Monday, February 16, 2015

हिमालय का हाई एल्टीट्यूड

रतलाम से लद्दाख (2 सितम्बर से 26 सितम्बर 2000)
रतलाम से लद्दाख की यह यात्रा चार पहिया वाहन से पहली हमारी पहली यात्रा थी। यात्रा के लिए हमने आशुतोष नवाल की मारुति वैन ली थी। यह गाडी आशुतोष ने कुछ ही दिन पहले खरीदी थी और इसमें स्टीमर का इंजिन लगाकर इसके डीजल से चलने वाली गाडी में तब्दील कर लिया था। इस यात्रा में मेरे साथ राजेश घोटीकर,कमलेश पाण्डेय,विनय कोटिया और आशुतोष नवाल (मन्दसौर) थे। यात्रा की एक खासियत यह भी थी कि हममें से कोई भी परफेक्ट ड्राइवर नहीं था,लेकिन फिर भी हम डीजल की मारुति वैन से 2 सितम्बर 2000 को लद्दाख यात्रा के लिए निकल पडे। यह यात्रा 26  सितम्बर को समाप्त हुई।

2 सितम्बर 2000
1 सितम्बर को शुरु होने वाली यात्रा करीब 36  घण्टों की देरी से 2 सितम्बर को शाम 6 बजे शुरु हो पाई। 6 बजे निकलने के बाद उज्जैन और उज्जैन से आगे निकलने में आधी रात हो गई। यह पहली यात्रा हम लोग मारुति वैन से कर रहे है,जिसमें काफी कमियां है।
 सारी रात मक्सी से पहले 2 किमी पहले सड़क पर खडी गाडी में गुजारी और सुबह करीब 6.30 पर गाडी अचानक ठीक हो गई। मक्सी रेस्ट हाउस में नहाधोकर 3 सितम्बर को 11 बजे निकले तो ब्यावरा,सारंगपुर,गुना होते हुए रात 9.30 पर शिवपुरी पंहुचे। शिवपुरी में तब बरसात हो रही थी औव हमें रात गुजारने की जगह कहीं नहीं मिल पाई। तेज बारिश में आगे बढे,एक ढाबे पर भोजन कर के किसी रेस्ट हाउस की तलाश में आगे बढे तो वह तलाश करीब पचास किमी आगे जाकर मोहना के विश्रामगृह में रात पौने तीन बजे खत्म हुई। जहां हमने एक कमरे में 5  लोगों ने रात गुजारी।
4 सितम्बर 2000 सुरसागर पक्षी विहार (सुबह 10.00 बजे)
कल सुबह ग्यार बजे मोहना से निकल करीब 1.00 बजे ग्वालियर पंहुच पाए। ग्वलियर से करीब साढे तीन-चार बजे निकले। आगरा में रुकने की कोई इच्छा नहीं थी। आगरा और मथुरा के बीच कहीं रात गुजारने का विचार कर हम आगे बढे और करीब तीस किमी पर यहां कीठम विहार नाम की जगह दिखी। पता चला कि यहां बर्ड्स सेंचुरी है। इस पक्षी विहार में फारेस्ट का रेस्ट हाउस भी खूबसूरत लोकेशन पर बना हुआ है,लेकिन यहां लाइट नहीं है। हम लोग मोमबत्तियां जलाकर रात करीब एक बजे सोये औव सुबह करीब नौ बजे उठ पाए। नहा धोकर तैयार होते होते अभी 10.45 हुए हैं जब हम रवाना होने को तैयार है। अब तक हम करीब 550 किमी दूर आ चुके है।
सुरसागर पक्षी विहार सूरदास के नाम पर विकसित किया गया है। यहां सूरदास की जन्मस्थली है। रुनकता गांव को सूरदास का जन्मस्थल माना जाता है और रुनकता गांव इस बर्ड्स सेंचुरी में पडता है।

7 सितम्बर 2000 सधौरा(हरियाणा)
5.09.2000- रुनकता सुरसागर में सूरदास का मन्दिर देखने के बाद हम करीब ग्यारह बजे निकले और मथुरा पंहुच गए।  मथुरा में कृष्ण जन्मस्थान देखने के बाद निकले,करीब तीन बजे लेकिन मारुति के वर्कशाप देखकर दरवाजा ठीक करवाने के लिए रुके और करीब चार बजे मथुरा से रवाना हुए।
यहां तक सबकुछ ठीक चल रहा था,लेकिन यहां से मामला गडबडाया और दिल्ली पंहुचते पंहुचते सबकुछ गडबडाने लगा। हम चाह रहे थे कि दिल्ली के गन्दे ट्रैफिक में फंसे बगैर आगे निकल जाए लेकिन ऐसा नहीं हो पाया।
दिल्ली के जबर्दस्त ट्रैफिक में पहले गाडी का राइट व्हील एक फुटपाथ पर चढ गयाऔर डिस्क मुड गई। वहां से आगे चले तो मालूम पडा कि अभी तकलीफें और बाकी है। गाडी बार बार गर्म हो रही थी। गाडी के रेडिएटर का पानी चैक करने के लिए कमलेश ने मूर्खता भरी जल्दबाजी करते हुए रेडियेटर का ढक्कन खोल दिया। खौलता हुआ पानी सीधे उसके चेहरे पर पडा और उसका पूरा चेहरा झुलस कर काला हो गया। गनीमत यह थी कि उसकी आंखे बच गई थी। उसे लेकर अस्पताल ढूंढा और मरहम पट्टी के बाद दिल्ली से बाहर निकले। दिल्ली से करीब 50 किमी आगे निकले और मोरथल नामक गांव पहले एक ढाबे पर रात करीब 2.00 बजे रुके। बची खुची रात गुजार कर सुबह गाडी चैक कराई तो मालूम पडा कि गाडी का व्हील एलाइनमेन्ट बिगड गया है। एलाइनमेन्ट ठीक करवाने के बाद दोपहर ग्यारह बजे यहां से चले। अब हम इस हाइवे से ऊ ब चुके थे। हमारी योजना थी करनाल से हाईवे छोडकर हरयाणा के भीतरी हिस्सों में घुस जाएंगे।
इस बीच पानीपत में एक बार फिर जगदीश शर्मा से मुलाकात हो गई। जगदीश ने शिमला के भास्कर प्रतिनिधि को फोन कर दिया। पानीपत से करनाल और करनाल से आगे शहाबाद तक हम हाईवे पर चले और शहाबाद से नहान के लिए भीतरी रास्ते में घुश गए। अब स्थिति ठीक है। सधौरा के डाक बंगले में थोडी माथापच्ची के ठहर पाए और अब यहां से रवानगी की तैयारी।

8  सितम्बर 2000  कुमारहट्टी (हिमाचल)
सधौरा से सुबह करीब ग्यारह बजे हम रवाना हो पाए। इससे पहले कमलेश की ड्रेसिंग करवाई और तेजी से नहान गांव के लिए रवाना हुए। सधौरा में हमने सिर्फ चाय पी। सधौरा से करीब 18 किमी दूर कालाअम्ब गांव है,जहां से एक रास्ता सीधे हिमाचल को जोडता है और चण्डीगढ हाईवे भी यहीं मिलता है।
काला अम्ब में भोजन कर के वहां से नहान के लिए चले। हिमाचल को देवभूमि कहते है। कलाअम्ब से कुछ 5-8 किमी चलने के बाद हिमालय की तलहटी शुरु हो जाती है। खतरनाक तीखे मोड,ऊं ची खडी चढाई और सीधे ढलानों के रास्तों पर चलते हुए हमे 150 किमी का रास्ता तय करना था ताकि हम सिमला पंहुच पाते,लेकिन पहाडी रास्तों पर पहली बार ड्राइविंग करना इतना आसान नहीं है। नतीजा यह कि ग्यारह बजे से शाम 7  बजे तक चलते रुकते हम लोग करीब सौ किमी चल पाए और यहां कुमार हट्टी में फारेस्ट रेस्ट हाउस पर रुक गए। सफर का यह पहला मौका है,जब हमें रुकने की कीमत चुकानी पडेगी। फारेस्ट के एक अफसर ने हमें प्राइवेट चार्ड पर रुकने की इजाजत दी जोकि 175 रुपए है। हमे कमरा भी एक ही मिला।
शाम साढे सात पर यहां रुकने के बाद रेस्ट हाउस से उतर कर भोजन किया और कालका शिमला की ििर्चत नेरोगेज ट्रेन का स्टेशन देखने के लिए रात ग्यारह बजे उतरे। रेलवे स्टेशन मुख्य सड़क से काफी नीचे है। हम लोग अंधेरे में ना जाने कितनी सीढियां उतर कर वहां पंहुचे। कालका और शिमला के बीच पांच गाडियां चलती है,जो पर्यटकों को बेहद पसन्द है। हमें यहां से सिमला पंहुचना है और सिमला से आगे पंहुचकर रुकना है।

10 सितम्बर 2000  नम्होल
हमारी योजना सिमला में नहीं रुकने की थी। लेकिन सिमला पंहुचने के दौरान लगा कि गाडी में अब भी गडबड़ है। हांलाकि कुमारहट्टी से चलने के पहले वहां के मारुति वर्कशाप में हमने एलाईनमेन्ट करवाया था और इसी वजह से हमें देरी हो गई थी। और नतीजतन हम 4 बजे सिमला पंहुच पाए। शहर के बाहर ही मारुति का शोरुम नजर आ गया। वहां हमने कम्प्यूटराईज्ड एलाइनमेन्ट करवाया और इस चक्कर में शाम 6 बज गए। शिमला छोडने की योजना भी रद्द हो गई।
 शिमला में हमें प्रदीप मिल गया,जिसके बारे में सुना था कि वह चण्डीगढ में है। शिमला में रात गुजारने की समस्या प्रदीप ने हल कर दी और हम उसी के कमरे में सो गए।
 शिमला की अगली सुबह ठीक ठाक रही। सुबह उठकर नौ बजे शिमला घूमने निकले। शिमला हिमाचल की राजधानी है,लेकिन यहां इसके अलावा और कोई बडी खासियत नहीं है। पहाड पर फैली 2-3 लाख की आबादी,संकरी सकडे,ट्रैफिक जाम ये सब यहां देखने को मिला। शिमला की माल रोड और जाखू पर्वत का हनुमान मन्दिर देखा। जाखू पर्वत शिमला का सर्वोच्च स्थान है। कथाओं के अनुसार,हनुमान जी संजीवनी बूटी लेने जिस समय जा रहे थे तब वे यहां कुछ देर रुके। उनके साथी भी यहां रुके लेकिन उन्हे नीन्द लग गई। हनुमान जी तो उठकर संजीवनी लेने चले गए,लेकिन उनके साथी यहां रह गए। ये बन्दर आज भी इस मंदिर पर घूमते है। पर्वत करीब साढे आठ हजार फीट ऊं चा है। शिमला में ही हमने फारेस्ट सेक्रेटरी से बात की और ठीक 4 बजे शिमला थोड दिया। कुल्लू के रास्ते पर शिमला से 60  किमी आगे हम यहां नम्होल के रेस्ट हाउस में रुके है और आज सुबह सब काम व्यवस्थित हो चुकने के बाद 9.15 पर चलने की तैयारी में है।
शमशी (कुल्लू) 11 सितम्बर 2000
नम्होल से ठीक समय पर निकलनेक के बाद हम बिलकुल ठीक समय पर 150 किमी का अधिकतर तीखे मोड और ढलान वाला रास्ता पार कर शाम 4 बजे शमशी पंहुच गए।  यह गांव कुल्लू से लगा हुआ है और कुल्लू यहां से सिर्फ आठ किमी दूर है। यहां पंहुचते ही नजर सबसे पहले एक स्किन स्पेशलिस्ट  पर गई तत्काल कमलेश को वहां दिखाया। उस डाक्टर ने उसे पूर्णत: निश्चिन्त कर दिया। इसी दौरान कुल्लू डीएफओ से बात हुई। कुल्लू के फरेस्ट रेस्ट हाउस भरे हुए थे,इसलिए उन्होने हमें शमशी में रुकने को कहा और हम यहां शमशी फारेस्ट रेस्ट हाउस में रुक गए। रेस्ट हाउस सर्वसुविधा युक्त है। शमशी गांव से गुजरने वाली व्यास नदी के तेज बहाव की आवाज यहां लगातार सुनाई देती है। कुल्लू का इलाका पहाडों के बीच होकर भी लगभग मैदानी ईलाका है। रेस्ट हाउस के चारो ओर पहाड है। दाई ओर पहाड पर बिजली महादेव का मंदिर है,जिसका पैदल रास्ता यहीं से गुजरता है,लेकिन पता चला कि दूसरा रास्ता कुल्लू होकर है,जहां आधी दूरी तक वाहन जाता है। कल शाम को शमशी में रुकने के बाद हम एक चक्कर कुल्लू का लगा आए थे,लेकिन पहाड में बाजार शाम को जल्दी बन्द हो जाते है। आज कुल्लू अधिकारियों से मिल कर थोडा घूमना है। मनाली संभवत: कल रवानगी होगी।

13  सितम्बर 2000 (मनाली-लेह बस में)
कुल्लू का अगला दिन यानी 11 सितम्बर ठीक गुजरा। आधे दिन में वन विभाग के डीएफओ राजीव कुमार और ग्रेट हिमालयन नेशनल पार्क के डायरेक्टर संजीव पाण्डेय से मुलाकात हुई।  सभी अधिकारियों को हमारे आगमन की सूचना थी। शिमला में मैने फारेस्ट के एडीशनल सेक्रेटरी जेसी चौहान से बात की थी और उन्होने कुल्लू अधिकारियों को हमारे बारे में फोन कर दिया था।  नतीया यह हुआ कि उन्होने हमे तमाम जानकारियां तो दी ही और साथ ही कुल्लू से आगे रुकने के लिए नग्गर के फारेस्ट रेस्ट हाउस को सूचना भी दे दी।
 अधिकारियों से भेंट कर हम कुल्लू के बिजली महादेव के दर्शन के लिए जा रहे थे। कहते है कि उंचे महादेव पर विराजित महादेव पर हर साल बिजली गिरती है और प्रतिमा खण्डित हो जाती है। फिर भक्त घी और अन्य  चीजे मूर्ति पर चढाते है। बिजली महादेव काफी ऊं चाई पर है और खडी चढाई है। हमारी गाडी ने जाने से इंकार कर दिया। शाम करीब छ बजे हम कुल्लू से नग्गर के लिए रवाना हो गए,जहां हमारे आने की पूर्व सूचना थी। नग्गर में फारेस्ट का रेस्ट हाउस थ्री स्टार केटैगरी जैसा है। यहां कमरों में घुसते ही मन खुश हो गया। रात बेहद अच्छी गुजरी।
12  सितम्बर को सुबह सही समय पर उठ गए और मुल्लू राम के बनाए हुए गोभी के पराठे दबाकर मनाली आ पंहुचे। मनाली पंहुचने से ठीक पहले राजेश के हाथ पर गेट की जोरदार चोट लगी और शहर में घुसते ही हमने हास्पिटल की तलाश शुरु कर दी। हास्पिटल पंहुचने के एकाध घण्टे बाद उसे लगा, कि हाथ में कोई फ्रैक्चर नहीं है।
मनाली में फारेस्ट की बर्ड सेंचुरी है।  यहां के सूचना केन्द्र को भी हमारे आने की पूर्व सूचना थी। यहां फारेस्ट का रेंज आफिसर है। इन लोगों से मुलाकात और लेह जाने वाली बसों की पूछताछ के बाद यही तय किया कि वापस नग्गर लौटा जाए। नग्गर में रात गुजार कर सुबह साढे सात बजे लेह की बस पकडी जाए।
मनाली में,3 किमी दूर वशिष्ट नामक स्थान पर ऋ षि वशिष्ठ का मन्दिर और गर्म पानी के कुण्ड है। गर्म पानी के कुण्ड दोबारा स्नान किया। मनाली के प्रसिध्द हिडिम्बा मन्दिर और मनु मन्दिर में दर्शन करने के बाद जब हम लौट रहे  थे कि पूरे सफर में पहली बार गाडी पंचर हो गई। गाडी को ठीक करवाने के बाद हम लोग नग्गर के लिए रवाना हुए और रात करीब साढे आठ बजे हम लोग नग्गर पंहुच गए। नग्गर पंहुचने के बाद हमने बडी तेजी से लेह जाने की तैयारी की,क्योकि बस सुबह 7.30 पर थी और हमें 21 किमी चल कर बस तक पंहुचना था। रात को लौटते समय हम लोग डीजल डलवाना भूल गए थे। लौटते वक्त सुबह ठीक 7 बजे,मनाली से सिर्फ 2 किमी पहले हमारी गाडी का डीजल खत्म हो गया। इधर उधर से मांग कर हमने डीजल डलवाया। यहां बस स्टैण्ड आने के बाद हमें ज्ञातहुआ कि हमें जे एण्ड के की दूसरी बस मिल सकती है,जो दस बजे चलेगी। इस बस में जगह भी अच्छी मिल गई।
और अब लद्दाख जाने की तैयारी।
14  सितम्बर 2000  लेह (3550 मीटर)
समुद्र सतह से साढे तीन हजार मीटर की ऊं चाई पर स्थित लेह में पंहुचना यूंतो आसान रहा लेकिन यहां आकर व्यवस्थाएं जुटाना टेढी खीर साबित हुआ।
13 सितम्बर की सुबह जम्मू कश्मीर राज्य परिवहन निगम की बस से शुरु हुआ सफर रोहतांग पास की खतरनाक चढाई और केलांग डिपो से होता हुआ डारचा नामक गांव में रुका। मनाली से लेह के सफर में एक रात बीच में कहीं रुकना पडता है। सफर शुरु होने के साथ ही बस के ड्राइवर गुलाम मोहम्मद और कण्डक्टर पुनचुक से हमारी अच्छी दोस्ती हो गई थी। इस दोस्ती में एक विदेशी लडकी पेत्रा का योगदान रहा। स्लोवाक की पेत्रा भी इसी बस से लेह जाने वाली थी और एडवांस बुकींग करवा चुकी थी,लेकिन एन वक्त पर उसकी सहेली बीमार हो गई और पेत्रा को यात्रा रद्द करना पडी। वह चाहती थी कि उसका टिकट कैंसल हो जाए और उसे रकम वापस मिल जाए,जोकि नियम विपरित था। ड्राइवर अंग्रेजी कम जानता था इसलिए पेत्रा से मैने बात की  और उसे कहा कि 800  रु.किसी विदेशी के लिए बडी रकम नहीं होती,लेकिन वह रोने लगी। इस पर गुलाम मोहम्मद पसीज गया और उसने अपनी जेब से 600 रु.पेत्रा को लौटाए। गुलाम मोहम्मद ने मुझसे कहा कि मै उसे यह बात समझा दूं। नतीजा यह हुआ कि ड्राइवर से अच्छी दोस्ती हो गई।
डारचा गांव में हमने सवा सौ रु.में एक कमरा लिया और शायद जिन्दगी में पहली बार शाम को आठ बजे सो गए,क्योकि हमें सुबह तीन बजे उठकर चल देना था। सुबह चार बजे के करीब डारचा से यात्रा शुरु हुई। डारचा से लेह के बीच दो बडी ऊं चाईयां बारलचला टाप और टंगलंगला टाप पडती है। बरलच ला टाप 4800 मीटर की ऊं चाई पर है जबकि टंगलंग ला टाप 5500 मीटर की ऊ ंचाई पर है।
हमें बताया गया था कि इन ऊं चाईयों पर आक्सिजन कम है और इससे नए लोगों को कई तरह की तकलीफें आती है। न रुकने वाला सिरदर्द शुरु होता है जो अस्पताल में भर्ती होने के बाद ही ठीक होता है। खैर हम लोग इन दोनों ऊं चाईयों से गुजर गए। कुछ हल्की परेशानी जरुर हुई लेकिन वह वैसी नहीं थी,जैसी बताई गई थी। इतना जरुर था कि इन ऊं चाईयों पर चार कदम चलने पर सांस फूल रही थी।
टंगलंग ला टाप पर हमने फोटो खींचे। टाप पर एक मन्दिर है जिसमें जूते पहन कर जाया जा सकता है। मंदिर में दर्शन करने के बाद हम फिर बस में सवार हुआ। डारचा से लेह के बीच कई स्थानों पर सड़क नाम की चीज नहीं है। हजारों मीटर की ऊं चाई पर सड़क के नाम पर जोकुछ है वह इतना संकरा है कि उस पर एक वाहन गुजरना ही पर्याप्त है। बीच बीच में कहीं कहीं बीआरओ (बार्डर रोड आर्गेनाईजेशन)का सड़क निर्माण कार्य चल रहा था,जिसकी वजह से परेशानियां और बढ गई थी और इन परेशानियों को झेलते झेलते हम जब लेह पंहुचे तो शाम 7  बज रहे थे और अंधेरा छाने लगा था।
पहाडों पर अमूमन लोग सात आठ बजे तक दुकानें बन्द कर देते है। यहां आकर  हम कतई इस स्थिति में नहीं थे कि कोई रेस्ट हाउस तलाश पाते। हमे लगा था कि होटल पर खर्चा करना आसान होगा,लेकिन हाई एल्टीट्यूड पर करीब दो किमी चलने के बाद हमें जैसे तैसे एक होटल मिला। पूरी यात्रा में पहली बार हमने ठहरने पर रकम खर्च की और यहां ठहरे। अब सुबह ठण्डे पानी से नहा कर निकलने की तैयारी।

16-09-2000 लेह (बस स्टैण्ड)
भारत के सबसे ऊं चे शहर में दूसरा दिन गुजारना बेहद कठिन काम है। हमें कल ही रात निकल जाना था,लेकिन लेह से लौटने वाली गाडियों में जबर्दस्त भीड है और हमें अगले दिन तक ठहरना पडा।
कल का दिन यूं बेहतर गुजरा कि कल लद्दाख फेस्टिवल का अंतिम दिन था और आधा दिन हमने फेस्टिवल देखते गुजारा। बाद में लेह पैलेस देखने गए,लेकिन मैं और विनय नहीं जा पाए। आशुतोष और कमलेश उपर तक जाकर आए। बाद में हमने एक गोम्पा देखा जहां लद्दाख बुध्दिस्ट एसोसिएशन का मुख्यालय भी है। लेह में आक्सिजन की कमी के कारण ज्यादा घुमा नहीं जा सकता। दोपहर ४ बजे तक घूमने के बाद हम इस स्थिति में नहीं थे कि और चल पाते। हम लोग गेस्ट हाउस तक जाकर लेटे और करीब दो घण्टे बाद फिर बस स्टैण्ड आए। गुलाम मोहम्मद से मिले और कल आने का वादा करके लौटे। रात करीब दस बजे खा पी कर सो गए।  रात को मुझे पेट में गडबड महसूस हुई तो अभी सुबह तक जारी है।
 बस स्टैण्ड पहुंचने के बाद एचपीआरटीसी की बस में मनाली की टिकटें बुक कराई और थिकशे गोम्पा देखने के लिए निकल पडे। सिटी बस में थिकशे गोम्पा तक पंहुच गए।
17 सितम्बर 2000  केलंग
कल लेह का थिकशे गोम्पा देखने के बाद जब वापस लौटे तो थक कर चूर हो चुके थे। करीब पांच सौ साल पुराना यह गोम्पा काफी ऊं चाई पर है। हाई एल्टीट्यूड में समतल जमीन पर चार कदम कलना मुश्किल होता है,ऐसे में  ऊं चे गोम्पा तक जाना अपने आप में काफी मुश्किल था। गोम्पा में उपर पंहुचकर वहां के एक लामा से आदी अधूरी जानकारियां हासिल  की। गोम्पा में गौतम बुध्द की एक विशाल सुन्दर प्रतिमा है। गोम्पा देखने के बाद उतरे। पेट में गडबडी के चलते दिनभर में केवल 1 या 2 चाय पी। शाम को रेस्ट हाउस पंहुचने के बाद दो घण्टे निढाल पडे रहे। फिर नजदीक के एक रैा में जाकर वेज सूप पिया,तो थोडी जान आई।
लेह से मनाली की बस सुबह चार बजे निकलती है।हमारी परेशानी यह थी कि रात साढे तीन बजे हमारी होटल से निकल कर शहर के बाहर बसस्टैण्ड पर आना हमारे बूते की बात नहीं थी। खैर। हम रात 9 बजे बस स्टैण्ड पंहुच गए और ड्राइवर को समझा बुझाकर बस में ही सो गए। बस में नीन्द आ नहीं सकती थी। जैसे तैसे रात कटी अऔर बस चली। बस में सोते जागते मनाली की ओर लौटे। वही रास्ता,खतरनाक मोड,सीधे चढाव.गंजे मटमैले पहाड और कहीं कहीं तेज ठण्ड। इस बार हाई एल्टीट्यूड का कोई असर हम पर नहीं था। शाम 7  बजे केलंग पर बस पंहुची और एक बिना नाम के होटल में एक कमरा लेकर हम लोग ठहरे है। सुबह पांच बजे फिर मनाली के लिए रवाना होना है।
22 सितम्बर 2000  कथुआ
18 सितम्बर को केलंग से शुरु हुआ सफर,दोपहर बारह बजे मनाली पंहुचकर समाप्त हुआ। लेह से लौटने के बाद मनाली ऐसा लग रहा था जैसे घर आ गए हो। राजू से पहले ही बात हो चुकी थी और वह इंतजार कर रहा था। मनाली से गाडी उठाकर करीब दो बजे नग्गर पंहुचे। राजू ने पांच दिनों में नग्गर में काफी लोगों से मित्रता गांठ ली थी। नग्गर के इटैलियन रेा में,उसने अच्छा खाना बनवाया। नहा धो कर खाना खाने के बाद हम लोग नग्गर से रवाना हुए तो हमारी योजना चामुण्डा और धर्मशाला होते हुए हिमाचल छोडने की थी। नग्गर से धर्मशाला के रास्ते पर औट नामक गांव में फारेस्ट रेस्ट हाउस के एक कमरे पर कब्जा करके हम लोग रात गुजारने के लिए रुके। औट में रात गुजारने के बाद हमें धर्मशाला पंहुचना था,लेकिन गाडी बार बार गर्म हो रही थी। इसलिए कार्यक्रम में रद्दोबदल किया। 19  सितम्बर को औट से चले,चामुण्डा माता के दर्शनों के बाद बैजनाथ महादेव के दर्शन किए और धर्मशाला को छोडते हुए पठानकोट पंहुचे। पठानकोट से जम्मू का 110 किमी का सफर करीब तीन घण्टे में आसानी से पूरा हो गया और करीब 6 बजे हम जम्मू के किनारे लग गए। जम्मू कश्मीर राज्य में हम दूसरी बार पंहुचे थे। पठानकोट शहर भी अनोखा है। आमतौर पर शहर से कुछ बाहर निकलने के बाद दूसरी सीमाएं लगती है,लेकिन पठानकोट शहर के एक ओर हिमाचल है और दूसरी ओर जे एण्ड के। जम्मू शहर में बिना घुसे हम कटरा के लिए चल पडे। जम्मू से कटरा का रास्ता फिर से उतार चढाव और तीखे घुमावदार मोडों वाला रास्ता है। इस 56  किमी में से 25 किमी तो आसानी से कट गए,लेकिन फिर गाडी गर्म हो गई। गाडी को ठण्डा करके करीब दस किमी आगे बढे तो साइलेंसर खुल गया। बीच रास्ते में फिर गाडी खडी करके ठण्डी कर रहे थे कि जे एण्ड के पुलिस का वाहन नजर आया। उसमें एएसआई स्तर का एक अधिकारी मौजूद था। उससे बात करके कमलेश और घोटीकर को कटरा रवाना किया,क्योङ्क्षक वहां से वेष्णो देवी के टिकट हासिल करने थे। दोनों को रवाना करने के बाद हम लोग करीब दस बजे कटरा पंहुचे। कटरा में मन्दसौर के कई लोग आशुतोष को मिल गए। वे जिस होटल में ठहरे थे,वहीं हम भी ठहर गए। कटरा अब काफी बदल गया है,और वहां टूरिज्म का पूरा प्रभाव पड गया है। बडी बडी होटलें खुल गई हैं।  रात करीब बारह बजे कटरा से वैष्णो देवी चढना शुरु किया। राजू बहुत जल्दी थक गया। राजू का साथ देते हुए मै और नवाल धीरे धीरे आगे चले और सुबह करीब 9.30 पर वापस लौटे। लगातार चौबीस घण्टे तक बिना रुके चलते रहने की थकान अब हावी हो रही थी।
 कटरा से वैष्णोदेवी मंदिर का 11 किमी का आधा रास्ता बेहद अच्छा कटा। वो कोई पठानकोट की सुमन थी जो ेक भारी बैग लेकर चल रही थी। उसकी मदद करते हुए मैं मन्दिर तक पंहुचा। अच्छा टाइमपास हुआ,लेकिन न वो मेरा पता ले पाई और न मै उसका।
 वापस कटरा लौटने के बाद करीब दस साढे दस बजे सोए और करीब डेढ बजे वापस उठ गए। गाडी में इंजिन आयल भी डालना था। गाडी को ठीक करा कर करीब साढे तीन बजे वहां से चले तो जम्मू होते हुए पठानकोट से 20 किमी पहले यहां कथुआ में फारेस्ट रेस्ट हाउस पर रुके। थकान बेहद ज्यादा थी। नहा कर भोजन किया और शानदार नींद निकाली। अब आज अमृतसर में स्वर्ण मन्दिर और बाघा चौकी देखकर रतलाम की तरफ निकलना है।
24  सितम्बर 2000  रावतसर(राजस्थान)
कथुआ से सुबह करीब साढे नौ बजे अमृतसर के लिए निकले। अमृतसर यहां से करीब डेढ सौ किमी है। लेकिन हमें बीच में नाश्ता करने में थोडी देर हुई और करीब तीन बजे हम अमृतसर पंहुचे। स्वर्णमन्दिर का रास्ता पूछते पूछते जब वहां पंहुचे तो रास्ते में ही जलियांवाला बाग पर भी नजर पडी। स्वर्ण मन्दिर में दर्शन करके लंगर की तलाश की और वहां भोजन किया। भूख नहीं थी,लेकिन स्वर्ण मन्दिर के लंगर में भोजन करना अपने आप में बडी घटना है।
स्वर्ण मन्दिर में सोने से बेहद खुबसूरत नक्काशी की गई है। मुख्यमन्दिर तीन मंजिला है और उसकी उपरी मंजिल तक सोने का महीन व सुन्दर काम किया गया है।
स्वर्ण मन्दिर से निपट कर जलियांवाला बाग पैदल ही पंहुचे। ये जगह किसी जलियावाला सेठ की थी,जिसे काण्ड के बाद चंदा एकत्रित करके 5 लाख 75 हजार में खरीदा गया और राष्ट्रीय स्मारक बनाया गया। जलियांवाला काण्ड  और उधमसिंह की बातें करते हुए हम लौटे और गाडी में सवार होकर अटारी के लिए रवाना हो गए।
अटारी अमृतसर से 26  किमी है। यहां स्थित बाघा चौकी के दूसरी ओर पाकिस्तान है। हर दिन शाम को यहां राष्ट्रीय ध्वज उतारने के वक्त उत्सव जैसा माहौल होता है। क्योङ्क्षक भारत और पाक के ध्वज एकसाथ उतारे जाते है। पन्द्रह मिनट का यह कार्यक्रम अत्यन्त रोमांचक होता है। जब दोनो ओर से इंच दर इंच एक जैसी कार्रवाई की जाती है।
बाघा चौकी के परेड इंचार्ज सिंह से बात करके हम वीआईपी गैलरी में पंहुचे और नजदीक से बाघा चौकी का नजारा देखा। इस वक्त भी यहां हजार से अधिक दर्शक मौजूद थे। बाघा चौकी अब अन्तर्राष्र्टिय सीमा के साथ साथ टूरिस्ट प्लेस भी बनता जा रहा है और इसे नियोजित तरीके से टूरिस्ट प्लेस बनाया जा रहा है।
बाघा चौकी की परेड देखने में शाम के सात बज गए। अटारी से पहले अमृतसर लौटने का इरादा था,लेकिन वहीं से सीमा के साथ साथ चलता हुआ एक रास्ता मिल गया,जिससे हम तरन तारन आ गए। तरन तारन से बाहर एक ढबे पर पंहुचकर उससे बात की और रात उसी ढाबे पर गुजारी।
ढाबे की चारपाईयों पर नींद निकालने के बाद अगली सुबह जल्दी करीब साढे आठ बजे हम राजस्थान के लिए रवाना हुए। हमारी योजना थी कि हम किसी भी हालत में शाम तक पंजाब छोड देंगे और यही हुआ।
ठीक साढे चार बजे हम लोग मुक्तसर बलौद होते हुए राजस्थान के हनुमानगढ जिले में प्रविष्ठ हुए। राजस्थान में घुसने के बाद कुछ ही किलोमीटर चले थे कि हनुमान जी का एक विशाल मन्दिर आ गया। वहां रुक कर दर्शन किए। अब ऐसा लग रहा था कि जैसे हम फिर से घर में हो। दूसरे प्रदेश घूमने के बाद राजस्थान में आना बडा फैमेलियर लगता है। शाम करीब 5.30 पर हम हनुमानगढ जिला मुख्यालय पंहुचे और यहां से अजमेर के रास्ते पर निकले। यह रास्ता बेहद खराब और गाडी की सेहत के लिए खतरनाक था। हम रुकना भी चाहते थे,लेकिन इसके लिए कम से कम 38  किमी चलना था।
 हरे भरे पहाड,और उसके बाद पंजाब के लहलहाते खेत और अनाज के बडे बडे गोदामों के बाद अब सड़क के दोनो ओर  बालूरेत नजर आ रही थी।
रेगिस्तान का यस सफर रावतसर नामक गांव तक चलता रहा। रावतसर में पीडब्ल्यूडी के निरीक्षण गृह का बोर्डनजर आया। हम गाडी गांव के भीतर ले गए और रेस्ट हाउस पर पंहुच गए। रावतसर टप्पा तहसील है,यहां तहसीलदार बैठता है। हमने उसे ढूंढना शुरु किया। लेकिन तहसीलदार की बजाय पुलिस थाने के एसएचओ साहब से मुलाकात हो गई। एसएचओ साहब बडे ही सहयोगी किस्म के निकले। बुजुर्ग एसएचओ फौज से पुलिस में आए थे। उन्होने रेस्ट हाउस में ठहराने के साथ ही एक कान्स्टेबल को हमारे साथ किया जो होटल पर भोजन कराने तक साथ रहा। एसएचओ साहब यह भी कह गए थे कि सुबह वे हमें स्थानीय पत्रकारों से मिलवाएंगे। अब हम लगभग तैयार है और आज किसी भी हालत में अबोहर पंहुचने वाले है,जो यहां सेे 375 किमी है।
26 सितम्बर 2000  रतलाम
ऐसा पहली बार हो रहा है कि यात्रा की डायरी घर पर लिखी हो,लेकिन पिछली बार के अधूरेपन से सबक लेकर इस बार रात दो बजे मिलने जुलने के बाद डायरी लिख रहा हूं।
रावतसर से सुबह निकलने के बाद रात साढे तीन बजे तक लगातार गाडी चलाई। बीच में कमलेश ने सालासर बालाजी होकर निकलने का प्रस्ताव रखा,और सब लोग तैयार हो गई। लेकिन सालासर बालाजी का रास्ता बेहद खराब था। पूरा दिन लगभग सालासर बालाजी के नाम हो गया। जबकि योजना रात तक अजमेर पंहुचने की थी। अजमेर अभी भी दूर था। आखिरकार अजमेर पुष्कर छोडकर एक दूसरे रास्ते से सीधे नसीराबाद होते हुए भीलवाडा,चित्तौडगढ पंहुचने की योजना बनाई।  नसीराबाद रात साढे चार बजे पार हुआ। लेकिन तब तक मेरी आंखों पर पूरा भारीपन छा गया था। सुबह छ: बजे गाडी में सोते हुए कमलेश को उठाकर गाडी चलवाई और मै सो गया।
दोपहर ग्यारह बजे एक ढाबे पर नित्यकर्म से निवृत्त होकर हम फिर आगे बढे लेकिन गाडी के साइलेंसर और ड्रम की वजह से हमें रुकना पडा। काफी देर हो गई और निर्धारित समय से करीब साढे तीन घण्टे की देरी से हम शाम 7.30  पर गांधी सागर पंहुचे। सुनील और लोणकर वहां आए थे,लेकिन हमारी देरी की वजह से लौट चुके थे।
गांधीसागर में विद्युत मण्डल के रेस्टहाउस में रुकने के बाद सुबह ग्यारह बजे वहां से चले। रास्ते में गाडी का आयल चेम्बर जो कि फट गया था,ठीक करवाया और आखिरकार रात 8.45 पर हमारी गाडी रतलाम पंहुच पाई। अब एक महीने के अंतराल में रतलाम में क्या बदलाव आया है? यह देखना है।
 इति।

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