- तुषार कोठारी
सारा देश एक वर्ग संघर्ष में बंटता सा नजर आने लगा है। एक ओर दलितों के नेता हैं,जो दलित आरक्षण के लिए किसी भी हद तक जाने की धमकियां दे रहें हैं,वहीं दूसरी ओर पटेल समुदाय जैसे आर्थिक रुप से सक्षम समुदाय अब स्वयं को पिछडा घोषित करने और आरक्षण देने की मांग को लेकर हिंसक होने को तैयार हो चुके है। अब तो हद यह हो गई है कि ब्राम्हण और राजपूत समुदाय भी आरक्षण की मांग खडी करने के लिए बैठके कर योजनाएं बनाने लगे है। यदि माहौल इसी तरह आगे बढता रहा,तो वह समय दूर नहीं होगा,जबकि पूरा देश वर्ग संघर्ष में उलझ कर रह जाएगा।
देश में संविधान लागू हुए 65 वर्ष गुजर चुके है। इन 65 वर्षों के दौरान हमने अनेक संविधान संशोधन किए है। ये संविधान संशोधन इस बात को प्रमाणित करते हैं कि समय के साथ साथ चीजों में बदलाव जरुरी होता है। वह चाहे कानूनी प्रावधान हों या योजनाएं। समय के साथ सभी की समीक्षा की जानी चाहिए और आवश्यकता अनुरुप परिवर्तन भी किए जाने चाहिए। इसी तथ्य को यदि हम आरक्षण के मुद्दे के परिप्रेक्ष्य में देखें तो समीक्षा से डरने जैसी कोई बात नहीं होनी चाहिए। समीक्षा का अर्थ किसी प्रावधान को समाप्त कर देना नहीं होता। समीक्षा में तो दोनो ही विकल्प संभव है। हो सकता है कि समीक्षा होने पर आरक्षण को समाप्त करने की बजाय बढाने के निष्कर्ष भी सामने आ सकते है।
पिछले पैंसठ वर्षों से लागू आरक्षण की वास्तविकता की बात की जाए,तो कई चौंकाने वाली जानकारियां सामने आती है। भारत के अधिकांश लोग जानते है कि संविधान लागू होने के समय आरक्षण को अस्थाई प्रावधान के रुप में जोडा गया था और इसे दस वर्षों के लिए जोडा गया था। स्पष्ट है कि देश के संविधान निर्माताओं की सोच थी कि दस वर्षों के भीतर देश का उपेक्षित और वंचित समाज आरक्षण का प्रावधान पाकर सक्षम हो जाएगा। संविधान में समानता का अधिकार दिया गया है। आरक्षण का प्रावधान लागू करते समय यह माना गया था कि लम्बे समय तक शोषित और पीडीत पिछडे और दलित समुदायों को आरक्षण का लाभ देकर सवर्ण जातियों की बराबरी पर लाया जा सकेगा। वंचित वर्ग के जिन लोगों को समानता का अधिकार नहीं मिला है वे आरक्षण पाकर बराबरी पर आ जाएंगे। शुरुआती दौर में यह सोच बिलकुल सही थी। लेकिन जल्दी ही राजनीति ने इस मुद्दे को अपनी गिरफ्त में ले लिया।
शुरुआत से देखें,तो संविधान निर्माताओं ने यह अंदाजा लगाया था कि दस वर्षों में देश का वंचित,शोषित और दलित समाज आरक्षम पाकर सक्षम हो जाएगा और वह अन्य सक्षम समाजों के समकक्ष हो जाएगा। शुरुआती दस साल गुजरने के बाद नेताओं के ध्यान में आया कि आरक्षण को चुनाव जीतने का माध्यम बनाया जा सकता है इसलिए इसे यह कहकर बढा दिया गया कि देश को अभी इसकी और जरुरत है। आज इस अस्थाई व्यवस्था को ६५ वर्ष हो चुके है। यदि आगे दस,बीस या पचास सालों तक इस व्यवस्था की आवश्यकता है तो यह मानना होगा कि वंचित,दलित और शोषित वर्ग की स्थिति में आरक्षण के बावजूद कोई फर्क नहीं आया है। जब ६५ सालों में स्थिति में कोई फर्क नहीं आ पाया तो इस बात की क्या गाारंटी है कि आने वाले दस,बीस या पचास वर्षों में कोई फर्क आ जाएगा?
आरक्षण के दूसरे पहलू पर नजर डालें। राजनीतिक क्षेत्र में आरक्षण के कारण दलित,वंचित और शोषित वर्ग के व्यक्ति विधायक,संासद,मंत्री,मुख्यमंत्री,प्रधानमंत्री तथा सर्वोच्च पद राष्ट्रपति तक बन चुके है। देश के हर हिस्से में आरक्षित वर्ग के नेता राजनीति के शीर्ष स्तर पर जा पंहुचे हैं। सरकारी नौकरियों की बात करें,तो सामान्य लिपिक से लेकर विभिन्न विभागों के जिलाधिकारी और शीर्ष शासकीय सेवा आईएएस,आईपीएस तक में बडी संख्या में आरक्षित वर्ग के लोग पंहुच चुके है। इन पैंसठ सालों में आरक्षण का लाभ लेकर अत्यधिक सक्षम बने लोगों का एक बडा वर्ग तैयार हो चुका है। लेकिन इस तस्वीर का एक पहलू और है। यह पहलू सबसे महत्वपूर्ण है।
आारक्षण का लाभ लेने वालों में बडी संख्या आज उन लोगों की है,जो आरक्षण का लाभ लेकर पहले से ही न सिर्फ सक्षम हो चुके है,बल्कि सामान्य वर्ग से भी उपर की स्थिति में पंहुच चुके है। उदाहरण के लिए आरक्षण का लाभ लेकर आईएएस बने एक व्यक्ति के बच्चे को शिक्षा के सारे अवसर उपलब्ध है। यह बच्चा बचपन से महंगे स्कूल में पढता है। महंगे कालेज में दाखिला लेता है और महंगी कोचिंग में भर्ती होकर आईएएस की परीक्षा में भाग लेता है। इस बच्चे की तुलना एक मध्यमवर्गीय सवर्ण परिवार के बच्चे से कीजिए,जो सामान्य स्कूल में पढता है,सरकारी कालेज से डिग्री लेता है और फिर बिना कोचिंग के आईएएस की परीक्षा में हिस्सा लेता है। मध्यमवर्गीय सवर्ण परिवार के बच्चे को कम संसाधनों के बावजूद उंचे नम्बर लाने है,जबकि भरपूर संसाधन वाले बच्चे को कम अंकों में ही सफलता मिलने वाली है।
मामला सिर्फ यही नहीं है। आरक्षण के लाभ की सचमुच जिसे जरुरत है,वह तो उस लाभ को ले ही नहीं पा रहा,क्योकि उसी के समुदाय के कुछ लोग आरक्षण का लाभ लेकर काफी मजबूत हो चुके है। उन्ही के बच्चे आरक्षण का सारा लाभ हजम करते जा रहे है।
यह एक नई तरह की समस्या है। जीवन भर आरक्षण का लाभ लेने वाला व्यक्ति अनारक्षित व्यक्ति का उतना हक नहीं मार रहा,जितना कि वह आरक्षित वर्ग के व्यक्ति का हक मार रहा है। सक्षम होने के कारण जहां कहीं आरक्षण का लाभ लेने की सुविधा उपलब्ध है,वहां वही पहले पंहुचता है,जिसका परिवार आरक्षण का लाभ लेकर सक्षम बन चुका है। दूर दराज जंगल में रहने वाला एक वनवासी या शहर की सड़क गलियों में सफाई करने वाले सफाईकर्मी के बच्चे को आरक्षण का वास्तवित लाभ आज भी नहीं मिल पा रहा है। आरक्षित पदों में प्रतिस्पर्धा भी बढती जा रही है। इस प्रतिस्पर्धा में निश्चित तौर पर वे बच्चे ही बाजी मारने में सक्षम है,जिनके परिवार पूर्व से सक्षम हो चुके है। आरक्षित वर्ग के एक सांसद या कलेक्टर का पुत्र,उसी वर्ग के एक गरीब परिवार के बच्चे से कई गुना अधिक योग्य बन जाता है,क्योंकि उसके पास बचपन से संसाधनों की कोई कमी नहीं होती।
दूसरे शब्दों में कहें,तो वर्तमान समय में आरक्षण की यह मौजूदा व्यवस्था,उन्ही लोगों के लिए नुकसानदायक साबित हो रही है,जिन्हे इसकी सबसे ज्यादा जरुरत है। कई मामलों में तो यह भी देखा गया है कि आरक्षण का लाभ लेकर बडे पदों पर पंहुचे व्यक्ति अपने ही समुदाय से दूरी बनाने लगते है। उन्हे लगता है कि अब वे आर्थिक और सामाजिक तौर पर अपने समुदाय से आगे निकल चुके है। उन्हे अपने ही समुदाय के कमजोर लोगों से हिकारत होने लगती है। वे अपने समुदाय के जरुरतमन्द लोगों की मदद तो नहीं करते,बल्कि आरक्षण की व्यवस्था का लाभ भी उन जरुरतमन्दों तक नहीं पंहुचने देते। क्योकि यह लाभ तो वे स्वयं ही अपने पुत्र,पुत्रियों के माध्यम से हजम कर चुके होते है।
कुल मिलाकर आरक्षण की मौजूदा व्यवस्था की निष्पक्ष समीक्षा से आरक्षित वर्ग का ही लाभ होना है। ६५ सालों का लम्बा समय गुजरने के बाद भी यदि आरक्षित वर्ग के बहुसंख्यक लोगों की स्थिति में वास्तविक परिवर्तन नहीं आ पाया है, तो यह जरुर विचार किया जाना चाहिए कि कहीं न कहीं व्यवस्था में ही कोई कमी है। और यदि व्यवस्था में कोई कमी है,तो समीक्षा कर उसे दूर करने में हिचक क्यों होना चाहिए। आरक्षित वर्ग के उन लोगों को भी विचार करना चाहिए,जो आरक्षण का लाभ लेकर आर्थिक और सामाजिक रुप से अत्यधिक सक्षम हो चुके है। ऐसे लोगों को सोचना चाहिए कि वे कब तक इस व्यवस्था का लाभ लेकर अपने ही समुदाय के अन्य जरुरतमन्द लोगों का हक छीनते रहेंगे? सामाजिक स्तर पर भी इस समस्या पर विचार किया जाना चाहिए। सरकार के आव्हान पर आर्थिक रुप से सक्षम अनेक लोगों से स्वयं ही घरेलू गैस की सबसीडी छोडने का एलान किया है। क्या आरक्षण के मामले में ऐसा नहीं हो सकता। आरक्षण का लाभ लेकर मजबूत बन चुके लोग यदि इस तरह की कोई पहल कर दें,तो निश्चित ही यह देश की दिशा व दशा बदलने वाला कदम साबित हो सकता है।
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