बावजूद हमारा एक भी वक्ता यह नहीं कह सकता कि सीमा पार के आतंकी शिविर नष्ट किए जाएं या हमारा कश्मीर वापस लेने का प्रयास किए जाए। हमारे सैनिकों के सिर काटने के बावजूद हम भारतीय ही है जो सीमा पर तनाव घटाने की चिन्ता करते है और वे जानते है कि हम यही करेंगे।
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