- तुषार कोठारी
पेशावर की गलियों से पाकिस्तान के हर शहर तक और भारत समेत दुनिया के
तमाम मुल्कों में फैली गम और गुस्से की लहर के बाद कई ऐसे सवाल खडे हो रहे
हैं,जिन्हे अब तक जानबूझ कर पीछे धकेला जाता रहा है। लेकिन मानवता की
सुरक्षा के लिए इन सवालों के जवाब पूरी ईमानदारी से खोजना बेहद जरुरी है।
पूरी दुनिया ने इस जघन्य,क्रूरतम और पैशाचिक हत्याकाण्ड की निन्दा की है।
लेकिन इस निन्दा के साथ यह भी जरुरी है कि पूरी दुनिया तेजी से इस जघन्यता
और पैशाचिकता की जडों को ढूंढे और इन्हे जल्दी से जल्दी नष्ट करें। ताकि
मानवता सुरक्षित रह सके।पेशावर की घटना की जघन्यता और क्रूरता को व्यक्त करने के लिए शब्द अपर्याप्त हो रहे है। दुनिया की किसी भाषा में क्रूरता के इस स्तर को प्रदर्शित कर सके ऐसा शब्द नहीं मिल पा रहा है। हिन्दी भाषा में पैशाचिकता जैसा शब्द या उर्दू का हैवानियत जैसा लफ्ज भी इस घटनाक्रम के आगे बौना साबित हो रहा है। विचारणीय प्रश्न यह है कि पैशाचिकता का यह स्तर करने वाले व्यक्तियों में नीचता की यह पराकाष्ठा आई कैसे? यह क्रूरता,पैशाचिकता और हैवानियत आखिर प्रेरणा कहां से लेती है? जिसने पूरी बेशर्मी से इस काण्ड की जिम्मेदारी ली,उनका लक्ष्य क्या है? ये संगठन चाहते है कि पूरी दुनिया शरीयत के हिसाब से चले। वे कहते है कि जो शरीयत को नहीं मानेगा और इस्लाम कबूल नहीं करेगा उसे ठौर मार दिया जाएगा। अल कायदा और आईएसआईस जैसे विदेशी आतंकवादी संगठनों की भारत से दुश्मनी क्या है? उनकी दुश्मनी सिर्फ यही तो है कि भारत में बहुसंख्यक लोग बुतपरस्ती करते है। इन आतंकवादियों का धर्म कहता है कि बुतपरस्तों को खत्म करना ही उनका धर्म है।
दुनिया में कहीं भी चाहे मुंबई में हो, सिडनी में हो या पेशावर में,जब भी ऐसी घटना होती है। सभ्य समाज के लोग यह कहते है कि आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता। लेकिन क्या यह सच है? वे कहते है कि कोई भी धर्म निरपराधों को मारने की शिक्षा नहीं देता। यदि ये तथ्य सही है तो इन नृशंस आतंकवादियों को यह शिक्षा मिल कहां से रही है? वे भी तो उन्ही धर्मग्रन्थों से प्रेरणा ले रहे है,जिन्हे सभ्य समाज प्रेम और अमन का सन्देश फैलाने वाला ग्रन्थ कहता है।
इन सवालों से मुंह छुपाने से ही यह समस्या बढती जा रही है। दुनिया में आतंकवाद का सबसे बडा हिस्सा इस्लामी आतंकवाद है। दुनिया के तमाम देश इस्लामी आतंकवाद से पीडीत है। भारत जैसे गैर इस्लामिक देश तो सिर्फ इसीलिए उनके निशाने पर है,क्योकि वे गैर इस्लामिक है। लेकिन कई सारे इस्लामिक मुल्क भी उनके निशाने पर है। इराक और सीरीया के बाद पाकिस्तान इसका ताजा उदाहरण है।
यह तो संभव ही नहीं कि किसी एक ही ोत से प्रेम की भी प्रेरणा मिले और घृणा की भी। सौलह सौ साल पहले की दुनिया में,जब कि अरब देशों में सभ्यता विकसित नहीं हुई थी और कबाईली परम्पराओं को बोलबाला था। उस समय तो यह धारणा चल गई होगी कि या तो हमारा धर्म स्वीकार कर लो या मर जाओ। इस्लाम की आंधी इसी बात को लेकर चली और आधी दुनिया को अपनी चपेट में लेती हुई भारत तक आ पंहुची। भारत में भी मध्यकाल में क्रूरता और पैशाचिकता के ऐसे ही उदाहरण सामने आए। धर्म स्वीकार न करने वालों को कहीं आरों से चीर दिया गया तो कहीं आंखे निकाल ली गई। कहीं बच्चों को जिन्दा दीवार में चुनवा दिया गया,तो कहीं जिन्दा आग में भून दिया गया। यह समय अंग्रेजों के आने तक चलता रहा। लेकिन आज के आधुनिक विश्व में यह धारणा कैसे चल सकती है। अफगानिस्तान के तालिबानियों ने एक समय बामियान की विशाल बुध्द प्रतिमा को सिर्फ इसलिए नष्ट कर दिया था,कि उनकी पवित्र पुस्तक से उन्हे ऐसा निर्देश मिलता है। आज उसी पवित्र पुस्तक के हवाले से उन्ही निर्दोष बच्चों को हलाक कर दिया गया,जो खुद भी उसी पवित्र पुस्तक को दोहराते थे।
समय के साथ चीजे बदलती है। आसमानी किताबों में भी लोगों ने अपनी गलत बातें मिला दी होंगी। समय के साथ कई बातें बदल गई है। एक पवित्र धार्मिक पुस्तक बाइबिल कहती है कि पृथ्वी स्थिर है और सूर्य उसके चक्कर लगाता है। एक वैज्ञानिक गैलेलियो गैलीली ने इसे गलत साबित करते हुए यह तथ्य प्रतिपादित किया था कि सूर्य स्थिर है और पृथ्वी सूर्य के चक्कर लगा रही है। बाइबिल को गलत ठहराने वाली इस खोज के लिए गैलीली को सजा दी गई थी। गैलीली की मृत्यु के साढे तीन सौ वर्ष के बाद पिछले पोप,पोप जान पाल द्वितीय ने चर्च के इस कृत्य के लिए सार्वजनिक तौर पर क्षमायाचना की थी। उस धार्मिक पुस्तक को मानने वालों को भी आज स्वीकार करना पड रहा है कि पुस्तक में यह तथ्य गलत है। इसी तरह धार्मिक किताबों की उन शिक्षाओं को बदलने की जरुरत है,जो मानवता को चुनौती देने लगी है या नफरत सिखाती है। इसके लिए खुले दिमाग वाले लोगों को पहल करना होगी। जो बातें विज्ञान सम्मत नहीं है या सहअस्तित्व की धारणा का विरोध करती है,उन्हे सिरे से खारिज करना होगा।
लेकिन यह पहल तो उन्ही को करना होगी,जो सर्वाधिक पीडित है। पाकिस्तान के सौ से ज्यादा मासूम बच्चे कत्ल कर दिए जाने के बाद भी क्या वे इन प्रश्नों के उत्तर ढूंढने के लिए राजी होंगे? कल तक पाकिस्तान भारत का सिर्फ इसीलिए शत्रु रहा है,क्योकि भारत में बुतपरस्त लोग रहते है और पाकिस्तान इस्लामी राष्ट्र है। पाकिस्तान तो बना भी इसीलिए था कि मुस्लिम एक अलग राष्ट्र है। तो आज अब पाकिस्तान के नीति निर्धारक क्या करेंगे? निर्दोष बच्चों को जिन धार्मिक मान्यताओं के कारण मारा गया है,उन्हे अस्वीकृत करेंगे या अब भी शरीया कानून की ही वकालत चलेगी। शरीया कानून होगा तो सचमुच मलाला युसुफजई को स्कूल भेजना गैर इस्लामिक होगा।
पाकिस्तान ही नहीं दुनिया भर के इस्लाम मानने वालों में से जो भी बुध्दिजीवी है,उन्हे इस पर विचार करना होगा। दुनिया भारतीय सिध्दान्त एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति से ही चल सकती है। इसका अर्थ है कि सत्य एक है,लेकिन लोग इसे अलग अलग ढंग से परिभाषित करते है। धार्मिक विश्वास से असहमति रखने का अर्थ यह नहीं है कि असहमति रखने वाले की हत्या कर दी जाए। समय की मांग है कि धार्मिक विश्वासों को पुन: परिभाषित किया जाए। हांलाकि यह संभव नहीं दिखता। मासूम बच्चों की मौत का मातम कुछ दिनों बाद खत्म हो जाएगा। मातम खत्म होने के बाद भी पाकिस्तान की भारत से दुश्मनी इसीलिए चलती रहेगी,क्योकि पाकिस्तान इस्लामी मुल्क है और भारत गैर इस्लामी। शांति ,प्रेम और सहअस्तित्व जैसे सिध्दान्तों को फिर नकारा जाएगा। कश्मीर का आतंकवाद पोषित पालित होता रहेगा। क्योकि यदि ऐसा नहीं हुआ तो फिर पाकिस्तान का औचित्य क्या रह जाएगा?
भारत के विभाजन पर स्वीकृती देते समय नेहरु पटेल और गांधी जी जैसे नेताओं की मान्यता थी कि पाकिस्तान अधिक समय तक चल नहीं पाएगा और एक दिन उसे फिर से भारत के पास ही आना होगा। फिलहाल भले ही ऐसा ना हो पाए,लेकिन पाकिस्तान के टूटने के दिन नजदीक आ रहे है। ऐसी घटनाएं आखिरकार उसे तोड देगी और तब शायद यह जिम्मेदारी भारत को ही निभाना पडेगी कि उन्हे अपने साथ लेकर चलना होगा।
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