लम्बे समय से देश के दक्षिणी हिस्से को देखने की इच्छा थी। यह इच्छा 2009 के जून महीने में तब पूरी हुई जब चैन्ने में सुभाष नायडू की बहन के विवाह का कार्यक्रम तय हुआ। विवाह की जानकारी मिलते ही हम लोगों ने विवाह के बाद कन्याकुमारी और रामेश्वरम देखने की योजना भी बना ली। इस यात्रा में हमारी टीम काफी बडी थी। इस यात्रा में मेरे साथ दशरथ पाटीदार,नरेन्द्र शर्मा,भारत गुप्ता,कमलेश पाण्डेय मन्दसौर से आशुतोष नवाल और उसे छोडने आया गंगाराम (अमित सोनगरा) और सुभाष नायडू ऐसे कुल आठ लोग थे।
गंगाराम तो मन्दसौर से सिर्फ आशुतोष को छोडने आया था,लेकिन एन वक्त पर उसको भी हमने ट्रेन में चढा लिया। यहां तक कि उसके पास कपडे तक नहीं थे। उसके कपडों की व्यवस्था रास्ते में की गई। रतलाम से नरेन्द्र को छोडकर हम छ: लोग निकले थे। नरेन्द्र हमसे भोपाल में मिलने वाला था,जबकि नायडू चैन्ने से हमारे साथ हुआ था। इस यात्रा में उदित अग्रवाल (टोनी) को भी हमारे साथ होना था। उसका रिजर्वेशन भी था,लेकिन अंतिम समय पर उसके पिताजी के स्वास्थ्य के चलते उसे अपना कार्यक्रम रद्द करना पडा। बहरहाल यह यात्रा 1 जून 2009 को प्रारंभ हुई थी और हम 10 जून को रतलाम लौटे।
दिनांक 2 जून भोपाल रेलवे स्टेशन( दोपहर 11.00)
भोपाल रेलवे स्टेशन पर हम सात,आशुतोष नवाल,दशरथ पाटीदार,भारत गुप्ता,नरेन्द्र शर्मा,कमलेश पाण्डेय,एक नया चेहरा जीआर गंगाराम(अमित सोनगरा) और मै,राप्ती सागर एक्सप्रेस का इंतजार कर रहे है। 9.30 पर चलने वाली ट्रेन दो घण्टे देरी से चल रही है। प्लेटफार्म न.1 के फर्श पर बैठकर इंतजार करते करते यात्रा के बारे में लिखने की आदत का ध्यान आया और लिखने लगा।
कल १ जून सोमवार को नरेन्द्र के अलावा हम छ:लोग,दोपहर करीब साढे तीन बजे इनामुर शेख की मारुति वैन से रतलाम से निकले और शाम करीब आठ बजे ----- पंहुचे,जहां भारत के असिस्टेण्ट मुकेश की शादी थी। रात करीब साढे ग्यारह बजे,उसी गाडी से वापस उज्जैन आ गए। उज्जैन रेलवे स्टेशन के बाहर पुलिसियो से हुई हलकी झडप ने यात्रा शुरु करने का एहसास करा दिया। रात एक बजे ट्रेन आई,लेकिन नीन्द नहीं। हर बार की तरह ये लोकल समय से काफी पहले सुबह सवा पांच बजे भोपाल पंहुच गई। योजना के मुताबिक भोपाल के वेटिंग हाल में नित्यकर्म से निवृत्त हो रहे थे कि प्रकाश भैया(प्रकाश भटनागर)का फोन आ गया। हमारे ठहरने की व्यवस्था लाल प्लाजा होटल में हो गई थी। हम करीब आठ बजे होटल पंहुचे। 10 बजे स्नान भोजन से निवृत्त होकर भारत और मै निकल पडे,भोपाल के जनसम्पर्क पर। सुबह माथुर सा.(भगवतशरण माथुर जी) से मुलाकात के साथ जनसम्पर्क की शुरुआत हुई। माखनसिंह जी,विजय जी दुबे,पंकज जोशी जी,आईपीएस सतीश सक्सेना जी,यूएनआई आफिस,डीपीआर आदि जगहों पर मिलने जुलने के बाद मुलाकातों का दौर शाम को आठ बजे स्वास्थ्य मंत्री अनूप मिश्रा से मुलाकात के बाद खत्म हुआ। फौरन होटल पंहुचे और तेजी से रेलवे स्टेशन आए। लेकिन जल्दबाजी किसी काम नहीं आई। 24 घण्टे से ज्यादा के ट्रेन सफर के लिए हम यहां इन्तजार कर रहे हैं।
3 जून 2009 बुधवार -ट्रेन में (शाम 5.20)
रात बारह बजे ट्रेन के भोपाल स्टेशन पंहुचने के फौरन बाद लगभग सभी लोग सो गए। रात की हवा ठण्डी थी,इसलिए नींद अच्छी आई। सुबह नौ साढे नौ तक हवा में ठण्डक थी। नागपुर से ट्रेन निकलने के बाद दो छोटे स्टेशनों पर काफी देर तक रुकी। धीरे धीरे तापमान बढने लगा था। हांलाकि गर्मी इतनी ज्यादा नहीं थी कि बर्दाश्त नहीं की जा सके। ट्रेन की पेन्ट्री कार का भोजन करने के बाद सबने नींद भी निकाल ली।
5 जून 2009 शुक्रवार-तिरुपति (सुबह 10.30)
तिरुपति के साई होटल के कमरे में 24 घण्टे से ज्यादा समय के बाद डायरी लिखने का मौका हाथ लगा। 4 जून का पूरा दिन भागदौड में गुजरा। सुबह तीन बजे ट्रेन चैन्नई सेन्ट्रल पर पंहुची थी। कमलेश की नांद खुल गई तो सारे लोग उठ पाए। स्टेशन से बाहर निकलते हुए सुभाष को फोन कर दिया था। करीब एक घण्टे बाद नायडू स्टेशन पर पंहुचा और हम लोग गाडी में सवार होकर विवाह स्थल के निकले। करीब पौने पांच बजे हम वहां पंहुचे। शादी की भीडभाड में हम लोग भी नम्बर लगा कर नित्यकर्म से निवृत्त हुए और साढे छ: बजे तक नहा धोकर तैयार हो गए। कमलेश का पेट उसका साथ नहीं दे रहा है। कल से वह लगातार लेटा हुआ है। दस्त ने उसकी हालत पतली कर दी है। खैर सुबह साढे सात पर नाश्ते में सारे दक्षिण भारतीय व्यंजन एक साथ चख लिए। वडा,इडली,डोसा,सांभर,पोंगल,उपमा और हलवा,इसके अलावा चटनियां दो तरह की। बहरबाल सुबह अल्पाहार के नाम पर भरपेट भोजन हो गया। करीब एक घण्टे का दक्षिण भारतीय विवाह समारोह देखने के बाद निकलने की तैयारियों में जुट गए। ड्रायवर ने आने में देर कर दी। अंसार नाम का ड्राइवर करीब ग्यारह बजे वहां पंहुचा। गाडी मालिक को न तो हिन्दी आती थी,न इंग्लिश। अंसार ने सलाह दी की तिरुपति सबसे आखिर में जाना चाहिए,लेकिन आशुतोष ने एक स्थानीय सम्पर्क से बात की और उसका कहना था कि मंदिर में मौजूद मुनेन्द्र नाम का व्यक्ति हमें दर्शन करवा देगा। इस आधार पर हमने पहले तिरुपति जाने की जिद की। चैन्ने से सीधे तिरुपति मात्र 110 किमी है,लेकिन ड्राइवर ने ट्रांसपोर्ट नियमों का हवाला देते हुए गाडी को पहले वैल्लूर ले जाने की जिद की। वैल्लून भी करीब 120 किमी है। रास्ते में राजीव गांधी का अंतिम स्थल श्री पेरुम्बुदुर को भी देखा। दोपहर डेढ बजे वैल्लूर से तिरुपति के लिए रवाना हुए। अच्छी बात यह रही कि वेल्लूर में नायडू के घर भी गए और वहां की मीठी केरियां खाई। पौने चार तक तिरुपति/तिरुमलाई पंहुचे। पंहुचने के बाद लगातार मुनेन्द्र को ढूंढते रहे,लेकिन उसने मोबाइल ही बन्द कर लिया।
लाखों लोगों की भीड में सेठों के भगवान तक पंहुच पाना हिमालय चढने जैसा काम है। फ्री दर्शन की लाइन में लगो तो 24 घण्टे लगते है। सौ,दो सौ, या हजार रु.का टिकट लो तो तीन चार घण्टे में दर्शन हो जाते है,लेकिन टिकट सिर्फ सुबह मिलते है। यहां हर जगह लाईन है। यहां तक कि गंजा होने के लिए भी लाईन लगाना पडती है। भीड के दबाव ने ही गडबड की,कि हमारा पूरा कार्यक्रम गडबडा गया। आशुतोष,दशरथ और भारत टिकट की गुजाड में गए। हडबडी में उन्होने तीन हजार की टिकट ले लिया। इस टिकट पर 10 लोग दर्शन कर सकते है,लेकिन ये तीन ही लोग उस पर दर्ज हुए। टिकट विजया बैंक के द्वारा मिलते है और पूरा कम्प्यूटराईज्ड सिस्टम है। हर दर्शनार्थी का थण्ब इंप्रेशन और फोटो कम्प्यूटर रेकार्ड करता है और टिकट लेकर जाने पर चैक किया जाता है। तीन हजार का यह टिकट 5 जून की दोपहर 2 बजे का था।
इस विचित्र परेशानी से हम परेशान हो गए। 24 घण्टे से ज्यादा का महत्वपूर्ण समय महज दर्शन के लिए खराब हो रहा है। ये 24 घण्टे हमारी अगली यात्रा को पूरी तरह बर्बाद भी कर सकते है। ये सोचकर नए विकल्पों पर विचार किया। तय किया कि हम दो ग्रुप में बंट जाए। इसमें खर्च तो बढता लेकिन समय का उपयोग हो जाता। ये तय किया कि आशु,दशरथ और भारत वहीं रुक कर दर्शन कर लें और हम चार लोग बस से आगे निकल जाए। लेकिन यह निर्णय लेने में हमने देर कर दी। हम रात करीब नौ बजे तिरुमाला से तिरुपति के लिए बस में बैठे। रात करीब पौने दस बजे हम तिरुपति पंहुचे। यहां पंहुच कर एक घण्टे तक त्रिची या रामेश्वरम की बस ढूंढते रहे। भाषा की समस्या तो है ही बसें भी 8-9 बजे तक निकल जाती है। आखिर में थक-हार कर होटल ढूंढने का प्रयास किया। करीब आधे घण्टे की जद्दोजहद के बाद बस स्टैण्ड परिसर में ही बने इस साई होटल में छ: सौ रुपए में एसी रुम लिया। एसी चल तो रहा है,लेकिन बाकि के इंतजाम बेकार है। खैर रात को करीब एक बजे सोए। बढिया नींद निकाली।
अभी ग्यारह बज चुके है। स्नान निपट रहा है। पूरा दिन यहीं गुजारेंगे। अब बाकी तीनों के आने पर ही हम लोग साथ में ही यहां से रवाना होंगे।
6 जून 2009 शनिवार -रामेश्वरम
तिरुपति में लक्ष्मी और पदमावती के मन्दिर में दर्शन करने के बाद दोपहर दो बजे होटल लौटे और एसी की ठण्डक में टीवी देखते रहे। उम्मीद थी कि 5-6 बजे तक हमारे साथी भी यहां पंहुच जाएंगे। लेकिन उन्हे यहां आते आते शाम के सवा सात बज गए। हम तो निकलने की पूरी तैयारी में थे,लेकिन फिर भी निकलने में कुछ देर तो हो ही गई। करीब पौने आठ - आठ बजे तिरुपति से वेल्लोर के लिए निकले। वेल्लोर से रामेश्वरम के लिए निकलने में रात की बारह बज गई। रात को बारह बजे शुरु हुआ सफर दोपहर की साढे बारह बजे रामेश्वरम पहुच कर रुका। यहां ठहरने की व्यवस्था ढूंढी और मन्दिर के पास अग्रवाल धर्मशाला में आ गए। धर्मशाला में स्नान इत्यादि से निवृत्त होने में ढाई बज गए। मन्दिर पंहुचे तो पता चला कि दर्शन तीन बजे होंगे। समय का सदुपयोग करते हुए पहले भोजन किया। भोजन के बाद समुद्र पंहुचे। समुद्र से लौटते समय रतलाम के धौंसवास नित्यानन्द आश्रम द्वारा करवाए जा रहे यज्ञ का बैनर दिखा। भीतर गए तो पंचायत वाले जोशी जी समेत कई रतलामी मिल गए। लगा दुनिया सचमुच में छोटी है। भारत के अंतिम छोर पर रतलाम के परिचित मिले तो अच्छा लगा। रामेश्वरम मन्दिर के दर्शन हम कर चुके है। अद्भुत और विशाल मन्दिर में जाना वास्तव में आनन्ददायक क्षण था। अब धनुषकोडी देखने के बाद कन्याकुमारी जाने की योजना है।
7 जून चैन्नई से ट्रेन में (रात 10.30)
रामेश्वरम मन्दिर में दर्शन और रतलाम वालों से मिलने के बाद हम में से हर आदमी की इच्छा राम सेतु देखने की थी। पता चला कि धनुषकोडी नामक स्थान से करीब पांच किमी आगे राम सेतु है। धनुषकोडी रामेश्वरम में 18 किमी दूर है। पिछली पुरी रात गाडी में गुजार कर हम दोपहर करीब पौने एक बजे रामेश्वरम पंहुचे थे। चुनौती यह थी कि केवल दो दिनों में रामेश्वरम,मदुरई और कन्याकुमारी सबकुछ देख लें। ड्राइवर अंसार को समझाया कि हम में से हर कोई अच्छा ड्राइवर है,सबके पास वैध लाइसेंस है,वह जब चाहे चलती गाडी में आराम कर सकता है,लेकिन वह नहीं माना। करीब साढे बारह घण्टे लगातार ड्राइविंग कर रामेश्वरम पंहुचे अंसार को हमने शाम को उठाया कि हमें राम सेतु देखना है। ड्राइवरों की आदत के मुताबिक पहले उसने विरोध जताया। फिर हमें लेकर निकला तो दो तीन मंदिर दिखा दिए। एक लक्ष्मण कुण्ड था। एक मन्दिर में पत्थर पानी पर तैर रहे थे। इस सबके बावजूद हम नहीं माने। फिर मजबूरन वह हमे लेकर धनुषकोडी
पंहुचा। यहां सड़क के दोनो ओर समुद्र है। 18 किमी दूर धनुषकोडी के आगे केवल मच्छी गाडी जाती है। हमने 450 रु.किराये में मच्छी गाडी तय की। एक गुजराती परिवार भी हमारे साथ इसी गाडी में था। रामसेतु वाले स्थान पर एख उजडा हुआ गांव है। वहां एक खण्डहर चर्च,खण्डहर हो चुकी अस्पताल की इमारत आदि है। हमे ले जाने वाले मछुआरे ने टूटी फूटी हिन्दी में बताया कि 1964 तक यहां पूरा गांव आबाद था। 1964 में एक समुद्री तूफान ने गांव को बरबाद कर दिया। अब यहां कुछ गरीब मछुआरे रहते है। उन्होने यह भी बताया कि खण्डहर हो चुके चर्च के पत्थरोंको राम पत्थर कहते है और ये वही पत्थर है,जिनसे रामसेतु बना था। राम सेतु की चौडाई करीब 4 किमी थी। जबर्दस्त उफनते समुद्र में नायडू उतरा। वहां घूम रहे ढेरों केकडों देखकर हम घबरा रहे थे। अंधेरा भी होने को था। इसी बीच भारत एक मछुआरे,उसकी पत्नी और छोटे छोटे बच्चों की रेकार्डिंग करने लगा। हम लोग भी वहीं जा पंहुचे। मैने उसके नंगे बच्चे को गोद में लेकर फोटो खिंचवाया। न वह हमारी भाषा जानता था,न हम उसकी। तभी भारत ने पूछा कि खाना क्या बनाया है? वह भीतर गया और भूना हुआ केकडा ले आया। वे लोग इसी तरह जी सकते है। यहां भोजन समुद्री जीवों से ही मिल सकता है। नायडू ने थोडा सा केकडा खाया। नायडू को देखकर जीआर ने भी केकडा खाया। मछुआरे सहज भाव से अधिक खाने का आग्रह कर रहे थे। हम वेज लोग,वह आग्रह स्वीकार करने की स्थिति में नहीं थे।
रात करीब साढे आठ पर हम धर्मशाला में लौटे। साढे नौ पर भोजन के बाद बिस्तर के हवाले हो गए।
रात दो बजे यात्रा फिर शुरु हुई। अब हमारा पडावा कन्याकुमारी था। हम लोग रात 2 बजे चले तो सुबह करीब साढे नौ बजे कन्याकुमारी पंहुचे। आराम का समय हमारे पास नहीं था। 7 जून हो चुकी थी। हमे अगले दिन यानी 8 जून को चैन्ने पंहुच कर ट्रेन पकडना थी। कन्याकुमारी में घुसते ही विवेकानन्द केन्द्र के बोर्ड पर नजर पडी और गाडी वहीं ले गए। बडी आसानी से मात्र 120 रुपए में 8 बिस्तरों वाला कमरा हमें मिल गया। बाथरुम जरुर दूर था,लेकिन यह कोई बडी समस्या नहीं थी। ड्राइवर अंसार को भरपूर आराम करने का समय देते हुए हम लोग तैयार होने में जुट गए। विवेकानन्द केन्द्र से कन्याकुमारी मंदिर तक निशुल्क बसें चलती है। हम सवा बारह तक हल्का नाश्ता करके बस में सवार हो गए। किस्मत साथ थी,मंदिर साढे बारह बजे बंद होता है,लेकिन उससे पहले हम मंदिर में थे। दर्शन किए और शिला स्मारक पर जाने के लिए निकल पडे। 20-20 रुपए का टिकट लेकर शिला स्मारक पर भी पंहुच गए।
9 जून 2009 ट्रेन में (सुबह आठ बजे)
ट्रेन आगे भाग रही है औव मन पीछे। क्योकि सारी घटनाएं लिखना है। कल रात ट्रेन में थकान के चलते जल्दी नींद आ गई थी। नींद कैसी आई ये पता नहीं लेकिन नींद खुली सुबह ही।
7 जून की दोपहर हम लोग विवेकानन्द शिला स्मारक पर थे। बचपन से यह स्थान देखने की इच्छा थी। विवेकानन्द किनारे से तैर कर इस टापू पर आए थे और तीन दिन तक यहीं रहे थे। उन्होने क्या खाया होगा,कहां सोए होंगे और कैसे तीन दिन गुजारे होंगे,कोई नहीं जानता। सब केवल यह जानते है कि इन तीन दिनों में उन्होने राष्ट्र निर्माण का चिंतन किया था। इस घटना के करीब सौ साल बाद एकनाथ जी रानडे ने शिला स्मारक का स्वप्र देखा और साकार किया। देश के 323 सांसदों की सहमति उन्होने हासिल की। शिला स्मारक के साथ विवेकानन्द केन्द्र भी अद्भुत उपलब्धि है। सौ एकड में फैले इस केन्द्र में एक हजार लोगों के ठहरने की शानदार व्यवस्था है। विवेकानन्द और एकनाथ जी पर आधारित स्थाई प्रदर्शनियां है। प्रशिक्षण के कायक्रम है। यहां से कन्याकुमारी के लिए लगातार निशुल्क बसें चलती है।
शिला से जुडे हुए दूसरे टापू पर संत तिरुवल्लुवर की 133 फीट उंची प्रतिमा स्थापित की गई है। यह प्रतिमा 1990 में स्थापित की गई। किनारे से इसे देखना अद्भुत लगता है। ये दोनो स्मारक देखने के काफी देर बाद हम फिर जहाज से किनारे पर लौटे। किनारे पर आने के बाद कन्याकुमारी मंदिर की बगल के सी बीच पर समुद्र स्नान का मजा लिया। शंख सीप आदि खरीद कर करीब 5
8 जून 2009 मदुरई-चैन्ने-ट्रेन
रात करीब एक बजे मदुरई पंहुचे। रात को धर्मशाला,होटल ढूंढने की कोशिश की,लेकिन देर रात होने की वजह से होटल वाले मनमाने दाम मांग रहे थे। हम लोग फिर सड़क के किनारे एक दुकान के ओटले पर ही पसर गए। ओटले पर नीन्द तो क्या आनी थी,बस शरीर सीधा कर लिया। सुबह साढे चार-पांच पर उठ गए। पास ही के एक पे एण्ड यूज पर नित्यकर्म से निवृत्त हुए। स्नान भी वहीं किया और सुबह छ: बजे मीनाक्षी मन्दिर पंहुच गए। गाइड ने बताया कि यह मन्दिर पाण्डियन राजाओं ने बनवाया था और इसे बनने में छ:सौ साल लगे। वास्तव में मीनाक्षी मन्दिर पूरे दक्षिण का सबसे भव्य मन्दिर है। जिसमें पांच बडे द्वार तथा 7 छोटे द्वार है। बडे द्वारों में सबसे बडा द्वार 160 फीट ऊं चा और पन्द्रह सौ से ज्यादा मूर्तियों वाला है। मन्दिर से निकल कर देवी को चढाई जाने वाली साडियां देखी,खरीदी और 7 बजे मदुरई से चैन्ने के लिए निकल पडे।
साढे तीन सौ किमी का सफर शाम करीब 4 बजे चैन्ने पर खत्म हुआ। चैन्ने में क्लाक रुम में सामान जमा करवा कर आटो से चैन्ने के प्रसिध्द मरीना बीच पर पंहुच गए। मरीना बीच पर एकाध डेढ घण्टा गुजार कर वापस स्टेशन पर पंहुचे। नायडू के घर से भोजन आ गया था। खाने बैठे तो पता चला कि सब्जी बिगड गई थी। स्टेशन से सब्जी खरीद कर प्लेटफार्म पर बैठ कर भोजन किया। ट्रेन ठीक 10.10 पर चल दी। गाडी रात को भोपाल पंहुचेगी और कल सुबह हम फिर रतलाम में होंगे।
दक्षिण भारत घूमने की बरसों से इच्छा थी। दक्षिण को लेकर भारी उत्सुकता भी थी। मात्र दो दिन में चैन्ने से रामेश्वरम,कन्याकुमारी,मदुरई घूमने जैसी तेज यात्रा आम तौर पर कोई नहीं कर पाता। लेकिन हमारे सामने समय की सीमा थी। दिन रात जागते सोते,इडली वडा,डोसा और चावल खाते हुए हमने यह यात्रा पूरी की। देश के तीन कोने देख लिए है। अब उत्तरांचल और उत्तर-पूर्व बाकी है। उम्मीद करें कि बचा हुआ हिस्सा देखने का मौका भी जल्दी ही हाथ लगेगा।
बजे वापसी के लिए लौटे। कन्याकुमारी पर जहां बसें रुकती है,वहीं परिब्राजक विवेकानन्द नामक स्थाई प्रदर्शनी है। विवेकानन्द के परिब्राजक जीवन यात्राओं का सचित्र प्रदर्शन है यहां। विवेकानन्द द्वारा लिखे गए पत्र भी यहां प्रदर्शित है। यह प्रदर्शनी देखते देखते पौने छ: हो गए। कमरे पर आकर स्नान आदि करते करते यह विचार हुआ कि यहां से तत्काल निकल लिया जाए। पहले योजना रात दो बजे निकलने की थी,लेकिन फिर सोचा कि रात को ही मदुरई पंहुच जाए और सुबह जल्दी मीनाक्षी मन्दिर के दर्शन कर चैन्ने पंहुचा जाए। रात को चैन्ने से ट्रेन थी। यह तय होते ही सब तैयार हुए और रात आठ बजे कन्याकुमारी से निकल पडे। हां निकलने के ठीक पहले,एकनाथ जी के जीवन पर आधारित प्रदर्शनी भी देख ली।
गंगाराम तो मन्दसौर से सिर्फ आशुतोष को छोडने आया था,लेकिन एन वक्त पर उसको भी हमने ट्रेन में चढा लिया। यहां तक कि उसके पास कपडे तक नहीं थे। उसके कपडों की व्यवस्था रास्ते में की गई। रतलाम से नरेन्द्र को छोडकर हम छ: लोग निकले थे। नरेन्द्र हमसे भोपाल में मिलने वाला था,जबकि नायडू चैन्ने से हमारे साथ हुआ था। इस यात्रा में उदित अग्रवाल (टोनी) को भी हमारे साथ होना था। उसका रिजर्वेशन भी था,लेकिन अंतिम समय पर उसके पिताजी के स्वास्थ्य के चलते उसे अपना कार्यक्रम रद्द करना पडा। बहरहाल यह यात्रा 1 जून 2009 को प्रारंभ हुई थी और हम 10 जून को रतलाम लौटे।
दिनांक 2 जून भोपाल रेलवे स्टेशन( दोपहर 11.00)
भोपाल रेलवे स्टेशन पर हम सात,आशुतोष नवाल,दशरथ पाटीदार,भारत गुप्ता,नरेन्द्र शर्मा,कमलेश पाण्डेय,एक नया चेहरा जीआर गंगाराम(अमित सोनगरा) और मै,राप्ती सागर एक्सप्रेस का इंतजार कर रहे है। 9.30 पर चलने वाली ट्रेन दो घण्टे देरी से चल रही है। प्लेटफार्म न.1 के फर्श पर बैठकर इंतजार करते करते यात्रा के बारे में लिखने की आदत का ध्यान आया और लिखने लगा।
कल १ जून सोमवार को नरेन्द्र के अलावा हम छ:लोग,दोपहर करीब साढे तीन बजे इनामुर शेख की मारुति वैन से रतलाम से निकले और शाम करीब आठ बजे ----- पंहुचे,जहां भारत के असिस्टेण्ट मुकेश की शादी थी। रात करीब साढे ग्यारह बजे,उसी गाडी से वापस उज्जैन आ गए। उज्जैन रेलवे स्टेशन के बाहर पुलिसियो से हुई हलकी झडप ने यात्रा शुरु करने का एहसास करा दिया। रात एक बजे ट्रेन आई,लेकिन नीन्द नहीं। हर बार की तरह ये लोकल समय से काफी पहले सुबह सवा पांच बजे भोपाल पंहुच गई। योजना के मुताबिक भोपाल के वेटिंग हाल में नित्यकर्म से निवृत्त हो रहे थे कि प्रकाश भैया(प्रकाश भटनागर)का फोन आ गया। हमारे ठहरने की व्यवस्था लाल प्लाजा होटल में हो गई थी। हम करीब आठ बजे होटल पंहुचे। 10 बजे स्नान भोजन से निवृत्त होकर भारत और मै निकल पडे,भोपाल के जनसम्पर्क पर। सुबह माथुर सा.(भगवतशरण माथुर जी) से मुलाकात के साथ जनसम्पर्क की शुरुआत हुई। माखनसिंह जी,विजय जी दुबे,पंकज जोशी जी,आईपीएस सतीश सक्सेना जी,यूएनआई आफिस,डीपीआर आदि जगहों पर मिलने जुलने के बाद मुलाकातों का दौर शाम को आठ बजे स्वास्थ्य मंत्री अनूप मिश्रा से मुलाकात के बाद खत्म हुआ। फौरन होटल पंहुचे और तेजी से रेलवे स्टेशन आए। लेकिन जल्दबाजी किसी काम नहीं आई। 24 घण्टे से ज्यादा के ट्रेन सफर के लिए हम यहां इन्तजार कर रहे हैं।
3 जून 2009 बुधवार -ट्रेन में (शाम 5.20)
रात बारह बजे ट्रेन के भोपाल स्टेशन पंहुचने के फौरन बाद लगभग सभी लोग सो गए। रात की हवा ठण्डी थी,इसलिए नींद अच्छी आई। सुबह नौ साढे नौ तक हवा में ठण्डक थी। नागपुर से ट्रेन निकलने के बाद दो छोटे स्टेशनों पर काफी देर तक रुकी। धीरे धीरे तापमान बढने लगा था। हांलाकि गर्मी इतनी ज्यादा नहीं थी कि बर्दाश्त नहीं की जा सके। ट्रेन की पेन्ट्री कार का भोजन करने के बाद सबने नींद भी निकाल ली।
5 जून 2009 शुक्रवार-तिरुपति (सुबह 10.30)
तिरुपति के साई होटल के कमरे में 24 घण्टे से ज्यादा समय के बाद डायरी लिखने का मौका हाथ लगा। 4 जून का पूरा दिन भागदौड में गुजरा। सुबह तीन बजे ट्रेन चैन्नई सेन्ट्रल पर पंहुची थी। कमलेश की नांद खुल गई तो सारे लोग उठ पाए। स्टेशन से बाहर निकलते हुए सुभाष को फोन कर दिया था। करीब एक घण्टे बाद नायडू स्टेशन पर पंहुचा और हम लोग गाडी में सवार होकर विवाह स्थल के निकले। करीब पौने पांच बजे हम वहां पंहुचे। शादी की भीडभाड में हम लोग भी नम्बर लगा कर नित्यकर्म से निवृत्त हुए और साढे छ: बजे तक नहा धोकर तैयार हो गए। कमलेश का पेट उसका साथ नहीं दे रहा है। कल से वह लगातार लेटा हुआ है। दस्त ने उसकी हालत पतली कर दी है। खैर सुबह साढे सात पर नाश्ते में सारे दक्षिण भारतीय व्यंजन एक साथ चख लिए। वडा,इडली,डोसा,सांभर,पोंगल,उपमा और हलवा,इसके अलावा चटनियां दो तरह की। बहरबाल सुबह अल्पाहार के नाम पर भरपेट भोजन हो गया। करीब एक घण्टे का दक्षिण भारतीय विवाह समारोह देखने के बाद निकलने की तैयारियों में जुट गए। ड्रायवर ने आने में देर कर दी। अंसार नाम का ड्राइवर करीब ग्यारह बजे वहां पंहुचा। गाडी मालिक को न तो हिन्दी आती थी,न इंग्लिश। अंसार ने सलाह दी की तिरुपति सबसे आखिर में जाना चाहिए,लेकिन आशुतोष ने एक स्थानीय सम्पर्क से बात की और उसका कहना था कि मंदिर में मौजूद मुनेन्द्र नाम का व्यक्ति हमें दर्शन करवा देगा। इस आधार पर हमने पहले तिरुपति जाने की जिद की। चैन्ने से सीधे तिरुपति मात्र 110 किमी है,लेकिन ड्राइवर ने ट्रांसपोर्ट नियमों का हवाला देते हुए गाडी को पहले वैल्लूर ले जाने की जिद की। वैल्लून भी करीब 120 किमी है। रास्ते में राजीव गांधी का अंतिम स्थल श्री पेरुम्बुदुर को भी देखा। दोपहर डेढ बजे वैल्लूर से तिरुपति के लिए रवाना हुए। अच्छी बात यह रही कि वेल्लूर में नायडू के घर भी गए और वहां की मीठी केरियां खाई। पौने चार तक तिरुपति/तिरुमलाई पंहुचे। पंहुचने के बाद लगातार मुनेन्द्र को ढूंढते रहे,लेकिन उसने मोबाइल ही बन्द कर लिया।
लाखों लोगों की भीड में सेठों के भगवान तक पंहुच पाना हिमालय चढने जैसा काम है। फ्री दर्शन की लाइन में लगो तो 24 घण्टे लगते है। सौ,दो सौ, या हजार रु.का टिकट लो तो तीन चार घण्टे में दर्शन हो जाते है,लेकिन टिकट सिर्फ सुबह मिलते है। यहां हर जगह लाईन है। यहां तक कि गंजा होने के लिए भी लाईन लगाना पडती है। भीड के दबाव ने ही गडबड की,कि हमारा पूरा कार्यक्रम गडबडा गया। आशुतोष,दशरथ और भारत टिकट की गुजाड में गए। हडबडी में उन्होने तीन हजार की टिकट ले लिया। इस टिकट पर 10 लोग दर्शन कर सकते है,लेकिन ये तीन ही लोग उस पर दर्ज हुए। टिकट विजया बैंक के द्वारा मिलते है और पूरा कम्प्यूटराईज्ड सिस्टम है। हर दर्शनार्थी का थण्ब इंप्रेशन और फोटो कम्प्यूटर रेकार्ड करता है और टिकट लेकर जाने पर चैक किया जाता है। तीन हजार का यह टिकट 5 जून की दोपहर 2 बजे का था।
इस विचित्र परेशानी से हम परेशान हो गए। 24 घण्टे से ज्यादा का महत्वपूर्ण समय महज दर्शन के लिए खराब हो रहा है। ये 24 घण्टे हमारी अगली यात्रा को पूरी तरह बर्बाद भी कर सकते है। ये सोचकर नए विकल्पों पर विचार किया। तय किया कि हम दो ग्रुप में बंट जाए। इसमें खर्च तो बढता लेकिन समय का उपयोग हो जाता। ये तय किया कि आशु,दशरथ और भारत वहीं रुक कर दर्शन कर लें और हम चार लोग बस से आगे निकल जाए। लेकिन यह निर्णय लेने में हमने देर कर दी। हम रात करीब नौ बजे तिरुमाला से तिरुपति के लिए बस में बैठे। रात करीब पौने दस बजे हम तिरुपति पंहुचे। यहां पंहुच कर एक घण्टे तक त्रिची या रामेश्वरम की बस ढूंढते रहे। भाषा की समस्या तो है ही बसें भी 8-9 बजे तक निकल जाती है। आखिर में थक-हार कर होटल ढूंढने का प्रयास किया। करीब आधे घण्टे की जद्दोजहद के बाद बस स्टैण्ड परिसर में ही बने इस साई होटल में छ: सौ रुपए में एसी रुम लिया। एसी चल तो रहा है,लेकिन बाकि के इंतजाम बेकार है। खैर रात को करीब एक बजे सोए। बढिया नींद निकाली।
अभी ग्यारह बज चुके है। स्नान निपट रहा है। पूरा दिन यहीं गुजारेंगे। अब बाकी तीनों के आने पर ही हम लोग साथ में ही यहां से रवाना होंगे।
6 जून 2009 शनिवार -रामेश्वरम
तिरुपति में लक्ष्मी और पदमावती के मन्दिर में दर्शन करने के बाद दोपहर दो बजे होटल लौटे और एसी की ठण्डक में टीवी देखते रहे। उम्मीद थी कि 5-6 बजे तक हमारे साथी भी यहां पंहुच जाएंगे। लेकिन उन्हे यहां आते आते शाम के सवा सात बज गए। हम तो निकलने की पूरी तैयारी में थे,लेकिन फिर भी निकलने में कुछ देर तो हो ही गई। करीब पौने आठ - आठ बजे तिरुपति से वेल्लोर के लिए निकले। वेल्लोर से रामेश्वरम के लिए निकलने में रात की बारह बज गई। रात को बारह बजे शुरु हुआ सफर दोपहर की साढे बारह बजे रामेश्वरम पहुच कर रुका। यहां ठहरने की व्यवस्था ढूंढी और मन्दिर के पास अग्रवाल धर्मशाला में आ गए। धर्मशाला में स्नान इत्यादि से निवृत्त होने में ढाई बज गए। मन्दिर पंहुचे तो पता चला कि दर्शन तीन बजे होंगे। समय का सदुपयोग करते हुए पहले भोजन किया। भोजन के बाद समुद्र पंहुचे। समुद्र से लौटते समय रतलाम के धौंसवास नित्यानन्द आश्रम द्वारा करवाए जा रहे यज्ञ का बैनर दिखा। भीतर गए तो पंचायत वाले जोशी जी समेत कई रतलामी मिल गए। लगा दुनिया सचमुच में छोटी है। भारत के अंतिम छोर पर रतलाम के परिचित मिले तो अच्छा लगा। रामेश्वरम मन्दिर के दर्शन हम कर चुके है। अद्भुत और विशाल मन्दिर में जाना वास्तव में आनन्ददायक क्षण था। अब धनुषकोडी देखने के बाद कन्याकुमारी जाने की योजना है।
7 जून चैन्नई से ट्रेन में (रात 10.30)
रामेश्वरम मन्दिर में दर्शन और रतलाम वालों से मिलने के बाद हम में से हर आदमी की इच्छा राम सेतु देखने की थी। पता चला कि धनुषकोडी नामक स्थान से करीब पांच किमी आगे राम सेतु है। धनुषकोडी रामेश्वरम में 18 किमी दूर है। पिछली पुरी रात गाडी में गुजार कर हम दोपहर करीब पौने एक बजे रामेश्वरम पंहुचे थे। चुनौती यह थी कि केवल दो दिनों में रामेश्वरम,मदुरई और कन्याकुमारी सबकुछ देख लें। ड्राइवर अंसार को समझाया कि हम में से हर कोई अच्छा ड्राइवर है,सबके पास वैध लाइसेंस है,वह जब चाहे चलती गाडी में आराम कर सकता है,लेकिन वह नहीं माना। करीब साढे बारह घण्टे लगातार ड्राइविंग कर रामेश्वरम पंहुचे अंसार को हमने शाम को उठाया कि हमें राम सेतु देखना है। ड्राइवरों की आदत के मुताबिक पहले उसने विरोध जताया। फिर हमें लेकर निकला तो दो तीन मंदिर दिखा दिए। एक लक्ष्मण कुण्ड था। एक मन्दिर में पत्थर पानी पर तैर रहे थे। इस सबके बावजूद हम नहीं माने। फिर मजबूरन वह हमे लेकर धनुषकोडी
पंहुचा। यहां सड़क के दोनो ओर समुद्र है। 18 किमी दूर धनुषकोडी के आगे केवल मच्छी गाडी जाती है। हमने 450 रु.किराये में मच्छी गाडी तय की। एक गुजराती परिवार भी हमारे साथ इसी गाडी में था। रामसेतु वाले स्थान पर एख उजडा हुआ गांव है। वहां एक खण्डहर चर्च,खण्डहर हो चुकी अस्पताल की इमारत आदि है। हमे ले जाने वाले मछुआरे ने टूटी फूटी हिन्दी में बताया कि 1964 तक यहां पूरा गांव आबाद था। 1964 में एक समुद्री तूफान ने गांव को बरबाद कर दिया। अब यहां कुछ गरीब मछुआरे रहते है। उन्होने यह भी बताया कि खण्डहर हो चुके चर्च के पत्थरोंको राम पत्थर कहते है और ये वही पत्थर है,जिनसे रामसेतु बना था। राम सेतु की चौडाई करीब 4 किमी थी। जबर्दस्त उफनते समुद्र में नायडू उतरा। वहां घूम रहे ढेरों केकडों देखकर हम घबरा रहे थे। अंधेरा भी होने को था। इसी बीच भारत एक मछुआरे,उसकी पत्नी और छोटे छोटे बच्चों की रेकार्डिंग करने लगा। हम लोग भी वहीं जा पंहुचे। मैने उसके नंगे बच्चे को गोद में लेकर फोटो खिंचवाया। न वह हमारी भाषा जानता था,न हम उसकी। तभी भारत ने पूछा कि खाना क्या बनाया है? वह भीतर गया और भूना हुआ केकडा ले आया। वे लोग इसी तरह जी सकते है। यहां भोजन समुद्री जीवों से ही मिल सकता है। नायडू ने थोडा सा केकडा खाया। नायडू को देखकर जीआर ने भी केकडा खाया। मछुआरे सहज भाव से अधिक खाने का आग्रह कर रहे थे। हम वेज लोग,वह आग्रह स्वीकार करने की स्थिति में नहीं थे।
रात करीब साढे आठ पर हम धर्मशाला में लौटे। साढे नौ पर भोजन के बाद बिस्तर के हवाले हो गए।
रात दो बजे यात्रा फिर शुरु हुई। अब हमारा पडावा कन्याकुमारी था। हम लोग रात 2 बजे चले तो सुबह करीब साढे नौ बजे कन्याकुमारी पंहुचे। आराम का समय हमारे पास नहीं था। 7 जून हो चुकी थी। हमे अगले दिन यानी 8 जून को चैन्ने पंहुच कर ट्रेन पकडना थी। कन्याकुमारी में घुसते ही विवेकानन्द केन्द्र के बोर्ड पर नजर पडी और गाडी वहीं ले गए। बडी आसानी से मात्र 120 रुपए में 8 बिस्तरों वाला कमरा हमें मिल गया। बाथरुम जरुर दूर था,लेकिन यह कोई बडी समस्या नहीं थी। ड्राइवर अंसार को भरपूर आराम करने का समय देते हुए हम लोग तैयार होने में जुट गए। विवेकानन्द केन्द्र से कन्याकुमारी मंदिर तक निशुल्क बसें चलती है। हम सवा बारह तक हल्का नाश्ता करके बस में सवार हो गए। किस्मत साथ थी,मंदिर साढे बारह बजे बंद होता है,लेकिन उससे पहले हम मंदिर में थे। दर्शन किए और शिला स्मारक पर जाने के लिए निकल पडे। 20-20 रुपए का टिकट लेकर शिला स्मारक पर भी पंहुच गए।
9 जून 2009 ट्रेन में (सुबह आठ बजे)
ट्रेन आगे भाग रही है औव मन पीछे। क्योकि सारी घटनाएं लिखना है। कल रात ट्रेन में थकान के चलते जल्दी नींद आ गई थी। नींद कैसी आई ये पता नहीं लेकिन नींद खुली सुबह ही।
7 जून की दोपहर हम लोग विवेकानन्द शिला स्मारक पर थे। बचपन से यह स्थान देखने की इच्छा थी। विवेकानन्द किनारे से तैर कर इस टापू पर आए थे और तीन दिन तक यहीं रहे थे। उन्होने क्या खाया होगा,कहां सोए होंगे और कैसे तीन दिन गुजारे होंगे,कोई नहीं जानता। सब केवल यह जानते है कि इन तीन दिनों में उन्होने राष्ट्र निर्माण का चिंतन किया था। इस घटना के करीब सौ साल बाद एकनाथ जी रानडे ने शिला स्मारक का स्वप्र देखा और साकार किया। देश के 323 सांसदों की सहमति उन्होने हासिल की। शिला स्मारक के साथ विवेकानन्द केन्द्र भी अद्भुत उपलब्धि है। सौ एकड में फैले इस केन्द्र में एक हजार लोगों के ठहरने की शानदार व्यवस्था है। विवेकानन्द और एकनाथ जी पर आधारित स्थाई प्रदर्शनियां है। प्रशिक्षण के कायक्रम है। यहां से कन्याकुमारी के लिए लगातार निशुल्क बसें चलती है।
शिला से जुडे हुए दूसरे टापू पर संत तिरुवल्लुवर की 133 फीट उंची प्रतिमा स्थापित की गई है। यह प्रतिमा 1990 में स्थापित की गई। किनारे से इसे देखना अद्भुत लगता है। ये दोनो स्मारक देखने के काफी देर बाद हम फिर जहाज से किनारे पर लौटे। किनारे पर आने के बाद कन्याकुमारी मंदिर की बगल के सी बीच पर समुद्र स्नान का मजा लिया। शंख सीप आदि खरीद कर करीब 5
8 जून 2009 मदुरई-चैन्ने-ट्रेन
रात करीब एक बजे मदुरई पंहुचे। रात को धर्मशाला,होटल ढूंढने की कोशिश की,लेकिन देर रात होने की वजह से होटल वाले मनमाने दाम मांग रहे थे। हम लोग फिर सड़क के किनारे एक दुकान के ओटले पर ही पसर गए। ओटले पर नीन्द तो क्या आनी थी,बस शरीर सीधा कर लिया। सुबह साढे चार-पांच पर उठ गए। पास ही के एक पे एण्ड यूज पर नित्यकर्म से निवृत्त हुए। स्नान भी वहीं किया और सुबह छ: बजे मीनाक्षी मन्दिर पंहुच गए। गाइड ने बताया कि यह मन्दिर पाण्डियन राजाओं ने बनवाया था और इसे बनने में छ:सौ साल लगे। वास्तव में मीनाक्षी मन्दिर पूरे दक्षिण का सबसे भव्य मन्दिर है। जिसमें पांच बडे द्वार तथा 7 छोटे द्वार है। बडे द्वारों में सबसे बडा द्वार 160 फीट ऊं चा और पन्द्रह सौ से ज्यादा मूर्तियों वाला है। मन्दिर से निकल कर देवी को चढाई जाने वाली साडियां देखी,खरीदी और 7 बजे मदुरई से चैन्ने के लिए निकल पडे।
साढे तीन सौ किमी का सफर शाम करीब 4 बजे चैन्ने पर खत्म हुआ। चैन्ने में क्लाक रुम में सामान जमा करवा कर आटो से चैन्ने के प्रसिध्द मरीना बीच पर पंहुच गए। मरीना बीच पर एकाध डेढ घण्टा गुजार कर वापस स्टेशन पर पंहुचे। नायडू के घर से भोजन आ गया था। खाने बैठे तो पता चला कि सब्जी बिगड गई थी। स्टेशन से सब्जी खरीद कर प्लेटफार्म पर बैठ कर भोजन किया। ट्रेन ठीक 10.10 पर चल दी। गाडी रात को भोपाल पंहुचेगी और कल सुबह हम फिर रतलाम में होंगे।
दक्षिण भारत घूमने की बरसों से इच्छा थी। दक्षिण को लेकर भारी उत्सुकता भी थी। मात्र दो दिन में चैन्ने से रामेश्वरम,कन्याकुमारी,मदुरई घूमने जैसी तेज यात्रा आम तौर पर कोई नहीं कर पाता। लेकिन हमारे सामने समय की सीमा थी। दिन रात जागते सोते,इडली वडा,डोसा और चावल खाते हुए हमने यह यात्रा पूरी की। देश के तीन कोने देख लिए है। अब उत्तरांचल और उत्तर-पूर्व बाकी है। उम्मीद करें कि बचा हुआ हिस्सा देखने का मौका भी जल्दी ही हाथ लगेगा।
बजे वापसी के लिए लौटे। कन्याकुमारी पर जहां बसें रुकती है,वहीं परिब्राजक विवेकानन्द नामक स्थाई प्रदर्शनी है। विवेकानन्द के परिब्राजक जीवन यात्राओं का सचित्र प्रदर्शन है यहां। विवेकानन्द द्वारा लिखे गए पत्र भी यहां प्रदर्शित है। यह प्रदर्शनी देखते देखते पौने छ: हो गए। कमरे पर आकर स्नान आदि करते करते यह विचार हुआ कि यहां से तत्काल निकल लिया जाए। पहले योजना रात दो बजे निकलने की थी,लेकिन फिर सोचा कि रात को ही मदुरई पंहुच जाए और सुबह जल्दी मीनाक्षी मन्दिर के दर्शन कर चैन्ने पंहुचा जाए। रात को चैन्ने से ट्रेन थी। यह तय होते ही सब तैयार हुए और रात आठ बजे कन्याकुमारी से निकल पडे। हां निकलने के ठीक पहले,एकनाथ जी के जीवन पर आधारित प्रदर्शनी भी देख ली।
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