(अमरनाथ यात्रा 14 जुलाई 2001 से 4 अगस्त 2001)
लद्दाख यात्रा के दस महीनों बाद इस बार हम जम्मू काश्मीर के रास्ते पर चले। अमरनाथ यात्रा के बहाने जम्मू काश्मीर का बचा हुआ हिस्सा देखने के लिए इस बार भी वही टीम निकली,लेकिन इसमें एक सदस्य कम हो गया। अमरनाथ यात्रा में मै,राजेश घोटीकर,कमलेश पाण्डेय और विनय कोटिया शामिल हुए। इस बार भी गाडी की समस्या आशुतोष ने ही हल की। उसने अपने किसी परिचित की गैस से चलने वाली मारुति वैन किराये पर दिलाने का इंतजाम किया। पिछली बार की तुलना में यह गाडी बेहद आरामदायक थी क्योकि यह पैट्रोल और गैस दोनो से चलती थी। इसके अलावा इस बार हम लोग अनुभवी ड्राइवर और यात्री बन चुके थे। हमारी यह यात्रा 14 जुलाई को रतलाम से शुरु हुई।
15 जुलाई 2001 निम्बाहेडा(राजस्थान)
कल निर्धारित समय से करीब दो घण्टे की देरी से रतलाम को छोडा और इस बार बिदाई देने के लिए सुनील और राजेश साथ में थे। मन्दसौर में आशुतोष नवाल और हिम्मत जी डांगी काफी देर से इंतजार कर रहे थे। दोपहर का भोजन मन्दसौर में 4 बजे हुआ और वहां से निकलते निकलते 6 बज गए। इच्छा थी कि पहले दिन मध्यप्रदेश छोड दें। राजस्थान का पहला पडाव निम्बाहेडा डाक बंगले में हुआ और अब यहां से झुंझुनू के लिए रवाना होने की तैयारी।
16 जुलाई 2001 सोमवार( दोपहर 12.30)
कल निम्बाहेडा रेस्ट हाउस से निकल कर सबसे पहले पेटपूजा की और गाडी के सेल्फ का काम कराने के लिए खडे हो गए। इस काम में दो घण्टे तो लगे ही,साढे बारह सो रुपए भी खर्च हो गए। इसी झटके से उबरने में सारा दिन लग गया। निम्बाहेडा से चित्तौडगढ होते हुए हम आगे बढे। अजमेर और नसीराबाद को बायपास करते हुए सीधे परबतसर पंहुचे और वहां से कुचामन होते हुए सुबह सीकर पंहुचे। कुचामन में रेस्ट हाउस नहीं था,वहां ढाबे में रात काटी और विनय ने सुबह पौने छ: बजे उठकर गाडी स्टार्ट कर दी। हम सुबह करीब साढे आठ बजे सीकर पंहुच गए और सीकर में नहाते धोते ग्यारह बज गई। सीकर में गैस की टंकी तलाश की,तो पता चला कि नवलगढ में इण्डेन की एजेंसी है। सीकर से 26 किमी नवलगढ पंहुचे और यहां बडी आसानी से टंकियां मिल गई। नवलगढ से निकलकर एक ढाबे में इस वक्त ढाबे का इंतजार चल रहा है और उम्मीद है कि आज हरियाणा आधा पार कर लेंगे।
17 जुलाई 2001 रोहतक (सुबह 8.50)
उम्मीद के मुताबिक हम आधा हरियाणा पार कर रोहतक के रेडक्रास के रेस्टहाउस में रुके है। यहां शाम करीब आठ बजे पंहुचे और रेस्टहाउस ढूंढते ढूंढते रेडक्रास रेस्ट हाउस पर आ गए।
कल नवलगढ से नाश्ता करने के बाद हम तेजी से चले। राजस्थान की सीमा नवलगढ के बाड चिडावा पर लगती है। चिडावा से पीलानी होकर हरियाणा के पहले जिले भीवानी में पंहुचे और भिवानी से पौने दो सौ किमी दूर बसे रोहतक पंहुच गए।
हरियाणा के लोग और भाषा दोनो बडे अख्खड है। तू तडाक की भाषा यहां आमतौर पर चलती है।
18 जुलाई 2001 बुधवार
किशनगढ क्रासिंग (दोपहर एक बजे)
रोहतक के रेडक्रास रेस्ट हाउस से निकले तो इंजन आईल डालने की चिन्ता लेकर निकले। रोहतक से लुधियाना के रास्ते पर निकले और नजदीक ही एक पैट्रोलपंप से इंजन आईल खरीद कर इंजन को पिला दिया। लुधियाना के रास्ते पर पातरा नामक गांव में मारुति के शोरुम पर पहुचने के पहले ही इंजन में डाला हुआ इंजन आईल फिर से खत्म हो गया। यह बात थोडी चिन्ताजनक थी। सामने मारुति शोरुम दिखाई देते ही इस चिन्ता को दूर करने की ठानी और शो रुम में घुस गए। छोटे गांव का छोटा शो रुम। वहां का स्टाफ यूं तो काफी सहयोगी था,लेकिन जब गाडी को ऊंचा किया तो मालूम चला कि इंजन की एक आईल सील कट गई थी और वहां से आइल टपक रहा था। आइलसील को बदलने के लिए जब वो हिस्सा खोला तो मालूम हुआ कि इंजन की क्रेंक शाफ्ट में गडबडी है और उसी की वजह से आइल सील कटी है। वहां के मैकेनिक ने बताया कि क्रेंकशाफ्ट निकालने के लिए पूरा इंजन उतारना पडेगा। यह बात डरावनी थी। मैकेनिक का यह भी कहना था कि वह आइलसील को उल्टा करके लगाएगा और यह मामला शायद लम्बे समय तक चल जाएगा। शोरुम पर गाडी की पुरानी समस्या बबलिंग चुटकियों में हल हो गई। पहियों का बैलेंस ठीक नहीं था,जिसकी वजह से गाडी बार बार बबलिंग करती थी।
यहां से निकले तो इस उम्मीद में थे कि अब दिक्कत नहीं आएगी,लेकिन दिक्कतों का सिलसिला अभी थमा नहीं था। लुधियाना और जालंधर तक का रास्ता यूं तो बेहद आसान था। एनएच 1 पर गाडी चलाना मजेदार काम है। रास्ते का मजा लेते हुए बडी आसानी से हम रात साढे नौ पर जालंधर टच कर गए। गाडी अब बैलेंस होकर चल रही थी,लेकिन जालंधर आते ही आइल इण्डिकेटर फिर से जलने लगा और यह बताने लगा कि आइल दोबारा खत्म हो गया है। अब मामला पूरी तरह डरावना और गंभीर हो गया था। यह समस्या यात्रा के अंदाज को भी बदल सकती थी। जालंधर से 10 किमी गाडी को जैसे तैसे खींच कर एक ढाबे पर रोका और समस्या पर चर्चा की। यदि इंजन खुलवाया तो कई सारे काम निकल सकते है और नई क्रेंक शाफ्ट खरीदना हजारों का काम हो सकता है। इसकी जानकारी वाहन मालिक को देना जरुरी है। नतीजतन नवाल को मोबाइल करके सारी समस्या बताई और यह तय हुआ कि सुबह खरचे का अंदाजा लगाकर उसे बताया जाए।
रात को डेढ बजे हल्की भूख लगी। कुछ खाना खाकर उसी ढाबे पर जैसे तैसे रात गुजारी और सुबह साढे सात बजे वहां से 4 किमी चलकर यहां किशनगढ क्रासिंग पर एक मैकेनिक से चर्चा की। बिन्दर नामक इस मैकेनिक के बारे में हमें ढाबे पर एक स्थानीय व्यक्ति ने बताया था। उसने कहा था कि वह एक अच्छा मैकेनिक है। बिन्दर को हमने समस्या बताई। उसने आइल सील खोलने के बाद बताया कि नई क्रेंक शाफ्ट की जरुरत नहीं है।यही क्रेन्क शाफ्ट रिपेयर हो सकती है और खर्चा भी काफी कम होगा। यह बात सुनने के बाद हम लोग कुछ निश्चिन्त हुए और उसे इंजन उतारने का निर्देश देकर फिर से नवाल को इस बात की खबर दी।
इस वक्त डेढ बजे विनय बिन्दर के साथ जालन्धर से लौट चुका है और शाफ्ट रिपेयर हो चुकी है। अब फिर से इंजन जोडा जाना है,जिसमें 2 से तीन घण्टे लग सकते है। यहां से हम लोग 95 किमी पठानकोट को पार कर बीच में कहीं रुकेंगे और कल जम्मू।
19 जुलाई 2001 माधोपुर सुबह 9.15
कल गाडी सुधारते सुधारते शाम हो गई और ये तय किया कि पठानकोट से आगे निकलकर जम्मू से नजदीक कहीं रुकेंगे। पठानकोट हम काफी देर से पार कर पाए। पठानकोट से करीब 20 किमी आगे माधोपुर नामक इस गांव में पीएसईबी,इरिगेशन और सीपीडब्ल्यूडी के रेस्ट हाउस बने हुए है। पहले हम इरिगेेशन के के रेस्ट हाउस पर गए जहां नशे में धुत्त प्रेम नामक चौकीदार मिला और उसने काफी विवाद किया। फिर हम सीपीडब्ल्यूडी के रेस्ट हाउस पर आए। वहां के चौकीदार उत्तमचन्द ने सीपीडब्ल्यूडी के इ इ राजेश बांगा से उजाजत लेने की बात कही और मैने जाकर उसे समझाया। वह हमें दो रुम देने पर राजी हो गया और हम यहां ठहर गए। रात अच्छी कटी और अब यहां से 80 किमी दूर जम्मू पंहुचकर आगे की व्यवस्थाएं जुटाना है।
20 जुलाई 2001 जम्मू (सुबह 9.00 बजे)
माधोपुर से निकलने के बाद जम्मू पंहुचने में ज्यादा समय नहीं लगा। पहाडी रास्तों की पहली शुरुआत हो चुकी है। हांलाकि अभी ज्यादा घुमावदार रास्ते शुरु नहीं हुए हैं लेकिन उनकी झलक मिलने लगी है।
जम्मू शहर में पंहुचने के बाद टूरिज्म विभाग के कुछ लोग मिल गए। जब उन्हे पता चला कि हम प्रेस वाले हैं तो उन्होने कहा कि हमे रजिस्ट्रेशन में कोई दिक्कत नहीं आएगी। मैने यूएनआई को फोन किया और यहां के ब्यूरोचीफ मेहबूब खान से मुलाकात की। खान ने हमे बताया कि अमरनाथ जाने के लिए रजिस्ट्रेशन आसानी से हो जाएगा लेकिन ठहरने के सरकारी इंतजाम कठिन होंगे। यहां जम्मू में जबर्दस्त उमस भरी गरमी है,जिसने जान निकाल दी है।
यूएनआई के खान ने वहां के एक कर्मचारी सुभाष शर्मा को हमारे साथ भेजा और सुभाष ने हमारे होटल का प्रबन्ध करवा दिया। सौ रुपए किराये पर हमे अच्छे कमरे मिल गए। जबर्दस्त गरमी के चलते बाकी का दिन महने कमरे में गुजारा और शाम को सुभाष के साथ बाग-ए-बाहू और महाकाली मन्दिर के दर्शन करने गए।
कहानियों के मुताबिक 1350 में यहां बाहूलोचन नामक राजा हुआ करता था। उसकी मृत्यु के बाद उसका भाई जाम्बूलोचन राजा बना। जाम्बूलोचन के नाम पर ही जम्मू नाम पडा। इसी किले में महाकाली मन्दिर है। बाग ए बाहू किले के नीचे बनाया गया उद्यान है।
आज का दिन हमें फुर्सत में गुजारना है। आशुतोष नवाल का आना अभी भी तय नहीं है। जबकि हमारा रजिस्ट्रेशन आज होगा। विनय को गर्म कपडे खरीदना है। ये काम हम आज निपटाएंगे और शायद कल श्रीनगर के लिए रवाना जाएंगे।
21 जुलाई 2001 (रविवार) पटनीटाप (रात 8.25)
कल का सारा दिन जम्मू की जबर्दस्त गर्मी में,अमरनाथ यात्रा के रजिस्ट्रेशन की कोशिशों में गुजारा। यूएनआई के मेहबूब खान ने यूं तो डायरेक्टर टूरिज्म एसएस भल्ला से बात कर ली थी और रजिस्ट्रेशन में कोई दिक्कत नहीं थी। दोपहर को मैं यूएनआई कर्मी सुभाष शर्मा को साथ लेकर टूरिज्म आफिस पंहुचा। वहां जाते ही भल्ला ने फार्म मांगे। अभी तक मुझे या किसी और को यह नहीं मालूम था कि रजिस्ट्रेशन के लिए फार्म भरना पडेंगे। भल्ला ने हमसे कहा कि हम फार्म भरके मेडीकल सार्टिफिकेट के साथ ले जाए। आफिस से निकलते ही हम फौरन फार्म की जुगाड में लग गए। एक फोटोकापी वाले से फार्म हासिल किए। फिर फोटो चिपकाने के लिए वापस होटल जाना था। सुभाष को यूएनआई आफिस छोडकर हम होटल पंहुचे और बडी तेजी से फार्म वगैरह तैयार किए। कमलेश के पास फोटो नहंी थे। उसने फौरन सामने के एक स्टुडियो पर पौलेराइड कैमरे से फोटो खिंचवाए और फार्म भर कर हम लोग डाक्टर की तलाश में निकल पडे। भयानक गर्मी,उमस और पसीने से चिपचिपाते हुए हमने करीब दो ढाई घण्टे गुजारे लेकिन कोई डाक्टर नहीं मिला। पस्तहाल होकर थकहारने के बाद किसी ने बताया कि मेडीकल सर्टिफिकेट गीता भवन पर बन जाएगा। वहां पंहुचने पर मालूम हुआ कि गीता भवन पर विश्व हिन्दू परिषद का लंगर चाल रहा था और विहिप ने वहां स्थाई डाक्टर की व्यवस्था रखी थी। बडी आसानी से मेडीकल का काम हो गया। वहां से फिर टूरिज्म आफिस पंहुचे,लेकिन तब तक भल्ला घर जा चुका था। यात्रा के आरसी का काम अब २१ जुलाई तक के लिए टल गया था। जम्मू के मोतीबाजार स्थित अनिल लाज में फिर से घुसे। शाम को खाने पर सुभाष शर्मा और यूएनआई का ठाकुर नामक व्यक्ति वहां आ गए।
टूरिज्म आफिस में पता चला था कि भल्ला अब 21 जुलाई को सुबह दस बजे मिलेगा। शाम को सुभाष ने भी भल्ला से फोन पर बात कर ली थी। भल्ला ने उसे भी दस बजे भेजने को कहा था। 21 जुलाई को भाजपा ने तवी पुल का नामकरण शेरे कश्मीर करने के विरोध में जम्मू बन्द का आव्हान किया था। हमे चिन्ता थी कि यहां कोई धमाल न हो जाए वरना हमारा भल्ला से मिलना कठिन हो जाता। ठीक पौने दस बजे मैं और विनय टूरिज्म के दफ्तर पंहुच गए। वहां साढे दस तक भल्ला का इंतजार किया,लेकिन भल्ला के न आने की दशा में हमने उसे फोन लगाने की ठानी और उसके घर फोन लगा दिया। भल्ला ने कहा कि उसके पास गाडी नहीं है और वह आज आफिस नहीं आ पाएगा। फिर उसने हमें घर बुला लिया। उसका सरकारी बंगला तवी नदी के दूसरी तरफ गांधीनगर में था। बडी मुश्किल से उसका घर ढूंढा और उसने बिना घर के भीतर बुलाए हमे आरसी टिका दिए।
आरसी लेकर खुशी खुशी हम होटल लौटे और फौरन जम्मू से बाहर निकल कर पहाडी रास्तों का मजा लेते 120 किमी पार कर शाम को करीब साढे छ: बजे पटनीटाप पंहुच गए।
22 जुलाई 2001 पटनीटाप (सुबह 8.20)
पटनीटाप को टूरिस्ट प्लेस के रुप में विकसित किया गया है। भयानक गर्मी को छोडकर अब हम ठण्डी जगह पर हैं,जहां गर्म कपडों की जरुरत महसूस होने लगी है। शाम को जेकेटीडीसी वालों के होटल,हट्स आदि के किराये जानने के बाद हमने सोचा कि हम फारेस्ट की जानकारी ले। वहां वन विभाग की चौकी पर पंहुचे तो पता चला कि डीएफओ परवेज मलिक है,जो कुछ देर में वहां पंहुचने वाले थे। मलिक से मुलाकात अच्छी रही। ठण्डक भरे माहौल में चाय पकौडे और चर्चाएं की,लेकिन यहां उनका कोई रेस्ट हाउस नहीं था। आखिरकार एक होटल वाले से भावताव कर,150 रुपए में एक कमरा लिया और यहां ठहर गए। यह एक मकान है,जिसे होटल बना दिया गया है। कमरे के ठीक सामने प्रकृति का सुन्दरतम नजारा है। गहरी घाटी,ऊं चे पहाड,पहाड पर ठहरे बादल और देखते ही देखते पहाडों पर ठहरे हुए बादलों ने पूरे पहाड को अपने से ढंक दिया। अब सामने सिर्फ सफेदी की चादर है। कल शाम को जब पटनीटाप पंहुचे थ,यहां यही हालत थी। किसी उडते हुए बादल ने यहीं डेरा डाल दिया था और सड़क पर गाडी चलाना कठिन हो गया था। धुंध और धुए में कुछ भी नजर नहीं आता था।
जनता गेस्ट हाउस
पटनीटाप पोस्ट कुदताड चीनानी
जिला- उधमपुर
(01992) 87522,87533
22 जुलाई 2001 पहलगाम (रात 8.50)
पटनीटाप के जनता गेस्ट हाउस में रात गुजार कर सुबह करीब साढे नौ बजे हम लोग वहां से श्रीनगर के लिए रवाना हो गए। श्रीनगर यहां से 290 किमी है। पूरा रास्ता पहाडी,पहले आधी दूरी तक चढाई और बाद में लगातार उतार। बीच मे जवाहर टनल है,जो 2600 मीटर लम्बी है। यहां हलकी सुरक्षा जांच के बाद हमे आगे रवाना किया गया। पूरे राजमार्ग पर सुरक्षाकर्मी तैनात है और यात्रियों के अभिवादन का उत्साह से जवाब देते हंै। जवाहर टनल के ठीक बाद में घाटी शुरु हो जाती है और यह लगभग मैदानी इलाका है। हमसे कहा गया था कि रास्ते में जगह जगह जांच होगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ। जवाहर के ठीक दूसरी ओर से घाटी के विभिन्न गांव शुरु हो जाते है। रास्ते में बढते हुए पता चला कि पहलगाम जाने के लिए श्रीनगर जाने की जरुरत नहीं है। हम लोग सीधे पहलगाम के लिए निकल पडे और शाम करीब सवा छ: बजे पहलगाम में हमारी जांच की गई। जांच के दौरान हमारे बैग से एक चाकू और एक खिलौने वाली पिस्टल,जो राजेश लाया था,निकली। इस बात पर मेरी स्थानीय जे एण्ड के पुलिस के इन्स्पेक्टरों से काफी बहस हुई। उन्होने मुझे धमकी दी कि वे केस बना देंगे,मैने उनसे काफी बहस की और आखिरकार वह चाकू तोडने के बाद वह विवाद समाप्त हुआ और हमने पहलगाम में प्रवेश किया। यहां हम लोग एक होटल में ठहरे है और दो सौ रुपए का कमरा लेकर अमरनाथ के लिए निकलने की योजना बना रहे हैं।
24 जुलाई 2001 पंचतरनी (शाम 5 बजे)
पहलगाम से अमरनाथ यात्रा पर निकलने की तैयारी हम 22 जुलाई की आधी रात तक करते रहे थे। यात्रा के लिए जरुरी सामान के चार यथासंभव छोटे बैग बनाए,जो बाद में भारी साबित हुए।बाकी का सामान और गाडी गेस्ट हाउश में रखने की तैयारी करके अगली सुबह जल्दी उठने का निश्चय करके सोए।
23 जुलाई- सुबह सभी लोग जल्दी उठ गए और ठीक सात बजे नहा धोकर यात्रा के लिए तैयार हो गए। गेस्ट हाउस से निकलते ही चन्दनवाडी की गाडियां मिल जाती है। एक सिटी बस में हम चन्दनबाडी के लिए सवार हुए। इस समय हल्की फुहारे शुरु हो चुकी थी। बस पहलगाम से करीब दो किमी आगे निकली और जेके पुलिस के सिक्योरिटी चैक पर रुकी। सभी यात्रियों की एक बार फिर तलाशी ली गई, लेकिन इस समय बारिश तेज हो गई थी और आगे से यात्रा रोक देने का संदेश आ गया। मजबूरन बस ड्राइवर ने बस पलटाई। हमारे पीछे वाहनों की लम्बी कतार थी। मौसम भी पल पल बदल रहा था। बस ड्राइवर बस को पलटाकर वापस तो लाया लेकिन दूसरे ड्राइवरों ने उसे सलाह दी कि वह लाईन में लग जाए,यात्रा फिर से शुरु हो सकती है। बस ड्राइवर ने अपनी बस फिर से काफिले में खडी करदी। धीरे धीरे आसमान साफ हुआ और करीब ग्यारह बजे बारिश पूरी तरह बन्द हो गई। हमारी बस भी चंदनबाडी के लिए रवाना हो गई। चंदनबाडी तक का १६ किमी का रास्ता,बस ने करीब 45 मिनट में पार किया और हम पौने बारह बजे चंदनबाडी पंहुच गए। चंदनबाडी पर चल रहे एक लंगर में छोले भटूरे का हल्का नाश्ता कर हमने यात्रा आरंभ की।
यहां से सीधे पिस्सू टाप की चढाई होती है। पिस्सू टाप समुद्र सतह से 3377 मीटर की उंचाई पर है,जबकि चंदनबाडी का एल्टीट्यूड 2895 मीटर है। इस तरह हमें मात्र 452 मीटर की उंचाई तय करना थी,लेकिन यह खडी चढाई है और रास्ता 3 किमी लम्बा।
पिस्सू टाप की चढाई शुरु करने के कुछ ही देर बाद हम लोगों की समझ में आ गया कि हम ज्यादा सामान लेकर चल रहे है। जो बैग अभी एक घण्टे पहल तक हल्का महसूस हो रहा था,वही अब भारी और परेशानीदायक बन गया था।
इस खडी चढाई से राजू घबराया और उसने टट्टू पर बैठने का फैसला किया। मैने अपना बैग भी उसे थमा दिया। पिस्सू टाप की खडी चढाई हमने करीब दो घण्टे में तय की। पिस्सू टाप हम करीब दो बजे पंहुचे। वहां से 4 किमी जोजीबाल,फिर 2 किमी नागरकोटी और ३ किमी शेषनाग। इस तरह 9 किमी की दूरी और तय करना थी। पिस्सू टाप पर चढाई शुरु करने के बाद बारिश के कुछ छींटे गिरे थे,लेकिन कुछ देर बाद जब हम पिस्सू टाप के आगे की यात्रा कर रहे थे,लेकिन कुछ देर बाद जब हम पिस्सू टाप के आगे की यात्रा कर रहे थे,पानी ने पुराने दुश्मन की तरह हमला किया। जमा देने वाली ठण्डी बर्फीली हवाएं,चारों ओर पहाड और इसके बीच में बारिश की ठण्डी तेज बौछार ,हम लोगों की हालत खराब हो दई। रेन सूट की वजह से मैं खुद तो भीगने से बच गया ,लेकिन जूते और मोजे भीतर तक गीले हो गए। जबर्दस्त थकान की हालत मेंं ठम्डे पैर पहाड पर चलना बेहद कठिन काम है और साथ ही मेरा बैग पूरी तरह भीग गया छा। हांलाकि बेग के भीतर का सारा सामान पोलिथीन की थैलियों में रखा था,इसलिए उन पर कोई फर्क नहीं पडा। बरसात की बौछारों को सहते सहते हम लोग शाम करीब 6 बजे शेषनाग पंहुचे। यहां 3352 मीटर की उंचाई पर एक विशाल झील है और कहा जाता है कि इसमें सात फन वाला शेषनाग रहता है।
शेषनाग के यात्री कैम्प में प्रवेश के पहले फिर से सामान की चैकिंग की गई। कमलेश कुछ देर पहले आ गया था। उसने किराए पर एक टेण्ट लेने की बात भी कर ली थी। कडाके की ठण्ड,बारिश और थकान से चूर हमलोग ऐसी स्थिति में टेण्ट वाले से थोडा भाव ताव करने हमने एक सेप्रेट टेण्ट पर कब्जा किया और एक बार जो टेण्ट के भीतर घुसे तो अगली सुबह तक टेण्ट से बाहर नहीं निकले।
केवल मै और राजेश भोजन करने के लिए एक बार बाहर निकले थे। जब बाहर निकले तो हमें पता चला कि कैम्पिंग एरिया बहुत लम्बा है और हम बिलकुल शुरुआती जगह पर ठहर गए है। खैर अब कुछ नहीं हो सकता था। लंगर पर 2 रोटियां खाने के बाद मैं लौटा और फिर अगली सुबह तक बाहर नही निकला।
24 जुलाई 2001 पंचतरनी
सुबह जल्दी निकलने के मूड से हम लोग फिर जल्दी उठे। ठण्ड अब भी वैसी ही थी,पानी रुका हुआ था,लेकिन हल्के बादल आसमान पर छाए हुए थे।
हमारी योजना थी कि हम बहुत तेजी से चल कर न सिर्फ गुफा के दर्शन कर लेंगे बल्कि वापस लौट कर पंचतरनी पंहुच जाएंगे। लेकिन ऐसा न हो पाया। शेषनाग से सीधे महागुनेस (महागणेश) टाप पर जाना होता है,जो समुद्र सतह से 4276 मीटर की उंचाई पर है। यही पूरी यात्रा का सबसे उंचा बिन्दु है। शेषनाग से हम करीब सवा आठ बजे निकले। शेषनाग से महागुनेस साढे चार किमी हैऔर यह भी थका देने वाली चढाई है। बारिश शुरु हो जाने से पूरा रास्ता कीचड भरा और फिसलन वाला हो गया था।
25 जुलाई 2001 बालटाल (रात 8.20 )
कल 24 जुलाई को पंचतरनी पंहुचने के फौरन बाद किराये पर टेण्ट लिया और टेण्ट में पंहुचने के बाद डायरी लिखने की कोशिश की। थकान इतनी ज्यादा थी कि डायरी लिखते लिखते ही नींद आ गई।
पंचतरनी तक पंहुचने के दौरान हमने करीब 26 किमी की यात्रा की। दोनो ओर आसमान से जुडे हुए पडा,कुछ पहाडों पर जमी बर्फ और एक तरफ से गुजरती नदी के साथ हमने पूरा रास्ता पार किया और ठण्डे बर्फ जैसे पानी की बौछारे लगातार लगती रही। पंचतरनी,हमलोग तीन बजे से पहले पंहुचना चाहते थे। हमारी इच्छा थी कि हम सीधे गुफा तक पंहुच जाएं,लेकिन खराब मौसम ने हमारे इरादों पर पानी फेर दिया। जबर्दस्त कीचड में मै खुद दो-तीन बार लुढक गया। काफी कोशिशों के बावजूद हम लोग करीब साढे तीन पैने चार बजे पंचतरनी पंहुच पाए थे। वहां पंहुचते ही पता चल गया कि आगे गुफा का रास्ता बंद कर दिया गया है।
आखिरकार हम टेण्ट में रुके। पूरे केम्प एरिया में जबर्दस्त कीचड था और जूते मोजे,बरसाती सबकुछ कीचड में सने हुए थे। बरसाती व जूते मोजे उतारने के बाद एक बार टेण्ट वाले की चप्पल लेकर मैं नीचे नदी पार करके लंगर तक गया और वहां से खाना लेकर आया और उसके बाद,अगले दिन गुफा में जाने की योजना बनाते हुए सोए।
25 जुलाई- सुबह की शुरुआत पांच साढे पांच बजे हुई। सुबह ठीक छ:बजे हम लोग फिर से तैयार होकर गुफा के लिए चल दिए। सुबह उठते ही लगा था कि मौसम साफ है,लेकिन देखते ही देखते बादल घिर आए और बारिश शुरु हो गई। बरसात की बूंदों की मार झेलते झेलते हम गुफा के रास्ते पर बढे। गुफा पंचतरनी से 6 किमी दूर है। पंचतरनी 3657 मीटर की उंचाई पर है और गुफा 3952 मीटर की उंचाई पर है। हमने लगभग आधा रास्ता पार किया और बारिश थम गई। गुफा तक पंहुचते पंहुचते सूर्य देवता भी नजर आने लगे। हमलोग करीब 8.45 पर गुफा क्षेत्र में पंहुच गए थे। वहां पहाड से उतरते ही लोगों की भीड नजर आई,जो नदी पर स्नान ध्यान कर रहे थे। हम लोग भी उत्साहित होकर स्नान की तैयारी करने लगे। जीरो डिग्री के ठण्डे पानी में नहाना कोई मजाक हनीं था। हल लोग जैसे तैसे नहाए और करीब साढे नौ बजे दर्शनों के लिए रवाना हुए। जहां हम नहाए थे,वहां से गुफा तो दिख रही थी लेकिन वह करीब दो किमी दूर और काफी उंचाई पर थी। गुफा के दर्शनों के लिए श्रध्दालुओं की जबर्दस्त भीड थी। दस बजे हम लाईन में लगे और करीब दो बजे हम लोग गुफा के भीतर पंहुचे। इस दौरान मेरी दो तीन बार इच्छा हुई कि लौट जाउं लेकिन इतनी दूर आनेके बाद लौटने को भी मन नहीं मान रहा था। खैर दो बजे गुफा के भीतर दर्शन किए और ढाई बजे बाहर लौटे।
हमने सुना था कि लौटने के लिए छोटा और आसान रास्त बालटाल का है। यह मात्र 12 किमी है,लेकिन बारिश होने की स्थिति में यह रास्ता खतरनाक हो जाता है और इसे बन्द कर दिया जाता है।
सुबह से रुकी हुई बरसात अब भी बन्द थी और इस दौरान दो-तीन बार सूरज भी निकला था। हमे लगा कि हमे फौरन बालटाल के रास्ते पर रवाना हो जाना चाहिए। गुफा से उतर कर सामान तक पंहुचने का करीब दो किमी रास्ता हमने बडी तेजी से पार किया और सामान के लिए डेढ सौ रुपए में एक पि_ू करके हम लोग सवा तीन बजे बालटाल के लिए रवाना हुए। पंचतरनी से गुफा वाले रास्ते से ही बालटाल का रास्ता कटता है।बालटाल के रास्ते पर पंहुचने के लिए फिर से करीब दो किमी चलना पडता है। बालटाल के रास्ते पर पंहुचने के बाद एक पूरा पहाड उतरना पडता है। बालटाल यहां से 12 किमी है और शुरुआत खतरनाक ढलान से होती है। ढलान खत्म होता है और सीधी चढाई शुरु हो जाती है। यह पहाड चढने के बाद लगातार ढलान है,जिस पर चलने से घुटनों की जान निकल जाती है। हम लोग साढे तीन बजे चले और शाम सवा सात बजे बालटाल पंहुच गए। रास्ते में विनय और राजेश ने एक चढाई के लिए टट्टू की मदद ली,जबकि मै और कमलेश पूरे रास्ते पैदल ही चले। ये रास्ता संकरा है। रास्ते के एक ओर पहाड और दूसरी तरफ गहरी खाई,जिसके नीचे नदी बहती है। पहाडों पर कई रंगों के सुन्दर फूल और कई तरह की वनस्पतियां। पहाडों पर जमी बरफ और बर्फ की गुफाएं। ये दृश्य देखते देखते जब हम बालटाल के नजदीक पंहुचने लगे,पैरों ने पूरी तरह जवाब दे दिया।
बालटाल पंहुचने के बाद राजेश एक लंगर में टेण्ट की व्यवस्था कर चुका था। हम लोग इस टेण्ट में आके रुके और यहीं शानदार भोजन किया।
तीन दिन की यात्रा के दौरान यह पहली बार था कि पेटभर के खाना खाया। बर्फीले पहाडों को हम लगभग छोड चुके है। आखरी दिन हमने करीब 24 किमी का सफर तय किया। इस यात्रा के दौरान कई कश्मीरियों से मुलाकात और बातचीत हुई। यात्रा के पडावों पर टेण्ट और अन्य व्यवसाय कर रहे कश्मीरी मुसलमान बातचीत के दौरान आतंकवादियों और पाकिस्तानियों को बेहिचक गालियां देते है। हो सकता है कि वे आतंकवाद और पाक की हरकतों से ऊ ब चुके हो,यह भी हो सकता है कि वे व्यवसाय की खातिर ऐसी बातें करते हों। कश्मीर का टूरिज्म उद्योग खत्म सा हो गया है और अब खाली अमरनाथ यात्रा ही उनका एकमात्र सहारा है।
हांलाकि जे के सरकार ने अब अमरनाथ यात्रा श्राईन बोर्ड गठित कर दिया है,लेकिन व्यवस्थाएं हद दर्जे की घटिया है। ये बात तय है कि यात्रा के नाम पर हर साल करोडों का घोटाला होता होगा। टूरिज्म के टेण्टिंग रेट अन्य टेण्टों के रेट से ज्यादा है और व्यवस्थाएं घटिया है। सरकारी स्तर पर सिवाय सुरक्षाकर्मियों के,यात्रा की कोई व्यवस्था नहीं है। सारी व्यवस्था धार्मिक संस्थाओं के लंगरों और कश्मीरी मुसलमानों के व्यवसाय पर निर्भर है। पर्यटन विभाग ने टट्टू और पि_ू के दाम भी तय किए है,लेकिन वे मुहमांगे दाम लेकर यात्रियों को लूटते है।
27 जुलाई 2001 पहलगाम (सुबह 8.50)
26 की सुबह हम लोग बालटाल से बस से रवाना हुए,पहलगाम के लिए। हम खुश थे कि हमने पूरा एक दिन बचा लिया। यदि हम पंचतरनी के रास्ते लौटे होते तो एक दिन रास्ते में रुकना पडता। हमने सोचा था कि दोपहर तक पहलगाम पंहुचकर,श्रीनगर के लिए के लिए रवाना हो जाएंगे,लेकिन ये रास्ता करीब दो सौ किमी का निकला और हम लोग दोपहर साढे तीन बजे पहलगाम पंहुचे। यहां के एवरग्रीन गेस्ट हाउस में पंहुचकर नहाते धोते साढे पांच बज गए। फिर आधा घण्टा गाडी को स्टार्ट करने में लग गया। पहलगाम से निकलने लगे तो हमें रोक दिया गया। यहां से 4 बजे के बाद किसी को जाने नहीं देते। आखिरकार मजबूरन हमें लौटना पडा।
ये गेस्ट हाउस फारुख और आमीन नामक दो भाईयों ने इसी साल चालू किया है। फारुख दसवीं तक पढा है जबकि आमीन बीए है और इसीसाल नजदीक के एक सरकारी स्कूल में शिक्षाकर्मी की नौकरी कर रहा है। जिसमें उसे पन्द्रह सौ रुपए मिलते है।
आमीन चूंकि ग्रेज्युएट है इसलिए हम लोग उससे कश्मीर समस्या पर बात करते रहे। अमीन ने बताया कि पूरे पहलगाम इलाके में वह और उसका एक दोस्त मात्र दो लोग ग्रेज्यूएट हैं और लम्बे समय से बेरोजगार थे। दोनो को इसी साल नौकरी मिली है। आमीन का दोस्त अब्दुल भी रात को हमसे बात करने आया। वह राजनीति की काफी पकड रखता था। कश्मीर मुद्दे पर उसने कश्मीरियों की सोच को काफी हद तक साफ करके बताया। उसका कहना था कि कश्मीरियों को शुरु से ठगा जा रहा है। कश्मीरी चाहते हैं कि उन्हे आत्मनिर्णय का अधिकार दिया जाए। हांलाकि उसने माना कि अधिकांश कश्मीरी पाकिस्तान के साथ जाना चाहते हैं,लेकिन पाक के साथ कश्मीर का रहना कश्मीरियों के लिए ठीक नहीं है। उसका कहना था कि हम दोनो तरफ से फंसे हुए है। लेकिन जब हमने उसके सामने कुछ तर्क रखे तो वह निरुत्तर हो गया। उसने कहा कि यहां चुनाव महज एक ढकोसला है। फारुख अब्दुल्ला को जनसमर्थन नहीं है और जो अलगाववादी बातें करते है जनता उन नेताओं के साथ है। उसने यह भी माना कि कश्मीरी अवाम अशिक्षित और गरीब है।लेकिन जब यह पूछा कि अशिक्षितों को आत्मनिर्णय का अधिकार देना क्या उचित होगा? वह जवाब नहीं दे पाया।
बहरहाल रात गुजरी और अब हम श्रीनगर का एक चक्कर लगा कर लौटने के इच्छुक है।
29 जुलाई 2001 श्रीनगर (सुबह 9.00)
27 जुलाई को करीब साढे नौ बजे हम लोग पहलगाम से श्रीनगर के लिए रवाना हुए। पहलगाम के बाहर पुलिस चैक पोस्ट पर वही अधिकारी दिख गया ,जिसने पहलगाम में प्रवेश के वक्त तलाशी ली थी और मेरी उससे जोरदार बहस हुई थी। वह अधिकारी वास्तव में जेके पुलिस का डीएसपी था। उसे देखकर फिर से मिलने की इच्छा हुई. यह मुलाकात बेहद फायदेमन्द साबित हुई। डीएसपी ओपी सैनी,यूं तो श्रीनगर में पदस्थ है,लेकिन स्पेशल यात्रा ड्यूटी पर पहलगाम में है। कुछ ही मिनटों की हमारी मुलाकात दोस्ती में बदल गई। वहीं बीएसएफ का एक एसीओ थिन्ड भी था। थिन्ड से भी हमारी दोस्ती हुई। हम लोगों ने एक दूसरे के पते टेलीफोन नम्बर का आदान प्रदान किया। एक दूसरे को आपस में निमंत्रित किया। और डीएसपी साहब को जब पता चला कि हम श्रीनगर जा रहे हैं,उन्होने एक होटल वाले के नाम चि_ी दी और साथ ही अपने एक खास आदमी मोतीलाल से मिलने की सलाह दी। उन्होने कहा कि ये लोग श्रीनगर में हमारी पूरी मदद करेंगे।
27 जुलाई को हिजबुल मुजाहिदीन के एक कमाण्डर की मौत के विरोध में घाटी में एक दिन की हडताल थी। सौ किमी का पूरे रास्ते में सारी दुकानें बन्द थी और लोगों के चेहरों पर तनाव दिख रहा था। हमारी गाडी में कुछ अजीब सी आवाज हो रही थी। इस आवाज को देखते हुए,हम बडी सावधानी से गाडी चलाते हुए श्रीनगर पंहुचे और यहां पंहुचते ही यूनिफाईड कमाण्ड के दफ्तर में मोतीलाल को तलाश किया। मोतीलाल ने डीएसपी साहब का नाम सुनते ही हमारे पूरे सहयोग का वादा किया और हमारे साथ हो गया।
मोतीलाल को लेकर हम निकले,लेकिन उसके दफ्तर से बाहर आते ही गाडी की वह अजीब आवाज असर दिखा गई और गाडी खडी हो गई। उसका पिछला व्हील पूरी तरह जाम हो गया। चूंकि मोतीलाल साथ में था,हडताल के बावजूद हम एक मैकेनिक को लाए और उससे गाडी ठीक कराई।इस सारे झंझट में शाम हो गई। बाद में डीएसपी साहब के बताए हुए होटल में आकर ठहरे। होटल मालिक नियाज ने जैसे ही डीएसपी सैनी का नाम सुना,वह भी खुश हो गया। फिर हमने निश्चय किया कि आज आराम किया जाए और कल श्रीनगर घुमेंगे। रात को हीरामहल होटल के मालिक नियाज से काफी बहस हुई। नियाज वनविभाग में एकाउण्टेन्ट है और इलेक्ट्रानिक्स की दुकान भी चलाता है।
28 जुलाई 2001
श्रीनगर की अगली सुबह और पूरा दिन हद से ज्यादा व्यस्त रहा। मोतीलाल सुबह साढे छ: पर आने का वादा कर गाडी ले गया था। वह करीब सात बजे आया और हम लोग साढे सात बजे यहां से निकले और सीधे पाण्डवों द्वारा निर्मित आदि शंकराचार्य मन्दिर गए। शंकराचार्य मन्दिर उंची पहाडी पर है और यहां आदिगुरु ने तपस्या की थी। वहां से लौटे,मोतीलाल को नौकरी करना थी। उसने एक पुलिस ड्राइवर हनीफ को हमारे साथ भेज दिया। हनीफ को लेकर हजरत बल,फिर गुलमर्ग,वहां से लौटते हुए बाबा रिशी की दरगाह और फिर श्रीनगर के निशात बाग सभी स्थानों पर घुमे। अंत में डल झील के एक शिकारे में बोटिंग की। कुल मिलाकर श्रीनगर और घाटी का कोई हिस्सा हमने बाकी नहीं छोडा।रात को नौ बजे होटल लौटे और अब सुबह यहां से रवानगी की तैयारी।
29 जुलाई 2001 पटनीटाप (रात 9.10)
श्रीनगर से निकलते निकलते दोपहर के बारह बज गए। मोतीलाल और हनीफ से मुलाकात के बाद हम लोग यह सोचकर रवाना हुए थे कि शाम तक जम्मू पंहुच जाएंगे,लेकिन जवाहर टनल पार कर के रामबन गांव से कुछ पहले ट्रेफिक जाम में फंस गए। रामबन श्रीनगर से 150 किमी है। रामबन में सड़क पर चट्टाने धंस गई थी और पहाडी स्लाइडिंग की वजह से करीब तीन घ्ट्टे तक ट्रेफिक जाम लगा रहा और बडी मुश्किल से हम लोग शाम 7 बजे रामबन पार कर पाए। रामबन से पटनीटाप 44 किमी है। रामबन पार करते ही बरसात शुरु हो गई। पटनीटाप काफी उंचाई पर है। तेज बरसात,अंधेरा और घुमावदार चढाई के बीच सावधानी से गाडी चलाते हुए हम लोग नौ बजे यहां पंहुचे और यही ठहरने का इरादा करके यहां के ग्रीन लैण्ड होटल में कमरा लेकर ठहरे हैं।
30 जुलाई 2001 पटनीटाप (सुबह 9.30)
पटनीटाप के ग्रीनलेण्ड होटल में रात गुजारकर अब हम लोग आगे बढने की तैयारी है। यह होटल बेहद खुबसूरत लोकेशन पर सुन्दर ढंग से बना हुआ है।
कल ट्रेफिक जाम के दौरान जेके पुलिस की एक गाडी हमारे साथ फंसी हुई थी। जेके पुलिस का एक जवान इस दौरान हमसे परिचित हुआ और जाम के दौरान उससे कई बातें हुई।
यहां जेके पुलिस,सीआरपीएफ,बीएसएफ,
आईटीबीपी और सेना सभी तैनात है। जेके पुलिस को अन्य सभी सुरक्षा एजेंसियां शक की निगाह से देखती है। जेके पुलिस वाले बीएसएफ,सीआरपीएफ से चिढते हैं। यहां जेके में पुलिसकर्मी भी बेहद डरे हुए हैं। सीआरपी या बीएसएफ वाले उन्हे डांटते फटकारते रहते है। जेके पुलिस को छोड देंतो बीएसएफ, सीआरपी या सेना में भी आपस में कोई तालमेल नहीं है। राजमार्ग की सुरक्षा सेना और बीएसएफ के हाथ में है। जम्मू श्रीनगर के तीन सौ किमी लम्बे राजमार्ग पर चप्पे चप्पे पर सेना के जवान तैनात रहते है,जबकि शहरों और गांवों में बीएसएफ या सीआरपीएफ लगी हुई है।
तालमेल की कमी और परस्पर अविश्वास के कारण माहौल भी अक्सर बिगडता रहता है। हिजबुल का एरिया कमाण्डर मसूद अभी तीन दिन पहले मारा गया। उसकी मौत के खिलाफ घाटी पूरी तरह बन्द रही। इस घटना के एक दिन पहले आतंकवादियों के हमले की एक खबर थी जिसमें जेके पुलिस का एक डीएसपी मारा गया,लेकिन आम लोगों में चर्चा थी कि यह सीआरपीएफ और बीएसएफ का आपसी में विवाद था। कुल मिलाकर घाटी में हर ओर अफवाहें और अविश्वास फैला हुआ है। आम लोग कश्मीर की आजादी और रायशुमारी के नाम पर मूर्ख बनाए जा रहे है,लेकिन भारत पाक के मामले में सभी दुविधाग्रस्त है।
31 जुलाई 2001 भोगपुर (पंजाब) (सुबह 8.15)
कल पटनीटाप से शुरु हुआ सफर,भोगपुर में आकर खत्म हुआ। पटनीटाप से निकलते वक्त वहां बारिश हो रही थी। निकलने में कुछ देर हुई और हम लोग करीब 11.30 पर निकल पाए। पटनीटाप जम्मू से करीब सौ किमी दूर है। इतनी नजदीकी के बावजूद दोनों के मिजाज बिलकुल अलग अलग है। पटनीटाप एकदम ठण्डा है,तो जम्मू एकदम गर्म। पटनीटाप से चलकर हमलोग जम्मू और पठानकोट होते हुए भोगपुर आ गए। हमें एक दिन में कम से कम तीन सौ किमी चलना चाहिए और हम जालन्धर से 25 किमी पहले यहां भोगपुर में पीडब्ल्यूडी के रेस्टहाउश में है। यहां तक हम लोग 280 किमी चले हैं। जिसे 300 किमी माना जा सकता है।
यहां तक का रास्ता समान रहा है। अब हम जालन्धर से रास्ता बदलेंगे ताकि कुछ बदलाव महसूस हो।
31 जुलाई 2001 सूरतगढ(राजस्थान) दोपहर 11.30
भोगपुर से जालन्धर के लिए चलने के दौरान,मोटर मैकेनिक बिन्दर से फिर से मुलाकात की। बिन्दर ने जाते समय हमे बडी मुसीबत से निजात दिलाई थी। उसके गैरेज पर काम करने वाले सारे लडके हमसे प्यार से मिले। उन्हे हमारी चिन्ता भी थी। हमारी अमरनाथ यात्रा के दौरान यात्रियों पर हुए आतंकवादी हमले की खबर सुनकर वे लोग हमारे लिए चिन्तित थे। बिन्दर के पास हम लोग करीब एक घण्टे रुके और गाडी के एक फाटक की खराब हो चुकी स्प्रिंग को ठीक करवा कर आगे बढे। जालंधर यहां से केवल 15 किमी था। जालंधर पार करके हम लोग रास्ता बदल कर कपूरथला से फरीदकोट और भटिंडा होते हुए शाम करीब सात बजे राजस्थान के हनुमानगढ पंहुच गए। हमारी योजना देर रात तक चल कर बीकानेर के नजदीक पंहुचने की थी,लेकिन हनुमानगढ का रास्ता बेहद खराब था और खराब रास्ते के कारण हमारी नाजुक गाडी के अगले व्हील डगमगाने लग गए। आखिरकार हमने हनुमानगढ से 50 किमी आगे यहां सूरतगढ रुकने का फैसला किया और सूरतगढ के पीडब्ल्यूडी रेस्ट हाउस में दो कमरे लेकर रुक गए। रात करीब साढे दस बजे सामने के एख होटल में खाना खाने के बाद अब सोने की तैयारियां की जा रही है ताकि कल बीकानेर देखा जा सके।
1 अगस्त 2001 सूरतगढ (सुबह 8.50)
पटनीटाप गुलमर्ग और अमरनाथ की ठण्डक और जम्मू व श्रीनगर की गरमी के बाद अब हमे राजस्थान का तपता हुआ रेगिस्तान पार करना है। रेगिस्तानी रात काटना कल हमारे लिए कठिन रहा,लेकिन जैसे तैसे सुबह हुई और अब हम बीकानेर के लिए तैयार है।
2 अगस्त 2001 मूण्डवा (नागौर) (सुबह 9.40)
सूरतगढ में हमारी दोनो समस्याएं हल हो गई। मारुति के वर्कशाप पर जल्दी से गाडी ठीक हो गई। असल में उसके अगले व्हील के बियरिंग टूट गए थे। बियरिंग बदले और यहीं हमे इण्डेन की टंकी भी मिल गई। सूरतगढ से बीकानेर 175 किमी था। सड़क काफी अच्छी थी। सड़क के दोनो ओर रेत के टीले और कटीली झाडियां। तेज हवा के साथ उडती रेत बार बार चेहरे पर चिपक रही थी। बीकानेर हम करीब तीन बजे पंहुचे। बीकानेर पंहुचते ही फिर से इण्डेन की टंकी खरीदी।
बीकानेर का जूनागढ पैलेस और संग्रहालय देखा। बीकानेर के छठे राजा रायसिंह ने सन 1588 में इस महल की नींव रखी थी। यह महल 350 साल में सन 1943 में महाराज गंगासिंह के समय पूरा तैयार हुआ। बीकानेर के राजा मुगलों के सामने झुक गए थे और बाद में अंग्रेजों से भी मिल गए थे। अवसरवादिता के चलते यहां के राजा स्वतंत्रता बाद राजनीति में सक्रिय हो गए और उन्होने पूरी राजसम्पत्ति,महल आदि निजी ट्रस्ट बनाकर सुरक्षित कर लिया।
बीकानेर से 28 किमी दूर नागौर-जोधपुर रोड पर करणी माता का विश्वप्रसिध्द मन्दिर है,जहां हजारों चूहे बेखौफ घूमते रहते है। यह मन्दिर देशी विदेशी लोगों की उत्सुकता का केन्द्र है। चूहो की भीडभाड देखकर आदमी चौंक जाता है। मजेदार बात यह है कि ये चूहे लोगों को कतई तंग नहीं करते और न ही लोगों से डरते है। मंदिर परिसर के बाहर कहीं भी चूहे नहीं दिखाई देते।
हमारे इस दिन का सफर नागौर जिला मुख्यालय के डाक बंगले पर खत्म हुआ। जहां से निकल कर हम अजमेर जा रहे है और यहां मुण्डवा के ढाबे पर सुबह का नाश्ता करने के लिए रुके हैं।
3 अगस्त 2001 निम्बहेडा (सुबह 8.50)
सफर अब समापन की ओर है। सफर की पहली रात भी हमने निम्बाहेडा में ही गुजारी थी और आखरी से पहले वाली रात भी यहीं गुजारी।
कल नागौर से सही समय पर निकले और दोपहर करीब दो बजे तीर्थराज पुष्कर पंहुच गए। मन्दिर के पट तीन बजे खुलते है इसलिए एक घण्टे बाजार में मण्डराते रहे और लाख की बनाई हुई कुछ कलात्मक चीजे खरीद डाली।
पुष्कर से निकल कर करीब साढे चार बजे ख्वाजा गरीब नवाज मोइनुद्दीन चिश्ती का दरगाह देखने पंहुच गए। दरगाह तक जानेवाली गली में चारो तरफ गंदगी का माहौल था। जैसे तैसे यह गली पार करके दरवाजे पर पंहुचे तो गोल टोपियां लेना पडी क्योकि रुमाल गाडी में छूट गए थे। दरगाह पर ज्यादा भीड नहीं थी। लेकिन यहां दुआ मांगने वालो को पैसे मांगते देख बुरा लगा। कुछ देर दरगाह देखने के बाद वहां से निकले। दरगाह में चांदी और सोने से अच्छी सजावट की गई है।
दरगाह से निकलते हीसामने ढाई दिन का झोंपडा है,जो बारहवी शताब्दी तक राजा बीसलदेव द्वारा निर्मित संस्कृत पाठशाला और मन्दिर भवन था। इसी मन्दिर के ध्वंसावशेषों से कुतुबुद्दीन ने इसे मकबरा बना दिया। इसे ढाई दिन का झोंपडा कहा जाता है। अजमेर से पुष्कर से करीब बजे निकले और रात को नौ बजे भीलवाडा पंहुच गए। रास्ते में तय तय हुआ कि देर रात तक ज्यादा से ज्यादा चल कर लम्बी दूरी तय कर ली जाए। ताकि बांसवाडा पंहुचने में देर ना लगे। रात को भोजन करने के बाद २ बजे तक चलते रहे और निम्बाहेडा रेस्टहाउस में आकर सो गए। अब योजना बांसवाडा पंहुचने की है जहां शायद रतलाम के दोस्त मिलने आएंगे।
4 अगस्त 2001 बांसवाडा (सुबह 9.05)
कल दोपहर साढे तीन बजे बांसवाडा पंहुच गए। रमेश तिवारी ने कहा था कि वह यहां व्यवस्था करवा देगा लेकिन जब उसने शाम को छ: बजे हाथ खडे कर दिए,तो मैने यहां के एडीएम से बात कर डाक बंगला बुक किया। रतलाम से सुनील लाखोटिया,राजेश लोणकर,सुभाष नायडू और मन्दसौर से आशुतोष नवाल व हिम्मत डांगी हमारे स्वागत के लिए रात को साढे नौ बजे बांसवाडा पंहुचे। देर रात तक बातें होती रही और अब रतलाम पंहुचने की तैयारी.....।
बाईस दिनों के बाद रतलाम कैसा होगा,इसकी काफी कुछ जानकारी मिल गई है। बाकी वहां पंहुचने पर मिलेगी।
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