Sunday, January 31, 2016

Rajasthan Colorfull Journy यात्रा वृत्तान्त-18 रंगीला राजस्थान माता के मन्दिर में फूट नहीं पाए पाकिस्तानी बम

(8 सितम्बर 2014 से 14 सितम्बर 2014)

राजस्थान की यह दूसरी यात्रा रामद्वारा के महन्त श्री गोपालदास जी के आशीर्वाद से हो पाई। हमें महाराज जी के साथ रामधाम सींथल जाना था और सींथल के आचार्य श्री क्षमाराम जी महाराज के दर्शन करना थे। इसी मौके का लाभ लेते हुए मैने तत्काल पूरी राजस्थान यात्रा की योजना बना ली। यह राजस्थान की दूसरी यात्रा थी। पहली बार मैं अपने तीन साथियों कमलेश पाण्डेय,राजेश घोटीकर और अनिम मेहता के साथ मोटर साइकिलों पर सवार होकर आया था। उस समय हमने यूथ होस्टल्स के डेजर्ट सफारी में हिस्सा लिया था और जैसलमेर,बाडमेर,जोधपुर इत्यादि स्थान देखे थे। इस बार भी यही सबकुछ था। यह यात्रा अनन्त चतुर्दशी का गणेश विसर्जन कर प्रारंभ की थी। उसी रात को हम रतलाम से निकले थे।


10 सितम्बर 2014 (सुबह 7.30)
रामधाम सींथल
रामस्नेही संप्रदाय के मुख्य स्थान सींथल की सुबह बडी सुहावनी है। सुबह चार बजे उठकर ,सींथल धाम के प्रमुख आचार्य श्री क्षमाराम जी के दर्शन किए और उनसे चर्चा हुई। लगभग 275 वर्ष पूर्व स्थापित सींथल (सिंहस्थल)की आचार्य परंपरा में श्री क्षमाराम जी दसवें आचार्य है। क्षमाराम जी सुबह नौ बजे यहां से मुंबई के लिए रवाना हो जाएंगे। उनसे भेंट के बाद अब स्नान आदि से निवृत्त होकर भोजन का इंतजार है।
 राजस्थान की इस यात्रा में मेरे साथ दशरथ जी पाटीदार,उदित अग्रवाल,हिमांशु जोशी,संतोष जी त्रिपाठी,और सुभाष नायडू है। अमित लामा जी भी हमारे साथ यहां तक आए है,लेकिन वे अब आगे गोपालदास जी महाराज के साथ रतलाम लौट जाएंगे। हम लोग उदित की झायलो गाडी से यहां से जैसलमेर और आगे अन्तर्राष्ट्रिय सीमा तक जाने का इरादा रखते है।
इस बार की यात्रा गोपालदास जी महाराज के कारण अस्तित्व में आई। हमें सींथल तक तो आना ही था,सोचा आगे जैसलमेर आदि भी घूम लेते है। राजस्थान के इस इलाके में यह मेरी दूसरी यात्रा है। पहली बार में मोटर साइकिल से यहां आया था।
यह यात्रा 8 सितम्बर की रात रतलाम से शुरु हुई। गोपाल जी महाराज अपनी बोलेरो से सुबह निकल गए थे। हम शाम को गणपति विसर्जन  करने के बाद निकले। चित्तौडगढ में रात रुकने की योजना थी,सर्किट हाउस में कक्ष भी आरक्षित थे। लेकिन योग संयोग की बात। चित्तौडगढ जब मात्र 15 किमी दूर था,हम लोग जाम में फंस गए। करीब ढाई घण्टे की मशक्कत  के बाद जाम से तो निकल गए,लेकिन चित्तौड शहर में जाने का रास्ता तब भी जाम था। इसलिए बायपास से होते हुए 30 किमी आगे गंगधार में पंहुचे। रात के साढे तीन बज चुके थे। सड़क किनारे एक होटल में रुकने की व्यवस्था की। होटल वाले ने सात सौ कहकर छ:सौ रु.प्रति रुम के हिसाब से कमरे दिए।  सभी लोग बुरी तरह थक चुके थे। कमरे में जाते ही सो गए।

9 सितम्बर 2014
गंगधार
इसी होटल में पराठे चाय का तगडा नाश्ता कर बीकानेर के लिए रवाना हो गए। कायदे से तो हमे अजमेर होकर
जाना चाहिए था,लेकिन टोनी ने गूगल मैप को देखकर अजमेर ना जाते हुए ब्यावर जाने का फैसला किया। इस तरीके से रास्ता छोटा हो जाने की उम्मीद थी। लेकिन ब्यावर तक का और उससे आगे का रास्ता बीच बीच में बेहद खराब था। नतीजा यह हुआ कि हम शाम करीब छ: बजे देशनोक पंहुचे।
देशनोक में विश्वविख्यात करणी माता का मंदिर है,जहां चूहों की भरमार है। देश विदेश के लोग यह चमत्कार देखने आते है। देशनोक में दर्शन कर शाम करीब सवा सात बजे बीकानेर के आनन्दधाम आश्रम पंहुचे। यह बडा विशाल आश्रम है। यहीं गोपालदास जी से भेंट हुई। यहीं भोजन किया। यहां से करीब नौ बजे सींथल के लिए रवाना हुए। रात करीब दस बजे सींथल पंहुच गए। सींथल में आश्रम को देखने के बाद जल्दी सो गए,क्योंकि सुबह चार बजे उठना था।
अब यहां से आज जैसलमेर पंहुचने की योजना है।

11 सितम्बर 2014 (सुबह 7.30)
रोजानी रिसोर्ट,सम,जैसलमेर
कल सुबह करीब साढे नौ बजे सींथल से जैसलमेर के लिए निकले थे। सींथल से जैसलमेर की दूरी 360 किमी है। सींथल से बीकानेर पंहुचे और वहां से जैसलमेर का हाई वे पकड लिया। बीकानेर से जैसलमेर के रास्ते में ट्रैफिक बेहद कम था। रेगिस्तान के इस इलाके में जनसंख्या घनत्व बेहद कम है। सड़कों पर आदमी और वाहन कभी कभार ही नजर आते है। हाई-वे पर दो गांवों की दूरी भी बहुत ज्यादा है। पच्चीस-तीस किमी तक दूसरा गांव ही नहीं आता। रेगिस्तानी इलाके का दृश्य भी बदल रहा है। सड़क के दोनो ओर खेत लहलहाने लगे हैं। बांधों की बदौलत इस रेत में खेत पनप गए है। बीकानेर से ठेठ जैसलमेर तक खेती के नजारे अब आम हो चुके है।
सड़क पर ट्रैफिक कम होने से हम लोग बडी आसानी से जैसलमेर के नजदीक तक पंहुच गए। सुबह सींथल से 8 बजे भोजन करके चले थे। अब साढे तीन-चार बजते बजते भूख फिर से लगने लगी थी। जैसलमेर से करीब 50 किमी पहले एक होटल नजर आया। यहीं पर भोजन किया। शाम करीब पांच-सवा पांच बजे हम जैसलमेर पंहुच गए। जैसलमेर में हमारा स्वागत तेज बारिश ने किया।



सड़कों पर पानी भरा हुआ था। हमने तय कर लिया था कि आज की रात सम के रेतीले टीलों में गुजारना है। जैसलमेर से 40 किमी दूर सम रेतीले टीलों के लिए प्रसिध्द है। जैसलमेर से सीधे सम के लिए रवाना हो गए। शाम करीब सवा छ: बजे यहां रोजानी रिसोर्ट में प्रतिव्यक्ति में हमने ठहरने का इंतजाम किया। प्रति व्यक्ति साढे आठ सौ रुपए में यहां सोने के टेण्ट,भोजन,ऊं ट की सवारी आदि का पैकेज मिल गया। इन दिनों यहां आफ सीजन है और पर्यटक बेहद कम है,इसलिए कीमतें भी कम है।
रिसोर्ट में आते ही ऊं ट की सवारी के लिए निकल पडे। रेतीले टीलों पर ऊं ट की सवारी करने के बाद वापस लौटे। रिसोर्ट में राजस्थानी लोकगीत व नृत्य आदि का कार्यक्रम प्रस्तुत किया जाता है। यह कार्यक्रम देखने के बाद भोजन किया। भोजन भी ठेठ राजस्थानी। दाल बाटी,चूरमा,केर सांगरी की सब्जी,कढी,आदि। भोजन के बाद रात की जीप सफारी का कार्यक्रम था। पहले सोचा कि अपनी गाडी से जाएं लेकिन यहां फोर व्हील गाडी में घूमना एक अलग अनुभव होता है। जब हम निकल रहे थे,तेज रेतीला तूफान शुरु हो चुका था। हल्की बूंदाबांदी भी हो रही थी। तेज बारिश का अंदेशा भी था,लेकिन तेज बारिश नहीं हुई। करीब 45 मिनट की नाईट सफारी भी बेहद रोमांचक थी। रेतीले टीलों पर चढती उतरती गाडी,उडती रेत। एक दो स्थानों पर रुक कर फोटो लिए। लेकिन बादलों की वजह से अंधेरा ज्यादा था। इसलिए फोटो उतने अच्छे नहीं आए। रात साढे ग्यारह पर यह दिन खत्म हुआ और हम बिस्तर के हवाले हो गए।
रोजानी रिसोर्ट अलीभाई नामक व्यक्ति का है। अली भाई ने बताया कि इन्दिरा सागर की नहर यहां से 35 किमी दूर तक आ गई है। अब मीठे पानी की समस्या कम हो गई है। पहले सिर्फ बारिश के पानी को सहेज कर पानी की समस्या हल होती थी। लेकिन अब पानी आसानी से मिल जाती है।
सुबह 9.00 बजे
हम स्नान व अल्पाहार कर चुके है और अब यहां से निकलने की तैयारी। आज तनोट माता,लोंगोवाला पोस्ट और कुलधारा देखने का कार्यक्रम है।
12 सितम्बर 2014 (सुबह 7.30)
होटल अरुण जैसलमेर
जैसलमेर के होटल अरुण में हम बीती शाम पंहुचे थे। शाम को यहां पंहुचने के बाद पहले सर्किट हाउस में ठहरने का विचार किया,लेकिन राजस्थान में सर्किट हाउस काफी महंगे है।  यहां कमरे का किराया डेढ हजार रु.है। सर्किट हाउस छोडकर डाक बंगलो पंहुचे। यहां किराया तो ठीक ठाक था लेकिन साफ सफाई का मुद्दा गडबड था। सींथल से हमें रतनू जी का नम्बर मिला था। रतनू जी आरटीडीसी में पोस्टेड है। रतनू जी से सिर्फ मोबाइल पर बात हुई थी। सम के रोजानी रिसोर्ट में भी उन्ही के कहने पर रुके थे। यहां जैसलमेर के लिए उन्होने एक सुमेरसिंह का नम्बर दिया था। सुनेर सिंह की यहां ट्रेवल एजेंसी है। सुमेर सिंह से फोन पर बात हुई तो उनेक भतीजे विक्रमसिंह से मुलाकात हुई। विक्रमसिंह ने हमें इस होटल में रुकवाया। होटल मुख्य बाजार में ही है और सामने ही थोडी दूरी पर जैसलमेर का किला है। आज जैसलमेर किला और पटवा हवेली आदि घूमना है।
कल का दिन बेहद अच्छा रहा था। रोजानी रिसोर्ट से पोहे चाय का नाश्ता कर हम तनोट माता मंदिर के लिए रवाना हो गए। इसके लिए सम से फिर जैसलमेर तक आना पडा और यहां से तनोट माता का मन्दिर का रास्ता पकडा। तनोट माता मंदिर जैसलमेर से 120 किमी है। यह वास्तव में बीएसएफ की चौकी है,जहां अब बडा मन्दिर बन चुका है।
तनोट माता चमत्कारी मन्दिर है। 1965 के भारत-पाक युध्द में पाकिस्तान ने इस मन्दिर को नष्ट करने के लिए हजारों बम इस मन्दिर पर गिराए,लेकिन माता का चमत्कार था कि मंदिर के आस-पास गिरे बम फट ही नहीं पाए। ये जीवित बम आज भी मन्दिर में रखे हुए है। 1971 के युध्द में भी कहते है कि माता के आशीर्वाद से ही भारत को बडी जीत हासिल हुई थी। इस मन्दिर को अब बीएसएफ ही सम्हालती है।
तनोट माता मन्दिर में हजारों लोग आते है और अपनी मन्नत पूरी करने के लिए यहां रुमाल बान्धते है। यहां मेला भी लगता है। तनोट माता मन्दिर पंहुचने से पहले हमने रामगढ गांव में भोजन किया। रामगढ से तनोट माता का करीब 80 किमी का रास्ता पूरी तरह वीरान है। न तो वाहनों की आवाजाही है,न लोग नजर आते है। जहां तक नजर जाती है सिर्फ रेत और कटीली झाडियां। पेड अव्वल तो है ही नहीं,और जो है,वो सब बबूल के कटीले पेड है। इसके अलावा कुछ भी नहीं। इस पूरे रास्ते में दूर दूर तक गांव भी नहीं है। सरहद के इलाकों में जो  छोटे छोटे गांव हैं,वे बेहद छोटे है। वहां गरीबी भी पसरी मिलती है।
तनोट माता के दर्शनों के बाद यहां से 35 किमी दूर लोंगेवाला पोस्ट के लिए निकले। रास्ते में सादेवाला गांव है।















यहां कभी सेना का वाच टावर और चौकी भी थी,जो अब उपयोग में नहीं आ रही है।यहां कई बंकर भी बने हुए है। हमने कई बंकरों के भीतर जाकर देखा। इस स्थान को छोडकर लोंगेवाला पोस्ट पंहुचे। 1971 की लडाई में पाकिस्तान से छीना हुआ टैंक और क्रेन आज भी यहां रखे हुए हैं। जैसे उस वक्त थे। बार्डर फिल्म में यह पूरा युध्द दिखाया गया है। भारतीय सैनिकों की असाधारण वीरता की कहानी यहां आंखों के सामने नजर आने लगती है।
लोंगेवाला पोस्ट से सीधा रास्ता जैसलमेर जाता है,लेकिन उसे छोडकर हमने दूसरा लम्बा रास्ता पकडा। इस रास्ते पर बीच में एख बेहद छोटे गांव में हमने गाडी रोकी। इस गांव में रूर से एक पुरुष नजर आया था। गाडी देखते ही वह व्यक्ति हमारे पास आने लगा। हम गाडी से उतरे और तब आश्चर्यचकित रह गए,जब उस व्यक्ति ने आते ही नमस्कार किया। नमस्कार के आदान-प्रदान के बाद हमने बातचीत आगे बडाई तो पता चला कि उसका नाम इस्माईल खां था। इस्माईल खां से थोडी बातचीत हुई तो उसने चाय का प्रस्ताव रखा। जिसे मैने फौरन स्वीकार कर लिया। क्योकि इसी बहाने से हम गांव वालों के बारे में ज्यादा से ज्यादा जानकारी ले सकते थे। इस्माईल खां के साथ मै और दशरथ जी गांव के भीतर इस्माईल खां के घर पंहुचे। हमारे वहां पंहुचते ही कई सारे लोग और बच्चे इक_े हो गए। हमारे लिए चाय बनने लगी और हम लोगों से चर्चा करने लगे। यह गांव भाईयों की ढाणी,बेहद छोटा गांव है। यहां महज तेरह परिवार रहते है। सभी मुस्लिम है और आपस में रिश्तेदार है। उनके शादी ब्याह भी गांव में ही हो जाते है। सब के सब निपट निरक्षण ,लेकिन मेहमाननवाजी में बिलकुल आगे। चाय पी तो उन्होने दूध पेश कर दिया। घर की महिला कहने लगी कि भोजन कर लो। भोजन का आग्रह तो हमने टाल दिया लेकिन चाय और दूध के बीच में हमने कई बातें जानी। गांव में सब निरक्षर है। स्कूल यहां है ही नहीं। न स्कूल है,ना स्वास्थ्य की व्यवस्था। कोई आंगनवाडी,स्वास्थ्य कार्यकर्ता यहां नहीं आता। पानी भी गांव के लोग आगे करीब 20  किमी के गांव से टैंकर से लाते है। गायें पालते हैं और दूध ही इनका व्यवसाय है। खेती इस इलाके में नहीं होती। देश की अन्य सीमाओं की तरह,यहां उन्हे पाकिस्तान का डर नहीं सताता।1971 की करारी हार के बाद शायद पाक इस सीमा पर गडबडी नहीं करता। भाईयों की ढाणी तो एक ऐसी खबर है,जो तमाम सरकारी दावों की पोल खोलने में सक्षम है। यहां के लोग वोट देने जाते है,लेकिन उनकी समस्याएं सुलझाने कोई नहीं जाता। लेकिन वे फिर भी खुश है।
भाईयों की ढाणी से अब सीधे जैसलमेर के लिए जैसलमेर में प्रवेश करते ही हिमांशु की तबियत खराब हो गई। वाहन के भीतर एसी और बाहर 40 से 45 डिग्री की तेज गर्मी। इस पर पैदल चलना। शायद ये उससे सहन नहीं हुआ और उसे उल्टियां होने लगी। इसके बाद लूज मोशन भी हुए। उसे दवाईयां दी और होटल में छोडकर हम बाजार रवाना हो गए।

13 सितम्बर 2014 (सुबह 9.00)
होटल सिटी व्यू जोधपुर
कल जैसलमेर की सुबह बेहद सुहानी थी। हांलाकि यहां अभी गर्मी का असर बाकी है। हम होटल से चैक आउट करके,सबसे पहले राजपुरोहित ट्रेवल्स के आफिस में पंहुचे,जहां विक्रम सिंह के साथ हमने चाय पी। चाय पीकर हम सोनार किला यानी जैसलमेर दुर्ग के लिए रवाना हुए। जैसलमेर दुर्ग नजदीक ही है। सबसे पहले दुर्ग के नीचे एक प्रसिध्द दुकान पर डट कर नाश्ता किया। हमने यहां प्याज की कचौरी,कचौरी,समोसे,आलूबडे आदि खाए। देशी घी की जलेबी का आनन्द लिया। गौतम नाम के एक लडके को अपना गाइड बनाया और किले के भीतर आटो से पंहुचे। जैसलमेर दुर्ग के भीतर पूरा शहर बसा हुआ है।     सोनार किला करीब आठ सौ वर्ष पूर्व महारावल जैसल ने बनवाया था। जैसलमेर को स्वर्णनगरी भी कहा जाता है। पीली बालूरेत,पीले पत्थरों से बना शहर,जब इस पर सूरज की रोशनी पडती है,तो यह सोने जैसा चमकता है। सुदूर  रेगिस्तान में इतना भव्य दुर्ग देखकर हर कोई आश्चर्यचकित हो जाता है। जैसलमेर की हवेलियां भी अत्यन्त प्रसिध्द है। यहां की हवेलियों और किले के साथ साथ घरों तक पर पत्थरों की कारीगरी देखने लायक है। कठोर लाल पत्थर पर बारीक नक्काशी देखकर मन आश्चर्य से भर जाता है। जैसलमेर में पटवा हवेलीयां,सालमसिंह हवेली,नथमल की हवेली आदि अत्यन्त सुन्दर और मनमोहक है।
जैसलमेर में ऊंट के चमडे का भी अच्छा काम होता है।पूरे देश में ऊंट के चमडे की चीजें शायद यहीं बनती है। ऊंट के चमडे  के जूते,टोपी,बेल्ट,पर्स,बैग,झोले आदि तमाम चीजें बनाई जाती है। सभी ने यादगार के रुप में कुछ  ना कुछ खरीदा।
अब वक्त रवानगी का था। दोपहर दो बजे हम जैसलमेर से जोधपुर के लिए रवाना हो गए। रास्ते में प्रसिध्द पोकरण होते हुए ागे बढे। दोपहर करीब साढे तीन पर एक ढाबे में भोजन किय। शाम करीब सवा सात बजे हम जोधपुर  आ गए। पहले सरकारी रेस्ट हाउस में जगह ढूंढी,लेकिन आखिर में रेलवे स्टेशन के नजदीक रात करीब नौ बजे इस होटल में  चैक इन किया। अब आज मेहरानगढ फोर्ट और उम्मेद पैलेस देखकर यहां से रवाना होंगे।
14 सितम्बर 2014 (दोपहर ढाई बजे)
नाथद्वारा
कल सुबह जोधपुर में उम्मेद भवन पैलेस और मेहरानगढ किला देखकर करीब डेढ बजे निकल गए। हमें उदयपुर,नाथद्वारा और सांवरिया जी होते हुए रतलाम पंहुचना है।  कुंभलगढ क प्रसिध्द किल बीच में ही पड रहा था। इसलिए पहले कुंभलगढ जाने का इरादा किया। वहां पंहुचने में थोडी देर हो गई। शाम करीब छ: बजे कुंभलगढ पंहुचे। किले में प्रवेश अब बन्द हो गया था,लेकिन लाइट एण्ड साउण्ड शो शाम को होना था। इस शो के लिए किले में रुके। करीब 40 मिनट का यह शो अविस्मरणीय था। पूरे किले पर लाइट का अद्भुत असर नजर आता है। चूंकि किला नहीं देख पाए थे,इसलिए रात यहीं रुकने का इरादा किया और रत्नदीप होटल में कमरे ले लिए। रात अच्छी गुजरी। सुबह ठीक 8.45 पर किले पर पंहुच गए। कुंभलगढ किला बेहद खास किला है।   महाराणा प्रताप का जन्म इसी किले पर हुआ  था। इस किले की दीवार 36 किमी लम्बी है और यह चीन की दीवार के बाद दूसरी सबसे लम्बी दीवार है। किला देखकर सोचा कि पहले उदयपुर जाएं। लेकिन रास्ते में 14



किमी अतिरिक्त चलने पर हल्दी घाटी पंहुच रहे थे। इसलिए हल्दीघाटी पंहुच गए। यहां म्यूजियम और हल्दीघाटी देखकर उदयपुर जाने की बजाय नाथद्वारा आ गए। यहां तीन बजे दर्शन करेंगे। तब तक भोजन के लिए होटल में हैं। दर्शन के बाद उदयपुर और सांवरिया जी होते हुए रतलाम पंहुचने का कार्यक्रम है। आज ही देर रात तक रतलाम पंहुचने की उम्मीद है।
नाथद्वारा में दर्शन करने के बाद वहंा से उदयपुर पंहुचे,जहां डॉ.सुमित सिंघल के अस्पताल में रतलाम के एक मरीज का आपरेशन  हुआ था। इस मरीज से मिलकर बहुत जल्दी सांवरिया जी पंहुचे और देर रात को मन्दसौर में गुरु एक्सप्रेस के आफिस में आशुतोष व आशीष से मिलकर देर रात रतलाम पंहुच गए।                                         

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