कान्हा के राष्ट्रीय उद्यान में जाने का यह दूसरा मौका था। पहली बार की यात्रा मित्रों के साथ थी,लेकिन तब डायरी नहीं लिखी थी। उस यात्रा में नरेन्द्र शर्मा,भारत गुप्ता,राजेश घोटीकर, और नागपुर से विनय कोटिया मेरे साथ थे। इस बार की यात्रा पारिवारिक यात्रा थी। यह पहला मौका था जब हम मित्र सपरिवार यात्रा पर जा रहे थे। यह यात्रा 2011 में गणतंत्र दिवस 26 जनवरी को प्रारंभ हुई थी।
27 जनवरी 2011
(रात 1.10 मण्डला रेस्ट हाउस)
26 जनवरी को गणतंत्र दिवस के कार्यक्रम निपटा कर दोपहर चार बजे नायडू (सुभाष नायडू) को साथ लेकर नरेन्द्र की कार से हम उज्जैन के लिए रवाना हुए। हम यानी मै,वैदेही,चिन्तन,नरेन्द्र और सुनीता। उज्जैन में शाम 7.40 पर ट्रेन थी। नायडू उज्जैन रेलवे स्टेशन पर सामान उतार कर फौरन रवाना हो गया। हम छ: बजे उज्जैन पंहुचे थे। जब हमारी ट्रेन चलने को आई,नायडू रतलाम के नजदीक पंहुच चुका था। ट्रेन में भोजन करके जल्दी रात को दस बजे सो गए। सुबह छ: बजे नींद खुली,पता चला ट्रेन करीब एक घण्टा लेट चल रही है। साढे छ: बजे हेमन्त दादा( हेमन्त साखरदाण्डे) का फोन आ गया तो तय किया कि मदन महल स्टेशन पर ही उतरा जाए। मामा के घर पर सबसे मिलकर करीब दस बजे हेमन्त दादा की क्वालिस से मण्डला के लिए रवाना हुए। दो घण्टे की यात्रा के बाद मण्डला रेस्ट हाउस पंहुच गए। विनय का फोन आ चुका है। वह दो बजे तक मण्डला पंहुचेगा। फिर यहां से कान्हा के लिए रवाना होना है।
यह यात्रा मण्डला कलेक्टर केके खरे के बुलावे पर तय हो गई थी। उनसे बात हो रही थी,उन्होने बातों बातों में कान्हा आने का न्यौता दिया और बस अपन ने पकड लिया। कल शाम उज्जैन से उन्हे खबर की कि हम पंहुच रहे हैं। उन्होने मण्डला तहसीलदार अब्दुल हक को हमारी व्यवस्था की जिम्मेदारी सौंपी है। अब्दुल हक का फोन भी आ गया। अब्दुल हक को हमने बताया कि कुछ देर मण्डला रेस्ट हाउस रुक कर कान्हा जाना है। बहरहाल स्नान करके अब खरे सा.से मिलने जाने का इरादा है।
27 जनवरी 2011 (सुबह 4.25) मण्डला
खरे सा. से मिलने के लिए थोडा इंतजार करना पडा,लेकिन बाद में लम्बी चर्चाएं हुई।
28 जनवरी 2011 (दोपहर 1.00 बजे)
कान्हा जंगल केम्प
कल दोपहर खरे सा. से चर्चा के बाद उनके द्वारा भेजे गए वाहन से हम शाम करीब पौने छ: बजे कान्हा किसली के खटिया गेट पर पंहुचे। गेट के नजदीक ही वन विभाग के कान्हा जंगल केम्प में हमारे रुकने की व्यवस्था थी। तहसीलदार अब्दुल हक ने यहां के पटवारी आनन्द को हमारी व्यवस्था का जिम्मा सौपा था। जंगल केम्प में वन विभाग के एएसआई मरकाम ने हमे बताया कि पटवारी को खबर कर दी है। कुछ ही देर में पटवारी भी जंगल केम्प पंहुच गया। पटवारी आनन्द ने बताया कि पार्क सुबह 6.30 पर खुलेगा। गाडी की व्यवस्था भी करने को कह दिया था।
सुबह सवा चार बजे मेरी नीन्द खुल गई। जैसे तैसे पांच बजे उठा और तैयारी में लग गया।ठीक सवा छ: बजे हम सभी लोग बाहर निकल आए। हवा में तगडी ठण्डक थी। जर्किन टोपी के बावजूद ठण्डी हवा से हाथ सुन्न होते जा रहे थे।
पार्क का भ्रमण शुरु हुआ। यहां हिरण तो बकरियों की तरह बहुतायत में है। बारहसिंगा,सियार आदि भी आसानी से नजर आ गए। कई जगहों पर शेर के पगमार्क नजर आए,लेकिन शेर के संकेत नहीं मिले। एक चक्कर लगा कर मैदान पर पंहुचे,जहां वन विभाग का कैफे और म्यूजियम है। यह स्थान पार्क के बीच में है। टूरिस्ट आते जाते वक्त यहां रुकते है। पहले चक्कर में हमने यहां सिर्फ चाय पी और फिर निकल पडे। घने जंगल के घुमावदार ऊं चे नीचे रास्तों पर से गुजरती जिप्सी का अनुभव शानदार होता है। सभी की नजरें रास्ते के दोनो ओर टिकी थी कि कहीं शेर नजर आ जाए। चिंतन बार बार कह रहा था कि शेर तो दिखा ही नहीं। कान्हा आने वालों के लिए सबसे बडा आकर्षण शेर ही होता है। खैर हमे तब तक शेर नजर नहीं आया। सुबह के सवा नौ बज रहे थे। ड्राइवर ने गाडी फिर से मैदान एरिया की तरफ मोड दी। वन विभाग के कैफेटेरिया में गरमागरम ब्रेड पकौडे खाने में सभी को मजा आ गया। अभी वहां नाश्ते चाय का दौर चल ही रहा था कि अचानक टाइगर दिखने की खबर आ गई। नजदीक में ही टाइगर देखा गया था। तेजी से उस तरफ पंहुचे। पहले दस पन्द्रह मिनट तक तो शेर दिखा नहीं,लेकिन थोडी देर बाद वह चलता हुआ एक ऊं चे पत्थर पर चढकर बैठ गया। हांलाकि वह काफी दूर था,लेकिन फिर भी काफी साफ नजर आ रहा था। सारे पर्यटकों की भीड वहीं लग गई। गाडियां आगे पीछे करके सभी लोग शेर को साफ साफ देखना चाह रहे थे। दस पन्द्रह मिनट तक शेर को देखने का सिलसिला चलता रहा। तभी रेंजर के आने की खबर मिली और जिप्सियों के ड्राइवरों ने गाडियां वहां से बढा दी।
शेर दिखाई दे चुका था और कान्हा आने की बडी उपलब्धि हासिल हो चुकी थी। हमे अभी तीन बार और घूमना है। घडी ग्यारह बजाने लगी थी। ड्राइवर गाडी को वापस गेट की ओर बढाने लगा। करीब सवा ग्यारह तक हम वापस आ गए। अब हमे स्नान करना था और भोजन करना था।
रात का भोजन हमने जंगल केम्प के केन्टीन में किया था। अभी हम गेट पर बने ढाबों में से एक ढाबे पर आए है। खाने के आर्डर दे चुके हैं।
29 जनवरी 2011
कान्हा गेट
कल दोपहर का भोजन करते करते फिर से समय हो गया। रुम पर पंहुचे और जंगल सफारी के लिए तैयारी करने लगे। दोपहर तीन बजे हम लोग फिर से कान्ह के जंगलों से रुबरु होने के लिए रवाना हो गए। सुबह हमको एक टाइगर के दीदार हो गए थे। इस वक्त जब हम निकले एक वक्त ऐसा भी आया कि एक साथ तीन-तीन टाइगर नजर आ गए। टाइगर भी ऐसे नजर आए कि चिंतन तक को एक पत्थर से दूसरे पत्थर पर छलांग लगाते वनराज नजर आ गए। सारे लोगों को अच्छे से टाइगर देख लिए। दो सफारी में हम चार टाइगर देख चुके थे। रात को नौ बजे जंगल कैम्प के केन्टीन में डट कर भोजन किया और सुबह जल्दी उठने के लिए जल्दी सो गए। सुबह पांच बजे उठे और ठीक छ: बजे तैयार होकर गाडी में सवार हो गए। इस सफारी में न सिर्फ बल्कि किसी को भी टाइगर के दीदार नहीं हुए। उपलब्धि यह रही कि फारेस्ट विभाग द्वारा मैदान में पर बनाए गए म्यूजियम और फिल्म इत्यादि हमने देख ली। सवा ग्यारह बजे हम लौटे। स्नान करने के बाद पौने दो बजे ढाबे पर आए। अभी भोजन का इंतजार चल रहा है। आज की सफारी में किसी को टाइगर नजर नहीं आया। शाम को आखरी सफारी है। चूंकि टाइगर सभी लोग देख चुके है इसलिए किसी को कोई उत्सुकता नहीं बची है। सिर्फ मजे के लिए सफारी में जाना है।
30 जनवरी 2011 (शाम साढे पांच बजे)
कान्हा गेट
अब कान्हा के जंगल से जाने का समय आ गया है। बीती शाम की सफारी में काफी समय नींद आती रही। टाइगर तो नहीं देख सके लेकिन चीतल,सांभर,बारहसिंगा,सियार आदि दिखाई दिए। इस बार अच्छे फोटो भी बने। शाम को लौट कर आए। शाम का भोजन गेट पर बने एक ढाबे में किया। बीती रात भोजन में खापी देर हो गई और सोने में रात के दस बज गए। योजना के मुताबिक सुबह साढे पांच बजे उठकर अब जाने की तैयारी है।
कान्हा का यह दूसरा दौरा था। पहली बार हम लोग गेट से करीब ढाई किलोमीटर भीतर फारेस्ट के रेस्ट हाउस में रुके थे। इस बार हम गेट के बाहर जंगल केम्प में है। दोनो बार कलेक्टर के गेस्ट के बतौर वीआईपी ट्रीटमेन्ट में रहे। पिछली बार हमें हाथी पर बैठकर शेर देखने का मौका भी मिल गया था। इस बार ऐसा टाइगर शो हुआ ही नहीं। पिछली बार हम पांच मित्र थे। इस बार तीन महिलाएं और एक बच्चा चिंतन भी साथ है। परिवार के साथ घूमने का अलग अंदाज और अलग मजा होता है। इसमें काफी अनुशासन रखना पडता है,जबकि दोस्तों के साथ अनुशासन की चिन्ता नहीं होती। बहरहाल अब यहां से मण्डला होते हुए जबलपुर पंहुचना है। जबलपुर से रात साढे नौ बजे ट्रेन है और कल सुबह फिर रतलाम।
27 जनवरी 2011
(रात 1.10 मण्डला रेस्ट हाउस)
26 जनवरी को गणतंत्र दिवस के कार्यक्रम निपटा कर दोपहर चार बजे नायडू (सुभाष नायडू) को साथ लेकर नरेन्द्र की कार से हम उज्जैन के लिए रवाना हुए। हम यानी मै,वैदेही,चिन्तन,नरेन्द्र और सुनीता। उज्जैन में शाम 7.40 पर ट्रेन थी। नायडू उज्जैन रेलवे स्टेशन पर सामान उतार कर फौरन रवाना हो गया। हम छ: बजे उज्जैन पंहुचे थे। जब हमारी ट्रेन चलने को आई,नायडू रतलाम के नजदीक पंहुच चुका था। ट्रेन में भोजन करके जल्दी रात को दस बजे सो गए। सुबह छ: बजे नींद खुली,पता चला ट्रेन करीब एक घण्टा लेट चल रही है। साढे छ: बजे हेमन्त दादा( हेमन्त साखरदाण्डे) का फोन आ गया तो तय किया कि मदन महल स्टेशन पर ही उतरा जाए। मामा के घर पर सबसे मिलकर करीब दस बजे हेमन्त दादा की क्वालिस से मण्डला के लिए रवाना हुए। दो घण्टे की यात्रा के बाद मण्डला रेस्ट हाउस पंहुच गए। विनय का फोन आ चुका है। वह दो बजे तक मण्डला पंहुचेगा। फिर यहां से कान्हा के लिए रवाना होना है।
यह यात्रा मण्डला कलेक्टर केके खरे के बुलावे पर तय हो गई थी। उनसे बात हो रही थी,उन्होने बातों बातों में कान्हा आने का न्यौता दिया और बस अपन ने पकड लिया। कल शाम उज्जैन से उन्हे खबर की कि हम पंहुच रहे हैं। उन्होने मण्डला तहसीलदार अब्दुल हक को हमारी व्यवस्था की जिम्मेदारी सौंपी है। अब्दुल हक का फोन भी आ गया। अब्दुल हक को हमने बताया कि कुछ देर मण्डला रेस्ट हाउस रुक कर कान्हा जाना है। बहरहाल स्नान करके अब खरे सा.से मिलने जाने का इरादा है।
27 जनवरी 2011 (सुबह 4.25) मण्डला
खरे सा. से मिलने के लिए थोडा इंतजार करना पडा,लेकिन बाद में लम्बी चर्चाएं हुई।
28 जनवरी 2011 (दोपहर 1.00 बजे)
कान्हा जंगल केम्प
कल दोपहर खरे सा. से चर्चा के बाद उनके द्वारा भेजे गए वाहन से हम शाम करीब पौने छ: बजे कान्हा किसली के खटिया गेट पर पंहुचे। गेट के नजदीक ही वन विभाग के कान्हा जंगल केम्प में हमारे रुकने की व्यवस्था थी। तहसीलदार अब्दुल हक ने यहां के पटवारी आनन्द को हमारी व्यवस्था का जिम्मा सौपा था। जंगल केम्प में वन विभाग के एएसआई मरकाम ने हमे बताया कि पटवारी को खबर कर दी है। कुछ ही देर में पटवारी भी जंगल केम्प पंहुच गया। पटवारी आनन्द ने बताया कि पार्क सुबह 6.30 पर खुलेगा। गाडी की व्यवस्था भी करने को कह दिया था।
सुबह सवा चार बजे मेरी नीन्द खुल गई। जैसे तैसे पांच बजे उठा और तैयारी में लग गया।ठीक सवा छ: बजे हम सभी लोग बाहर निकल आए। हवा में तगडी ठण्डक थी। जर्किन टोपी के बावजूद ठण्डी हवा से हाथ सुन्न होते जा रहे थे।
पार्क का भ्रमण शुरु हुआ। यहां हिरण तो बकरियों की तरह बहुतायत में है। बारहसिंगा,सियार आदि भी आसानी से नजर आ गए। कई जगहों पर शेर के पगमार्क नजर आए,लेकिन शेर के संकेत नहीं मिले। एक चक्कर लगा कर मैदान पर पंहुचे,जहां वन विभाग का कैफे और म्यूजियम है। यह स्थान पार्क के बीच में है। टूरिस्ट आते जाते वक्त यहां रुकते है। पहले चक्कर में हमने यहां सिर्फ चाय पी और फिर निकल पडे। घने जंगल के घुमावदार ऊं चे नीचे रास्तों पर से गुजरती जिप्सी का अनुभव शानदार होता है। सभी की नजरें रास्ते के दोनो ओर टिकी थी कि कहीं शेर नजर आ जाए। चिंतन बार बार कह रहा था कि शेर तो दिखा ही नहीं। कान्हा आने वालों के लिए सबसे बडा आकर्षण शेर ही होता है। खैर हमे तब तक शेर नजर नहीं आया। सुबह के सवा नौ बज रहे थे। ड्राइवर ने गाडी फिर से मैदान एरिया की तरफ मोड दी। वन विभाग के कैफेटेरिया में गरमागरम ब्रेड पकौडे खाने में सभी को मजा आ गया। अभी वहां नाश्ते चाय का दौर चल ही रहा था कि अचानक टाइगर दिखने की खबर आ गई। नजदीक में ही टाइगर देखा गया था। तेजी से उस तरफ पंहुचे। पहले दस पन्द्रह मिनट तक तो शेर दिखा नहीं,लेकिन थोडी देर बाद वह चलता हुआ एक ऊं चे पत्थर पर चढकर बैठ गया। हांलाकि वह काफी दूर था,लेकिन फिर भी काफी साफ नजर आ रहा था। सारे पर्यटकों की भीड वहीं लग गई। गाडियां आगे पीछे करके सभी लोग शेर को साफ साफ देखना चाह रहे थे। दस पन्द्रह मिनट तक शेर को देखने का सिलसिला चलता रहा। तभी रेंजर के आने की खबर मिली और जिप्सियों के ड्राइवरों ने गाडियां वहां से बढा दी।
शेर दिखाई दे चुका था और कान्हा आने की बडी उपलब्धि हासिल हो चुकी थी। हमे अभी तीन बार और घूमना है। घडी ग्यारह बजाने लगी थी। ड्राइवर गाडी को वापस गेट की ओर बढाने लगा। करीब सवा ग्यारह तक हम वापस आ गए। अब हमे स्नान करना था और भोजन करना था।
रात का भोजन हमने जंगल केम्प के केन्टीन में किया था। अभी हम गेट पर बने ढाबों में से एक ढाबे पर आए है। खाने के आर्डर दे चुके हैं।
29 जनवरी 2011
कान्हा गेट
कल दोपहर का भोजन करते करते फिर से समय हो गया। रुम पर पंहुचे और जंगल सफारी के लिए तैयारी करने लगे। दोपहर तीन बजे हम लोग फिर से कान्ह के जंगलों से रुबरु होने के लिए रवाना हो गए। सुबह हमको एक टाइगर के दीदार हो गए थे। इस वक्त जब हम निकले एक वक्त ऐसा भी आया कि एक साथ तीन-तीन टाइगर नजर आ गए। टाइगर भी ऐसे नजर आए कि चिंतन तक को एक पत्थर से दूसरे पत्थर पर छलांग लगाते वनराज नजर आ गए। सारे लोगों को अच्छे से टाइगर देख लिए। दो सफारी में हम चार टाइगर देख चुके थे। रात को नौ बजे जंगल कैम्प के केन्टीन में डट कर भोजन किया और सुबह जल्दी उठने के लिए जल्दी सो गए। सुबह पांच बजे उठे और ठीक छ: बजे तैयार होकर गाडी में सवार हो गए। इस सफारी में न सिर्फ बल्कि किसी को भी टाइगर के दीदार नहीं हुए। उपलब्धि यह रही कि फारेस्ट विभाग द्वारा मैदान में पर बनाए गए म्यूजियम और फिल्म इत्यादि हमने देख ली। सवा ग्यारह बजे हम लौटे। स्नान करने के बाद पौने दो बजे ढाबे पर आए। अभी भोजन का इंतजार चल रहा है। आज की सफारी में किसी को टाइगर नजर नहीं आया। शाम को आखरी सफारी है। चूंकि टाइगर सभी लोग देख चुके है इसलिए किसी को कोई उत्सुकता नहीं बची है। सिर्फ मजे के लिए सफारी में जाना है।
30 जनवरी 2011 (शाम साढे पांच बजे)
कान्हा गेट
अब कान्हा के जंगल से जाने का समय आ गया है। बीती शाम की सफारी में काफी समय नींद आती रही। टाइगर तो नहीं देख सके लेकिन चीतल,सांभर,बारहसिंगा,सियार आदि दिखाई दिए। इस बार अच्छे फोटो भी बने। शाम को लौट कर आए। शाम का भोजन गेट पर बने एक ढाबे में किया। बीती रात भोजन में खापी देर हो गई और सोने में रात के दस बज गए। योजना के मुताबिक सुबह साढे पांच बजे उठकर अब जाने की तैयारी है।
कान्हा का यह दूसरा दौरा था। पहली बार हम लोग गेट से करीब ढाई किलोमीटर भीतर फारेस्ट के रेस्ट हाउस में रुके थे। इस बार हम गेट के बाहर जंगल केम्प में है। दोनो बार कलेक्टर के गेस्ट के बतौर वीआईपी ट्रीटमेन्ट में रहे। पिछली बार हमें हाथी पर बैठकर शेर देखने का मौका भी मिल गया था। इस बार ऐसा टाइगर शो हुआ ही नहीं। पिछली बार हम पांच मित्र थे। इस बार तीन महिलाएं और एक बच्चा चिंतन भी साथ है। परिवार के साथ घूमने का अलग अंदाज और अलग मजा होता है। इसमें काफी अनुशासन रखना पडता है,जबकि दोस्तों के साथ अनुशासन की चिन्ता नहीं होती। बहरहाल अब यहां से मण्डला होते हुए जबलपुर पंहुचना है। जबलपुर से रात साढे नौ बजे ट्रेन है और कल सुबह फिर रतलाम।
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