रालेगढ शिंदी (रालेगांव) नामक गांव का कायापलट कर चर्चाओं में आए अण्णा साहेब हजारे अब पूरे देश में छाए हुए है। भ्रष्टाचार पर रोक लगाने के लिए जन लोकपाल बिल के मसले पर उन्होने सरकार को न सिर्फ झुका दिया बल्कि उनके आन्दोलन में पूरा देश उनके पीछे खडा नजर आया। अण्णा साहेब ने भ्रष्टाचार के जिस मुद्दे को छेडा है उससे आज देश का कोई व्यक्ति अछूता नहीं है। बडा सवाल यह है कि अण्णा साहेब की यह पहल कोई बडा बदलाव ला पाएगी या नहीं?
इस सवाल का उत्तर ढुंढने से पहले जरा अण्णा के कृतित्व पर नजर डाले। फौज से निकले अण्णा साहेब के जीवन पर स्वामी विवेकानन्द का ऐसा प्रभाव पडा कि उन्होने अपने गांव की तकदीर बदलने के लिए पूरा जीवन खपा दिया। महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के अत्यन्त पिछडे इस छोटे से गांव में अण्णा साहेब के आगमन से पहले शराब की चालीस भट्टियां थी। गांव के अधिकांश लोग गले गले तक कर्ज में डूबे थे और नशे की गिरफ्त में थे। अण्णा साहेब ने सुधार की शुरुआत गांव के जीर्ण शीर्ण हो चुके मन्दिर के जीर्णोध्दार से की। इस काम में उन्होने किसी की भी मदद नहीं ली। अपनी जीवन भर की जमापूंजी उन्होने इस मन्दिर में लगा दी और इसी मन्दिर को उन्होने सुधार का केन्द्रबिन्दु बनाया। वे आज भी इसी मन्दिर में रहते है। जिस गांव में कभी शराब की चालीस भट्टियां थी वहां आज एक भी व्यक्ति नशा नहीं करता। गांव के घरों में ताले नहीं लगाए जाते। जल संरक्षण की नई तकनीकों के ईजाद से खेती आज यहां फायदे का सौदा बन चुकी है। गांव में संपन्नता है। बच्चे शिक्षित है। गांव सर्वसुविधायुक्त,संस्कारित और संपन्न बन चुका है। अण्णा साहेब के इस चमत्कार से आसपास के कई गांव भी प्रभावित हुए और अनेक गांवों का कायापलट हो गया। इस चमत्कारिक सफलता के पीछे अण्णा की निस्वार्थ तपस्या छुपी है। जिस काम को असंभव माना जाता था अण्णा ने उसे कर दिखाया। यह उन्ही का आत्मविश्वास था कि उन्हे यह सफलता मिली। यही कारण है कि भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए जब अण्णा आन्दोलन पर जुटे तब भी उनके चेहरे पर वही आत्मविश्वास झलक रहा था। वे जानते थे कि जो वे करना चाहते है उसे वे करके रहेंगे।
अब बात करे भ्रष्टाचार की। आप माने या ना माने,भ्रष्टाचार आज ईश्वर की तरह सर्वव्यापी हो चुका है। सत्ता के शीर्ष पर बैठे व्यक्ति से लगाकर दूरस्थ वनवासी अंचल के किसी टूटे झोंपडे में बैठे गरीब वनवासी तक सभी को भ्रष्टाचार का सामना करना पडता है। इसमे अन्तर सिर्फ इतना है कि शीर्ष पर बैठा व्यक्ति अपनी इच्छा से,अधिक धन कमाने के लालच में भ्रष्टाचार के दलदल में उतरता है जबकि गरीब व्यक्ति को अपने छोटे मोटे काम कराने की मजबूरी से इसमें उतरना पडता है। गांव के एक गरीब किसान को अपने खेत के नक्शे और खसरे के लिए पटवारी को रिश्वत देना पडती है तो शहर के किसी गरीब मजदूर को जाति या निवासी प्रमाणपत्र के लिए बाबू और चपरासी की रिश्वत की मांग पूरी करना पडती है। देश में आज ऐसा कोई काम नहीं है जिसे करवाने के लिए व्यक्ति को रिश्वत ना देना पडे। मकान बनाने की अनुमति लेना हो या घर में नलकूप खुदवाना हो,ट्रेन की यात्रा हो या गैस की टंकी लेना हो,रिश्वत जीवन का अनिवार्य तत्व बन गई है। कभी काम करवाने की मजबूरी तो कभी काम जल्दी करवाने की जरुरत,छोटा भ्रष्टाचार इसी से उपजता है। कोई सरकारी महकमा ऐसा नहीं बचा है जहां भ्रष्टाचार शिष्टाचार की शक्ल न ले चुका हो। अब तो स्थिति ऐसी हो गई है कि सिर्फ वही भ्रष्ट नहीं है,जिसे भ्रष्टाचार का मौका नहीं मिला वरना हर व्यक्ति किसी न किसी तरह से भ्रष्टाचार से जुड चुका है।
इस सर्वव्यापी भ्रष्टाचार से मुक्ति क्या कभी संभव है? इसके लिए तो व्यक्ति की मानसिकता में आमूलचूल परिवर्तन जरुरी है। आज के इस भौतिकतावादी युग में हर व्यक्ति अधिक से अधिक धन कमाना चाहता है और यही लालच उसे अवैध तरीको से धन अर्जित करने के लिए बाध्य करती है। सरकारी कर्मचारी को भरपूर वेतन मिलने के बावजूद अपनी आय से संतुष्टि नहीं है इसलिए वह रिश्वत वसूलता है। अफसर को तमाम सुखसुविधाएं उपलब्ध होने के बाद भी संतोष नहीं है इसलिए वह भ्रष्टाचार में लिप्त है। व्यक्ति धन के पीछे भाग रहा है और धन की अंतिम सीमा है ही नहीं इसलिए हर कोई इस दलदल में घुसा जा रहा है। तमाम धर्मग्रन्थ और धार्मिक गुरु व्यक्ति को संतोषी होने के उपदेश दे रहे है लेकिन किसी पर इसका कोई असर नहीं हो रहा है।
ऐसी स्थिति में अण्णा का आन्दोलन क्या असर दिखाएगा? वास्तव में अण्णा साहब का आन्दोलन भ्रष्ट होते जा रहे शीर्ष पुरुषों पर नियंत्रण के लिए है। व्यापकता से विचार करे तो भ्रष्टाचार का परनाला उपर से नीचे की ओर बह रहा है। यदि उच्च स्तरों पर आसीन मंत्रियों और अफसरों के भ्रष्टाचार को रोक दिया गया तो जल्दी ही इसका असर नीचे भी दिखाई देगा और सर्वव्यापी हो चुकी इस महामारी को रोका जा सकेगा। जन लोकपाल बिल इसी उद्देश्य के लिए है। कपिल सिब्बल को यही डर है कि यदि जन लोकपाल बिल पारित हो गया तो मंत्रियों और अफसरों की मिलीभगत से होने वाले हजारों करोड रुपए के घोटालों पर ना सिर्फ अंकुश लग सकेगा बल्कि दोषियों को कडी सजा भी मिल सकेगी।
वर्तमान स्थिति यह है कि भ्रष्टाचार रोकने के लिए जो भी कानून उपलब्ध है वे इतने लचर है कि इनसे भ्रष्टाचारियों को कोई डर नहीं लगता। जब किसी रिश्वतखोर अधिकारी को रिश्वत लेते रंगे हाथों पकडा जाता है तो वर्तमान कानून के मुताबिक उसे वहीं जमानत दे दी जाती है। उस भ्रष्ट अधिकारी को उसके पद से भी नहीं हटाया जाता और जिस काम के लिए रिश्वत दी जा रही थी वह काम भी पूरा नहीं होता। नतीजा यह होता है कि रिश्वत लेते पकडे गए भ्रष्ट अधिकारी के भ्रष्टाचार का प्रचार हो जाता है और आगे से उसे अधिक रिश्वत मिलने लगती है। फिर रिश्वत चाहे सौ रुपए हो लाख या करोड इसमें सजा सिर्फ तीन साल की होती है। पांच सात साल केस चलने के बाद अधिकांश भ्रष्ट अधिकारी बरी हो जाते है। कुछेक जो किसी तरह सजा तक पंहुचते भी है तो सजा होते ही न्यायालय सजा पर स्थगन दे देता है। मामले की अपील होती है जो फिर कई बरसों तक चलती है और अन्तत: भ्रष्ट अधिकारी अपील में राहत हासिल कर लेता है। और जब भ्रष्टाचार टू जी स्प्रैक्ट्रम या आदर्श हाउसिंग जैसा बडा हो तब ये कानून और भी बेअसर लगने लगते है। देश की स्थिति देखिए आय से अधिक सम्पत्ति अर्जित करने वाले किस नेता को आजतक कोई सजा मिली है?
अण्णा हजारे का आन्दोलन इन्ही के खिलाफ है। यही वजह है कि नेता किसी न किसी तरह अण्णा के आन्दोलन की कमियां निकालने पर तुले है। कपिल सिब्बल हो या दिग्विजय सिंह सभी किसी न किसी तरह अण्णा पर हमला करने की कोशिश में है। उन्हे खतरा यही है कि यदि कानून कठोर बन गया तो उसकी मार सबसे पहले उसे बनाने वालों पर ही पडेगी। संसद में मौजूद हमारे जनप्रतिनिधि जो इसे पारित करेंगे सबसे पहले उन्ही को इसका खामियाजा भुगतना पडेगा। यह नेताओं की राजनीतिक मजबूरी है कि उन्हे जन लोकपाल बिल के लिए राजी होना पडा है। अफसरों के लिए भी यह बिल दुखदायी ही साबित होगा। कठोर प्रावधानों का बडा नुकसान नेता और अफसरों को ही उठाना पडेगा।
यह अण्णा हजारे का ही कमाल है कि उन्होने जन लोकपाल बिल के मुद्दे पर सरकार को झुका लिया। यह बिल पारित होने के बाद यदि थोडे से भ्रष्ट नेता और अफसर भी दण्डित कर दिए गए तो भ्रष्टाचार की व्यापकता कम होने लगेगी।
इस सवाल का उत्तर ढुंढने से पहले जरा अण्णा के कृतित्व पर नजर डाले। फौज से निकले अण्णा साहेब के जीवन पर स्वामी विवेकानन्द का ऐसा प्रभाव पडा कि उन्होने अपने गांव की तकदीर बदलने के लिए पूरा जीवन खपा दिया। महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के अत्यन्त पिछडे इस छोटे से गांव में अण्णा साहेब के आगमन से पहले शराब की चालीस भट्टियां थी। गांव के अधिकांश लोग गले गले तक कर्ज में डूबे थे और नशे की गिरफ्त में थे। अण्णा साहेब ने सुधार की शुरुआत गांव के जीर्ण शीर्ण हो चुके मन्दिर के जीर्णोध्दार से की। इस काम में उन्होने किसी की भी मदद नहीं ली। अपनी जीवन भर की जमापूंजी उन्होने इस मन्दिर में लगा दी और इसी मन्दिर को उन्होने सुधार का केन्द्रबिन्दु बनाया। वे आज भी इसी मन्दिर में रहते है। जिस गांव में कभी शराब की चालीस भट्टियां थी वहां आज एक भी व्यक्ति नशा नहीं करता। गांव के घरों में ताले नहीं लगाए जाते। जल संरक्षण की नई तकनीकों के ईजाद से खेती आज यहां फायदे का सौदा बन चुकी है। गांव में संपन्नता है। बच्चे शिक्षित है। गांव सर्वसुविधायुक्त,संस्कारित और संपन्न बन चुका है। अण्णा साहेब के इस चमत्कार से आसपास के कई गांव भी प्रभावित हुए और अनेक गांवों का कायापलट हो गया। इस चमत्कारिक सफलता के पीछे अण्णा की निस्वार्थ तपस्या छुपी है। जिस काम को असंभव माना जाता था अण्णा ने उसे कर दिखाया। यह उन्ही का आत्मविश्वास था कि उन्हे यह सफलता मिली। यही कारण है कि भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए जब अण्णा आन्दोलन पर जुटे तब भी उनके चेहरे पर वही आत्मविश्वास झलक रहा था। वे जानते थे कि जो वे करना चाहते है उसे वे करके रहेंगे।
अब बात करे भ्रष्टाचार की। आप माने या ना माने,भ्रष्टाचार आज ईश्वर की तरह सर्वव्यापी हो चुका है। सत्ता के शीर्ष पर बैठे व्यक्ति से लगाकर दूरस्थ वनवासी अंचल के किसी टूटे झोंपडे में बैठे गरीब वनवासी तक सभी को भ्रष्टाचार का सामना करना पडता है। इसमे अन्तर सिर्फ इतना है कि शीर्ष पर बैठा व्यक्ति अपनी इच्छा से,अधिक धन कमाने के लालच में भ्रष्टाचार के दलदल में उतरता है जबकि गरीब व्यक्ति को अपने छोटे मोटे काम कराने की मजबूरी से इसमें उतरना पडता है। गांव के एक गरीब किसान को अपने खेत के नक्शे और खसरे के लिए पटवारी को रिश्वत देना पडती है तो शहर के किसी गरीब मजदूर को जाति या निवासी प्रमाणपत्र के लिए बाबू और चपरासी की रिश्वत की मांग पूरी करना पडती है। देश में आज ऐसा कोई काम नहीं है जिसे करवाने के लिए व्यक्ति को रिश्वत ना देना पडे। मकान बनाने की अनुमति लेना हो या घर में नलकूप खुदवाना हो,ट्रेन की यात्रा हो या गैस की टंकी लेना हो,रिश्वत जीवन का अनिवार्य तत्व बन गई है। कभी काम करवाने की मजबूरी तो कभी काम जल्दी करवाने की जरुरत,छोटा भ्रष्टाचार इसी से उपजता है। कोई सरकारी महकमा ऐसा नहीं बचा है जहां भ्रष्टाचार शिष्टाचार की शक्ल न ले चुका हो। अब तो स्थिति ऐसी हो गई है कि सिर्फ वही भ्रष्ट नहीं है,जिसे भ्रष्टाचार का मौका नहीं मिला वरना हर व्यक्ति किसी न किसी तरह से भ्रष्टाचार से जुड चुका है।
इस सर्वव्यापी भ्रष्टाचार से मुक्ति क्या कभी संभव है? इसके लिए तो व्यक्ति की मानसिकता में आमूलचूल परिवर्तन जरुरी है। आज के इस भौतिकतावादी युग में हर व्यक्ति अधिक से अधिक धन कमाना चाहता है और यही लालच उसे अवैध तरीको से धन अर्जित करने के लिए बाध्य करती है। सरकारी कर्मचारी को भरपूर वेतन मिलने के बावजूद अपनी आय से संतुष्टि नहीं है इसलिए वह रिश्वत वसूलता है। अफसर को तमाम सुखसुविधाएं उपलब्ध होने के बाद भी संतोष नहीं है इसलिए वह भ्रष्टाचार में लिप्त है। व्यक्ति धन के पीछे भाग रहा है और धन की अंतिम सीमा है ही नहीं इसलिए हर कोई इस दलदल में घुसा जा रहा है। तमाम धर्मग्रन्थ और धार्मिक गुरु व्यक्ति को संतोषी होने के उपदेश दे रहे है लेकिन किसी पर इसका कोई असर नहीं हो रहा है।
ऐसी स्थिति में अण्णा का आन्दोलन क्या असर दिखाएगा? वास्तव में अण्णा साहब का आन्दोलन भ्रष्ट होते जा रहे शीर्ष पुरुषों पर नियंत्रण के लिए है। व्यापकता से विचार करे तो भ्रष्टाचार का परनाला उपर से नीचे की ओर बह रहा है। यदि उच्च स्तरों पर आसीन मंत्रियों और अफसरों के भ्रष्टाचार को रोक दिया गया तो जल्दी ही इसका असर नीचे भी दिखाई देगा और सर्वव्यापी हो चुकी इस महामारी को रोका जा सकेगा। जन लोकपाल बिल इसी उद्देश्य के लिए है। कपिल सिब्बल को यही डर है कि यदि जन लोकपाल बिल पारित हो गया तो मंत्रियों और अफसरों की मिलीभगत से होने वाले हजारों करोड रुपए के घोटालों पर ना सिर्फ अंकुश लग सकेगा बल्कि दोषियों को कडी सजा भी मिल सकेगी।
वर्तमान स्थिति यह है कि भ्रष्टाचार रोकने के लिए जो भी कानून उपलब्ध है वे इतने लचर है कि इनसे भ्रष्टाचारियों को कोई डर नहीं लगता। जब किसी रिश्वतखोर अधिकारी को रिश्वत लेते रंगे हाथों पकडा जाता है तो वर्तमान कानून के मुताबिक उसे वहीं जमानत दे दी जाती है। उस भ्रष्ट अधिकारी को उसके पद से भी नहीं हटाया जाता और जिस काम के लिए रिश्वत दी जा रही थी वह काम भी पूरा नहीं होता। नतीजा यह होता है कि रिश्वत लेते पकडे गए भ्रष्ट अधिकारी के भ्रष्टाचार का प्रचार हो जाता है और आगे से उसे अधिक रिश्वत मिलने लगती है। फिर रिश्वत चाहे सौ रुपए हो लाख या करोड इसमें सजा सिर्फ तीन साल की होती है। पांच सात साल केस चलने के बाद अधिकांश भ्रष्ट अधिकारी बरी हो जाते है। कुछेक जो किसी तरह सजा तक पंहुचते भी है तो सजा होते ही न्यायालय सजा पर स्थगन दे देता है। मामले की अपील होती है जो फिर कई बरसों तक चलती है और अन्तत: भ्रष्ट अधिकारी अपील में राहत हासिल कर लेता है। और जब भ्रष्टाचार टू जी स्प्रैक्ट्रम या आदर्श हाउसिंग जैसा बडा हो तब ये कानून और भी बेअसर लगने लगते है। देश की स्थिति देखिए आय से अधिक सम्पत्ति अर्जित करने वाले किस नेता को आजतक कोई सजा मिली है?
अण्णा हजारे का आन्दोलन इन्ही के खिलाफ है। यही वजह है कि नेता किसी न किसी तरह अण्णा के आन्दोलन की कमियां निकालने पर तुले है। कपिल सिब्बल हो या दिग्विजय सिंह सभी किसी न किसी तरह अण्णा पर हमला करने की कोशिश में है। उन्हे खतरा यही है कि यदि कानून कठोर बन गया तो उसकी मार सबसे पहले उसे बनाने वालों पर ही पडेगी। संसद में मौजूद हमारे जनप्रतिनिधि जो इसे पारित करेंगे सबसे पहले उन्ही को इसका खामियाजा भुगतना पडेगा। यह नेताओं की राजनीतिक मजबूरी है कि उन्हे जन लोकपाल बिल के लिए राजी होना पडा है। अफसरों के लिए भी यह बिल दुखदायी ही साबित होगा। कठोर प्रावधानों का बडा नुकसान नेता और अफसरों को ही उठाना पडेगा।
यह अण्णा हजारे का ही कमाल है कि उन्होने जन लोकपाल बिल के मुद्दे पर सरकार को झुका लिया। यह बिल पारित होने के बाद यदि थोडे से भ्रष्ट नेता और अफसर भी दण्डित कर दिए गए तो भ्रष्टाचार की व्यापकता कम होने लगेगी।
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