Saturday, September 28, 2013

युवराज के लिए सर्वोच्च पद की गरिमा का बलिदान

- तुषार कोठारी
दागी नेताओं के हित में लाए जा रहे अध्यादेश पर कांग्रेस के युवराज द्वारा की गई टिप्पणी के चाहे जो राजनीतिक निहितार्थ निकाले जा रहे हो,इससे ये जरुर निर्विवाद रुप से सिध्द हो गया है कि भारतीय लोकतंत्र के सर्वोच्च पद प्रधानमंत्री पद की गरिमा को पूरी तरह गिराManmohan दिया गया है। मनमोहन सिंह का नाम देश के इतिहास में शायद इसीलिए लिया जाएगा कि उन्होने प्रधानमंत्री पद की गरिमा को शर्मसार होने के स्तर तक गिरा दिया है। निश्चय ही ऐसे अयोग्य व्यक्ति को देश पर दस साल तक थोपे रहने के लिए कांग्रेस और सोनिया गांधी के अपराध को भी अक्षम्य माना जाएगा।

भारतीय लोकतंत्र के 66 वर्षों के इतिहास में अनेक लोग इस पद पर आसीन हुए है। प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु,लाल बहादुर शाी और आयरन लेडी इन्दिरा गांधी के साथ साथ अटल बिहारी वाजपेयी जैसी महान विभूतियों ने इस पद को सुशोभित किया। 66 वर्षों के दौर में एच डी देवेगौडा और आई के गुजराल जैसे कम महत्वपूर्ण व्यक्ति भी इस पद पर आए। लेकिन सर्वोच्च पद की गरिमा फिर भी बनी रही। विश्व के सबसे बडे लोकतंत्र के सबसे शक्तिशाली पद पर आसीन व्यक्ति के क्रियाकलाप और आचरण से पूरे देश का भाग्य और भविष्य प्रभावित होता है। मनमोहन सिंह ने देश के प्रधानमंत्री पद को एक ऐसे पद में बदल कर रख दिया है,जिसके पास न तो फैसला लेने की ताकत है और ना स्वतंत्र रुप से विचार करने की क्षमता।
कल्पना भी नहीं की जा सकती कि देश कितने बुरे दौर से गुजर रहा है। लोकतंत्रात्मक व्यवस्था में सर्वोच्च पद पर आसीन व्यक्ति देश के १२० करोड लोगों का भाग्य विधाता होता है। विश्व के अन्य देशों के राष्ट्राध्यक्षों से विभिन्न महत्वपूर्ण विषयों पर चर्चा करना और निर्णय लेना,इस पद पर आसीन व्यक्ति के लिए महत्वपूर्ण कार्य होता है। इसके जरिये वह देश के भाग्य,भविष्य,सुरक्षा जैसे महत्वपूर्ण और संवेदनशील मुद्दों पर निर्णय करता है। इसी तरह सुरक्षा से जुडे मुद्दों पर भी अंतिम निर्णय लेने का अधिकार लोकतंत्र में प्रधानमंत्री को ही होता है। देश के एक एक नागरिक का जीवन इस पर निर्भर करता है। लेकिन जो व्यक्ति छोटे छोटे मसलों पर भी निर्णय ले पाने में सक्षम ना हो,वह इतने बडे और अति महत्वपूर्ण मसलों पर कैसे प्रतिक्रिया करेगा? अमेरिका या पाकिस्तान के राष्ट्राध्यक्षों से अतिसंवेदनशील मुद्दों पर चर्चा के दौरान क्या कोई यह कल्पना भी कर सकता है कि भारत का प्रधानमंत्री किसी प्रश्न का जवाब देने के लिए हाइकमान को फोन लगाकर स्वीकृती की प्रतीक्षा करेगा? लेकिन लगता है कि भारत में फिलहाल यही हो रहा है। भगवान ना करें देश के सामने कोई बडी चुनौती आ जाए। सेनाध्यक्षों को आदेश देने जैसी किसी स्थिति में देश का क्या होगा?
चुनाव में अपने युवराज की छबि को बनाने के लिए यदि कांग्रेस देश के प्रधानमंत्री पद की हैसियत को दांव पर लगा रही है तो इससे निन्दनीय कुछ नहीं हो सकता। आने वाले कई दशकों तक देश को इसका खामियाजा भुगतना पड सकता है। वैसे यूपीए अध्यक्ष श्रीमती गांधी को उनके इस चयन के लिए अत्यन्त तीक्ष्ण बुध्दि वाला माना जा सकता है कि उन्होने प्रधानमंत्री पद के लिए दस साल पहले मनमोहन सिंह का चयन किया था। उनके चयन का ही कमाल है कि पिछले दस सालों में उनका महत्व बिलकुल भी कम नहीं हुआ बल्कि बढा ही है। सोनिया जी के इस निर्णय में उनका वह दुख भी छुपा हुआ था,जब स्व.राजीव गांधी की हत्या के बाद प्रधानमंत्री पद पर नरसिम्हाराव को बैठाया गया था। नरसिम्हाराव के कालखण्ड को याद कीजिए। पद पर आसीन होते ही उन्होने यह सिध्द कर दिया था कि लोकतंत्र में सर्वाधिक शक्तिशाली प्रधानमंत्री ही होता है। श्री राव के शासनकाल में श्रीमती सोनिया गांधी को हाशिये पर फेंक दिया गया था। हाशिये पर रहकर दिन गुजार चुकी सोनिया जी को जब प्रधानमंत्री चुनने का मौका मिला तब उनके सामने एकमात्र यही मापदण्ड रहा होगा कि प्रधानमंत्री की कुर्सी उसे सौंपी जाए,जो प्रधानमंत्री बनने के बाद भी खुद का दिमाग ना लगाए और हर निर्णय पूछ कर करे। श्रीमती सोनिया गांधी चयन के मामले में बिलकुल सही साबित हुई। उनका चयन सही साबित हुआ। लेकिन देश का हित कहीं खो गया।
देश के प्रधानमंत्री पद की गरिमा को युवराज का कद बढाने के अभियान पर बलिदान कर दिया गया। देश की पूरी केबिनेट और प्रधानमंत्री के निर्णय को कांग्रेस के युवराज ने नानसेंस कह कर जहां अपना पद बढाने की कोशिश की वहीं देश के प्रधानमंत्री और मंत्रीमण्डल को भी नाकारा घोषित कर दिया।
वैसे तो एक सामान्य व्यक्ति से भी अपेक्षा की जाती है कि उसे आत्मसम्मान को सुरक्षित रखना चाहिए। बात जब देश के प्रधानमंत्री की तो आत्मसम्मान का प्रश्न और भी महत्वपूर्ण हो जाता है। अमेरिका गए प्रधानमंत्री में आत्मसम्मान का भाव कितना है,इसका अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि युवराज के बयान के बाद भी उन्होने ऐसा कोई संकेत नहीं दिया कि केबिनेट के निर्णय को नानसेंस कहा जाना उन्हे बुरा लगा हो। ये उनकी स्वामीभक्ति की पराकाष्ठा कही जा सकती है।
देश के सामने बडा सवाल है कि एक नेता के पक्ष में चल रही लहर को कम करने के लिए यदि सत्तारुढ दल के लोग लोकतंत्र के सर्वोच्च पद की गरिमा तक को दांव पर लगाने लगे हो,तब देश को बचाया कैसे जाए? मनमोहन सिंह अब क्या करेंगे इस पर दिमाग खपाने का कोई अर्थ नहीं है। आत्मसम्मान उनके लिए कोई मायने नहीं रखता,वरना उनका त्यागपत्र वहीं से आ गया होता। मंत्रीमण्डल में शामिल बडे बडे नेता भी अपने आत्मसम्मान को ताक पर रख चुके है। उन्हे भी इस बात का कोई मलाल नहीं है कि उनके सामूहिक निर्णय को युवराज ने नकार दिया,उलटे वे युवराज के स्तुतिगान में जुट गए है। अब तो मतदाता को ही इसका हल ढूंढना होगा। वरना देश को गर्त में जाने से कोई नहीं रोक पाएगा।

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