भ्रष्टाचार के विरुध्द ऐतिहासिक आन्दोलन कर केवल चार दिनों मे सरकार को झुका देने वाले अण्णा हजारे को लेकर लगता है कि पूरे देश में भ्रम का वातावरण बना हुआ है। आन्दोलन शुरु होते ही देश भर की मीडीया में अण्णा हजारे को गांधीवादी घोषित कर दिया गया। अब लेखक उनके पीछे हटने,अकेला पड जाने और अलग थलग पड जाने पर विश्लेषण कर रहे है।
लोकपाल बिल कमेटी में शामिल जनता के प्रतिनिधियों को विवादों में उलझाने की हर चंद कोशिशें शुरु हो गई है। मजेदार बात यह है कि अधिकांश लेखक,संवाददाता और नेता अण्णा हजारे के बारे में बेहद कम जानते है। महाराष्ट्र के नेता और कुछेक पत्रकार जरुर उनके बारे में जानकारियां रखते होंगे लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर छाये नेता,लेखक और पत्रकारों में उन्हे जानने वाले बेहद कम हैं। जानकारी की इसी कमी का असर है कि अण्णा के बारे में जिसकी जो मर्जी होती है लिख देता है और निष्कर्ष निकाल लेता है। मजेदार तथ्य यह है कि अण्णा पर लिखने वालों में से नब्बे प्रतिशत लोग उनका नाम तक नहीं जानते। पिछले दिनों चले आन्दोलन और उस दौरान अखबारों और टीवी चैनलों ने कई कार्यक्रम उन दिखाए लेकिन कहीं भी व्यक्तिगत जानकारियां सामने नहीं आई।
पूरे देश की मीडीया ने पहली गलती तो यह की कि अण्णा साहब को अन्ना साहब बनाकर रख दिया। अण्णा शब्द महाराष्ट्र में बडे बुजुर्गों के लिए उपयोग में लाया जाता है जबकि अन्ना शब्द आमतौर पर मद्रासियों यानी दक्षिण भारतीयों के लिए उपयोग में लाया जाता है। ऐसा नहीं है कि कम्प्यूटरों में ण अक्षर नहीं होता। वास्तव में अंग्रेजी में अण्णा और अन्ना की स्पैलिंग एक ही होती है। अंग्रेजी अखबारों की नकल करने वाले हिन्दी के अखबारों ने फौरन नकल करते हुए अण्णा साहब को अन्ना साहब बना दिया। वे महाराष्ट्रीयन से तमिल हो गए।
अब आगे देखिए अण्णा साहब द्वारा पहनी जाने वाली सफेद टोपी को देखकर पूरे मीडीया ने उन्हे गांधीवादी बना दिया। जबकि वास्तविकता यह है कि महाराष्ट्र के ग्रामीण ईलाकों में नाव टोपी पहनने की परंपरा है,और इसका गांधी जी से कोई लेना देना नहीं है। अण्णा ने ग्राम विकास के लिए गांधीवादी माडल जरुर अपनाया लेकिन वे गांधीवादी नहीं है। उन्होने कभी ऐसा नहीं कहा कि वे गांधीवादी है। बल्कि अण्णा साहब तो गांधी जी के परम शिष्य जवाहरलाल नेहरु की नीतियों के प्रखर विरोधी रहे है। उनका स्पष्ट मानना है कि नेहरु के विकास माडल ने इस देश का भारी नुकसान किया है।
मीडीया के साथ साथ देश की अधिकांश जनता भी अण्णा हजारे और उनके द्वारा किए गए उल्लेखनीय कार्यो से सर्वथा अपरिचित है। लोग केवल इतना जानते है कि अण्णा साहब कोई बडे समाजसेवी है जो पता नहीं किस कारण से भ्रष्टाचार के खिलाफ लडाई लडने खडे हो गए है।
वास्तव में अण्णा साहब का जीवन किसी फिल्मी कथानक से कम नहीं है। पद्म श्री से विभूषित किशन बाबू हजारे अपने गांव रालेगढ शिंधी की कायापलट करते हुए कब अण्णा साहब बन गए शायद उन्हे भी अब याद नहीं होगा। नवंबर 1991 मे अण्णा सा. जस संरक्षण के एक कार्यक्रम में शामिल होने के लिए रतलाम आए थे,उस समय इस लेखक को उन्होने अपने जीवन और क्रियाकलापों के बारे में एक लम्बा इंटरव्यू दिया था। यह साक्षात्कार 11 नवंबर 1991 को प्रकाशित हुआ था।
फौज में ड्राईवर के पद पर कार्यरत युवक किशन बाबू हजारे अचानक ही जीवन के संघर्षों से उबकर जीवन के औचित्य पर विचार करते करते आत्महत्या का विचार करने लगा। उसे अपना जीवन निरर्थक लगने लगा। उस समय उस युवक की पोस्टिंग बर्फीले ईलाकों में थी। जीवन से उबकर उन्होने आत्महत्या के लिए अपना अंतिम पत्र भी लिख डाला। लेकिन पारिवारिक जिम्मेदारियों के कारण उन्हे अपना यह विचार कुछ दिनों के लिए स्थगित करना पडा। इसी दौरान अचानक संयोग से उनके हाथ स्वामी विवेकानन्द की एख पुस्तक लग गई। स्वामी विवेकानन्द कार्य और विचार नामक पुस्तक पढते पढते उन्हे लगा कि उन्हे जीवन का अर्थ मिल गया है। उनके जीवन की दिशा निर्धारित हो गई। उन्होने दो निर्णय लिए एक तो पीडीत मानवता की सेवा का और सेवा के इस महायज्ञ के लिए आजीवन अविवाहित रहने का।
उस समय उन्हे फौज में काम करते हुए पांच वर्ष बीत चुके थे और अनिवार्य सेवानिवृत्ति के लिए दस वर्ष बाकी थे। 1965 के भारत पाक युध्द में उनकी टुकडी खेमकरण बार्डर पर तैनात थी। युध्द के दौरान जो वाहन किशनबाबू चला रहे थे उस पर बम का हमला हुआ और उनके सभी साथी इस हमले में मारे गए। केवल किशन बाबू जीवित बचे। इस घटना ने उनके जीवनके लक्ष्य को और मजबूत कर दिया। किशन बाबू को लगा कि जैसे उनका पुर्नजन्म हुआ है। ईश्वर ने उन्हे सेवा के लिए जीवित रखा है।
फौज की नौकरी के पन्द्रह वर्ष पूर्ण होते ही किशन बाबू ने अगस्त 1975 में अनिवार्य सेवानिवृत्ति ले ली। सेवानिवृत्ति के बाद मन में कुछ करने की इच्छा लेकर किशन बाबू अपने पैतृक गांव रालेगढ शिंधी(रालेगांव) पंहुच गए। महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले की पारनेर तहसील में स्थित रालेगढ शिंधी उस समय अत्यन्त पिछडा गांव था। उस समय उनके पास थी उनकी जीवनभर की जमापूंजी उनका प्राविडेन्ट फण्ड और कुछ कर गुजरने की लगन। जब वे अपने गांव पंहुचे तो गांव की हालत देखकर उनका मन रो उठा। रालेगांव में उस समय अशिक्षा भुखमरी नशाखोरी जैसी बुराईयों का कब्जा था। गांव के लोगो का जीवन नारकीय था। गांव में केवल 15-16 इंच बारिश होती थी और जब ग्रामीण खेती से अपने पेट की आग नहीं बुझा पाते तो शराब से अपने दुखो को भुलाने की कोशिश करते। गांव में नशाखोरी का आलम ये था कि उस छोटे से गांव में शराब की 40 भट्टिया थी। एक टूटा फूटा मन्दिर था जिसे शराबी अपना अड्डा बना लिया करते थे।
किशन बाबू हजारे जब गांव में पंहुचे तो उन्होने गांव की हालत सुधारने के लिए सबसे पहले मन्दिर से शुरुआत की। उन्होने उस वक्त प्राविडेन्ट फण्ड से मिली राशि में से बीस हजार रुपए मन्दिर के जीर्णोध्दार पर खर्च किए और मन्दिर को अपनी आगामी योजनाओं का केन्द्रबिन्दु बनाया। गांव के लोग आश्चर्यचकित थे कि यह व्यक्ति क्यों अपनी जमापूंजी इस तरह खर्च कर रहा है। लेकिन किशन बाबू की निस्वार्थ सेवा धीरे धीरे असर दिखाने लगी और वे किशन बाबू के पास आने लगे। धीरे धीरे किशन बाबू गांव के अण्णा साहब बनने लगे। लोगों में सामूहिकता की भावना आने लगी और समरसता का भाव जागृत होने लगा। अण्णा साहब के नेतृत्व में गांव में परिवर्तन की लहर चलने लगी और लोग अपने गांव और अपने जीवन की दशा सुधारने के लिए सक्रिय होने लगे। अण्णा साहब के नेतृत्व में जहां जल संरक्षण के कार्यक्रम चलाकर बारिश की एक एक बून्द को सहेजा जाने लगा,वहीं सुसंस्कार देने का वातावरण भी बनने लगा। जल संरक्षण के उपायों से फसलें सुधरने लगी तो आर्थिक दशा ठीक होने लगी। शिक्षा के लिए भी विद्यालय प्रारंभ किया गया। अण्णा साहब की तपस्या का परिणाम 15-16 वर्षों में स्पष्ट दिखाई देने लगा। अब तो रालेगांव भारत के उन संपन्न और खुशहाल गांवों में अग्रणी है जो पूर्णत: स्वावलंबी है। यहां तक कि रालेगांव में सरकारी बिजली भी नहीं ली जाती। उर्जा के समस्त साधन ग्रामवासियों ने स्वयं विकसित कर लिए है। गोबर गैस बायो गैस और सौर उर्जा का पूरा उपयोग यहां किया जाता है। खेती सहकारिता के आधार पर की जाती है,जलस्त्रोतों के जल का वितरण भी सहकारिता के आधार पर होता है। ये सारे परिवर्तन बिना एक भी रुपए की सरकारी मदद के किए गए है। परिवर्तन सिर्फ आर्थिक स्तर पर ही नहीं हुआ बल्कि सामाजिक स्तर पर भी पूर्णत: आदर्श स्थितियां प्राप्त की गई। रालेगांव संभवत: देश का ऐसा पहला गांव है जहां लोग घरों में ताले नहीं लगाते। पिछले कई वर्षों में यहां कभी पुलिस के कदम नहीं पडे। किसी पुलिस थाने में रिपोर्ट नहीं की गई। गांव में टीवी पर अश्लील फिल्मी कार्यक्रम नहीं देखे जाते बल्कि धार्मिक और संस्कारयुक्त कार्यक्रम देखे जाते है। सुबह सबेरे पांच बजे गांव के सारे लोग धार्मिक भजनों को सुनकर जागते है और गांव के सारे बच्चे मिलकर व्यायाम करते है। तब गांव की दिनचर्या शुरु होती है। गांव के लोगों ने स्वयं श्रमदान करके लाखों रुपए के भवन बनाए है जिनमें विद्यालय,छात्रावास,चिकित्सालय इत्यादि लगते है। गांव के जल स्त्रोतों में बारहों महीने भरपूर पानी रहता है। खेतों में भरपूर फसलें होती है। अभाव का दूर दूर तक नामोनिशान नहीं बचा है। यहां शिक्षा है संस्कार है,सुख ह और वह सबकुछ है जो एक सुखी जीवन के लिए चाहिए । अब यह गांव और यहां के निवासी पूरे देश के लिए आदर्श बन चुके है। अण्णा के इन सफल और कारगर प्रयासों का पहला असर आसपास के गांवों तक पंहुचा और आसपास के कई गांव भी अण्णा के अभियान में शामिल हो चुकै है।
पूरे देश के लिए यह आदर्श निर्माण करने वाला शिल्पी अण्णा साहब हजारे ग्राम निर्माण का संकल्प पूरा करने के बाद अब देश निर्माण के लिए निकला है। अण्णा का जीवन विवेकानन्द के स्फूर्तिदायक उद्गारों से प्रभावित है। देश की वर्तमान दुर्दशा के लिए वे देश में लागू की गई नेहरु की विकास नीति के साथ अंग्रेजी परस्त शिक्षा नीति को दोषी मानते रहे है। अपने उस साक्षात्कार में अण्णा ने कहा था कि हमे फिर से हमारी हिन्दूत्ववादी परंपराओं की ओर लौटना होगा। प्राचीन भारतीय संस्कृति ही देश को बचा सकती है। लोगों में धर्मभावना जागृत करना होगी,धर्म के आध्यात्मिक स्वरुप को पुनरजीवित करना होगा। तभी लोगों को यह तथ्य समझ में आएगा कि जीवन की सार्थकता सेवा में है।
रामराज्य के शिल्पी अण्णा हजारे अब देश की सबसे खतरनाक स्वरुप ले चुकी समस्या भ्रष्टाचार के खिलाफ शंखनाद कर चुके है। जो उनके तपस्वी जीवन के बारे में जानते है उन्हे उनके प्रति कभी संदेह नहीं होगा लेकिन मीडीया के अधिकांश लोग और नेता उन्हे अपने चश्मे से देख रहे है। जिन्होने विवेकानन्द के चरित्र को समझा है वे जानते है कि विवेकानन्द कितने साहसी थे। विवेकानन्द से प्रेरणा लेकर जीवन भर चलने वाले अण्णा में भी साहस की कमी नहीं है। उन्हे गांधीवादी भले ही माना जाए लेकिन अण्णा ने आन्दोलन समाप्त करते समय महात्मा गांधी को नहीं बल्कि वीर क्रान्तिकारी भगतसिंह सुखदेव और राजगुरु को स्मरण किया था। अण्णा को लेकर दिग्विजय सिंह जैसे नेताओं में फैला डर शायद इसी कारण है।
कोठारी जी धन्यवाद
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