-तुषार कोठारी
देश आज जिन समस्याओं से जूझ रहा है,उनमें से अधिकांश भारत की आजादी के समय की है। कश्मीर पर भारत अरबों खरबों रुपए फूंक चुका है,फिर भी आतंकवादी हमलों का खतरा बरकरार है। पडोसी देश चीन का खतरा बरकरार है। चीन के मुकाबले हम बेहद कमजोर है। संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद में हमारा कोई जोर नहीं है। भारत की 62 हजार वर्गमील जमीन पर चीन का अवैध कब्जा है। हमारा पडोसी नन्हा देश तिब्बत चीन के अत्याचार झेलने को बाध्य है। हर साल कई तिब्बती अपनी स्वाधीनता के लिए बलिदान दे रहे हैं। इन सारी समस्याओं की शुरुआत भारत की आजादी के तुरंत बाद हुई थी। उस समय देश के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु थे।
भारत की आजादी और उसके बाद के कालखण्ड पर नजर डालें,तो पता चलता है कि देश की शुरुआती समस्याएं हमारे नेताओं की मूर्खतापूर्ण सोच का नतीजा है। ये शब्द कठोर है,लेकिन इनमें सच्चाई है। आज हर कोई जानता है कि स्वतंत्रता के तुरंत बाद देश की साढे पांच सौ से अधिक रियासतों का एकीकरण एक बेहद कठिन और लगभग असंभव सा काम था। धूर्त अंग्रेजों के मन में कहीं ना कहीं ये भाव था,कि भारतीय लोग आजादी को अधिक समय तक संभाल नहीं सकेंगे और एक न एक दिन अंग्रेजों को फिर से भारत पर राज करने का मौका मिलेगा। इसी सोच के चलते उन्होने आजादी के समय उलझनों को और अधिक बढाने पर ध्यान दिया। वे कतई नहीं चाहते थे कि भारत को स्वतंत्रता मिलने के बाद भारत सरकार आसानी से देश चला सके। इसी का नतीजा था,कि उन्होने देशी रियासतों को अलग अलग स्वतंत्रता दी और रियासतों को ये अधिकार दिया कि वे चाहे तो पाकिस्तान में शामिल हो,या भारत में या फिर स्वतंत्र रहे। आजादी के बाद की इस पहली कठिन चुनौती को सरदार पटेल ने स्वीकार किया। इतिहास गवाह है कि उन्होने पूरे देश का एकीकरण कर दिखाया। साढे पांच सौ में से महज एक रियासत जम्मू और कश्मीर के मामले को जवाहरलाल नेहरु ने स्वयं के कश्मीरी होने का हवाला देकर अपने पास रखा था। आज पूरा देश जानता है कि नेहरु द्वारा जम्मू काश्मीर का मामला खुद के पास रखने का क्या नतीजा हुआ? धारा ३७० के कारण जम्मू काश्मीर देश में होकर भी देश से अलग है। इतना ही नहीं इसी की वजह से यह प्रदेश देश के अन्य प्रदेशों की तरह देश की मुख्यधारा में नहीं मिल पाया। हमारे अतिविद्वान प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु को सिर्फ इतने से संतोष नहीं हुआ। कल्पनालोक में रहने वाले स्वप्रदर्शी प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु ने पाकिस्तान द्वारा अवैध रुप से कब्जाए गए काश्मीर के हिस्से को वापस लेने के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ की मध्यस्थता की मूर्खताभरी राय दी थी। उपप्रधानमंत्री वल्लभभाई पटेल की सतर्कता के कारण संयुक्त राष्ट्र की मध्यस्थता का यह प्रस्ताव अधिकृत रुप से नहीं रखा जा सका था,केवल जवाहरलाल के एक भाषण में इसका जिक्र हुआ था। इसी के साथ अतिविद्वान जवाहरलाल ने कश्मीर में जनमत संग्रह से मसला सुलझाने की बात भी कही थी। एक भाषण में इन बातों का जिक्र भर कर देने की कीमत भारत आज तक चुका रहा है। आज तक पाकिस्तान कश्मीर में जनमत संग्रह और संयुक्त राष्ट्र की मध्यस्थता का राग अलापता रहता है। भला हो जवाहर लाल की बेटी का जिसने 1971 के भारत पाक युध्द के बाद शिमला समझौते के माध्यम से अपने पिता की इस गंभीर भूल को दुरुस्त करने की कोशिश की। शिमला समझौते में भारत ने दबाव डालकर भारत पाकिस्तान के प्रत्येक मामले को द्विपक्षीय वार्ता से सुलझाने और किसी तीसरे पक्ष की मध्यस्थता स्वीकार नहीं करने पर पाकिस्तान की सहमति प्राप्त की। यही कारण है कि प्रत्येक अन्तर्राष्ट्रिय मंच पर भारत बडी आसानी से पाकिस्तान को रगड पाता है।
देश के प्रथम विद्वान प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु के खाते में ऐसे कई मूर्खतापूर्ण निर्णय भरे पडे है। संयुक्त राष्ट्र संघ में सुरक्षा परिषद के प्रथम गठन के समय भारत को सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता दी जा रही थी। सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता कितनी महत्वपूर्ण है,यह हर कोई जानता है। हमारे स्वप्रदर्शी प्रधानमंत्री ने चीन के प्रेम में पागल होकर भारत को मिल रही इस अत्यन्त महत्वपूर्ण उपलब्धि को गंवा दिया। उन्होने आगे बढकर सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता चीन को देने का सुझाव दिया। आज वही चीन सुरक्षा परिषद में भारत के हित के निर्णयों पर वीटो कर देता है।
1962 के भारत चीन युध्द में भारत की करारी हार भी इन्ही विद्वान प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु द्वारा देश को दिया गया तोहफा था। भारत जैसे विशाल देश के प्रधानमंत्री का पद संभालने वाले नेता को इतनी सामान्य समझ नहीं थी कि किस पर कितना विश्वास करना चाहिए। पहले जब चीन ने तिब्बत को हडपने के षडयंत्र प्रारंभ किए तो उपप्रधानमंत्री वल्लभ भाई पटेल ने बाकायदा पत्र लिख कर जवाहरलाल को चेताया था कि चीन की विस्तारवादी नीति आगे चलकर भारत के लिए खतरा साबित होगी। सरदार पटेल ने स्पष्ट कहा था कि तिब्बत को हडपने के चीनी षडयंत्र पर भारत को तिब्बत की खुली मदद करना चाहिए और तिब्बत को बचाना चाहिए। लेकिन अति विद्वान प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल ने सरदार पटेल की चेतावनी पर कोई ध्यान नहीं दिया। सरदार पटेल की भविष्यवाणी अक्षरश: सत्य साबित हुई। चीन ने तिब्बत को हडपने के बाद बेहिचक भारत पर हमला किया। मजेदार बात यह है कि भारत पर हमला करते वक्त भी चीनी सैनिक हिन्दी चीनी भाई भाई के ही नारे लगा रहे थे। देश को भाषा के आधार पर बांटने का निर्णय भी इन्ही अति विद्वान प्रधानमंत्री का था,जिसकी वजह से देश में लम्बे समय तक आंतरिक विवाद चलते रहे।
तथ्यों के हिसाब से देखा जाए तो देश का दुर्भाग्य उसी क्षण से प्रारंभ हो गया था,जब सरदार पटेल के पक्ष में पूर्ण बहुमत के बावजूद मोहनदास गांधी ने जवाहरलाल को प्रथम प्रधानमंत्री बनाने की जिद पकडी थी और सरदार पटेल ने गांधी जी की इस अलोकतांत्रिक
जिद को मान लिया था।
प्रथम प्रधानमंत्री के कारनामों की सूचि इतनी लम्बी है कि इस पर कई ग्रन्थ लिखे जा सकते है। हांलाकि इन तथ्यों को वही जान सकता है,जिसे तथ्यों के अन्वेषण का शौक हो और जो इसके लिए मेहनत करने को राजी हो। सरकारी किताबों में तो देश के केवल दो ही नायक बताए गए है,एक मोहनदास करमचंद गांधी और दूसरे जवाहरलाल नेहरु। इसके बाद यदि कोई नायक है,तो इन्दिरा गांधी और उनके परिवार को लोग। सरकारी किताबों में बताए गए झूठे सच्चे किस्सों को रटकर प्रशासनिक सेवा में चयनित हुए किसी व्यक्ति से यही अपेक्षा की जा सकती है कि वह उन झूठे तथ्यों का दोहराव करेगा। अति विद्वान प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु को देश का नायक साबित करने वाले के ज्ञान के स्तर का अंदाजा इससे भी लगाया जा सकता है कि उन्हे देश के हिन्दू तालिबान बनने का डर सताता है। अगर ऐसे लोग इतिहास पर थोडी सी नजर डाल लेते तो उन्हे पता चलता कि इस दुनिया में ईसाई और मुस्लिम धर्म के आगमन से कई साल पहले और आज से २०७३ साल पहले इस देश में विक्रमादित्य का शासन था। तब बौध्द और जैन धर्म वैदिक धर्म के विरोध में ही उत्पन्न हुए थे। वैदिक धर्म और बौध्द वे जैन धर्म में मतभिन्नता थी,लेकिन कट्टरता का नामोनिशान नहीं था। हिन्दू धर्म तो सदैव से एकम सद् विप्र: बहुधा वदन्ति के सिध्दान्त पर चलता आया है। लेकिन ये तथ्य तो वही जान सकता है,जिसने थोडा सा वास्तविक ज्ञान अर्जित किया हो। रामदेव और आशाराम की तुलना करने वाले किसी कुण्ठित मानसिकता के प्रशासनिक अधिकारी से उटपटांग बातों के अलावा और क्या उम्मीद की जा सकती है?
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