Monday, August 7, 2017

उपराष्ट्रपति चुनाव-गांधी जी और गांधीवाद की बिदाई....?

-तुषार कोठारी


वैंकेया नायडू देश के पन्द्रहवें उपराष्ट्रपति चुन लिए गए। इस चुनाव का नतीजा पहले से ही सभी को पता था।
कांग्रेस को भी,जिसने महात्मा गांधी के पोते पूर्व राजनयिक गोपालकृष्ण गांधी को इस चुनाव में यह कहकर उतारा था कि यह सिध्दान्तों की लडाई है। तो अब नतीजे सामने है और महात्मा गांधी के सगे पोते गोपालकृष्ण गांधी चुनाव हार चुके है।  क्या यह मान लिया जाए कि भारत से गांधी जी और गांधीवाद की बिदाई होने लगी है?

   यह निष्कर्ष गांधी जी और गांधीवाद का कापीराईट रखने का दावा करने वाली कांग्रेस ने स्वयं दिया है। आम तौर पर राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति चुनाव के नतीजों का विश्लेषण नहीं किया जाता,क्योंकि नतीजें पहले से ही तय होते हैं। लेकिन इस बार मामला कुछ अलग है। विपक्ष को यह पता था कि चुनाव में हार तय है। ऐसे में जानबूझकर किसी नियमित राजनेता की बजाय महात्मा गांधी के सगे पोते गोपालकृष्ण गांधी को चुनाव का प्रत्याशी बनाया गया। प्रत्याशी बनाने के बाद जोर शोर से यह प्रचार किया गया कि यह लडाई सिध्दान्तों की है।
 सामान्य समझ रखने वाला भी जानता है कि कांग्रेस जिसे सिध्दान्तों की लडाई कह रही है,वह लडाई गांधीवादी विचारधारा और आरएसएस की हिन्दुत्व आधारित राष्ट्रवादी विचारधारा के बीच है। इन दो सिध्दान्तों की लडाई लडने के लिए कांग्रेस ने खासतौर पर गोपालकृष्ण गांधी को चुना। शायद कांग्रेसी रणनीतिकार इस खुशफहमी में रहें होंगे कि गांधी जी के वंशज को गांधी के नाम का फायदा मिलेगा और कुछ सांसद गांधीजी के नाम पर उनके पक्ष में मतदान कर देंगे। मजेदार तथ्य यह भी है कि गोपालकृष्ण गांधी कभी भी कांग्रेस के सदस्य नही रहे हैं। वे कभी भी राजनीति में नहीं रहे है। उनकी उपलब्धियों के खाते में प्रशासनिक जिम्मेदारियां रही है। गांधी जी का वंशज होने के नाते उन्हे कई बार राजदूत बनाया गया और एक बार पश्चिम बंगाल का राज्यपाल भी बनाया जा चुका है। इसके अलावा राजनीति में उनका कोई योगदान नहीं रहा है। लेकिन शायद उनके जीवन की सबसे बडी उपलब्धि यही रही है कि वे उस व्यक्ति के वंशज है,जिसके फोटो देश की मुद्रा पर छापे जाते है और हर सरकारी दफ्तर की दीवारों पर टंागे जाते है।
   लेकिन वर्तमान समय की कडवी या अच्छी हकीकत यही है कि अब गांधी जी की कोई प्रासंगिकता भी नहीं बची है। देश में एक बडा वर्ग ऐसा भी है,जिसे नोटों पर सिर्फ गांधी जी के फोटो छापे जाना भी स्वीकार नहीं है। देश में बडा वर्ग यह मानता है कि इस देश की आजादी में गांधी जी से अधिक योगदान बडी संख्या में अन्य लोगों का रहा है। इनमें सश क्रान्ति की इच्छा रखने वाले क्रान्तिकारियों से लेकर सुभाषचन्द्र बोस और वीर सावरकर  जैसे देशभक्त भी शामिल है। यह भी एक तथ्य है कि यदि अंग्रेजों ने सत्ता का हस्तांतरण कांग्रेस को नहीं किया होता,तो गांधी जी का इतना महत्व नहीं होता।
बहरहाल,गोपालकृष्ण गांधी को उपराष्ट्रपति का चुनाव हरवा कर कांग्रेस ने स्वयं इस बात को मोहरबंद कर दिया है कि अब गांधी जी और गांधीवाद अप्रासंगिक हो गए है। इस देश को अब नए मौलिक विचारों की जरुरत है। गांधी जी का तुष्टिकरण वाला फलसफा अब देश नहीं चला सकता। देश की बहुसंख्यक जनता  पिछले सत्तर सालों से मुस्लिम तुष्टिकरण का दंश झेलते झेलते थक गई है।
इतना ही नहीं। देश में अब बडी संख्या उन लोगों की हो चुकी है,जो जानते है कि महात्मा गांधी ने उसी पाकिस्तान को पचपन करोड दिलाने के लिए अपने ही भारत के खिलाफ आमरण अनशन किया था,जिसके आतंकवादी देश में खून खराबा कर रहे है। भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के ऐसे कई सारे तथ्य जिन्हे कांग्रेसी सरकारों ने छुपा कर रखा था,अब लोगों की जानकारी में आने लगे है। यह तथ्य उजागर हो चुका है कि अगर गांधी जी चाहते तो भगतसिंह की फासंी रुक सकती थी। अगर वे चाहते तो भारत का विभाजन रुक सकता था,और पाकिस्तान जैसी समस्या उत्पन्न ही नहीं होती।     यह भी लोग जानने लगे है कि इस महान राष्ट्र का,जहां राम,कृष्ण बुध्द और महावीर जैसों का जन्म हुआ है,कोई राष्ट्रपिता नहीं हो सकता। राष्ट्रपिता की पदवी कांग्रेसी सरकारों ने अपनी सुविधा के लिए बना कर रखी थी। गांधी शब्द का उपयोग कांग्रेस के नेता चुनाव जीतने के लिए करते रहे हैं। लेकिन अब यह शब्द अपना असर खो चुका है।
गांधी जी का नाम अब सिर्फ जिक्र करने भर के लिए रह गया है। गांधी जी का चरखा,टोपी और नाम अब सिर्फ दिखावे भर के लिए रह गई है। देश को अब चरखे से ज्यादा जरुरत ताकत की है। कांग्रेस ने शायद यही प्रमाणित करने के लिए गांधी जी के पोते को चुनाव में खडा किया था।

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