(कैलाश मानसरोवर यात्रा से लौटकर तुषार कोठारी)
देश भर में फैले द्वादश ज्योतिर्लिंगों को देवाधिदेव महादेव का साक्षात स्वरुप माना जाता है,लेकिन महादेव का वास्तविक निवास तिब्बत में स्थित कैलाश पर्वत है। आसपास फैले हजारों पर्वतों में से कैलाश,तारों से भरे आसमान में पूर्णमासी के चन्द्रमा की तरह अलग ही चमकता हुआ नजर आता है। इस अनूठे पर्वत का रहस्यमयी आकर्षण जहां प्रत्येक देखने वाले को शिव की साक्षात उपस्थिति का आभास कराता है,वहीं मानसरोवर के तट पर पंहुचने के बाद व्यक्ति को सनातन से सीधे संवाद की अनुभूति होती है। कैलाश और मानसरोवर पर पंहुचने के बाद वहां होने वाली अलौकिक अनुभूतियों का सटीक वर्णन शब्दों से कर पाना सामान्य मानव के लिए असंभव है। इन अनुभूतियों को वहां पंहुचकर ही जाना जा सकता है।
कैलाश और मानसरोवर की अलौकिक आध्यात्मिक यात्रा का सुखद संयोग अगस्त माह में बना,जब भारतीय विदेश मंत्रालय को किए आनलाइन आवेदन को स्वीकृत कर लिए जाने की जानकारी मिली। कैलाश मानसरोवर यात्रा में मेरे साथ जाने के लिए मन्दसौर के मेरे पत्रकार मित्र गुरु एक्सप्रेस के संपादक आशुतोष नवाल ने भी सहमति दी थी और हमने दोनो के ही आवेदन एक साथ किए थे। हमारा चयन कैलाश मानसरोवर यात्रा 2016 के अंतिम अठारहवें जत्थे के लिए किया गया था और हमें स्वाधीनता दिवस 15 अगस्त के दिन दिल्ली पंहुचना था। यहां हार्ट एण्ड लंग्स इंस्टीट्यूट में मेडीकल परीक्षण के दौरान हमारे जत्थे के अन्य यात्रियों से हमारी मुलाकातें हुई। 19 अगस्त को हमारी यात्रा दिल्ली से प्रारंभ होना था। हमें पता चला कि हमारे जत्थे में देश के विभिन्न प्रान्तों के कुल 37 लोग शामिल है और हमारे जत्थे के प्राधिकृत अधिकारी उत्तराखण्ड के गढवाल रैंज के आईजी संजय गुंजियाल है। अब तक बैच के सभी यात्रियों से न तो मुलाकात हुई थी और ना ही परिचय।
दिल्ली के मैदानी इलाके से कुमाऊं के पहाडों में
हमारी यह यात्रा नई दिल्ली से सुबह सवेरे एक शानदार सी नजर आने वाले वाल्वो बस में शुरु हुई। सारे यात्रियों ने ओम नम: शिवाय का जयकारा लगाया,बस चालू हुई। लेकिन यह क्या? मात्र पचास मीटर चलने के बाद ही बस का एक पहिया पंचर हो गया। ड्राइवर और उसके सहायक ने फौरन पहिया बदला। और हमारी यात्रा शुरु हुई। रास्ते में गाजियाबाद व अन्य कई स्थानों पर स्वागत सत्कार के कार्यक्रम थे। इन कार्यक्रमों में भाग लेते हुए हमारी बस देर शाम को अल्मोडा के कुमाउं मण्डल विकास निगम के पर्यटक विश्राम गृह में पंहुची। रात्रि विश्राम के बाद अगले दिन सुबह फिर से पांच बजे हमारी यात्रा शुरु हुई। रास्ते में मिर्थी नामक स्थान पर आईटीबीपी (भारत तिब्बत सीमा पुलिस) द्वारा स्वागत और यात्रा सम्बन्धी सूचनाएं देने का कार्यक्रम था। यहां पारंपरिक लोकनृत्य के साथ यात्रियों का स्वागत किया गया। पहाडी घुमावदार रास्तों पर बस की यात्रा का आनन्द लेते हुए हम शाम करीब आठ बजे भारत के इस क्षेत्र के अंतिम बडे कस्बे धारचूला में पंहुचे। कैलाश मानसरोवर यात्रा के लिए धारचूला को ही बेस कैम्प बनाया गया है। हमें बताया गया था कि धारचूला में ही हमें यात्रा के लिए पोर्टर और घोडे किराये पर ले लेने होंगे।
धारचूला से हमारी यात्रा 21 अगस्त की सुबह करीब नौ बजे प्रारंभ होना थी। हमें धारचूला से छोटे वाहनों के द्वारा करीब 54 किमी आगे पांगला गांव तक ले जाया जाना था और पांगला से हमारी पदयात्रा शुरु होना थी। हमारे कई सहयात्रियों ने यात्रा के लिए घोडे और पोर्टर किराये से ले लिए थे। मैने और आशुतोष ने काफी विचार विमर्श के बाद हम दोनो के बीच एक ही पोर्टर लेने का फैसला किया था। हमारे साथ नाबी गांव का प्रतीक नाबियाल पोर्टर के रुप में साथ आया,जो अगले कई दिनों तक हमारा सहयोगी बना रहने वाला था। यात्रा पूरी हो जाने के बाद प्रतीक हमारा मित्र बन चुका था। पिछले सात दिनों में कई स्थानों पर और कई बार हमें यात्रा के कठिन रास्तों के बारे में विस्तार से जानकारियां दी गई थी। हमें बार बार हाई एल्टीट्यूड पर होने वाली बीमारियों के बारे में बताया गया था। हमें इस यात्रा में समुद्र सतह से 18600 फीट की ऊंचाई तक के पहाडों से गुजरना था।
पथरीली खडी चढाईयों पर पदयात्रा
रविवार 21 अगस्त 16 को हमारी वास्तविक कैलाश मानसरोवर यात्रा प्रारंभ हुई। बेहद घुमावदार पहाडी रास्तों से होती हुई जीपें हमें लेकर पांगला पंहुचने वाली थी,लेकिन पांगला से करीब डेढ किमी दूर नदी पर बने पुल के बाद एक स्थान पर कीचड हो जाने से गाडियां वहां से निकल नहीं पा रही थी। आखिरकार निर्धारित स्थान से डेढ किमी पहले ही हमारी पदयात्रा शुरु हो गई। पहले दिन हमें मात्र 6 किमी की दूरी पैदल तय करना थी,लेकिन रास्ते की गडबडी की वजह से यह दूरी अब बढ कर साढे सात किमी हो गई थी। पांगला गांव में हुए एक स्वागत कार्यक्रम के बाद गांव की तंग गलियों से पदयात्रा प्रारंभ हुई। इस वक्त दोपहर के करीब साढे ग्यारह बज चुके थे और आसमान से सूरज आग बरसाने लगा था। यात्रा के पहले ही दिन वातावरण हमारी कडी परीक्षा ले रहा था। चूंकि पहला दिन था,इसलिए अतिरिक्त उत्साह था और साढे सात किमी का यह खडी चढाई वाला संकरा रास्ता पार करने के बाद हम सिरखा गांव में पंहुच गए। यहां ग्रामवासियों ने गरमागरम पकौडो और चाय के साथ हमारा स्वागत किया। पहले दिन की ट्रेकिंग पूरी करने के कारण प्रसन्नता भी थी। दूसरा दिन हमारे लिए अधिक कठिन था। सोमवार 22 अगस्त को हमें सिरखा से 18 किमी की दूरी पार कर गाला नामक गांव में पंहुचना था।
पिछले करीब सात दिनों में हम धीरे धीरे अपने सहयात्रियों से परिचित होते जा रहे थे। हमारे कुल 38 यात्रियों वाले दल में लाइजनिंग आफिसर आईजी श्री गुंजियाल के अलावा 37 लोग और थे। इनमें मध्यप्रदेश,राजस्थान,उडिसा,उत्तर प्रदेश,उत्तराखण्ड,तमिलनाडू,दिल्ली,पश्चिम बंगाल आदि राज्यों के अलावा दो यात्री विदेश से आए थे। गुजरात के मूल निवासी प्रतीक उपाध्याय डेनमार्क से यात्रा में शामिल होने पंहुचे थे,वहीं जगजीत उनीयाल फ्रान्स से आए थे। हमारा यात्रा दल एक तरह से लघु भारत का प्रतीक बन गया था,जिसमें अलग अलग भाषाएं बोलने वाले लोग भोलेनाथ की भक्ति से प्रेरित होकर इस कठिन यात्रा पर चले थे।
22 अगस्त से अगले पांच दिनों तक हमें भारतीय सीमा के अंतिम कैम्प नाबीडांग होकर तिब्बत की सीमा में प्रवेश करना था। सिरखा गांव 8400 फीट की उंचाई पर है। अब हमें गाला होकर बुधी पंहुचना था,जो 8890 फीट की उंचाई पर है। आठ हजार फीट से अधिक ऊंचाई को हाई एल्टीट्यूड माना जाता है और इस ऊंचाई पर मैदान में रहने वालों को कई तरह की समस्याएं हो सकती है। अगले तीन दिनों में सिरखा से गाला,गाला से बुधी और बुधी से गुंजी गांव पंहुचना था। गुंजी 10370 फीट की उंचाई पर है। सिरखा से गाला का 18 किमी का सफर इस यात्रा का पहला लम्बा सफर था। पहाडों की यात्राएं सुबह जल्दी शुरु की जाती है,ताकि धूप बढने से पहले ज्यादा से ज्यादा दूरी तक हो सके। सोमवार को हम सुबह पंच बजे निकल पडे। 18 किमी के लम्बे मार्ग में खडी चढाई और तीखे ढलान वाले पथरीले रास्ते को पार करना बेहद कठिन था। दोपहर करीब दो बजे हम गाला पंहुच पाए। पहली लम्बी यात्रा ने जैसे पैरों को तोड कर रख दिया था। पंजे,पिण्डलिया,जांघे,पैरों का पोर पोर दुख रहा था। कैम्प में पंहुचकर पैरों पर सरसों तेल की मालिश की। अगले दिन फिर से हमें 21 किमी की दूरी तय कर गाला से बुधी पंहुचना था। बुधी का यह रास्ता बेहद कठिन है। गाला से निकलते ही 4 हजार चार सौ से अधिक पथरीली सीढियां उतरना होती है। खडी ढलान पर सीढियां उतरते समय फिसलने से बचने के लिए नुकीलें पत्थरों की नोंकों पर पैर टिकाने पडते है। ये तीखी ढलान पैरों को तोडती हुई लगती है। कुछ समय बाद तो ऐसा लगता है कि पैरों में जूते है ही नहीं। नुकीले पत्थरों की चुभन पैरों में महसूस होती है। इस खतरनाक ढलान को पार करने के बाद और भी खतरनाक रास्ता सामने होता है। हमारे दाई ओर काली गंगा नदी बेहद तेज बहाव के साथ बहती है। नदी के दूसरी ओर नेपाल की पहाडियां है।
काली के किनारे खतरों से भरा रास्ता
काली गंगा नदी ही भारत और नेपाल के बीच सीमारेखा का काम करती है। नदी की बगल में चट्टान को काट काट कर संकरा रास्ता बनाया गया है। नीचे विकराल बहाव के साथ काली नदी,पैरों के नीचे तीखे नुकीले पत्थर,संकरा रास्ता। इस रास्ते पर आगे बढने पर उपर से गिर रहे कई झरने नजर आते है। इस झरनों से तेज गति से गिरता पानी नीचे सीधे काली गंगा में मिलता है। यात्रियों को इन झरनों के नीचे से गुजरना होता है। झरनों से बहते पानी की वजह से रास्ता फिसलन भरा हो जाता है। देखने में सुन्दर यह दृश्य अत्यन्त खतरनाक भी होता है। जरा सी नजर चुकी और एक भी कदम गलत पडा तो व्यक्ति सैंकडों फीट नीचे बह रही काली नदी की भेंट चढ सकता है। फिर उसका बच पाना असंभव है। इसी संकरे,फिसलन भरे खतरनाक रास्ते पर गुजरने के दौरान अगर आगे या पीछे से घोडों का आगमन हो गया,तो पदयात्री को खडे रहने की जगह भी मुश्किल से मिल पाती है। यात्रियों को बताया जाता है कि घोडों के आने के वक्त वे पहाड की तरफ सटकर खडे हो जाए,क्योकि इसकी विपरित दिशा में घोडों के टल्ले से यात्री की नीचे गिर जाना बडी सामान्य सी बात है। यह खतरनाक रास्ता पार करके हम आखिरकार हम बुधी पंहुच गए। थक कर चूर हो चुके थे। हमारे सभी सहयात्रियों की हालत खराब हो चुकी थी। अभी एक दिन की कठिनाई और थी। 24 अगस्त को हम बुधी से गुंजी के लिए निकले। 3 किमी की खडी चढाई के बाद फूलों की घाटी छियालेख होते हुए हम गुंजी पंहुच गए। गुंजी गांव,हमारे यात्रा दल के एलओ संजय गुंजीयाल का जन्मस्थान भी है। गुंजी गांव में सभी यात्रियों का पारंपरिक नृत्य,ढोल ढमाकों के साथ भव्य स्वागत किया गया। गुंजी में हमें दो दिन रुकना था। यहां फिर से आईटीबीपी के चिकित्सकों द्वारा यात्रियों का मेडीकल परीक्षण किया जाना था। सभी यात्री खुशकिस्मत रहे कि उन्हे मेडीकल परीक्षण में आगे की कठिन यात्रा के लिए फिट करार दे दिया गया।
भारतीय क्षेत्र की सबसे खतरनाक यात्रा अभी हमारा इंतजार कर रही थी। अब हमें गुंजी से कालापानी होते हुए नाभी ढांग पंहुचना था और वहां से लिपूलेख दर्रा पार कर तिब्बत(चीन) सीमा में प्रवेश करना था। गुंजी गांव 10500 फीट की उंचाई पर है। यहां से कालापानी होते हुए 14000 फीट की उंचाई पर स्थित नाभीढांग कैम्प पंहुचना था। कालापानी,काली गंगा का उद्गम स्थल है,जहां काली माता का मन्दिर है और यहां सभी यात्रियों के दस्तावेजों की जांच की जाती है। इस रास्ते में अब वनस्पतियां और पेड पौधे नदारद होने लगे थे। दोनो ओर भूरे मटमैले पहाड सिर उठाए खडे थे। ये सफर हमारे लिए अपेक्षाकृत आसान रहा। हमारे एलओ श्री गुंजियाल साहब के प्रयासों के कारण हम पैदल चलने से बच गए और आईटीबीपी के दो वाहनों से हमें कालापानी ले जाया गया। हांलाकि खतरनाक उंचे नीचे घुमावदार पहाडी रास्ते पर आईटीबीपी के खुले ट्रक में यात्रा करना अपने आप में डरावना और रोमाचंक अनुभव था। कालापानी से नाभीढांग का रास्ता भी हमने आईटीबीपी के खुले ट्रक में सवार होकर पार किया। भारतीय क्षेत्र में खडी चढाई और तीखी ढलान के रास्तों की चुनौतियां पार करने के बाद अब सबसे बडी चुनौती लिपूलेख दर्रे को पार करने की थी।
बर्फबारी में लिपूलेख की चुनौती
लिपूलेख दर्रा नाभीढांग से 9 किमी की दूरी पर है। इस दर्रे को पार करने के लिए 17 हजार पांच सौ फीट की ऊं चाई तक जाना पड़ता है। पहाडों में साढे आठ हजार फीट की ऊं चाई के बाद आक्सिजन की मात्रा धीरे धीरे कम होने लगती है और साढे सत्रह हजार फीट की ऊं चाई पर तो हवा का दबाव बेहद कम हो जाता है। आक्सिजन की कमी के कारण शरीर की क्षमता भी तेजी से कम होती है। इतनी कम आक्सिजन में समतल स्थान पर कुछ कदम चलने में ही दम फूलने लगता है,लेकिन यहां तो आक्सिजन की कमी के साथ साथ खडी चढाई पर चढना था। हमें बताया गया था कि लिपूलेख दर्रे को पार करने के लिए नाभीढांग से रात दो बजे चलना प्रारंभ करना होगा। चीन की तरफ से भारत में प्रवेश करने वाला जत्था और भारत से चीन में जाने वाला जत्था,दोनो को एक ही समय पर लिपूलेख दर्रा पार करना होता है। चीन की ओर से आने वाले दल को यदि देरी हो जाती है,तो भारतीय दल को दर्रे पर बर्फीली हवाओं के थपेडे झेलते हुए उस दल का इंतजार करना पडता है।
अब तक की हमारी पूरी यात्रा में मौसम पूरी तरह अनुकूल रहा था। हमारे यात्री दल को मलाल था तो सिर्फ इतना कि नाभीढांग से ओम पर्वत के दर्शन नहीं हो पाए थे। जब से हम नाभीढांग पंहुचे थे,ओम पर्वत पूरी तरह बादलों में छुपा हुआ था और सभी यात्री इसके दर्शन से वंचित रह गए थे। चूंकि नाभीढांग से लिपूलेख दर्रे की यात्रा रात दो बजे प्रारंभ करना थी,इसलिए शाम को जल्दी ही भोजन करके सभी यात्री सो गए थे।
सबसे कठिन मार्ग की चुनौती को लेकर प्रत्येक यात्री कुछ कुछ घबराया हुआ था। लेकिन इस दिन चुनौती सिर्फ कठिन मार्ग की ही नहीं थी। रात करीब ग्यारह बजे से अचानक बारिश शुरु हो गई। हर यात्री मन ही मन भगवान से प्रार्थना कर रहा था कि यात्रा शुरु करने के समय तक बारिश रुक जाए। लेकिन भगवान ने सभी की कठोर परीक्षा लेने की ही ठान रखी थी। बारिश बदस्तूर जारी रही।
कैलाश मानसरोवर यात्रा का समयबध्द कार्यक्रम टाला नहीं जा सकता था। बरसते पानी में भी यात्रा तो करनी ही थी।
रात के घने अन्धेरे में बरसते पानी के बीच ठीक दो बजे,टार्च की रोशनी में यह कठिन यात्रा शुरु हुई। शुरुआती एक किमी के बाद खडी चढाई का रास्ता आ गया। आसमान से बरसता पानी,पहाडी रास्तों में फिसलन पैदा कर रहा था। हड्डियों को जमा देने वाली ठण्डक वातावरण में घुल चुकी थी। टार्च की सीमित रोशनी के दायरे में एक एक कदम रखते हुए यात्री आगे बढते रहे। करीब दो घण्टे बाद धीरे धीरे रोशनी होने लगी,लेकिन अब बारिश की बजाय आसमान से बर्फ गिरना शुरु हो गई थी। लिपूलेख दर्रे से करीब दो किमी पहले आईटीबीपी के जवानों को वायरलैस से सूचना मिली कि चीन की ओर से आने वाले दल को देरी हो रही है। दर्रे में उपर जाकर इंतजार करने की बजाय वहीं इंतजार करने का निर्णय लिया गया। बर्फबारी और जमा देने वाली ठण्ड में बर्फ से ढके पहाड पर करीब पैंतालिस मिनट का यह इंतजार सदियों लम्बा लग रहा था। इस दौरान हमारे दल की कुछ महिला यात्रियों की हालत खराब होने लगी थी। मेरे बैग में वार्मर के दो पैकेट पडे हुए थे। एलओ श्री गुंजियाल ने वार्मर के पैकेट लेकर उन्हे गर्म किया और जिन महिला यात्रियों को अधिक समस्या हो रही थी,उन्हे इन पैकेटों की मदद से शरीर गर्म रखने को कहा। इसी समय आशुतोष के दोनो हाथों की कनिष्ठिका उंगलियां ठण्ड की वजह से सुन्न पड गई। उसके दस्तानों में पानी घुसने की वजह से उसके हाथ पूरी तरह ठण्डे हो गए थे। मेरे हाथ भी ठण्डे हो चुके थे,लेकिन मैने दस्ताने उतार कर हाथों को जर्किन के भीतर ले लिया था।
जैसे तैसे यह इंतजार समाप्त हुआ और हमें आगे बढने का इशारा किया गया। अब दिन का प्रकाश पूरी तरह फैल चुका था। करीब दो किमी की खडी चढाई के बाद आखिरकार हम लिपूलेख दर्रे के उपर आ चुके थे। दर्रा पार करते ही सामने तीखा ढलान था,जिस पर बर्फ होने की वजह से फिसलन बहुत ज्यादा हो चुकी थी। इस संकरे और तीखे ढलान वाले रास्ते पर यात्रियों के साथ चल रहे उनके सहयोगी पोर्टर लडकों ने हाथ पकड पकड कर यह ढलान पार करवाई।
तिब्बत (चीन) की सीमा में
लिपूलेख दर्रा पार करना हमारे दल के प्रत्येक यात्री के लिए अब तक की सबसे बडी चुनौती थी। इस चुनौती को हम लोग पार कर चुके थे। आगे की यात्रा अपेक्षाकृत आसान थी।
लिपूलेख दर्रे से उतरने के बाद करीब तीन किमी आगे चीन सरकार द्वारा बसों की व्यवस्था की गई थी। दो छोटी बसों में सवार होकर हमारा दल तकलाकोट के कस्टम आफिस पंहुचा जहां करीब एक घण्टे की जांच के बाद हमें वहां से रवाना कर दिया गया। हमें तकलाकोट के होटल पुलान ले जाया गया। होटल पुलान दो दिनों तक हमारा आवास रहने वाला था। यहां दो-दो यात्रियों के बीच एक सुसज्जित कमरा आवंटित कर दिया गया। लिपूलेख दर्रे को पार कर बुरी तरह थके हुए सभी यात्री कमरों में पंहुचते ही आराम करना चाहते थे।
तिब्बत(चीन) की सीमा में प्रवेश करते ही अब समय भी बदल चुका था। यहां सारे काम चीनी समय से होना थे और चीन का समय भारतीय समय से ढाई घण्टे आगे है। शाम के भोजन का समय रात्रि साढे आठ बजे रखा गया था,जबकि हमारी घडियां इस समय शाम के छ: ही बजा रही थी। यहां समय जरुर रात साढे आठ बताया जा रहा था,लेकिन तकलाकोट के आसमान में इस समय तक सूरज चमक रहा था और अंधेरे का नामोनिशान नहीं था। दो दिन तकलाकोट में गुजारने के बाद अगली सुबह चीनी समय के मुताबिक सुबह छ: बजे हमें बसों में सवार होकर डारचेन के लिए रवाना होना था।
श्रावण सोमवार पर मानसरोवर स्नान
पवित्र कैलाश की कठिन परिक्रमा
30 अगस्त मंगलवार को डारचेन से हमारी कैलाश परिक्रमा प्रारंभ हुई। सुबह जल्दी हम बस में सवार हो गए। बस ने डारचेन से करीब नौ किमी आगे यमद्वार पर जाकर हमें छोड दिया। पहले दिन हमें यमद्वार से डेराफुक पंहुचना था। यह दूरी 12 किमी की थी। रास्ता खडी चढाई वाला नहीं था,लेकिन आक्सिजन की कमी के चलते बारह किमी की दूरी पार करना अत्यन्त कठिन था। हमने पोर्टर ले लिए थे,लेकिन कैमरा कन्धे पर ही था। इस वातावरण में कैमरा भी काफी भारी लग रहा था। बारह किमी की यह कठिन यात्रा करीब चार घण्टो में पूरी हुई। कहते है यमद्वार से जाने वालों पर यमराज स्वयं नजर रखते है। डेराफुक का कैम्प ही वह स्थान है,जहां हम कैलाश पर्वत के सबसे नजदीक होते है और यहीं से कैलाश के सबसे अच्छे दर्शन होते है। हांलाकि जब हम डेराफुक पंहुचे,तब आसमान में बादलों का कब्जा था और पवित्र कैलाश पर्वत का उपरी हिस्सा बादलों में ढंका हुआ था। यहीं से काफी उंचाई पर चढकर चरणस्पर्श नामक स्थान पर पंहुचा जाता है। चरणस्पर्श वह स्थान है,जहां से आपके और कैलाश के बीच कोई नहीं होता। यहां आकर ऐसा प्रतीत होता है,मानो आप महादेव के चरणस्पर्श कर रहे हो। कई सारे लोग यह कठिन रास्ता पार कर चरणस्पर्श पर भी पंहुचे। हांलाकि वहां बारिश हो गई थी और यह उन श्रध्दालुजनों के लिए बेहद कठिन अनुभव साबित हुआ था।
डेराफुक के कैम्प में शाम को जल्दी भोजन करके सोए,क्योकि अगला दिन अब तक की पूरी यात्रा का सबसे कठिन दिन साबित होने वाला था। अगले दिन हमें साढे अठारह हजार फीट की ऊंचाई वाले डोलमा पास को पार करते हुए कुल करीब 22 किमी की यात्रा करना था। पूरी यात्रा में डोलमा पास ही सबसे उंचा स्थान है। डोलमा पास की चढाई भी बेहद कठिन और थका देने वाली है। मुझे और आशुतोष को तो यह पूरा रास्ता पैदल ही पार करना था। हांलाकि आशुतोष ने लिपूलेख दर्रे पर कुछ देर घोडे का उपयोग किया था,लेकिन इसके अलावा पूरी यात्रा पैदल ही की थी। हमारे दल में कुछ अन्य लोग भी थे,जिन्होने पूरी यात्रा पैदल ही की थी। इनमें यात्रा दल के लाइजनिंग आफिसर आईजी संजय गुंजियाल,जगजीत उनियाल,बैंगलौर से आए तनु मित्तल,दिल्ली के डा. कर्मवीर राणा हापुड के नरेन्दर सैनी,राजस्थान के आईपीएस हिंगलाज दान,राजस्थान के ही महावीर राखेचा,दिल्ली के अमित सिंघल,नासिक के पार्थसारथी जी,अल्मोडा की श्रीमती कामिनी कश्यप और बैंगलौर की श्रीमती रुपा आदि ऐसे लोग थे,जो यह पूरी यात्रा पैदल ही कर रहे थे। शेष लोगों ने यात्रा के लिए घोडे भी ले रखे थे।डोलमा पास पार करने के बाद जैसे ही डोलमा पास से उतराई प्रारंभ होते ही गौरी कुण्ड के दर्शन होते है। गौरीकुण्ड हरे पानी की छोटी सी झील है,कहते है यहां गौरी स्नान के लिए आती है। गौरीकुण्ड मार्ग से काफी नीचे है,लेकिन दिल्ली के डॉ.कर्मवीर राणा और नरेन्दर सैनी नीचे उतर कर गौरीकुण्ड का पवित्र जल लेकर आए। अन्य यात्रियों ने इस जल के लिए पोर्टरों को अतिरिक्त राशि देकर नीचे भेजा।
डोलमा पास और उसके बाद की दूरी तय हो जाने पर हमारे यात्रा दल के प्रत्येक व्यक्ति को एक पूर्णता का एहसास हो रहा था। यात्रा का सर्वाधिक कठिन और दुर्गम हिस्सा पार कर लेने की खुशी हर किसी के चेहरे पर झलक रही थी। हांलाकि अब तक की यात्रा में हमारे कई साथी अलग अलग तरह की स्वास्थ्य समस्याओं की चपेट में आ चुके थे। भुवनेश्वर से आए किशोर भोईदार जी की धर्मपत्नी के चेहरे पर सूजन आ गई थी। कई अन्य लोग भी परेशान थे। लेकिन अब यात्रा का आसान हिस्सा आने वाला था।
मानसरोवर के तट पर
बस का सफर भी आसान था,क्योकि पूरे इलाके में चीन ने काफी अच्छी सड़के बना रखी है। हम लोग एक लम्बी दूरी तय करके कुगू पंहुचे। कुगू में मानसरोवर तट पर बनी एक प्राचीन बौध्द मानेस्ट्री के समीप ही हमें ठहरना था। यह स्थान मानसरोवर के किनारे पर महज पचास मीटर की दूरी पर है। अपने कमरों की खिडकी से लगातार मानसरोवर झील नजर आती रहती है। मानसरोवर के साथ कैलाश का दर्शन करना अपने आप में एक अलौकिक अनुभूति है। यह स्थान सनातन से सीधा संवाद करने का स्थान है। मानसरोवर के तट पर वह व्यक्ति भी ध्यानस्थ होजाता है,जिसने कभी जीवन में ध्यान ना किया हो। पल पल रंग बदलती मानसरोवर झील देखने वाले को बांध लेती है।
मानसरोवर के तट पर हमें दो दिन ठहरना था। हमारे यात्रा दल प्रभारी आईजी संजय गुंजियाल और अन्य कई यात्रियों की इच्छा थी कि मानसरोवर के तट पर वर्ष 2013 में उत्तराखण्ड के केदारनाथ तीर्थ पर हुए हादसे में मारे गए पांच हजार से अधिक तीर्थयात्रियों का तर्पण किया जाए। वास्तव में आईजी श्री गुंजियाल उन प्रमुख लोगों में शामिल थे,जिन्होने वर्ष 2013 की त्रासदी के दौरान राहत व बचाव कार्यों में महती भूमिका निभाई थी। श्री गुंजियाल ने स्वयं उन मृतकों के अंतिम संस्कार की व्यवस्था भी की थी। उस त्रासदी के बाद उन्होने स्वयं हरिद्वार जाकर सभी मृतात्माओं का तर्पण भी किया था। अब मानसरोवर के तट पर उन्होने यही इच्छा दोहराई थी। हमारे यात्रा दल के सदस्य मैनपुरी उ.प्र.से आए पं. आशुतोष मुकर्जी ने विधि विधान से केदारनाथ त्रासदी के मृतकों का तर्पण कराया। मानसरोवर पर निवास के दूसरे दिन पं.आशुतोष मुकर्जी ने मानसरोवर के किनारे यज्ञ का आयोजन किया। इस यज्ञ में यात्रा दल के सभी सदस्यों ने अपनी आहूतियां दी। इस यज्ञ में,मानसरोवर तट पर मौजूद अनेक विदेशी महिला पुरुषों ने भी भाग लेकर प्रसाद ग्रहण किया।
मानसरोवर तट पर दो दिन गुजारने के बाद अब हमारी यात्रा वापसी की ओर अग्रसर थी।अगली सुबह हम लोग बस में सवार होकर मानसरोवर की शेष बची परिक्रमा पूरी करते हुए तकलाकोट की ओर लौटने लगे। तकलाकोट के समीप प्राचीन राम सीता मन्दिर के दर्शन करते हुए हम फिर से होटल पुलान के उन्ही कमरों में पंहुच गए,जहां जाते वक्त हमने दो दिन गुजारे थे। यहां रात को चीनी अधिकारियों द्वारा यात्रादल के लिए बिदाई समारोह का आयोजन किया गया था। इस समारोह के दौरान चीन विदेश विभाग के अधिकारियों ने यात्रियों से उनके सुझाव मांगे और आगामी वर्षों में व्यवस्थाओं को और अधिक अच्छी बनाने का आश्वासन भी दिया।
रविवार 4 सितम्बर को हमें फिर से लिपूलेख दर्रा पार करते हुए भारत में प्रवेश करना था। वापसी बेहद आसान थी। सुबह सवेरे होटल से बस में सवार होकर हम लिपूलेख दर्रे के नीचे पंहुचे। वहां से छोटे वाहनों में सवार होकर दर्रे के बेहद नजदीक पंहुच गए। चीनी अधिकारी यात्रियों को बिदा करने दर्रे के उपर तक आए थे।
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