-तुषार कोठारी
क्या सचमुच देश में आपातकाल वाली स्थितियां बन सकती है? भाजपा के
वयोवृध्द नेता लालकृष्ण आडवाणी के साक्षात्कार से उठे भूचाल के बाद ये सवाल
सिर उठाने लगा है। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल को जरुर
आपातकाल महसूस हो रहा था। अपनी असफलताओं को छुपाने के लिए उन्हे केन्द्र
सरकार पर ठीकरा फोडने के अलावा दूसरा कोई रास्ता नजर नहीं आ रहा है,लेकिन
इसी तरह की बात अगर आडवाणी कहते है,तो इसके मायने बदल जाते है।ये पहला मौका नहीं है,जब श्री आडवाणी ने कुटिलता भरी बयानबाजी की है। लोकसभा चुनाव से पहले जब नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किए जाने की जद्दोजहद चल रही थी,तभी से आडवाणी जी येन केन प्रकारेण अपनी नाराजगी का प्रदर्शन करते रहे हैं। ये अलग बात है कि उनकी नाराजगी के इस तरह के प्रदर्शन से अब आम लोगों में उनके प्रति सहानुभूति की बजाय चिढ अधिक उपजती है। एक सामान्य व्यक्ति भी इस बात को बडे साफ तौर से समझ रहा था,कि यदि लोकसभा चुनाव नरेन्द्र मोदी की बजाय आडवाणी जी के नेतृत्व में लडे जाते तो भाजपा का स्पष्ट बहुमत का सपना सपना ही रह जाने वाला था। नरेन्द्र मोदी के रुप में आम मतदाता को उम्मीद की एक नई किरण नजर आई थी और यही वजह थी कि भाजपा अपने बलबूते स्पष्ट बहुमत ला पाई। नरेन्द्र मोदी की उम्मीदवारी से लगाकर प्रधानमंत्री बनने के बाद शपथ लेने तक उन्हे आडवाणी जी के अप्रत्यक्ष हमले झेलने पडे है। आडवाणी जी का रवैया अब भी बरकरार है।
यह सही है कि जिस व्यक्ति को लम्बे समय तक पीएम इन वेटिंग माना गया हो,अंतिम वक्त पर देश के सर्वोच्च पद से दूर हो जाना पडे,उसके लिए इस सदमे को बर्दाश्त कर पाना कोई आसान बात नहीं हो सकती। लेकिन देश की राजनीति में अनेक नेता ऐसे हुए हैं,जिन्हे इस तरह की परिस्थितियां झेलना पडी है। देश की आजादी के समय ही ऐसी स्थितियां बन गई थी। देश के प्रथम प्रधानमंत्री बनने का पहला अधिकार सरदार वल्लभ भाई पटेल का था। कांग्रेस की पन्द्रह में से तेरह प्रान्तीय कमेटियों ने अकेले वल्लभभाई का नाम प्रस्तावित किया था,जबकि जवाहर लाल नेहरु का नाम किसी ने भी नहीं रखा था। लेकिन केवल गांधी जी की हठधर्मिता के कारण देश को जवाहरलाल नेहरु जैसे प्रधानमंत्री को सहना पडा। सरदार पटेल ने राष्ट्रहित को देखते हुए अपने से काफी कनिष्ठ और कम योग्यता वाले जवाहरलाल नेहरु के मंत्रीमण्डल में काम करने पर सहमति दे दी थी। उन्हे उपप्रधानमंत्री बनाया गया था।
पिछली यूपीए सरकार में सबसे शानदार उदाहरण सामने आया। वर्ष २००४ के आम चुनाव में बहुमत के नजदीक पंहुची कांग्रेस में सोनिया गांधी निर्विवाद नेता थी,लेकिन प्रधानमंत्री के पद पर वे आसीन नहीं हो सकती थी। श्रीमती गांधी के बाद सबसे वरिष्ठ और अनुभवी नेता प्रणव मुखर्जी थे,जो आज भारत के महामहिम राष्ट्रपति हैं। प्रधानमंत्री बनने का पहला अधिकार प्रणव मुखर्जी का था। लेकिन श्रीमती गांधी ने मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री के रुप में पसन्द किया। प्रधानमंत्री बनने से पहले मनमोहन सिंह प्रणव मुखर्जी की तुलना में बेहद कमजोर नेता थे। बल्कि वे तो नेता थे ही नहीं। मनमोहन सिंह मूलत:नौकरशाह थे। वे प्रणव मुखर्जी के निर्देश में कई दायित्व निभा चुके थे और श्री मुखर्जी उनसे काफी वरिष्ठ थे। लेकिन प्रणव मुखर्जी ने न सिर्फ मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री के रुप में स्वीकार किया,बल्कि मनमोहन सिंह के नेतृत्व में बने मंत्रीमण्डल में वे शामिल भी हुए। यूपीए के दस सालों के कार्यकाल में प्रवण मुखर्जी ने हमेशा सरकार के संकटमोचक की भूमिका निभाई। जब जब यूपीए सरकार पर कोई संकट आया,प्रणव मुखर्जी ने संकट मोचक बन कर सरकार की दिक्कतें दूर की। पूरे दस सालों में यूपीए की सरकार को कभी भी प्रणव मुखर्जी की वजह से किसी समस्या का सामना नहीं करना पडा। शायद यही वजह रही कि वे आज भारत के महामहिम राष्ट्रपति हैं।
क्या आडवाणी जी इतना धैर्य नहीं रख सकते। भारत की आजादी के बाद यह पहला मौका है,जब राष्ट्रवादी विचारधारा को स्पष्ट बहुमत मिला है। इसी का नतीजा है कि देश में बहुत कुछ अच्छा होने लगा है। देश की कमजोर छबि अब बदलने लगी है। म्यानमार के घटनाक्रम के बाद देश को मजबूत देश माना जाने लगा है। इसके अलावा भी ना जाने कितने ऐसे कार्य शुरु हो गए हैं,जो पिछले साठ सालों में नहीं हुए थे। योग को पूरे विश्व ने स्वीकार कर लिया है। विश्व के अन्य देशों से भारत के रिश्ते बेहतर होने लगे है। विश्व में भारत की विदेशी नहीं भारतीय छबि सामने आने लगी है। भारत अब विकसित देशों का पिछलग्गू नहीं है बल्कि विश्व के नेतृत्वकारी देशों में शामिल हो रहा है।
यह समय सरकार और प्रधानमंत्री के साथ खडे रहने का है,या अपनी निजी कुण्ठाओं के चलते अप्रत्यक्ष रुप से सरकार पर हमले करने का। राजनीति के सुदीर्घ अनुभव की उपयोगिता यदि सिर्फ सरकार पर अप्रत्यक्ष हमले करने भर की रह जाए,तो ऐसे अनुभव का क्या उपयोग हो सकता है। आडवाणी जी को इस समय धैर्य रखने की जरुरत है। दस साल तक धैर्य रखने के कारण प्रणव मुखर्जी महामहिम राष्ट्रपति बने है,आडवाणी जी को तो इतना लम्बा इंतजार भी नहीं करना है। उन्हे यह भी समझने की जरुरत है कि अप्रत्यक्ष बयानबाजी की कुटिलता सरकार को थोडी देर के लिए परेशान कर सकती है,लेकिन अधिक देर तक दिक्कत नहीं दे सकती। बल्कि ऐसे कदम उनके स्वयं के भविष्य पर प्रश्नचिन्ह जरुर लगा सकते है।
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