सांची-खजुराहो-झांसी-ओरछा-ग्वालियर यात्रा
दि. 4 जनवरी 1997 शनिवार
पूरे 362 दिन बाद फिर से यात्रा पर। इस यात्रा में भी हम दो ही लोग थे। मै और अनिल मेहता। एक बहाना भोपाल में एपीपी की परीक्षा का था,जो कल सुबह नौ बजे बैरागढ में होना है। सोचा था,दोपहर तीन की ट्रेन से उज्जैन पंहुचकर इन्दौर भोपाल पैसेंजर से भोपाल पंहुचेंगे। घर से निकलने में कुछ देरी हो गई और आखिरकार शाम 5.30 पर रतलाम-ग्वालियर बस से साढे आठ पौने के बीच उज्जैन पंहुचे। समय का
दिनांक 5 जनवरी 1997 रविवार
सुबह ठीक साढे सात बजे भोपाल से बैरागढ पहुंचे। बैरागढ में चाय इत्यादि पीने के बाद मैं पंहुचा परीक्षा देने और अनिल सुलभ काम्प्लेक्स। ग्यारह बजे परीक्षा निपटाने के बाद मित्रों से मिलने के बाद बारह बजे बैरागढ से चले तो भोपाल आए और एक बजे वहां से संाची (45 किमी) के लिए बस में बैठे। विदिशा से सिर्फ आठ किमी पहले स्थित सांची का विश्वभर में महत्व है। तीसरी से बारहवीं शताब्दी तक के निर्माण अवशेष और स्तूप यहां है। संग्रहालय में भारत के राष्ट्रीय चिन्ह 4 शेरों की प्रतिमा का अनुकृति है जो कि सांची में मिली थी। राष्ट्रीय चिन्ह सारनाथ में मिली प्रतिमा के आधार पर बना है,जबकि सांची में शेर वैसे ही है,सिर्फ थोडा सा परिवर्तन है।
सांची संग्रहालय के कर्मचारी गोस्वामी के साथ चाय पीने के बाद हम शाम करीब साढे छ: बजे भोपाल लौटे और न्यू मार्केट जाकर डोसे खाने के बाद सीधे स्टेशन। जहां अपेक्षा से बहुत जल्दी लश्कर एक्सप्रेस मिल गई। जिसमें हम सवार हो गए। ग्वालियर या झांसी के लिए।
6 जनवरी 1997 सोमवार
सुबह साढे नौ का वक्त,झांसी के पीडब्ल्यूडी रेस्टहाउस में। रात को लश्कर एक्सप्रेस में रिजर्वेशन नहीं मिला था,सिर्फ बैठने की जगह मिल पाई थी। इसी का नतीजा था कि झांसी से गुजरते वक्त हम झांसी में ही उतर पडे। रात दो बजे,स्टेशन पर कदम रखते ही जमा देने वाली ठण्ड से सामना हुआ। वहां से आटो कर यहां आए और यहां कोई व्यक्ति नही मिला। आधी रात और कडकडाती ठण्ड ने हमे मजबूर किया कि हम अतिक्रमण करलें। एक रुम में तीन पलंगों पर एक व्यक्ति सोता हुआ दिखा। बचे हुए पलंगों पर हम पसर लिए। दो दिन से बची हुई नींद ने पूरा साथ गिया और सुबह नौ बजे आंख खुली। रेस्टहाउस की चाय पीने के बाद मैं गर्म पानी का इंतजार कर रहा हूं ताकि यहां से सीधे खजुराहो पंहुच सकुं।
ट्रैन में हमने पूर्वनिर्धारित कार्यक्रम में फेरबदल कर लिया। अब हम खजुराहो,छतरपुर और संभवत: झांसी और ओरछा सबकुछ देखने के बाद ग्वालियर जाएंगे। संभवत: कल या परसों।
6 जनवरी 1997 (रात 11.00 बजे)
झांसी सर्किट हाउस हमने करीब 11.00 बजे छोडा और टेम्पो में बैठकर बसस्टैण्ड पंहुचे। एमपीएसआरटीसी की लक्जरी बस जैसे हमारे ही इंतजार में खडी थी। हम बैठे और गाडी चल पडी। बीच में छतरपुर से पहले गाडी रुकी। टूरिज्म के कैफेटेरिया में 6 रु.की एक चाय पीकर हम करीब पौने चार बजे खजुराहो पंहुचे।
जैसी कि आदत है सबसे पहले सर्किट हाउस तलाशा और यहां आकर एसडीएम रात्रे को फोन लगाया। दो तीन फोन लगाने के बावजूद बात नहीं हो पाई। आखिरकार खजुराहो तहसीलदार बागडी हमारे काम आए और सर्किट हाउस का आठ नम्बर कमरा हमें मिल गया। कमरे में सामान टिकाने के बाद खजुराहो सर्किट हाउस के पास ही विश्व प्रसिध्द मन्दिरों की श्रृंखला है। हम सबसे पहले खजुराहो हैण्डीक्राफ्ट एम्पोरियम पहंचे,जहां जाने के लिए मनोज ने कहा था। मनीष जैन कोई खास मददगार साबित नहीं हुआ,सिवाय इसके कि उसने साइकिल रिक्शा करवाया,जिससे हम दूल्हा देव मन्दिर और जैन मन्दिर देखने पंहुचे। यहां के मन्दिर सूर्योदय से सूर्यास्त तक ही खुले रहते है। इधर शाम ढलने लगी थी। दूल्हादेव मन्दिर 12 वीं शती का मन्दिर है,जिसके शिवलिंग पर एक सौ ग्यारह शिवलिंग बने है। कहते हैं इसके दर्शन से एक सौ ग्यारह मन्दिरों के दर्शन का लाभ मिलता है। यहां से जैन मन्दिर जो कि कुछ बाद में बना था और आश्चर्य की बात यह है कि मूर्तियों पर पूरा सनातन प्रभाव,यहां तक कि शैव मत का भी प्रभाव। वैसी ही युगल मूर्तियां,जो कि खजुराहो की प्रसिध्दि का कारण है। जैन मन्दिर देखते देखते बन्द किया जाने लगा। बाहर निकले,जैन संग्रहालय देखा,जिसमें ऐतिहासिक जैन मूर्तियां 12वीं शती और बाद की है।
लौटे,मनीष जैन के साथ चाय पीने के बाद बिदा ली और मात्तंगेश्वर शिव मन्दिर पंहुचे,जहां पूजा होने वाली थी। पूजा में उपस्थिति के बाद भोजन किया। होटल अच्छी नहीं,लेेकिन खाना अच्छा। खजुराहो में इकलौता विडीयो टाकीज है और समय काटने का और कोई चारा न होने की वजह से आधी अधूरी याराना फिल्म देखी,जोकि दस बजे समाप्त हो गई। फिर ग्वालियर,रतलाम सैलाना फोन करने के बाद पैदल सर्किट हाउस,डायरी के साथ। कल खजुराहो के मन्दिर और संग्रहालय देखने के बाद ओरछा और झांसी के लिए निकलना है।
7 जनवरी 1997 मंगलवार (रात 11.00 बजे) ओरछा पीडब्ल्यूडी रेस्ट हाउस में
कल रात यह सोचकर सोये थे कि सुबह सात बजे उठ जाएंगे और जल्दी से खजुराहो देखकर ओरछा भी देख लेंगे। लेकिन ऐसा हो न सका। सुबह आठ बजे सर्किट हाउस के वेटर ने चाय के साथ आवाजें देकर जगाया और हम नौ बजे नहा धोकर निकल पाए। खजुराहो मन्दिर सर्किट हाउस के काफी नजदीक है। पांच रुपए की टिकट लेकर हम मन्दिर देखने घुसे तो 1.00 बजे तक उसी परिसर में रहे। कई विदेशियों से चर्चा की। मन्दिरों को देखा तो पाया कि जिन मूर्तियों के लिए खजुराहो प्रसिध्द है वह सिर्फ प्रचार है। वास्तविकता काफी अलग है। सच तो यह है कि ये मूर्तियां संख्या में नगण्य हैं और मन्दिरों के लिहाज से महत्वहीन है। असल में तो हजार -ग्यारह सौ वर्ष पूर्व बने ये मन्दिर कलात्मकता और विशालता के साथ अब भी मजबूती से खडे है,जिन्हे इसी दृष्टिकोण से देखा जाना चाहिए। मन्दिर देखने के बाद भारतीय पुरातत्व विभाग के प्रभारी श्रीवास्तव से मिले,जो मन्दिरों के रखरखाव के लिए जिम्मेदार है। उनका काम प्रिजर्वेशन और केमिकल ट्रीटमेन्ट का चल रहा है। उनका दुखडा यह है कि यह विभाग भी और सरकारी विभागों जैसा ही है।
इके बाद संग्रहालय देखने पंहुचे,जहां मन्दिरों की 104 मूर्तियां संगृहित है। निजमें से कई विशालकाय है। यहां के प्रभारी डीके अम्बोष्ट्रा से मुलाकात और जानकारियां लेते लेते दो बज गई। नाश्ता हमने सुबह ही भारी किया था। पता चला कि झांसी के लिए बस साढे तीन बजे है। हम सर्किट हाउस लौटे,सामान उठाया और तहसीलदार (खजुराहो) आरके बागरी का धन्यवाद अदा करते हुए वहीं से निकल पडे।
साढे तीन बजे बस चली तो रात साढे आठ बजे औरछा तिराहे पर झांसी से आठ किमी पहले हम उथरे। यहां से औरछा भी 8 किमी है। एक ट्रक में लिफ्ट लेकर हम सीधे औरछा रेस्ट हाउस आए,जोकि एक ऊं चे टीले पर है और अच्छा खुबसूरत है। लेकिन यहां एक छोटी दिक्कत आई कि टीकमगढ जिलाधीश और कमिश्नर औरछा में ही थे और चौकीदार (घनश्याम) को डर था कि कहीं वे न आ जाएं। नजदीक ही बने सिंचाई विभाग के निरीक्षण बंगलो वालों को भी यही चिन्ता थी। हम थाने पंहुचे और एसडीएम (निवाडी) खान से सम्पर्क किया। जिन्होने सर्किट हाउस के लिए हरी झण्डी दे दी। थाने से पैदल चले। करीब डेढ किमी चलने के बाद एमपीटीडीसी के होटल शीशमहल में खाना मिला। खाना खाकर 11.00 बजे रेस्ट हाउस लौटे तो चौकीदार फिर से चाय पिलाने को राजी हो गया। चाय पी और सोने की तैयारी।
कल सुबह औरछा देखकर झांसी देखने का कार्यक्रम है।
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खजुराहो,झांसी की इस यात्रा में हम ग्वालियर भी गए थे,लेकिन डायरी इसके बाद नहीं लिखी जा सकी। इस यात्रा में मै और अनिल मेहता सैलाना साथ में थे।
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खजुराहो के तथ्य
मध्यकाल में जैजाक भुक्ति तथा 14 वीं.शती के बाद बुन्देलखण्ड खजुराहो के चन्देल वंश का उत्थान 10 वीं शती के प्रारंभ से। उनकी राजधानी खजुराहो थी। उस समय यहां 85 मन्दिर थे,जिनमें से अब मात्र 25 बचे है।
यहां के मन्दिरोंं का विवरण इस प्रकार है-
1.चित्रगुप्त मन्दिर (सं 1000-1025)
सूर्य को समर्पित
2.जगदम्बी मन्दिर
मुख्यरुप से विष्णु को समर्पित। वर्तमान में पार्वती की प्रतिमा।
3. कन्दारिया महादेव मन्दिर (1025-1050)
यह सबसे विशाल मन्दिर है।
4.लक्ष्मण मन्दिर ( 930-950)
निर्माता- चन्देल चन्द्रवर्मन
विष्णु को समर्पित। गर्भगृह में चार भुजाओं वाली विष्णु प्रतिमा।
5.वराह मन्दिर(सं 900-925)
यहां 2.6 मीटर लम्बी तथा 1.7 मीटर ऊं ची वराह प्रतिमा पर 647 मूर्तियां प्रदर्शित है।
6.विश्वनाथ मन्दिर (सं 1002)
शिव को समर्पित। चंदेल राजा धंग ने निर्माण करवाया।
औरछा के तथ्य
1.राजा महल-नींव राजा रुद्रप्रताप ने (सं 1501-1531) रखी। मुख्यभाग का निर्माण बडे पुत्र राजा भारतीचन्द्र(1531-1554) ने करवाया। शेष भाग का निर्माण मधुकर शाह(1554-1592) में हुआ।
2.जंहागीर महल- राजा वीरसिंह जूदेव (1605-1627) ने बनवाया। महल में कुल136 कमरे है।
औरछा और चन्द्रशेखर आजाद
अमर क्रान्तिकारी चन्द्रशेखर आजाद ने अपनी फरारी का बडा हिस्सा औरछा से पहले स्थित नदी के समीप एक हनुमान मन्दिर पर साधु के रुप में बिताया। उस समय उन्होने अपना नाम हरिशंकर ब्रम्हचारी रखा हुआ था। यहां आजाद की प्रतिमा भी बनाई गई है। रेलवे स्टेशन के पास आजादपुर (ढिमरपुरा)निवासी गोविन्द सिंह तोमर आजाद कुटिया और मन्दिर की देखभाल करते है। बहत्तर वर्षीय वयोवृध्द गोविन्दसिंह तोमर से जब चन्द्रशेखर आजाद के बारे में पूछा तो उन्होने कई संस्मरण सुनाए। तोमर का दावा था कि उन्हे व उनके भाईयों को आजाद पढाया करते थे।
श्री तोमर के मुताबिक चन्द्रशेखर आजाद जून 1924 से अक्टू 1930 तक यहां रहे। आजाद औरछा पंहुचे थे। दो दिन औरछा रुकने के बाद वे निराश होकर औरछा से जा रहे थे कि जैसे बजरंगबली ने उन्हे इशारा किया। यहां आते ही आजाद को शांति मिली। श्री तोमर के चाचा मलखान सिंह तोमर उस वक्त वनविभाग में काम करते थे और वे ही मन्दिर की देखभाल करते थे। वे रात को मन्दिर में आए तो उन्होने आजाद को सोते देखा। उस समय तो उन्होने कोई पूछताछ नहीं की,लेकिन सुबह लौटकर आजाद से पूछताछ की। आजाद ने बताया कि वे इलाहाबाद के ब्राम्हण है और दर्शन करने आए थे। अब जा रहे है। आजाद ने कहा कि वे यहां रुकना चाहते है। मलखानसिंह ने कहा कि यहां जंगल में कहां रुकोगे,गांव में चलो। लेकिन आजाद ने इंकार कर दिया। तब मलखानसिंह ने कहा कि यदि वे रुकना चाहते है तो रुके,लेकिन वे इसकी सूचना पुलिस को देंगे,ताकि आगे कोई दिक्कत ना हो। इस तरह पुलिस को सूचित कर आजाद (हरिशंकर ब्रम्हचारी) यहां रुक गए। 1926 में मलखानसिंह तोमर ने आजाद के हथियार देख लिए थे,लेकिन वे भी देशभक्त थे। उन्होने हमेशा आजाद का सहयोग किया। यहां तक कि रात के समय वे यहां आजाद के साथ रहते थे। उस जमाने में शाम 4 बजे बाद इस तरफ के सारे रास्ते बन्द हो जाते थे और कोई भी आता जाता नहीं था। यहां घना जंगल था।
गोविन्द सिंह तोमर ने बताया कि जब आजाद यहां टिक गए,तब तोमर व उनके चार भाई तथा साथ ही चार चचेरे भाई आजाद से पढने आते थे। आजाद अत्यन्त शक्तिशाली थे। तोमर बताते है कि वे हम चारों भाईयों को अपने हाथों पर बैठाकर 20-20 चक्कर लगाते थे। यहां रहने के दौरान आजाद ने यहां से झांसी के किले तक एक सुरंग भी बनाई थी,जो अब धंस चुकी है। बाद में हमारे चाचा मलखानसिंह ने आजाद को कलेक्टर का ड्रायवर बनवा दिया था और वे सरकारी गाडी चलाते थे। बाद में आजाद ने 48 अंग्रेजों को मय गवर्नर के बमों से उडा दिया था। इसके बाद पुलिस पूछताछ करने मलखान सिंह को ले गई थी,लेकिन उन्होने आजाद के बारे में कुछ नहीं बताया। इसके बाद गोविन्दसिंह तोमर व उनके भाईयों को भी अंग्रेज पुलिस पूछताछ के लिए ले गई थी। गोविन्द सिंह तोमर का कहना है कि तीन महीनों तक उनपर अत्याचार किए गए। उन्हे बर्फ की सिल्लीयों पर लिटाया गया और हण्टरों से मारा गया। इस घटना के बाद उनका पूरा परिवार सबकुछ छोडछाड कर मुरैना चला गया था। गोविन्द सिंह तोमर के मुताबिक यह घटना अक्टूबर 1930 में हुई थी। गोविन्दसिंह तोमर बताते है कि उनके एक बडे भाई नारायणसिंह अभी दुकान चलाते है।
गोविन्दसिंह तोमर ने आज के हालात पर टिप्पणी करते हुए कहा कि भारत में क्रान्तिकारियों को समुचित सम्मान मिलना तो दूर उन्हे अपमानित किया जा रहा है। उनके स्मृति चिन्हो की उपेक्षा की जा रही है। क्रान्ति फिर से प्रकट होा जरुरी है,तभी देश का भला हो सकता है।
सदुपयोग तेरे-मेरे सपने फिल्म (कमल टाकीज) में देखकर किया। जो कि अच्छी मनोरंजक फिल्म थी। ट्रेन दो घण्टे की देरी से उज्जैन आई और एक घण्टे देरी से यानी रात दो बजे चली। नींद आखिर नींद है। हम बैरागढ की बजाय भोपाल पंहुच गए।
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