Saturday, June 20, 2015

यात्रा वृत्तान्त-10 गंगा की गोद में ( यमनोत्री यात्रा)

गोवा यात्रा से लौटने के मात्र एक महीने बाद ही ऐसे योग बने कि उत्तरांचल तक की लम्बी यात्रा का मौका हाथ लग गया। इस यात्रा में हम अपने ही वाहन से यमनौत्री तक गए। चारो धाम पंहुचने का इरादा था,लेकिन गंगौत्री के रास्ते में ही बर्फ थी और रास्ता बन्द था। फिर कार्यक्रम बदला और  ऋ षिकेश में गंगा नदी में रिवर राफ्टिंग का अनुभव लिया। रिवर राफ्टिंग के दौरान लहरों की चपेट में आकर नदी में गिरा और जैसे मौत को सामने देख लिया।

7 मार्च 2010(रात 1.15)
पीडब्ल्यूडी रेस्ट हाउस - चित्तौडगढ

ये यात्रा बेहद अचानक शुरु हुई। यात्रा रतलाम से शुरु होकर नई दिल्ली,चण्डीगढ,हरिद्वार, ऋ षिकेश, और इससे आगे जहां तक हो सकती है,करने का इरादा है।
दोपहर साढे चार बजे मां कालिका के दर्शन कर रतलाम से निकले तो सवा छ: बजे मन्दसौर में आशुतोष से मिले। 7 बजे वहां से चले तो नीमच में सुभाष ओझा से मिले। 7 बजे वहां से निकले तो याद आया कि मोबाइल वहीं भूल गए हैं। मोबाइल लेने लौटे। रात 10.25 पर चित्तौडगढ पंहुचे।
नीमच डीएम डॉ.संजय गोयल के कारण चित्तौड में रेस्टहाउस बुक हो गया था। यहां पंहुचकर खाना खाया। चित्तौडगढ का किला,बचपन में देखा था। बरसों से किला देखने की चाह थी,समय उपलब्ध नहीं था। रात बारह बजे किले में गाडी लेकर गए। किले के भीतर एक चक्कर गाडी से लगाया। विजय स्तंभ को नजदीक से देखा और रात पौने एक बजे रेस्ट हाउस लौटे।
 कल शाम तक दिल्ली पंहुचने की उम्मीद है।
8 मार्च 2010 (सुबह 7.45)
चित्तौडगढ

चित्तौड के पीडब्ल्यूडी रेस्टहाउस से अब निकलने की तैयारी में है। ये यात्रा अचानक ही तय हो गई। नाना की मारुति 800 चण्डीगढ पंहुचानी है। अचानक बातचीत में यह सुझाव टोनी की तरफ से आया कि हम दिल्ली से उसके भाई की गाडी लेकर हरिद्वार ऋ षिकेश तक जा सकते है। यह बातचीत 4-5 दिन पहले हुई थी। साथ चलने वाले फौरन तैयार हो गए। खर्चे का हिसाब लगाया। तब भी सब राजी थे। आखिरकार कल निकल पडे। आज दिल्ली तक पंहुचने का इरादा है।
9 मार्च 2010 (सुबह 7.30)
नईदिल्ली

कल,चित्तौडगढ से सुबह नौ बजे निकले। कुछ दूर निकलकर एक ढाबे पर आलू पराढे का भारी नाश्ता किया और जयपुर के लिए निकल पडे। 300 किमी का यह सफर दोपहर करीब ढाई बजे खत्म हुआ। जयपुर में भारत की एक मुंहबोली बहन के घर पंहुचना था। घर रास्ते में ही था,लेकिन इसे ढूंढने में करीब एक घण्टा लगा। यहां करीब आधा घण्टा रुक कर भारत के ससुराल पंहुचे। वहां से निकलते निकलते शाम की पांच बज गई। जयपुर शहर को पार करने में हमे करीब 1 घण्टा लगा। अब हमे रात तक दिल्ली पंहुचना था और यह दूरी 260 किमी थी। जयपुर से करीब सौ किमी चलने के बाद कोठपुतली नामक स्थान पर वाहनों का भारी जाम लगा था। इस जाम से जूझते हुए जब आगे बढे तो राजस्थान पुलिस के कुछ कर्मचारियों ने गुजरात की नम्बर प्लेट देखकर चैकींग शुरु कर दी। ये एक छोटी से भिडन्त थी। पुलिसियों को उम्मीद थी कि वे हमसे कुछ रुपए झटक पाएंगे,लेकिन ऐसा नहीं हो पाया। हमे भी इस बात से सुकून मिला कि पुलिस से भिडन्त का टोटका भी हो ही गया। कोठपुतली से कुछ आगे बढकर सांध्यकालीन नित्यकर्म से निवृत्त हुए। वहीं विचार हुआ कि भोजन कर ही लिया जाए। तब तक रात के नौ बज चुके थे। दूरी अब मात्र 150 किमी बची थी,लेकिन फोरलन पर यातायात का जबर्दस्त दबाव था। इस भारी ट्रैफिक के चलते हुए रात बारह बजे दिल्ली पंहुचे। टोनी के भाई ( सुमित अग्रवाल) का घर ढूंढने में थोडा भटके और आखिरकार रात करीब डेढ बजे यहां पंहुचे। महानगरों में रात को पंहुचना तब बेहद दुखदायी हो जाता है जब ठहरने की व्यवस्था पहले से तय ना हो। गनीमत यह भी थी कि टोनी के भाई का फ्लैट पर्याप्त बडा था और हाल में हम पांचों सौ गए। योजना यह थी कि सुबह जल्दी उठकर निकला जाए,लेकिन यह संभव नहीं हो पाया। सबसे पहले सुबह सात बजे मैं उठपाया,बाकी के लोग बाद में उठे। इस हिसाब से यहंा से निकलने में नौ बज ही जाएंगे। अभी दिल्ली शहर पार करना है। ट्रैफिक के कारण यह बडी चुनौती है। देखते है कब निकल पाते है?
10 मार्च 2010 (सुबह 6.00 बजे)
माजरा (हिमाचल प्रदेश)

कल सुबह हम पर दिल्ली के ट्रैफिक का डर सवार था। साढे नौ बजे जब दिल्ली में घर से निकले तो दिल्ली के डरावने ट्रैफिक की झलक जरुर मिली,लेकिन बाद में अपेक्षाकृत आसानी से दिल्ली शहर से बाहर निकल गए। दिल्ली के ट्रैफिक से डरावनी यादें जुडी है। पिछली हिमाचल-लेह यात्रा में दिल्ली में ही कमलेश का मुंह जल गया था। खैर इस बार बिना जाम में फंसे दिल्ली शहर को पार कर लिया। इसमें करीब डेढ घण्टा लगा। दोपहर साढे ग्यारह बजे दिल्ली से बाहर निकल कर चण्डीगढ हाई-वे के रसोई ढाबा में भोजन किया और बडे आराम से डेरा बस्सी के लिए रवाना हुए। अब हम दो गाडियों में थे। नाना (नारायण कोठारी) की मारुति में मै और नरेन्द्र,बाकी तीनो दूसरी गाडी में। हम करीब चार बजे डेरा बस्सी पंहुचे। नाना वहां बसस्टैण्ड पर इंतजार कर रहा था। वहां से नाना के घर पंहुचे। करीब एक घण्टा वहां रुके और स्टेट वे पकड कर हिमाचल के पहले गांव काला अम्ब होते हुए नाहन पंहुचे। पिछली बार भी काला अम्ब से नाहन पंहुचे थे और वहां से शिमला गए थे। इस बार नाहन से दूसरी तरफ का रास्ता पकड कर पोंटा साहिब होते हुए यमनौत्री गंगोत्री जाने की योजना है। पहले,रतलाम में सोचा था कि चण्डीगढ से हरिद्वार जाएंगे,लेकिन यहां आने के बाद नक्शा देखा तो लगा कि पहले गंगौत्री यमनौत्री जाया जाए और बाद में लौटते वक्त हरिद्वार जाया जाए। कल शाम नाहन से निकलते निकलते अंधेरा घिरने लगा था। रास्ते में माजरा गांव आया तो सभी ने एक मत से यहीं ठहर जाने का मत प्रकट किया। यहां सिंचाई विभाग का डाकबंगला भी मिल गया और आसानी से कमरे भी मिल गए। रात को तय हुआ कि सुबह 7 बजे ही यहां से रवाना हुआ जाए। मै सुबह साढे पांच बजे उठ गया था। अब सारे लोग उठ तुके है और यहां से निकलने की तैयारी में है।
10 मार्च 2010 (रात 10.00)
फारेस्ट रेस्ट हाउस ( जानकीचट्टी)

आमतौर पर यात्रा के दौरान मै दो बार डायरी कभी नहीं लिखता। लेकिन ये पहला मौका है जब एक ही दिन में डायरी से जुडने की इच्छा हो गई। यमनौत्री से मात्र 5 किमी की दूरी पर जानकीचट्टी के एफआरएच में कडाके की ठण्ड से ठिठुरते हुए लिख रहा हूं।
जैसा कि बीती रात तय किया था,जल्दी उठेंगे और जल्दी निकलेंगे। हम लोग सुबह साढे सात बजे निकल पडे। करीब सवा आठ साढे आठ बजे पांवटा साहिब पंहुच गए। ये बहुत बडा शहर था। टोनी को इन्टरनेट की जरुरत थी। जब वहां पंहुचे तो ध्यान में आया कि ये जगह जरुर सिखो का कोई बडा स्थान है। शहर में घुसे और पांवटा साहिब गुरुद्वारे पंहुच गए। वहां जाकर पता लगा कि यह सिखों का  बडा तीर्थस्थल है। इस शहर की स्थापना गुरु गोविन्द सिंह जी ने की थी और यहीं औरंगजेब की सेना से निर्णायक युध्द भी लडा था। गुरु गोविन्द सिंह जी यहां करीब तीन साल रुके थे। इस गुरुद्वारे में गुरु ने उल्लेखनीय कार्य किए।
गुरु साहिब की कृपा थी कि यहां हमारी बडी समस्या दूर हो गई। गुरुद्वारे के लंगर में राजमे की सब्जी,प्रसादा(रोटी) और चाय सुबह सवेरे भरपेट खा ली। इसी जगह इन्टरनेट की तलाश के चलते मैने ,नरेन्द्र,और राजेश ने इनर काट्सवुल खरीद लिए। माजरा की रात और सुबह ने ये अंदाजा दे दिया था कि आगे ऊं चाई पर अच्छी ठण्ड मिल सकती है। इनर खरीदने का मेरा फैसला,यमनौत्री के आधे रास्ते में ही सही साबित होने लगा। हवा ठण्डी होने लगी।
पांवटा साहिब से जब यमनौैत्री की दूरी देखी तो वह महज 160 किमी के करीब थी। और कोई जगह होती तो यह दूरी तीन घण्टे में तय हो जाती। जब पांवटा साहिब से आगे बढे तब यह समझ में आया कि हिमालय की वास्तविक यात्रा तो अब शुरु हुई है। एक दिन में दो बार डायरी लिखने का कारण भी यही है। चलते चलते बडगाम (बडकोट) पंहुचे। यहां फारेस्ट का चैकपोस्ट देखकर अंदाजा हुआ कि इस ईलाके में फारेस्ट का जोर है। यहां डीएफओ आफिस पंहुचे और एडीएफओ मनोज शर्मा से मुलाकात हुई। उन्होने यमनौत्री से महज पांच किमी दूर जानकीचट्टी के एफआरएच में ठहरने के लिए बाकायदा परमिट बनाकर दिया। अब हम बेहद निश्चिंत थे। शाम करीब साढे चार बजे हम वहां से निकले और रास्ते के पहाडी नजारों को देखते फोटो खींचते शाम सवा सात पर जानकी चट्टी पंहुच गए।
रास्ते में ही ठण्ड बढ गई थी। मैने नया खरीदा हुआ इनर पहन लिया था। जब जानकीचट्टी में गाडी से बाहर निकले तो ठण्ड ने अपना एहसास करया। अभी रात के साढे दस बजे है। आधी रात के बाद जैसा माहौल हो चुका है। ठण्ड कहर ढा रही है। हाथ पांव ठण्डे हो चुके है। मेरे सारे साथी ठण्ड से घबरा कर रजाई में दुबक चुके है। यही कारण है कि मुझे डायरी से जुडने की इच्छा हो गई। मैं हिमालय में पहले दो बार आ चुका हूं। काश्मीर और हिमाचल के अलावा लद्दाख (लेह) तक जा चुका हूं। लेकिन यहां का नजारा अद्भुत है। नजर जाती है बर्फ से ढंके पहाडों पर। ठण्ड,बर्फ का बर्फीला एहसास दे रही है। लोग बता रहे है कि यमनौत्रा पर चारो ओर बर्फ ही मिलेगी। मन्दिर अभी बन्द है। अपने को भी मंदिर से ज्यादा रुचिइस इलाके से है। सुबह यमनौत्री जाने का इरादा है। ठण्ड कितनी बजे जाने की इजाजत देती है,यह सुबह ही पता चलेगा।
इस अद्भुत माहौल में वैदेेही,चिन्तन और आई से भी बात की। आशुतोष को भी फोन लगाया। सब को बताया कि यहां कैसा माहौल है।
11 मार्च 2010(रात 11.00)
ब्रह्मखाल

रात ग्यारह बजे ब्रम्हखाल के एख होटल में बैठ कर मैं सुबह से अब तक के सारे घटनाक्रम को याद कर रहा हूं। कल रात सोते वक्त ठण्ड का जोर देखकर मुझे उम्मीद थी कि सुबह जल्दी कोई नहीं जाग पाएघा। लेकिन आज भारत और घोटीकर सुबह साढे पांच पर ही उठ गए। छ: बजे मै भी उठ गया। कडाके की ठण्ड का मजा लेते हुए हम लोग साढे सात तक तैयार हो गए। लक्ष्य यमनौत्री की चढाई चढ कर लौटने का था। भारत और घोटीकर तो सुबह साढे सात पर रवाना हो गए। 15 मिनट बाद हम भी तैयार थे,लेकिन पहले पेटपूजा की इच्छा थी। इसलिए दो पैकेट मैगी उबलवाकर खाई। चाय पी और हम भी रवाना हुए।
5 किमी की चढाई,बेहद ज्यादा थका देने वाली है। आगे बढने पर स्वार्गिक दृश्य दिखाई दिए। बर्फ से ढंके पहाड,लम्बे पेड,गहरी खाई। ईश्वर यहां साकार हो जाता है। बहरहाल साढे ग्यारह पर यमनौत्री पंहुचे तो पता चला कि यहां प्राकृतिक रुप से गर्म पानी का कुण्ड है। सबसे पहले तो इसी कुण्ड में उतरने की इच्छा हुई और मै फौरन कुण्ड में उतर पडा। कुण्ड के गर्म पानी में शानदार स्नान के बाद सूर्य कुण्ड के पानी में प्रसाद के चावल पकाए गए। कहते है कि
ऋ षि जैमिनी की तपस्या के फलस्वरुप जमुना(यमुना) पृथ्वी पर आई। जब यमनौत्री में यमुना जी आई तो ऋ षि जैमिनी ने भगवान से कहा कि इस ठण्डी जगह पर कोई कैसे आएगा? तब सूर्यदेव की कृपा से गर्म जल की धारा आई। ये खौलता हुआ पानी सदियों से तेज आवाज के साथ आ रहा है। यहां मन्दिर में अभी यमुना जी की मूर्ति नहीं है। मन्दिर के पट बन्द है। यहां पर बाबा रामभरोसे रहते है। वे 1967 से यहीं है। रामजानकी हनुमान मन्दिर में उनका निवासी है। जैसे ही उनसे मिले,उन्होने चाय पिलाई और भोजन का पूछा।  हमने चाय पी और राजमा,दाल रोटी और फरियाली चावल का भोजन किया। हमारे पंहुचने के कुछ ही देर बाद चैकोस्लोवाकिया की मारिया और कैटरिना भी वहां पंहुच गई थी। उनको टोनी और राजेश ने यमनौत्री के बारे में जानकारियां दी। उन्होने भी हमारे साथ ही भोजन किया। मन्दिर पर रहने वाले सेवक के लडके को बडकोट जाना था। हमने उसे साथ ले जाने की बात कही तो वह कुश हो गया। मन्दिर पर ही पप्पू भाई भी मिला। नेपाली मूल का पप्पू भाई सीजन में दुकानें लगवाता है। ठेकेदारी करता है। पप्पू भाई भी हमारे साथ ही नीचे उतरा। हम सवा ती तक नीचे पंहुचे। और सवा चार बजे हम जानकी चट्टी से निकल पडे। जानकी चट्टी से बडकोट की दूरी 46 किमी है। जाने में हमें दो घण्टे थे,लेकिन आते समय हम महज सवा घण्टे में बडकोट आ गए। बडकोट से उत्तरकाशी (88 किमी) होते हुए हमे गंगौत्री के लिए निकलना था। बडकोट से चले तो करीब 44 किमी चल कर ब्रम्हखाल नामक इस स्थान पर जीत पैलेस नामक होटल में रुके। अभी सुबह के साढे छ: बजे है। एक घण्टे में यहां से निकल जाएंगे।
12 मार्च 2010 (रात साढे दस)
फारेस्ट रेस्ट हाउस, चम्बा

सुबह पौने नौ बजे ब्रम्हखाल से उत्तरकाशी के लिए रवाना हुए। वहां से गंगौत्री जाने की योजना थी। ब्रम्हखाल से उत्तरकाशी 46 किमी दूरी पर है और वहां से गंगौत्री सौ किमी। उम्मीद थी कि रात तक गंगौत्री पंहुच जाएंगे। पहली गडबड उत्तरकाशी पंहुचने पर हुई,जब भारत अपनी दीदी के ममिया ससुर से मिलने के चक्कर में एक घण्टा घूमता रहा। इस चक्कर में पूरे दो घण्टे बरबाद हुए। इसी बात को लेकर वह घोटीकर से मारपीट पर उतर आया। बाद में सैटल हो गया। वहीं डीएफओ डॉ.आईके सिंह ने जानकारी दी कि गंगौत्री का रास्ता ही बन्द है। यह फैसला लिया कि ऋ षिकेश की तरफ बढा जाए।
ऋ षिकेश उत्तरकाशी से 160 किमी है। सौ किमी की दूरी पर पहाड पर सबसे ज्यादा
ऊं चाई पर बसा चम्बा गांव आया। हम करीब शाम साढे चार बजे चम्बा पंहुचे थे। यहां से ऋ षिकेश मात्र 60 किमी है। हम दो घण्टे में वहां पंहुच सकते थे,लेकिन मेरे मन में विचार आया कि यहीं ठहरा ठीक होगा। चर्चाएं हुई तो जागरण के पत्रकार ने बताया कि आप टिहरी बान्ध जरुर देखें।  करीब आधा घण्टा फारेस्ट रेस्ट हाउस सैट करने में लगा। शाम छ बजे टिहरी बांध के लिए रवाना हुए। शाम छ: बजे वापस चम्बा लौटे। वापसी पर रिवर राफ्टिंग की ठोस जानकारी भी मिल गई। कल सुबह यहां से निकलेंगे तो दोपहर के पहले ऋ षिकेश पंहुच जाएंगे। रिवर राफ्टिंग की योजना साकार होती नजर आ रही है। कल देखें क्या होता है?
ऋ षिकेश 13 मार्च 2010
(एफआरएच मुनि की रेती)

चम्बा से सुबह सवा आठ बजे निकले तो साढे दस बजे ऋ षिकेश पंहुच गए। यहां आते ही पेटपूजा की और सबसे पहले लक्ष्मण झूले के नजदीक जाकर गंगा मैया के किनारे जाकर गंगा जी को स्पर्श किया। फिर उपर आए ,लक्ष्मण झूला पार कर इधर-उधर भटके। ऋ षिकेश में मंदिरों और आश्रमों की भरमार है। हमारा ध्यान राफ्टिंग पर था।  दोपहर एक बजे के करीब हमने एक एजेंसी पर रिवर राफ्टिंग का प्लान तय किया। 18 किमी की रिवर राफ्टिंग का शुल्क प्रति व्यक्ति चार सौ रुपए था। डेढ बजे के करीब हम उसी एजेंसी की गाडी से 16 किमी दूर ऋ षिकेश से पीछे वीरपूर नामक जगह पर पंहुचे। राफ्टिंग के गाइड हरि नेगी ने हमे बताया कि राफ्टिंग कैसे करनी है और उसके आदेश कैसे मानने है। करीब सवा दो बजे लाइफ जैकेट और हैलमेट बांध कर हम राफ्ट में सवार हुए। इस 16 किमी की राफ्टिंग में करीब नौ रैपिड पडते है। रैपिड उस स्थान को कहते हैं जहां गंगा ऊं चाई से एकदम नीचे जाती है। यहां लहरें विकराल होती है और बहाव खतरनाक स्तर का तेज। राफ्टिंग शुरु हुई और पहला रैपिड तो आसानी से पार हो गया। मै और भारत राफ्ट में सबसे आगे थे और लीड कर रहे थे। दूसरा रैपिड पहले से कहीं ज्यादा खतरनाक था। राफ्ट जब रैपिड से गुजरती है ,लहरों पर जबर्दस्त हिचकोले खाती है और राफ्ट से गिरने का जबर्दस्त खतरा होता है। दूसरे रैपिड पर मेरे पैर कब उखड गए मै समझ नहीं पाया और राफ्ट से नीचे जा गिरा। अब मै गंगा की तेज लहरों में था। कब मेरे हाथ की पतवार छूटी और कब पैर से चप्पले निकली मै समझ ही नहीं पाया। मुझे यह भी ध्यान नहीं आया कि लाईफ जैकेट बन्धी है। हंालाकि कुछ ही क्षणों में मै थोडा व्यवस्थित हुआ और थपेडों से बचने के लिए हाथ पांव मारने लगा। हांलाकि इस दौरान मुझे कोई घबराहट नहीं हो रही थी,क्योंकि लाईफ जैकेट का सहारा मिल रहा था। कुछ मिनटों के बाद मुझे ध्यान आ गया कि हाथ पांर मारने की कोई जरुरत नहीं है। मैने लाइफ जैकेट पहनी हुई है। इसी बीच सिर पर लगी हैलमेट मेरी आंखों पर आ गई। बडी मुश्किल से उसे मैने व्यवस्थित किया। रैपिड का इलाका गुजरता जा रहा था। कितनी देर मै इस झंझावात में रहा मुझे अंदाजा नहीं। मैने इस दौरान राफ्ट में बैठे मेरे साथियों को बताया कि घबराने की कोई बात नहीं है। हांलाकि मेरे राफ्ट से गिरते ही राफ्ट में बैठा एक गाइड भी मेरे पीछे कूद गया था,लेकिन मुझे उसकी मदद की जरुरत नहीं थी। रैपिड गुजरने के बाद गाइड ने एक पतवार लम्बी की,जिसे पकडकर मैं वापस राफ्ट पर आया। मेरी सांसे उखड गई थी। उसे काबू में करने में दस पन्द्रह मिनट लगे। तभी एक स्थान आ गया था,जहां रेस्ट किया जाता है। वहां हम रुके। कुछ समय आराम किया और राफ्टिंग शुरु कर दी। इसके बाद जितने भी रैपिड आए मुझे कोई दिक्कत नहीं आई। क्योङ्क्षक अब मुझे राफ्ट में टिककर बैठना आ गया था। लक्ष्मण झूला नजदीक आ रहा था। आकरी रैपिड पर गाइड ने सबको कहा कि जिसको बहाव में तैरना है वह कूद जाए। सबसे पहले हमारे साथ चल रही अमरीकी युवती कोरी गंगा में कूदी। उसके पीछे नरेन्द्र,फिर टोनी,और भारत कूदे। रैपिड काफी कुछ गुजर गया था। पीछे से मै फिर गंगा में कूद गया। पानी बेहद ठण्डा था। थोडी ही देर में मैने राफ्ट में वापस आने के लिए आवाज लगाई और राफ्ट में वापस आ गया। अब हमको लक्ष्मण झूला नजर आ रहा था। करीब डेढ घण्टा हम राफ्ट में रहे। लक्ष्मण झूला से जब गंगा से बाहर आए तो हर कोई बेहद थका हुआ और भूखा था। एक हाथ ठेले वाले होटल पर हमने दाल चावल सब्जी रोटी का भोजन किया। फिर गंगा को बाटलों में भरा। अब एक नई योजना हमारे सामने थी। यहां से 25 किमी दूर राजाजी नेशनल पार्क देखने की। हम सुबह जल्दी छ: बजे यहां से निकलेंगे।
14-03-2010
रात एक बजे (ट्रेन में)

बीती रात,रात गुजारने की जद्दोजहद में रात के साढे नौ बज गए थे। पहले राजाजी नेशनल पार्क देखने के लिए वहीं जाकर रुकने की कोशिश की,लेकिन सफल नहीं हो पाए। लौटकर ऋ षिकेश आए। ऋ षिकेश भी अनोखी जगह है। नदी के इस पार देहरादून जिला है,तो दूसरी तरफ टिहरी जिला। वन विभाग का विश्राम गृहटिहरी जिले की सीमा में मुनि की रेती में है। हम वहां पंहुचे। शाम को एक हाथी ने एक आदमी को मार डाला था। इस वजह से वन विभाग के लोग तनाव में थे।इस इलाके के आर ओ श्री सुमन से मुलाकात हुई। विश्रामगृह के तीन में से दो कमरे भरे हुए थे। उन्होने एक रुम में हमारे रुकने की व्यवस्था करवाई।  सुबह साढे पांच बजे उठकर सात बजे हम राजाजी नेशनल पार्क के लिए रवाना हुए। यहां से नेशनल पार्क करीब 25 किमी दूर है। हम चीला रेंज से पार्क में घुसे। अपनी कार छोडकर हमने वहां की जीप आठ सौ रुपए में ली। करीब तीन घण्टे इस बेहद बियाबान और घने जंगल में घूमे। यहां हमे शेर और हाथी तो देखने को नहीं मिले,लेकिन हिरण,चीतल,बारहसिंगा,सुअर,मोर आदि वन्य प्राणी बडी तादाद में दिखाई दिए। भारत और राजेश ने जी भर के फोटोग्राफी की। करीब सवा ग्यारह बजे हम बाहर आ गए। यहां से हरिद्वार मात्र दस किमी दूर था। हम हरिद्वार पंहुच गए। भूख भी जोरदार लगी थी। हरिद्वार में भारत माता मन्दिर देखने की बडी इच्छा थी,लेकिन हरिद्वार में कुंभ मेला चल रहा है। हम थोडे भीतर तो गए,लेकिन जल्दी ही समझ में आ गया कि यहां घुसना बेकार है। फौरन ही सबने फैसला किया कि दिल्ली चला जाए। रास्ते में एक ढाबे पर खाने को महज राजमा और दाल मिले। भूख जोर की लगी थी। राजमा,दाल और रोटी से पेटपूजा की और दिल्ली की राह पकड ली। अब,सब लोग,आज ही रतलाम लौटने को राजी थे। हमने टिकट पन्द्रह मार्च की रात का कराया था। यह टिकट निरस्त नहीं करा पाए है। रतलाम के टीसी मोहन जोशी की मदद से बैठने की जगह मिल गई है। ट्रेन में यात्रा की यादें ताजी की गई। इस यात्रा में हमने सिख तीर्थस्थल पांवटा साहिब,यमुनौत्री,रिवर राफ्टिंग,राजाजी नेशनल पार्क और ऋ षिकेश तो देखा ही,उत्तराखण्ड की पहाडियों में बसे चम्बा जैसे कई शहर और गांव भी देखे। सुबह हम रतलाम में होंगे। जिन्दगी फिर रुटीन के ट्रेक पर चलेगी। देखें अगली यात्रा कब और कहां हो पाती है?

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