(अम्बा जी और माउण्ट आबू यात्रा)
रतलाम से अम्बा जी और माउण्ट आबू की यह यात्रा मैने और अनिल मेहता (सैलाना) ने मेरी राजदूत मोटर साइकिल से की थी। रतलाम से निकलते समय यह तय नहीं था कि वास्तव में जाना कहां है। रतलाम से निकलने के बाद हमने रोड एटलस देखकर यह तय किया कि माउण्ट आबू देखा जाए। इस यात्रा पर हम 7 जनवरी 1996 को निकले थे।
8 जनवरी 1996
गुजरात की सीमा में पहला गांव शामला जी। शामला जी के पीडब्ल्यूडी रेस्ट हाउस में ढाई सौ किमी की यात्रा करने और रात गुजारने के बाद आज सुबह हम जाने की तैयारियों है।
रतलाम से कल बिलकुल निर्धारित समय नौ बजे हम निकल पडे थे। सज्जन मिल चौराहे पर नागर जी से मिलने के बाद सीधे सैलाना। सैलाना में आधा घण्टा रुके,फिर निकले तो सरवन में रुके। सरवन से सीधे बांसवाडा।
बांसवाडा में भास्कर प्रतिनिधि नन्दकिशोर को ढूंढा। उससे मिले और मात्र आधे घण्टे बाद डूंगरपुर के लिए निकल पडे। बांसवाडा से 14 किमी डूंगरपुर में सिटी कोतवाली ढूंढते हुए पंहुचे। सीआई श्री त्रिपाठी से भेंट कर आगे की व्यवस्था के हेतु कहा तो उन्होने रतनपुर रेस्ट हाउस (आरटीडीसी)हेतु पत्र दिया। रतनपुर मात्र 20 किमी। अभी हमारे पास काफी समय था। यहां राजस्थान सीमा पर पुलिस चौकी के प्रवीणसिंह से मिले। इंचार्ज एचसी वेदप्रकाश जी नहीं मिले। रतनपुर से शामला जी आए औव यहां रेस्ट हाउसमें रात रुके। मन्दिर के दर्शन किए। ढाबे में खाना खाया। और अब निकलने की तैयारी।
9 जनवरी 1996 माउण्ट आबू
माउण्ट आबू के देलवाडा पीडब्ल्यूडी रेस्ट हाउस में अभी सुबह 8.15 तक यहां सूरज के दर्शन नहीं हुए है। अनिल अभी बाथरुम में है और मैं वक्त का सदुपयोग कर रहा हूं।
कल लगभग इसी वक्त हमने शामला जी से प्रस्थान किया था। वहां से 50 किमी हिम्मत नगर। गुजरात की सीमा में होते हुए हम ब्रम्हखेड होते हुए अम्बा जी पंहुचे। अम्बा जी की काफी मान्यता है। लेकिन मुझे अपनी प्रकृतिनुरुप कुछ खास नहीं लगा। अम्बा जी से आबूरोड के रास्ते पर 2 किमी दूर गब्बर माता है। काफी उंचे पहाड पर। पहाडी सर्पिले रास्ते से 1.5 किमी दूरी तय करके हम गब्बर माता जी के पहाड की तली में पंहुचे। यहां गाडी खडी करके चढना शुरु किया। मुझे पता नहीं था कि 900 सीढियों की यह चढाई इतनी खतरनाक है। जैसी आदत है तेजी से चढना शुरु किया। लेकिन एक दम खडी चढाई से हालत खराब हो गई। मुझे याद नहीं पडता कि किसी और चढाई में मै रुका होऊं । लेकिन यहां कम से कम चार बार रुकना पडा। पसीने से तर होने के बाद पहाडी के उपर पंहुचे। माताजी की छोटी सी मूर्ति देखकर मन प्रसन्न हो गया। उतरना काफी आसान था। चढने में करीब 45 मिनट का समय लगा था लेकिन उतरते वक्त 20 मिनट ही लगे।
यहां से आबू रोड 27 किमी है। लगातार उतार ही उतार। पहाडी सर्पिले रास्तों में लगातार उतार हो तो गाडी चलाने में आनन्द आ जाता है। आबू रोड रेलवे स्टेशन है। आबू रोड मात्र 40 मिनट में पंहुच गए। यहां से चले माउण्ट आबू के लिए। शाम करीब चार साढे चार का वक्त। माउण्ट आबू के नीचे आबू रोड थाने के एसएचओ चन्द्रशेखर से मिले लेकिन वह मददगार साबित नहीं हुआ।
माउण्ट आबू लगभग 15 किमी लगातार पहाडी चढाई। गाडी चलाने में इतना आनन्द आ ही नहीं सकता। लेकिन अभी आधा ही रास्ता कटा थी कि टाप गेअर तकलीफ देने लगा। प्लग साफ किया। हवा का ठण्डापन बढ चुका था। बर्फीली हवा,जर्सी को पार कर तीर सी चुभ रही थी। लेकिन एक तरफ ऊं चा पहाड,दूसरी तरफ गहरी खाई और शानदार नजारों के बीच में जैसे ठण्डक का अहसास ही नहीं हो रहा था। लगभग डेढ-दो घण्टे का शानदार सफर तय करके जब शाम को 6.20 पर माउण्ट आबू में गाडी ने प्रवेश किया,सूरज डूब चुका था और अंधेरा अपनी काली चादर फैलाने लगा था। यहां पंहुचते ही सबसे पहले पीडब्ल्यूडी रेस्ट हाउस तलाश किया। बताने वालों ने सीपीडब्ल्यूडी का रेस्ट हाउस बता दिया। सीपीडब्ल्यूडी के जेई श्री नेगी से रुम बुक करने को कहा लेकिन उसने बताया कि रेस्ट हाउस बुक है। फिर पीडब्ल्यूडी के एसई एहमद हुसैन से मिले। उसने कहा आबू का रेस्ट हाउस तो बुक है,आप लोग देलवाडा रेस्ट हाउस में रुक जाईए। उसने स्लिप दे दी और हम लोग आबू से तीन किमी दूर देलवाडा आ गआ। चौकीदार से 3 न. रुम खुलवाया।
चाय पीने और स्वेटर टोपी तानने के बाद रेस्ट हाउस से फिर आबू घूमने निकले। पहाडी पर बसा हिल स्टेशन। चारों ओर एक से बढकर एक शानदार होटल्स। सजे संवरे चेहरे,फोर व्हीलर्स ,उसमें हम। जबरन पूरे शहर के दो चक्कर लगाए। और अचानक 500 किमी चल चुकी हमारी गाडी अटक गई। ओव्हर फ्लो की प्राब्लम से हम दुखी हो गए। 25-30 किक मारने के बाद जैसे तैसे गाडी स्टार्ट होती और जैसे ही पैट्रोल चालू करते फिर बन्द हो जाती। मैकेनिक को ढूंढना शुरु किया। कडाके की ठण्ड की वजह से नौ बजे के बाद दुकानें बन्द होना शुरु हो जाती है। मैकेनिक अशोक नामक युवक पहले ही घर जा चुका था। उसका घर ढूंढा और घर से पकड कर लाए। कारबोरेटर खोला तो पता चला कि जेट खुल कर नीचे गिर गया था,नतीजनत ओव्हर फ्लो हो रही थी। गाडी ठीक होने के बाद उससे दोस्ती गांठी। उसे साथ में खाना खिलाया। फिर रात ग्यारह बजे देलवाडा लौटे। आज सुबह उसी के पास जा रहे है। वह स्थानीय है और अच्छे गाइड का काम करेगा।
अशोक कुमार मेहरा,प्रिया आटो गैरेज
पैट्रोल पंप के पास,माउंट आबू(राज)।
9 जनवरी 1996 मेहसाणा (गुजरात) रात 10.00 बजे
मेहसाणा जिला पंचायत के गेस्ट हाउस में रात के दस बजे फिर से दिन भर का थका देने वाला कार्यक्रम याद आ रहा है।
सुबह नौ बजे देलवाडा रेस्ट हाउस से निकले और आबू के मुख्यचौराहे पर पंहुचे ही थे कि रतलामी बन्दा मुन्ना मिल गया। वहां की दुकान में भुजिया और चाय ली। चाय का भुगतान मुन्ना ने काफी रोकने के बावजूद भी किया। मुन्ना आमलेट की लॉरी लगाता है। 15 साल पहले सज्जन मिल बन्द होने के बाद वह यहां आ गया था। अब घर खरीद चुका है,स्कूटर भी ले लिया है।
मुन्ना को छोडकर हमने अशोक को पकडा। अशोक को लेकर घूमने निकले। देलवाडा के पास से अचलगढ जैन तीर्थ का रास्ता है। काफी ऊं चाई पर नेमिनाथ जी का मन्दिर बना है। उससे भी उपर महाकाली के दो मन्दिर है। हमें काफी ऊं चाई पर काली मन्दिर पर तालाब देखकर काफी हैरानी हुई। फिर नीचे उतरे। नेमिनाथ जैन तीर्थ के दर्शन किए। डेढ घण्टे बाद जब लौटने लगे तो रास्ते में वन विभाग का अभयारण्य ट्रेवर टेंक देखकर उसमें चल पडे। पहाडी पर काफी ऊं चाई पर आगे जाकर ट्रेवर टेंक है। इसमें फिलहाल 1 मगरमच्छ है। फोटो लेने की कोशिश की तो वह छपाक से पानी में कूद गया। वहां वन विभाग के चैनसिंह नामक कर्मचारी से परिचय किया। यहां पर वनविभाग का रेस्ट हाउस भी है। आधा घण्टा रुकने के बाद अबुर्दा देवी के मन्दिर के लिए चले। करीब 700 सीढियों की खडी चढाई चढने के बाद बहुत बडी प्राकृतिक गुफा में मां को देखकर मन आनन्द से भर जाता है। यहां से उतर कर हनीमून पाइन्ट देखने गए। नक्की लेक चूंकि बीच में है इसलिए कई बार देख ली।सबसे पहले प्रजपिता ब्रम्हाकुमारी का ओम शांति भवन भी देखा था। यहां 4 हजार लोगों के बैठने की और भोषण को तत्काल 16 भाषाओं में परिवर्तित कर देने की सुविधा है। घूमघाम कर फिर बीच आबू पंहुचे। तीन बजे चुके थे। निकलने का समय होने लगा था। रेस्ट हाउस से सामान चूंकि पहले ही ले आए थे इसलिए देलवाडा पुन: जाने की जरुरत नहीं थी। चौराहे पर मुन्ना से बिदा लेने के लिए उसकी लॉरी पर गए। उससे मिले। गाडी के ब्रेक चैन आदि का काम अशोक कर ही चुका था। हम आबू रोड के लिए निकल पडे। लगातार 21 किमी पहाड का उतार। गाडी का इंजन चालू ही नहीं करना पडता। खतरनाक मोड,मन मोह लेने वाले नजारे और पहाड,खाई के दृश्य डेढ घण्टे के करीब हमारे साथ रहे फिर हम आबू रोड पर।
आबूरोड से पालन पुर 51 किमी। दोहरी चिकनी सड़क। गाडी 60 से नीचे होती ही नहीं। पालनपुर से उंझा। उंझा में पीडब्ल्यूडी का रेस्ट हाउस ढूंढा। नहीं मिला। ऊं झा से 25 किमी मेहसाणा के लिए निकल पडे। 8.05 पर मेहसाणा पंहुचे। अहमदाबाद हाई वे पर सर्किट हाउस ढूंढ कर पंहुचे। पता चला रुम नहीं है। पीडब्ल्यडी के दूसरे डाकबंगले में भी कोई व्यवस्था नहींं। वहां से ओएनजीसी का रेस्ट हाउस तलाश किया। वह भी पैक। थकहार कर जिला पंचायत के गेस्ट हाउस में। जहं के मैनेजर ने मध्यप्रदेश के पत्रकार होने के कारण फ्री में रहने की अनुमति दी।
9.20 पर यहां सामान टिकाया। फोन लगाने के लिए दौडे। जैसे तैसे रतलाम फोन लगाया। भागते दौडते वापिस लौटे। और अनिल सो चुका है। मै भी सौ जाउं तो ही अच्छा क्योकि कल यहां से अहमदाबाद होते हुए बडौदा पंहुचना है।
10 जनवरी 1996 बडौदा (रात 12.30)
(बडौदा एमएस यूनिवर्सिटी के होस्टल एसपी माल में)
रात 12.30 पर दिनभर की थकान के साथ फिर से डायरी के साथ। सुबह नौ बजे मेहसाणा से निकले तो 60 किमी दूर कलोल जाकर रुके। कलोल के पीडब्ल्यूडी रेस्ट हाउस पर रुक कर ठण्डे पानी से नहाए और सारी थकान दूर हो गई। वहां से दोपहर 12 बजे निकले। अहमदाबाद पंहुचे। अहमदाबाद में दो घण्टे गुजारने के बाद शाम पांच बजे बडौदा। बडौदा में घूमे। जेम्स बाण्ड की फिल्म देखी और अब सोने की तैयारी।
11 जनवरी 1996
दिन भर बडौदा में गुजारा। सुबह देर तक सोते रहे। मोहन (मोहन सिंह सोलंकी) कालेज निकल गया था। 11 बजे के लगभग तैयार होकर सबसे पहले महाराजा सयाजीराव यूनिवर्सिटी की फाईन आर्ट फैकल्टी में पंहुचे। फोटोग्राफी प्रदर्शनी देखी। ब्लैक एण्ड व्हाईट फोटोग्राफी में नए प्रयोगों को देखने का यह पहला अवसर था। फिर मोहन के साथ पूरी फै कल्टी का मुजाहरा किया। फाईन आटर््स में यहां अत्याधुनिक विषय है। ग्राफिक्स प्रिन्टिंग,स्क्रीन प्रिन्टिंग,पैन्टिंग,एप्लाईड आटर््स,स्क्लप्चर (मूर्तिकला,शिल्पकला)इत्यादि के छात्र अपने अपने कामों में व्यस्त थे। यहां छात्रों को सारी आधुनिक सुविधाएं उपलब्ध है और मार्डनिटी का यहां हर चीज पर प्रभाव है। पेन्टिंग,मूर्तिकला इत्यादि हर विधा में मार्डन आर्ट हावी है,चाहे अर्थ निकले या न निकलें।
एक डेढ घण्टा यूनिवर्सिटी में गुजारने के बाद हमने मोहन के साथ मैस में खाना खाया। फिर लौटे,बडौदा का संग्रहालय देखने। लगभग दो घण्टे में संग्रहालय देखकर बाहर के पार्क में घूमे। जहां फिल्मी दृश्य आम दिखाई दे जाते है। एक बैंच पर टिके तो नीन्द आ गई। साढे पांच बजे हाजवा अमीटो गार्डन े के लिए निकले। बडौदा से 13 किमी दूर इस गार्डन में म्यूजिकल फाउण्टेन है,लेकिन हम पंहुचे तो वे बन्द थे। निराश हम लौटे। न्याय मदिर के तालाब पर ज्यूस पिया। घडी खरीदी। बडौदा में अनिल को भी हण्टर शूज भी मिल गए। रात को होस्टल पंहुचे। दो बजे तक बातें होती रही और आखिरकार दिन खत्म हुआ।
12 जनवरी 1996 शुक्रवार
बडौदा से सुबह आठ बजे निकलने की इच्छा थी,लेकिन 9.00 बजे तक सोते रहे। फिर फटाफट उठकर निकले। बडौदा से 44 किमी दूर हालोल और हालोल से 9-10 किमी पावागढ गांव,गांव के बाद करीब 3 किमी पहाड पर माची गांव तक गाडी जाती है। कई पहाडों पर चढ उतर चुकने के बाद हमने यहां रोप वे का प्रयोग करना ठीक समझा। रोप वे से उपर जाने के बाद फिर एक खडी चढाई चढना पडती है,जो सीधे मंदिर पंहुचती है।
पहाडी की सबसे ऊं ची चोटी पर मंदिर है। मंदिर के शिखर पर एक दरगाह है। जो पता नहीं कैसे बन गई। मजे की बात यह है कि इस दरगाह का भी हिन्दूकरण हो गया है। यहां कोई मुसलमान नहीं आता है। पावागढ मां की काफी ख्याति है। दोपहर तीन बजे पावागढ से गोधरा के लिए निकले। गोधरा 40 किमी के करीब है। गोधरा से लीमखेडी,लीमडी होकर बांसवाडा 104 किमी पडता है।जबकि दाहोद नहीं जाना पडता। हमने सही रास्ता चुना। हांलाकि आदिवासी क्षेत्र होने की वजह से लोग यहां से रात में गुजरना पसन्द नहीं करते लेकिन हम निकले। रात 8.45 पर बांसवाडा आ गए। नन्दकिशोर कलाल को लेकर रेस्ट हाउस ढूंढा। रेस्ट हाउस पांच रु. के चार्ज पर हमें मिला। रात को भोजन भी कलाल के ही भरोसे था।
13 जनवरी 1996 शनिवार बांसवाडा
बांसवाडा के रेस्ट हाउस में सुबह नौ बजे हम नहा धोकर निकलने की तैयारी कर रहे है। गीजर लगा हुआ है। गर्म पानी उपलब्ध है,नहाने में कोई प्राब्लम नहीं। यहां से सैलाना मात्र 64 किमी है यानी कि केवल 2 घण्टे अधिकतम और हम लोगों की छ: दिनी यात्रा का अंतिम पडाव बांसवाडा में यहां घूमने फिरने लायक केवल बांध है,वहां जाने की इच्छा नहीं है। अब सीधे रतलाम की ओर।
रतलाम से अम्बा जी और माउण्ट आबू की यह यात्रा मैने और अनिल मेहता (सैलाना) ने मेरी राजदूत मोटर साइकिल से की थी। रतलाम से निकलते समय यह तय नहीं था कि वास्तव में जाना कहां है। रतलाम से निकलने के बाद हमने रोड एटलस देखकर यह तय किया कि माउण्ट आबू देखा जाए। इस यात्रा पर हम 7 जनवरी 1996 को निकले थे।
8 जनवरी 1996
गुजरात की सीमा में पहला गांव शामला जी। शामला जी के पीडब्ल्यूडी रेस्ट हाउस में ढाई सौ किमी की यात्रा करने और रात गुजारने के बाद आज सुबह हम जाने की तैयारियों है।
रतलाम से कल बिलकुल निर्धारित समय नौ बजे हम निकल पडे थे। सज्जन मिल चौराहे पर नागर जी से मिलने के बाद सीधे सैलाना। सैलाना में आधा घण्टा रुके,फिर निकले तो सरवन में रुके। सरवन से सीधे बांसवाडा।
बांसवाडा में भास्कर प्रतिनिधि नन्दकिशोर को ढूंढा। उससे मिले और मात्र आधे घण्टे बाद डूंगरपुर के लिए निकल पडे। बांसवाडा से 14 किमी डूंगरपुर में सिटी कोतवाली ढूंढते हुए पंहुचे। सीआई श्री त्रिपाठी से भेंट कर आगे की व्यवस्था के हेतु कहा तो उन्होने रतनपुर रेस्ट हाउस (आरटीडीसी)हेतु पत्र दिया। रतनपुर मात्र 20 किमी। अभी हमारे पास काफी समय था। यहां राजस्थान सीमा पर पुलिस चौकी के प्रवीणसिंह से मिले। इंचार्ज एचसी वेदप्रकाश जी नहीं मिले। रतनपुर से शामला जी आए औव यहां रेस्ट हाउसमें रात रुके। मन्दिर के दर्शन किए। ढाबे में खाना खाया। और अब निकलने की तैयारी।
9 जनवरी 1996 माउण्ट आबू
माउण्ट आबू के देलवाडा पीडब्ल्यूडी रेस्ट हाउस में अभी सुबह 8.15 तक यहां सूरज के दर्शन नहीं हुए है। अनिल अभी बाथरुम में है और मैं वक्त का सदुपयोग कर रहा हूं।
कल लगभग इसी वक्त हमने शामला जी से प्रस्थान किया था। वहां से 50 किमी हिम्मत नगर। गुजरात की सीमा में होते हुए हम ब्रम्हखेड होते हुए अम्बा जी पंहुचे। अम्बा जी की काफी मान्यता है। लेकिन मुझे अपनी प्रकृतिनुरुप कुछ खास नहीं लगा। अम्बा जी से आबूरोड के रास्ते पर 2 किमी दूर गब्बर माता है। काफी उंचे पहाड पर। पहाडी सर्पिले रास्ते से 1.5 किमी दूरी तय करके हम गब्बर माता जी के पहाड की तली में पंहुचे। यहां गाडी खडी करके चढना शुरु किया। मुझे पता नहीं था कि 900 सीढियों की यह चढाई इतनी खतरनाक है। जैसी आदत है तेजी से चढना शुरु किया। लेकिन एक दम खडी चढाई से हालत खराब हो गई। मुझे याद नहीं पडता कि किसी और चढाई में मै रुका होऊं । लेकिन यहां कम से कम चार बार रुकना पडा। पसीने से तर होने के बाद पहाडी के उपर पंहुचे। माताजी की छोटी सी मूर्ति देखकर मन प्रसन्न हो गया। उतरना काफी आसान था। चढने में करीब 45 मिनट का समय लगा था लेकिन उतरते वक्त 20 मिनट ही लगे।
यहां से आबू रोड 27 किमी है। लगातार उतार ही उतार। पहाडी सर्पिले रास्तों में लगातार उतार हो तो गाडी चलाने में आनन्द आ जाता है। आबू रोड रेलवे स्टेशन है। आबू रोड मात्र 40 मिनट में पंहुच गए। यहां से चले माउण्ट आबू के लिए। शाम करीब चार साढे चार का वक्त। माउण्ट आबू के नीचे आबू रोड थाने के एसएचओ चन्द्रशेखर से मिले लेकिन वह मददगार साबित नहीं हुआ।
माउण्ट आबू लगभग 15 किमी लगातार पहाडी चढाई। गाडी चलाने में इतना आनन्द आ ही नहीं सकता। लेकिन अभी आधा ही रास्ता कटा थी कि टाप गेअर तकलीफ देने लगा। प्लग साफ किया। हवा का ठण्डापन बढ चुका था। बर्फीली हवा,जर्सी को पार कर तीर सी चुभ रही थी। लेकिन एक तरफ ऊं चा पहाड,दूसरी तरफ गहरी खाई और शानदार नजारों के बीच में जैसे ठण्डक का अहसास ही नहीं हो रहा था। लगभग डेढ-दो घण्टे का शानदार सफर तय करके जब शाम को 6.20 पर माउण्ट आबू में गाडी ने प्रवेश किया,सूरज डूब चुका था और अंधेरा अपनी काली चादर फैलाने लगा था। यहां पंहुचते ही सबसे पहले पीडब्ल्यूडी रेस्ट हाउस तलाश किया। बताने वालों ने सीपीडब्ल्यूडी का रेस्ट हाउस बता दिया। सीपीडब्ल्यूडी के जेई श्री नेगी से रुम बुक करने को कहा लेकिन उसने बताया कि रेस्ट हाउस बुक है। फिर पीडब्ल्यूडी के एसई एहमद हुसैन से मिले। उसने कहा आबू का रेस्ट हाउस तो बुक है,आप लोग देलवाडा रेस्ट हाउस में रुक जाईए। उसने स्लिप दे दी और हम लोग आबू से तीन किमी दूर देलवाडा आ गआ। चौकीदार से 3 न. रुम खुलवाया।
चाय पीने और स्वेटर टोपी तानने के बाद रेस्ट हाउस से फिर आबू घूमने निकले। पहाडी पर बसा हिल स्टेशन। चारों ओर एक से बढकर एक शानदार होटल्स। सजे संवरे चेहरे,फोर व्हीलर्स ,उसमें हम। जबरन पूरे शहर के दो चक्कर लगाए। और अचानक 500 किमी चल चुकी हमारी गाडी अटक गई। ओव्हर फ्लो की प्राब्लम से हम दुखी हो गए। 25-30 किक मारने के बाद जैसे तैसे गाडी स्टार्ट होती और जैसे ही पैट्रोल चालू करते फिर बन्द हो जाती। मैकेनिक को ढूंढना शुरु किया। कडाके की ठण्ड की वजह से नौ बजे के बाद दुकानें बन्द होना शुरु हो जाती है। मैकेनिक अशोक नामक युवक पहले ही घर जा चुका था। उसका घर ढूंढा और घर से पकड कर लाए। कारबोरेटर खोला तो पता चला कि जेट खुल कर नीचे गिर गया था,नतीजनत ओव्हर फ्लो हो रही थी। गाडी ठीक होने के बाद उससे दोस्ती गांठी। उसे साथ में खाना खिलाया। फिर रात ग्यारह बजे देलवाडा लौटे। आज सुबह उसी के पास जा रहे है। वह स्थानीय है और अच्छे गाइड का काम करेगा।
अशोक कुमार मेहरा,प्रिया आटो गैरेज
पैट्रोल पंप के पास,माउंट आबू(राज)।
9 जनवरी 1996 मेहसाणा (गुजरात) रात 10.00 बजे
मेहसाणा जिला पंचायत के गेस्ट हाउस में रात के दस बजे फिर से दिन भर का थका देने वाला कार्यक्रम याद आ रहा है।
सुबह नौ बजे देलवाडा रेस्ट हाउस से निकले और आबू के मुख्यचौराहे पर पंहुचे ही थे कि रतलामी बन्दा मुन्ना मिल गया। वहां की दुकान में भुजिया और चाय ली। चाय का भुगतान मुन्ना ने काफी रोकने के बावजूद भी किया। मुन्ना आमलेट की लॉरी लगाता है। 15 साल पहले सज्जन मिल बन्द होने के बाद वह यहां आ गया था। अब घर खरीद चुका है,स्कूटर भी ले लिया है।
मुन्ना को छोडकर हमने अशोक को पकडा। अशोक को लेकर घूमने निकले। देलवाडा के पास से अचलगढ जैन तीर्थ का रास्ता है। काफी ऊं चाई पर नेमिनाथ जी का मन्दिर बना है। उससे भी उपर महाकाली के दो मन्दिर है। हमें काफी ऊं चाई पर काली मन्दिर पर तालाब देखकर काफी हैरानी हुई। फिर नीचे उतरे। नेमिनाथ जैन तीर्थ के दर्शन किए। डेढ घण्टे बाद जब लौटने लगे तो रास्ते में वन विभाग का अभयारण्य ट्रेवर टेंक देखकर उसमें चल पडे। पहाडी पर काफी ऊं चाई पर आगे जाकर ट्रेवर टेंक है। इसमें फिलहाल 1 मगरमच्छ है। फोटो लेने की कोशिश की तो वह छपाक से पानी में कूद गया। वहां वन विभाग के चैनसिंह नामक कर्मचारी से परिचय किया। यहां पर वनविभाग का रेस्ट हाउस भी है। आधा घण्टा रुकने के बाद अबुर्दा देवी के मन्दिर के लिए चले। करीब 700 सीढियों की खडी चढाई चढने के बाद बहुत बडी प्राकृतिक गुफा में मां को देखकर मन आनन्द से भर जाता है। यहां से उतर कर हनीमून पाइन्ट देखने गए। नक्की लेक चूंकि बीच में है इसलिए कई बार देख ली।सबसे पहले प्रजपिता ब्रम्हाकुमारी का ओम शांति भवन भी देखा था। यहां 4 हजार लोगों के बैठने की और भोषण को तत्काल 16 भाषाओं में परिवर्तित कर देने की सुविधा है। घूमघाम कर फिर बीच आबू पंहुचे। तीन बजे चुके थे। निकलने का समय होने लगा था। रेस्ट हाउस से सामान चूंकि पहले ही ले आए थे इसलिए देलवाडा पुन: जाने की जरुरत नहीं थी। चौराहे पर मुन्ना से बिदा लेने के लिए उसकी लॉरी पर गए। उससे मिले। गाडी के ब्रेक चैन आदि का काम अशोक कर ही चुका था। हम आबू रोड के लिए निकल पडे। लगातार 21 किमी पहाड का उतार। गाडी का इंजन चालू ही नहीं करना पडता। खतरनाक मोड,मन मोह लेने वाले नजारे और पहाड,खाई के दृश्य डेढ घण्टे के करीब हमारे साथ रहे फिर हम आबू रोड पर।
आबूरोड से पालन पुर 51 किमी। दोहरी चिकनी सड़क। गाडी 60 से नीचे होती ही नहीं। पालनपुर से उंझा। उंझा में पीडब्ल्यूडी का रेस्ट हाउस ढूंढा। नहीं मिला। ऊं झा से 25 किमी मेहसाणा के लिए निकल पडे। 8.05 पर मेहसाणा पंहुचे। अहमदाबाद हाई वे पर सर्किट हाउस ढूंढ कर पंहुचे। पता चला रुम नहीं है। पीडब्ल्यडी के दूसरे डाकबंगले में भी कोई व्यवस्था नहींं। वहां से ओएनजीसी का रेस्ट हाउस तलाश किया। वह भी पैक। थकहार कर जिला पंचायत के गेस्ट हाउस में। जहं के मैनेजर ने मध्यप्रदेश के पत्रकार होने के कारण फ्री में रहने की अनुमति दी।
9.20 पर यहां सामान टिकाया। फोन लगाने के लिए दौडे। जैसे तैसे रतलाम फोन लगाया। भागते दौडते वापिस लौटे। और अनिल सो चुका है। मै भी सौ जाउं तो ही अच्छा क्योकि कल यहां से अहमदाबाद होते हुए बडौदा पंहुचना है।
10 जनवरी 1996 बडौदा (रात 12.30)
(बडौदा एमएस यूनिवर्सिटी के होस्टल एसपी माल में)
रात 12.30 पर दिनभर की थकान के साथ फिर से डायरी के साथ। सुबह नौ बजे मेहसाणा से निकले तो 60 किमी दूर कलोल जाकर रुके। कलोल के पीडब्ल्यूडी रेस्ट हाउस पर रुक कर ठण्डे पानी से नहाए और सारी थकान दूर हो गई। वहां से दोपहर 12 बजे निकले। अहमदाबाद पंहुचे। अहमदाबाद में दो घण्टे गुजारने के बाद शाम पांच बजे बडौदा। बडौदा में घूमे। जेम्स बाण्ड की फिल्म देखी और अब सोने की तैयारी।
11 जनवरी 1996
दिन भर बडौदा में गुजारा। सुबह देर तक सोते रहे। मोहन (मोहन सिंह सोलंकी) कालेज निकल गया था। 11 बजे के लगभग तैयार होकर सबसे पहले महाराजा सयाजीराव यूनिवर्सिटी की फाईन आर्ट फैकल्टी में पंहुचे। फोटोग्राफी प्रदर्शनी देखी। ब्लैक एण्ड व्हाईट फोटोग्राफी में नए प्रयोगों को देखने का यह पहला अवसर था। फिर मोहन के साथ पूरी फै कल्टी का मुजाहरा किया। फाईन आटर््स में यहां अत्याधुनिक विषय है। ग्राफिक्स प्रिन्टिंग,स्क्रीन प्रिन्टिंग,पैन्टिंग,एप्लाईड आटर््स,स्क्लप्चर (मूर्तिकला,शिल्पकला)इत्यादि के छात्र अपने अपने कामों में व्यस्त थे। यहां छात्रों को सारी आधुनिक सुविधाएं उपलब्ध है और मार्डनिटी का यहां हर चीज पर प्रभाव है। पेन्टिंग,मूर्तिकला इत्यादि हर विधा में मार्डन आर्ट हावी है,चाहे अर्थ निकले या न निकलें।
एक डेढ घण्टा यूनिवर्सिटी में गुजारने के बाद हमने मोहन के साथ मैस में खाना खाया। फिर लौटे,बडौदा का संग्रहालय देखने। लगभग दो घण्टे में संग्रहालय देखकर बाहर के पार्क में घूमे। जहां फिल्मी दृश्य आम दिखाई दे जाते है। एक बैंच पर टिके तो नीन्द आ गई। साढे पांच बजे हाजवा अमीटो गार्डन े के लिए निकले। बडौदा से 13 किमी दूर इस गार्डन में म्यूजिकल फाउण्टेन है,लेकिन हम पंहुचे तो वे बन्द थे। निराश हम लौटे। न्याय मदिर के तालाब पर ज्यूस पिया। घडी खरीदी। बडौदा में अनिल को भी हण्टर शूज भी मिल गए। रात को होस्टल पंहुचे। दो बजे तक बातें होती रही और आखिरकार दिन खत्म हुआ।
12 जनवरी 1996 शुक्रवार
बडौदा से सुबह आठ बजे निकलने की इच्छा थी,लेकिन 9.00 बजे तक सोते रहे। फिर फटाफट उठकर निकले। बडौदा से 44 किमी दूर हालोल और हालोल से 9-10 किमी पावागढ गांव,गांव के बाद करीब 3 किमी पहाड पर माची गांव तक गाडी जाती है। कई पहाडों पर चढ उतर चुकने के बाद हमने यहां रोप वे का प्रयोग करना ठीक समझा। रोप वे से उपर जाने के बाद फिर एक खडी चढाई चढना पडती है,जो सीधे मंदिर पंहुचती है।
पहाडी की सबसे ऊं ची चोटी पर मंदिर है। मंदिर के शिखर पर एक दरगाह है। जो पता नहीं कैसे बन गई। मजे की बात यह है कि इस दरगाह का भी हिन्दूकरण हो गया है। यहां कोई मुसलमान नहीं आता है। पावागढ मां की काफी ख्याति है। दोपहर तीन बजे पावागढ से गोधरा के लिए निकले। गोधरा 40 किमी के करीब है। गोधरा से लीमखेडी,लीमडी होकर बांसवाडा 104 किमी पडता है।जबकि दाहोद नहीं जाना पडता। हमने सही रास्ता चुना। हांलाकि आदिवासी क्षेत्र होने की वजह से लोग यहां से रात में गुजरना पसन्द नहीं करते लेकिन हम निकले। रात 8.45 पर बांसवाडा आ गए। नन्दकिशोर कलाल को लेकर रेस्ट हाउस ढूंढा। रेस्ट हाउस पांच रु. के चार्ज पर हमें मिला। रात को भोजन भी कलाल के ही भरोसे था।
13 जनवरी 1996 शनिवार बांसवाडा
बांसवाडा के रेस्ट हाउस में सुबह नौ बजे हम नहा धोकर निकलने की तैयारी कर रहे है। गीजर लगा हुआ है। गर्म पानी उपलब्ध है,नहाने में कोई प्राब्लम नहीं। यहां से सैलाना मात्र 64 किमी है यानी कि केवल 2 घण्टे अधिकतम और हम लोगों की छ: दिनी यात्रा का अंतिम पडाव बांसवाडा में यहां घूमने फिरने लायक केवल बांध है,वहां जाने की इच्छा नहीं है। अब सीधे रतलाम की ओर।
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