(यात्रा वृत्तान्त - तुषार कोठारी)
रतलाम लौटने के बाद कई लोग मिले,जो कि अण्डमान निकोबार से पूर्णत: अपरिचित थे। वे नहीं जानते कि अण्डमान निकोबार भारत का अंग है और सुदूर समुद्र में स्थित द्वीप समूह है। कुछ इतना जरुर जानते थे कि ये भारत का केन्द्रशासित प्रदेश है,लेकिन कहां है,कैसा है,ये नहीं जानते थे। कुख्यात कालापानी जेल और भारत की स्वतंत्रता के लिए अण्डमान में सहे गए कष्टों को जानने वाले तो नगण्य से है।
लेकिन स्वातंत्र्यवीर सावरकर जी के जीवन से जुडी घटनाओं को पढने के कारण हम मित्रों को अण्डमान जाकर देखने की बडी इच्छा थी। जब योजना बनने लगी तो पता चला कि वहां पंहुचना बेहद खर्चीला है,क्योकि जाने के लिए हवाई जहाज ही एक साधन है। हवाई यात्रा के खर्च को कम करने के लिए एक ही उपाय था कि काफी पहले टिकट करवाए जाए। बहरहाल हमने यात्रा की तिथी से करीब ढाई माह पहले हवाई टिकट बुक करवा लिए। इस यात्रा के लिए मेरे साथ मेरे मन्दसौर के पत्रकार साथी दैनिक गुरु एक्सप्रेस के आशुतोष नवाल,रतलाम के अभिभाषक साथी दशरथ पाटीदार और संतोष त्रिपाठी तथा कम्प्यूटर विशेषज्ञ हिमांशु जोशी जाने के लिए तैयार हो गए और आखिरकार हमने हैदराबाद से चैन्नई होते हुए पोर्टब्लेयर के लिए टिकट बुक करवा लिए। यात्रा को कम खर्चीला बनाने के लिए रतलाम से हैदराबाद और वहां से वापसी के लिए ट्रेन के आरक्षण करवाए। हैदराबाद से हमारी फ्लाईट 4 फरवरी 2014 की सुबह छ बजे थी,जहां से चैन्नई होते हुए हमें पोर्टब्लेयर पंहुचना था। हमारे एक साथी हिमांशु जोशी की माता जी का स्वास्थ्य खराब हो जाने से उनकी यात्रा स्थागित हो गई।
यात्रा के लिए शेष बचे हम चार साथी 2 फरवरी की रात इन्दौर से हैदराबाद की ट्रेन में सवार हुए और करीब पच्चीस घण्टों का सफर पूरा कर ३ फरवरी की रात ग्यारह बजे हैदराबाद के काछीगुडा स्टेशन पर पंहुचे। हैदराबाद में एक और मित्र विनय कोटिया की मदद से रात को ही टैक्सी करके हम रात करीब दो बजे हैदराबाद के अंतर्राष्ट्रिय हवाई अड्डे पर पंहुच गए। बडे शहरों के अन्तर्राष्ट्रिय हवाई अड्डों की सुविधाएं और चकाचौंध देख कर वाकई में लगता है कि हम कहीं विदेश में आ गए है। हवाई अड्डे पर रात दो बजे भी पूरी चहल पहल थी। रात के चार घण्टे कुर्सियों पर उंघते हुए काटे और सुबह छ:बजे स्पाइसजेट के विमान में सवार हो गए। यह एक छोटा विमान था,जिसने करीब डेढ घण्टे में हमें चैन्नई हवाई अड्डे पर उतारा। यहां करीब ढाई घण्टे इंतजार के बाद दूसरे विमान से हम पोर्टब्लेयर के लिए उडे। यह एक बडा विमान था और हमारा आगे का सफर पूरी तरह समुद्र के उपर से था। चैन्नई से पोर्टब्लेयर करीब बारह सौ किमी है।
सफर के पूरे रास्ते में अण्डमान को लेकर पढी सुनी तमाम बातें दिमाग में घुमती रही। दोपहर में करीब दो बजे हमारा विमान पोर्टब्लेयर के वीर सावरकर अन्तर्राष्ट्रिय हवाई अड्डे पर उतरा। यहां उतरते ही मन को पहली प्रसन्नता यही हुई कि कम से कम हवाई अड्डे का नाम स्वतंत्र्यवीर सावरकर के नाम पर रखा गया है। वरना स्वतंत्र भारत में जितना अन्याय सावरकर जी के साथ हुआ है,उसकी कोई दूसरी मिसाल नहीं है।
हवाई अड्डे पर पंहुचकर अण्डमान के सत्कार अधिकारी श्री धर्मराज को फोन किया। यहां आने से पहले उनसे रेस्ट हाउस में रुकने के लिए लगातार बात होती रही थी। गनीमत थी कि श्री धर्मराज से फौरन बात हो गई और उन्होने साउथ पाइन्ट सर्किट हाउस पर हमारे आरक्षण की खबर दे दी। हम बडी निश्चिंतता के साथ वहां पंहुचे। हमें तत्काल एक कक्ष भी मिल गया।
सर्किट हाउस में अपना सामान इत्यादि टिका कर फौरन नहा धो कर हम पोर्टब्लेयर शहर घुमने के लिए निकल पडे। हमारे टैक्सी ड्राइवर ने सेल्यूलर जेल तक ले जाने की पेशकश की थी,लेकिन किराया अधिक होने से हमने उसे इंकार कर दिया। हमारा विचार था कि पहले पैदल घुमघाम कर थोडा शहर से परिचय प्राप्त करें और अण्डमान को घूमने का कार्यक्रम अगले दिन रखें। सर्किट हाउस से निकलते ही सामने विशाल समुद्र लहरे उछाल रहा था।
सर्किट हाउस से उतरते ही सामने समुद्र के किनारे पर नेताजी सुभाषचन्द्र बोस गार्डन दिखाई दिया। यहां नेताजी की विशाल प्रतिमा लगाई गई है। नेताजी की आजाद हिन्द फौज से पोर्टब्लेयर पर सबसे पहले भारतीय तिरंगा फहराया था और अण्डमान निकोबार को स्वतंत्र कराकर इसे स्वतंत्र और शहीद द्वीप का नाम दिया था। पैदल घुमते घुमते हम पोर्टब्लेयर के आबरडीन बाजार में पंहुचे। यहीं पोर्टब्लेयर का ऐतिहासिक और प्रमुख बाजार है।करीब तीन चार घण्टे पैदल ही पोर्टब्लेयर की सड़कों को नापने के बाद हम सर्किट हाउस वापस लौटे।
हमारा सर्किट हाउस बेहद सुन्दर था,लेकिन इसका किराया काफी अधिक था। अधिमान्य पत्रकारों को आमतौर पर शासकीय दरों पर सर्किट हाउस उपलब्ध होता है,लेकिन प्रोटोकाल अधिकारी श्री धर्मराज ने स्पष्ट कर दिया था कि हमें शासकीय दर की सुविधा नहीं मिलेगी और हमें प्राईवेट चार्ज ही देना होंगे। यह हमारे लिए काफी महंगा साबित होता। यात्रा के खर्च को कम रखना हमारे लिए जरुरी था। इसलिए हमने पोर्टब्लेयर के दूसरे हिस्से में स्थित होटल शालीमार में कमरा ले लिया। योजना यह थी कि 5 फरवरी को टैक्सी से दिन भर पोर्टब्लेयर के प्रमुख पर्यटन स्थल देेखेंगे और रात को सर्किट हाउस छोडकर होटल पंहुच जाएंगे।
हमारा ड्राइवर सुभाष सुबह करीब साढे नौ बजे सर्किट हाउस पंहुचा। तब तक हम सर्किटहाउस में पराठे का तगडा नाश्ता कर चुके थे। हमारा ड्राइवर ही हमारा गाइड था। वह सबसे पहले हमें चाथम द्वीप ले गया। चाथम द्वीप पर एशिया की सबसे बडी आरा मिल है,जिसे वन विभाग संचालित करता है। पूरे अण्डमान में पौडक नामक वृक्षों की बहुतायत है। ये ही अण्डमान का प्रमुख वृक्ष है। चाथम द्वीप की विशाल आरामिल और वन विभाग का संग्रहालय देखने के बाद हमने कई अन्य संग्रहालय देखें। संग्रहालयों को देखने से अण्डमान में बसने वाली आदिम जनजातियों जारवा,ओंगी,सेन्टीलनीज आदि के बारे में व्यापक जानकारियां मिली।
शाम करीब चार बजे हम सेल्यूलर जेल पंहुचे। इसी कालापानी को देखने की सबसे अधिक
उत्सुकता थी। सेल्यूलर जेल के भीतर प्रवेश करते ही शरीर के रोंगटे खडे हो जाते है। अब इसे राष्ट्रीय स्मारक बना दिया गया है। यहां प्रवेश करते ही दो प्रदर्शनियां देखने को मिलती है। जिनमें से एक में कालापानी की सजा काटने वाले ज्ञात अज्ञात क्रान्तिकारियों और शहीदों की तस्वीरें और विस्तृत विवरण रखे गए है। जबकि दूसरी प्रदर्शनी में कालापानी जेल के जुडी अन्य जानकारियां दी गई है।
इसके बाद भीतर जाने पर सामने नजर आती है,कालापानी की नारकीय यातनाओं से भरी वो कालकोठरियां,जिनमें भारत माता के सपूतों ने अपनी जिन्दगियां होम कर दी। इन्ही कोठरियों में से तीसरी मंजिल के आखरी छोर पर स्वातंत्र्यवीर सावरकर की कोठारी है,जहां उन्होने दस साल गुजारे थे। जेल के क्रूर जेलर डेविड बैरी ने सावरकर जी का मनोबल तोडने के लिए उन्हे ठीक फांसीघर के सामने की कोठरी दी थी। लेकिन सावरकर तो सावरकर थे,वे जेल की किसी पाशविक यातना से नहीं टूटे।
करीब दो घण्टे तक जेल देखने के बाद शाम को होने वाले लाईट एण्ड साउण्ड शो के पहले हमे जेल परिसर से बाहर कर दिया गया। शो के टिकट पहले ही समाप्त हो चुके थे और इस शो को देखे बगैर हमारी यात्रा अधूरी ही रह जाती। टिकट नहीं मिलने पर हम निराश हो चुके थे,लेकिन अचानक भाग्य ने जोर मारा और जेल के एक कर्मचारी ने हमें भीतर प्रवेश करवा दिया। जेल में प्रतिदिन होने वाला एक घण्टे का यह शो प्रत्येक व्यक्ति के रोंगटे खडे कर देता है। इस शो में सैल्यूलर जेल की पूरी गाथा अत्यन्त प्रभावी ढंग से बताई जाती है।
यात्रा का पहला दिन बेहद थकान के साथ गुजरा। सैल्यूलर जेल से लौटे और सर्किट हाउस से अपना सामान उठाकर होटल में पंहुच गए। अगले दिन यानी ६ फरवरी को मड वोल्कानों देखने जाने का कार्यक्रम बना। ड्राइवर सुभाष ने शाम को ही स्पष्ट कर दिया कि मड वोल्कानों (बाराटांग)जाने के लिए सुबह छ: बजे निकलना होगा। मड वोल्कानों (बाराटांग) का रास्ता अण्डमान की आदिम जनजाति जारवा के क्षेत्र से गुजरता है और इसलिए इस रास्ते पर इन निर्व वनवासियों को देखने का मौका भी हाथ लग जाता है।
६ फरवरी की सुबह चूंकि छ बजे निकलना था,इसलिए हम लोग चार बजे उठकर स्नानादि से निवृत्त होकर ठीक छ: बजे चलने के लिए तैयार हो गए। ठीक समय पर ड्राइवर सुभाष भी आ गया और हम निकल पडे। करीब चालीस किमी चलने के बाद वनविभाग की जिरकाटांग चौकी पडती है और यहीं से जारवाओं का प्रतिबन्धित क्षेत्र शुरु होता है। इसलिए वाहनों को पुलिस सुरक्षा में कानवाय बनाकर रवाना किया जाता है। वाहनों को रास्ते में कहीं भी रोका नहीं जा सकता। यह गैरकानूनी है। जारवा के नजर आ जाने पर आप उससे न तो बात करने की कोशिश कर सकते है और ना ही उसे कोई वस्तु दी जा सकती है। यह सब प्रतिबन्धित है। हमारा ड्राइवर हमे सतर्क कर रहा था कि ऐसा कुछ नहीं करिए पुलिस और वन विभाग वाले बहुत सख्त है।
घने जंगल का यह रास्ता करीब पचास किमी का है। सुबह जल्दी उठ जाने की वजह से बीच बीच में आंखे भी झपक रही थी। साथ में जारवा के नजर आने की उत्सुकता भी थी। लेकिन पूरे रास्ते में जारवा कहीं नजर नहीं आए। रास्ता समाप्त होने के बाद सामने समुद्र आ गया। इस समुद्र को वाहन समेत जहाज पर सवार होकर पार करना पडता है। जहाज का यह सफर मात्र पन्द्रह बीस मिनट का होता है। दूसरे किनारे पर अपना वाहन आने के साथ ही हम मडवोल्कानों के लिए चल पडे। करीब दस किमी चलने के बाद करीब पौन किमी पैदल चलने पर मड वोल्कानों नजर आया,जहां जमीन में से कीचड के बुलबुले निकल रहे थे। हमारे साथ वहां पंहुचे सैकडों पर्यटकों में से शायद ही कोई ऐसा होगा जो यहां आकर निराश न हुआ हो। लेकिन हम निराश नहीं थे। अण्डमान के भीतरी हिस्सों को देखने के लिहाज से यह अच्छी यात्रा थी। लौटने का सफर उम्मीदों से ज्यादा अच्छा रहा। लौटते समय जारवा क्षेत्र में एक जारवा दम्पति सड़क पर चलते हुए नजर आ ही गए। उन्हे हम कुछ ही क्षणों के लिए देख सके लेकिन यह जीवन की विशेष उपलब्धि थी,कि हमने आज के वैज्ञानिक युग में आदिम युग में जीते मनुष्यों को देखा। होटल पर लौटते हुए अन्धेरा छा चुका था। अगले दिन हमें हैवलाक द्वीप की समुद्री यात्रा पर जाना था। इसके लिए भी सुबह छ: बजे जहाज पकडना था।
सात फरवरी के दिन की शुरुआत भी सुबह चार बजे उठने से हुई। जहाज पकडने के लिए समय से पहले फीनीक्स जेट्टी पर पंहुचना था। जहाज का यह सफर काफी महंगा भी था। जाने का किराया प्रति व्यक्ति आठ सौ रुपए था,तो आने के लिए नौ सौ पचास रुपए की टिकट मिली थी। निजी कंपनी के इस क्रूज में करीब तीन घण्टे की यात्रा के बाद लगभग नौ बजे हेवलाक द्वीप पर पंहुचे। वापसी का जहाज 3 बजे चलने वाला था और हमें दोपहर ढाई बजे जेट्टी पर पंहुचना था।
हमे बताया गया था कि हैवलाक पर घुमने के लिए गोवा की तरह दो पहिया वाहन किराये पर मिलते है। जेट्टी से बाहर आते ही वाहनों की तलाश की तो मालूम चला कि वाहन तो शहर के भीतर मिलेंगे। शहर यहां से करीब चार किमी दूर है। आटो लेकर भीतर पंहुचे और दो स्कूटर किराये पर लिए। स्कूटर का किराया भी अधिक था। प्रति स्कूटर चौबीस घण्टे के चार सौ रुपए किराया था। हमें तो मात्र चार पांच घण्टे हैवलाक पर रहना था,लेकिन किराया पूरा देना पडा। हैवलाक द्वीप का राधानगर बीच एशिया के सुन्दरतम समुद्रतटों में से एक है। यहां का पानी कांच की तरह साफ है और गन्दगी का नामोनिशान तक नहीं है। हम कपडे ले कर आए थे। यहां करीब एक घण्टे समुद्रस्ना का मजा लेने के बाद दूसरा बीच कालापत्थर देखने के लिए निकले। काला पत्थर बीच असल में कालापत्थर गांव के नाम पर है। यह बीच तो कई किलोमीटर लम्बा है। यहां समुद्र के नीचे काली चट्टानें है,जिनकी वजह से पानी काला नजर आता है। शायद इसी वजह से इसका नाम कालापत्थर पडा होगा। इस बीच पर स्कूटर से घुमते रहे। हमारी रेस समय के साथ थी। हम करीब दो बजे जेट्टी पर पंहुच गए। जेट्टी के बाहर एक शुध्द शाकाहारी छोटा सा होटल नजर आया,जिसे बंगाल का एक परिवार चला रहा था। यहां चावल का भोजन कर हम फिर से जहाज में सवार हो गए और अन्धेरा होते होते पोर्टब्लेयर पंहुच गए। फीनीक्स जेट्टी से पैदल ही अपने होटल पंहुच गए।
हमारी अण्डमान यात्रा लगभग पूरी हो चुकी थी। अण्डमान निकाबोर द्वीप समूह में 540 से अधिक छोटे बडे द्वीप है और इनमें से अनेक तो जनशून्य है। पूरे द्वीप समूह को देखने घुमने के लिए कई महीनों का समय चाहिए। लेकिन सीमित समय में कुछ खास द्वीपों को देखकर काम चलाया जा सकता है। हमारी यात्रा के कुछ ही दिन पहले अण्डमान में एक समुद्री दुर्घटना में 28 लोगों की मौत हो गई थी। इस दुर्घटना की वजह से हमारे पंहुचने के वक्त सारे के सारे सी स्पोर्ट्स बन्द थे। अण्डमान की प्रसिध्द स्कूबा डाइविंग भी बन्द थी। बहरहाल हमारी यात्रा पूरी हो चुकी थी। 8 फरवरी का पूरा दिन हमने खाली रखा था। हमारी वापसी की उडान ९ फरवरी को थी। 8 फरवरी का उपयोग हमने एक बार फिर सेल्यूलर जेल के साथ बिताया। इस बार हमने बडे व्यवस्थित ढंग से सेल्यूलर जेल को देखा। सेल्यूलर जेल को देखकर यहां भारतीय क्रान्तिकारियों पर किए गए अकथनीय अत्याचारों जैसे जीवन्त सामने आ जाते है और तभी लगता है कि कितने संघर्षों से हमे आजादी मिली है। निश्चय ही प्रत्येक भारतीय को अपने जीवन में कम से कम एक बार सेल्यूलर जेल को देखने के लिए यहां आना चाहिए। सेल्यूलर जेल को देखने के बाद ही हमें स्वतंत्रता की कीमत समझ में आ सकती है।
सेल्यूलर जेल और आबरडीन बाजार में दिन भर घुमने के बाद हम शाम को होटल लौटे और वापसी की तैयारियों में जुट गए। अगले दिन दोपहर को हमें फिर से हैदराबाद के लिए निकलना था। जहां से तिरुपति होते हुए घर वापसी का कार्यक्रम था।
लेकिन स्वातंत्र्यवीर सावरकर जी के जीवन से जुडी घटनाओं को पढने के कारण हम मित्रों को अण्डमान जाकर देखने की बडी इच्छा थी। जब योजना बनने लगी तो पता चला कि वहां पंहुचना बेहद खर्चीला है,क्योकि जाने के लिए हवाई जहाज ही एक साधन है। हवाई यात्रा के खर्च को कम करने के लिए एक ही उपाय था कि काफी पहले टिकट करवाए जाए। बहरहाल हमने यात्रा की तिथी से करीब ढाई माह पहले हवाई टिकट बुक करवा लिए। इस यात्रा के लिए मेरे साथ मेरे मन्दसौर के पत्रकार साथी दैनिक गुरु एक्सप्रेस के आशुतोष नवाल,रतलाम के अभिभाषक साथी दशरथ पाटीदार और संतोष त्रिपाठी तथा कम्प्यूटर विशेषज्ञ हिमांशु जोशी जाने के लिए तैयार हो गए और आखिरकार हमने हैदराबाद से चैन्नई होते हुए पोर्टब्लेयर के लिए टिकट बुक करवा लिए। यात्रा को कम खर्चीला बनाने के लिए रतलाम से हैदराबाद और वहां से वापसी के लिए ट्रेन के आरक्षण करवाए। हैदराबाद से हमारी फ्लाईट 4 फरवरी 2014 की सुबह छ बजे थी,जहां से चैन्नई होते हुए हमें पोर्टब्लेयर पंहुचना था। हमारे एक साथी हिमांशु जोशी की माता जी का स्वास्थ्य खराब हो जाने से उनकी यात्रा स्थागित हो गई।
यात्रा के लिए शेष बचे हम चार साथी 2 फरवरी की रात इन्दौर से हैदराबाद की ट्रेन में सवार हुए और करीब पच्चीस घण्टों का सफर पूरा कर ३ फरवरी की रात ग्यारह बजे हैदराबाद के काछीगुडा स्टेशन पर पंहुचे। हैदराबाद में एक और मित्र विनय कोटिया की मदद से रात को ही टैक्सी करके हम रात करीब दो बजे हैदराबाद के अंतर्राष्ट्रिय हवाई अड्डे पर पंहुच गए। बडे शहरों के अन्तर्राष्ट्रिय हवाई अड्डों की सुविधाएं और चकाचौंध देख कर वाकई में लगता है कि हम कहीं विदेश में आ गए है। हवाई अड्डे पर रात दो बजे भी पूरी चहल पहल थी। रात के चार घण्टे कुर्सियों पर उंघते हुए काटे और सुबह छ:बजे स्पाइसजेट के विमान में सवार हो गए। यह एक छोटा विमान था,जिसने करीब डेढ घण्टे में हमें चैन्नई हवाई अड्डे पर उतारा। यहां करीब ढाई घण्टे इंतजार के बाद दूसरे विमान से हम पोर्टब्लेयर के लिए उडे। यह एक बडा विमान था और हमारा आगे का सफर पूरी तरह समुद्र के उपर से था। चैन्नई से पोर्टब्लेयर करीब बारह सौ किमी है।
सफर के पूरे रास्ते में अण्डमान को लेकर पढी सुनी तमाम बातें दिमाग में घुमती रही। दोपहर में करीब दो बजे हमारा विमान पोर्टब्लेयर के वीर सावरकर अन्तर्राष्ट्रिय हवाई अड्डे पर उतरा। यहां उतरते ही मन को पहली प्रसन्नता यही हुई कि कम से कम हवाई अड्डे का नाम स्वतंत्र्यवीर सावरकर के नाम पर रखा गया है। वरना स्वतंत्र भारत में जितना अन्याय सावरकर जी के साथ हुआ है,उसकी कोई दूसरी मिसाल नहीं है।
हवाई अड्डे पर पंहुचकर अण्डमान के सत्कार अधिकारी श्री धर्मराज को फोन किया। यहां आने से पहले उनसे रेस्ट हाउस में रुकने के लिए लगातार बात होती रही थी। गनीमत थी कि श्री धर्मराज से फौरन बात हो गई और उन्होने साउथ पाइन्ट सर्किट हाउस पर हमारे आरक्षण की खबर दे दी। हम बडी निश्चिंतता के साथ वहां पंहुचे। हमें तत्काल एक कक्ष भी मिल गया।
सर्किट हाउस में अपना सामान इत्यादि टिका कर फौरन नहा धो कर हम पोर्टब्लेयर शहर घुमने के लिए निकल पडे। हमारे टैक्सी ड्राइवर ने सेल्यूलर जेल तक ले जाने की पेशकश की थी,लेकिन किराया अधिक होने से हमने उसे इंकार कर दिया। हमारा विचार था कि पहले पैदल घुमघाम कर थोडा शहर से परिचय प्राप्त करें और अण्डमान को घूमने का कार्यक्रम अगले दिन रखें। सर्किट हाउस से निकलते ही सामने विशाल समुद्र लहरे उछाल रहा था।
सर्किट हाउस से उतरते ही सामने समुद्र के किनारे पर नेताजी सुभाषचन्द्र बोस गार्डन दिखाई दिया। यहां नेताजी की विशाल प्रतिमा लगाई गई है। नेताजी की आजाद हिन्द फौज से पोर्टब्लेयर पर सबसे पहले भारतीय तिरंगा फहराया था और अण्डमान निकोबार को स्वतंत्र कराकर इसे स्वतंत्र और शहीद द्वीप का नाम दिया था। पैदल घुमते घुमते हम पोर्टब्लेयर के आबरडीन बाजार में पंहुचे। यहीं पोर्टब्लेयर का ऐतिहासिक और प्रमुख बाजार है।करीब तीन चार घण्टे पैदल ही पोर्टब्लेयर की सड़कों को नापने के बाद हम सर्किट हाउस वापस लौटे।
हमारा सर्किट हाउस बेहद सुन्दर था,लेकिन इसका किराया काफी अधिक था। अधिमान्य पत्रकारों को आमतौर पर शासकीय दरों पर सर्किट हाउस उपलब्ध होता है,लेकिन प्रोटोकाल अधिकारी श्री धर्मराज ने स्पष्ट कर दिया था कि हमें शासकीय दर की सुविधा नहीं मिलेगी और हमें प्राईवेट चार्ज ही देना होंगे। यह हमारे लिए काफी महंगा साबित होता। यात्रा के खर्च को कम रखना हमारे लिए जरुरी था। इसलिए हमने पोर्टब्लेयर के दूसरे हिस्से में स्थित होटल शालीमार में कमरा ले लिया। योजना यह थी कि 5 फरवरी को टैक्सी से दिन भर पोर्टब्लेयर के प्रमुख पर्यटन स्थल देेखेंगे और रात को सर्किट हाउस छोडकर होटल पंहुच जाएंगे।
हमारा ड्राइवर सुभाष सुबह करीब साढे नौ बजे सर्किट हाउस पंहुचा। तब तक हम सर्किटहाउस में पराठे का तगडा नाश्ता कर चुके थे। हमारा ड्राइवर ही हमारा गाइड था। वह सबसे पहले हमें चाथम द्वीप ले गया। चाथम द्वीप पर एशिया की सबसे बडी आरा मिल है,जिसे वन विभाग संचालित करता है। पूरे अण्डमान में पौडक नामक वृक्षों की बहुतायत है। ये ही अण्डमान का प्रमुख वृक्ष है। चाथम द्वीप की विशाल आरामिल और वन विभाग का संग्रहालय देखने के बाद हमने कई अन्य संग्रहालय देखें। संग्रहालयों को देखने से अण्डमान में बसने वाली आदिम जनजातियों जारवा,ओंगी,सेन्टीलनीज आदि के बारे में व्यापक जानकारियां मिली।
शाम करीब चार बजे हम सेल्यूलर जेल पंहुचे। इसी कालापानी को देखने की सबसे अधिक
उत्सुकता थी। सेल्यूलर जेल के भीतर प्रवेश करते ही शरीर के रोंगटे खडे हो जाते है। अब इसे राष्ट्रीय स्मारक बना दिया गया है। यहां प्रवेश करते ही दो प्रदर्शनियां देखने को मिलती है। जिनमें से एक में कालापानी की सजा काटने वाले ज्ञात अज्ञात क्रान्तिकारियों और शहीदों की तस्वीरें और विस्तृत विवरण रखे गए है। जबकि दूसरी प्रदर्शनी में कालापानी जेल के जुडी अन्य जानकारियां दी गई है।
इसके बाद भीतर जाने पर सामने नजर आती है,कालापानी की नारकीय यातनाओं से भरी वो कालकोठरियां,जिनमें भारत माता के सपूतों ने अपनी जिन्दगियां होम कर दी। इन्ही कोठरियों में से तीसरी मंजिल के आखरी छोर पर स्वातंत्र्यवीर सावरकर की कोठारी है,जहां उन्होने दस साल गुजारे थे। जेल के क्रूर जेलर डेविड बैरी ने सावरकर जी का मनोबल तोडने के लिए उन्हे ठीक फांसीघर के सामने की कोठरी दी थी। लेकिन सावरकर तो सावरकर थे,वे जेल की किसी पाशविक यातना से नहीं टूटे।
करीब दो घण्टे तक जेल देखने के बाद शाम को होने वाले लाईट एण्ड साउण्ड शो के पहले हमे जेल परिसर से बाहर कर दिया गया। शो के टिकट पहले ही समाप्त हो चुके थे और इस शो को देखे बगैर हमारी यात्रा अधूरी ही रह जाती। टिकट नहीं मिलने पर हम निराश हो चुके थे,लेकिन अचानक भाग्य ने जोर मारा और जेल के एक कर्मचारी ने हमें भीतर प्रवेश करवा दिया। जेल में प्रतिदिन होने वाला एक घण्टे का यह शो प्रत्येक व्यक्ति के रोंगटे खडे कर देता है। इस शो में सैल्यूलर जेल की पूरी गाथा अत्यन्त प्रभावी ढंग से बताई जाती है।
यात्रा का पहला दिन बेहद थकान के साथ गुजरा। सैल्यूलर जेल से लौटे और सर्किट हाउस से अपना सामान उठाकर होटल में पंहुच गए। अगले दिन यानी ६ फरवरी को मड वोल्कानों देखने जाने का कार्यक्रम बना। ड्राइवर सुभाष ने शाम को ही स्पष्ट कर दिया कि मड वोल्कानों (बाराटांग)जाने के लिए सुबह छ: बजे निकलना होगा। मड वोल्कानों (बाराटांग) का रास्ता अण्डमान की आदिम जनजाति जारवा के क्षेत्र से गुजरता है और इसलिए इस रास्ते पर इन निर्व वनवासियों को देखने का मौका भी हाथ लग जाता है।
६ फरवरी की सुबह चूंकि छ बजे निकलना था,इसलिए हम लोग चार बजे उठकर स्नानादि से निवृत्त होकर ठीक छ: बजे चलने के लिए तैयार हो गए। ठीक समय पर ड्राइवर सुभाष भी आ गया और हम निकल पडे। करीब चालीस किमी चलने के बाद वनविभाग की जिरकाटांग चौकी पडती है और यहीं से जारवाओं का प्रतिबन्धित क्षेत्र शुरु होता है। इसलिए वाहनों को पुलिस सुरक्षा में कानवाय बनाकर रवाना किया जाता है। वाहनों को रास्ते में कहीं भी रोका नहीं जा सकता। यह गैरकानूनी है। जारवा के नजर आ जाने पर आप उससे न तो बात करने की कोशिश कर सकते है और ना ही उसे कोई वस्तु दी जा सकती है। यह सब प्रतिबन्धित है। हमारा ड्राइवर हमे सतर्क कर रहा था कि ऐसा कुछ नहीं करिए पुलिस और वन विभाग वाले बहुत सख्त है।
घने जंगल का यह रास्ता करीब पचास किमी का है। सुबह जल्दी उठ जाने की वजह से बीच बीच में आंखे भी झपक रही थी। साथ में जारवा के नजर आने की उत्सुकता भी थी। लेकिन पूरे रास्ते में जारवा कहीं नजर नहीं आए। रास्ता समाप्त होने के बाद सामने समुद्र आ गया। इस समुद्र को वाहन समेत जहाज पर सवार होकर पार करना पडता है। जहाज का यह सफर मात्र पन्द्रह बीस मिनट का होता है। दूसरे किनारे पर अपना वाहन आने के साथ ही हम मडवोल्कानों के लिए चल पडे। करीब दस किमी चलने के बाद करीब पौन किमी पैदल चलने पर मड वोल्कानों नजर आया,जहां जमीन में से कीचड के बुलबुले निकल रहे थे। हमारे साथ वहां पंहुचे सैकडों पर्यटकों में से शायद ही कोई ऐसा होगा जो यहां आकर निराश न हुआ हो। लेकिन हम निराश नहीं थे। अण्डमान के भीतरी हिस्सों को देखने के लिहाज से यह अच्छी यात्रा थी। लौटने का सफर उम्मीदों से ज्यादा अच्छा रहा। लौटते समय जारवा क्षेत्र में एक जारवा दम्पति सड़क पर चलते हुए नजर आ ही गए। उन्हे हम कुछ ही क्षणों के लिए देख सके लेकिन यह जीवन की विशेष उपलब्धि थी,कि हमने आज के वैज्ञानिक युग में आदिम युग में जीते मनुष्यों को देखा। होटल पर लौटते हुए अन्धेरा छा चुका था। अगले दिन हमें हैवलाक द्वीप की समुद्री यात्रा पर जाना था। इसके लिए भी सुबह छ: बजे जहाज पकडना था।
सात फरवरी के दिन की शुरुआत भी सुबह चार बजे उठने से हुई। जहाज पकडने के लिए समय से पहले फीनीक्स जेट्टी पर पंहुचना था। जहाज का यह सफर काफी महंगा भी था। जाने का किराया प्रति व्यक्ति आठ सौ रुपए था,तो आने के लिए नौ सौ पचास रुपए की टिकट मिली थी। निजी कंपनी के इस क्रूज में करीब तीन घण्टे की यात्रा के बाद लगभग नौ बजे हेवलाक द्वीप पर पंहुचे। वापसी का जहाज 3 बजे चलने वाला था और हमें दोपहर ढाई बजे जेट्टी पर पंहुचना था।
हमे बताया गया था कि हैवलाक पर घुमने के लिए गोवा की तरह दो पहिया वाहन किराये पर मिलते है। जेट्टी से बाहर आते ही वाहनों की तलाश की तो मालूम चला कि वाहन तो शहर के भीतर मिलेंगे। शहर यहां से करीब चार किमी दूर है। आटो लेकर भीतर पंहुचे और दो स्कूटर किराये पर लिए। स्कूटर का किराया भी अधिक था। प्रति स्कूटर चौबीस घण्टे के चार सौ रुपए किराया था। हमें तो मात्र चार पांच घण्टे हैवलाक पर रहना था,लेकिन किराया पूरा देना पडा। हैवलाक द्वीप का राधानगर बीच एशिया के सुन्दरतम समुद्रतटों में से एक है। यहां का पानी कांच की तरह साफ है और गन्दगी का नामोनिशान तक नहीं है। हम कपडे ले कर आए थे। यहां करीब एक घण्टे समुद्रस्ना का मजा लेने के बाद दूसरा बीच कालापत्थर देखने के लिए निकले। काला पत्थर बीच असल में कालापत्थर गांव के नाम पर है। यह बीच तो कई किलोमीटर लम्बा है। यहां समुद्र के नीचे काली चट्टानें है,जिनकी वजह से पानी काला नजर आता है। शायद इसी वजह से इसका नाम कालापत्थर पडा होगा। इस बीच पर स्कूटर से घुमते रहे। हमारी रेस समय के साथ थी। हम करीब दो बजे जेट्टी पर पंहुच गए। जेट्टी के बाहर एक शुध्द शाकाहारी छोटा सा होटल नजर आया,जिसे बंगाल का एक परिवार चला रहा था। यहां चावल का भोजन कर हम फिर से जहाज में सवार हो गए और अन्धेरा होते होते पोर्टब्लेयर पंहुच गए। फीनीक्स जेट्टी से पैदल ही अपने होटल पंहुच गए।
हमारी अण्डमान यात्रा लगभग पूरी हो चुकी थी। अण्डमान निकाबोर द्वीप समूह में 540 से अधिक छोटे बडे द्वीप है और इनमें से अनेक तो जनशून्य है। पूरे द्वीप समूह को देखने घुमने के लिए कई महीनों का समय चाहिए। लेकिन सीमित समय में कुछ खास द्वीपों को देखकर काम चलाया जा सकता है। हमारी यात्रा के कुछ ही दिन पहले अण्डमान में एक समुद्री दुर्घटना में 28 लोगों की मौत हो गई थी। इस दुर्घटना की वजह से हमारे पंहुचने के वक्त सारे के सारे सी स्पोर्ट्स बन्द थे। अण्डमान की प्रसिध्द स्कूबा डाइविंग भी बन्द थी। बहरहाल हमारी यात्रा पूरी हो चुकी थी। 8 फरवरी का पूरा दिन हमने खाली रखा था। हमारी वापसी की उडान ९ फरवरी को थी। 8 फरवरी का उपयोग हमने एक बार फिर सेल्यूलर जेल के साथ बिताया। इस बार हमने बडे व्यवस्थित ढंग से सेल्यूलर जेल को देखा। सेल्यूलर जेल को देखकर यहां भारतीय क्रान्तिकारियों पर किए गए अकथनीय अत्याचारों जैसे जीवन्त सामने आ जाते है और तभी लगता है कि कितने संघर्षों से हमे आजादी मिली है। निश्चय ही प्रत्येक भारतीय को अपने जीवन में कम से कम एक बार सेल्यूलर जेल को देखने के लिए यहां आना चाहिए। सेल्यूलर जेल को देखने के बाद ही हमें स्वतंत्रता की कीमत समझ में आ सकती है।
सेल्यूलर जेल और आबरडीन बाजार में दिन भर घुमने के बाद हम शाम को होटल लौटे और वापसी की तैयारियों में जुट गए। अगले दिन दोपहर को हमें फिर से हैदराबाद के लिए निकलना था। जहां से तिरुपति होते हुए घर वापसी का कार्यक्रम था।
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