उत्तरांचल की चार धाम यात्रा का वृत्तान्त
-तुषार कोठारी
वर्ष 2013 में हुई केदारनाथ की त्रासदी अब भी उत्तरांचल के लोगों की आंखों में नजर आ जाती है। उत्तरांचल के चार धाम की यात्रा पर केदारनाथ त्रासदी की छाया दो साल गुजरने के बाद अब भी दिखाई देती है। जिन स्थानों पर कभी पैर धरने की जगह नहीं होती थी,वहां अब यात्रियों की नगण्य संख्या है। होटलें और धर्मशालाओं में रुकने वाले ही नहीं है,इसलिए कई होटल और धर्मशालाएं बन्द है। लेकिन श्रध्दा और आस्था जैसे तत्व भगवान के भक्तों को रुकने नहीं देते। तमाम खतरों के बावजूद धीरे धीरे तीर्थयात्रियों का आना जाना बढने लगा है।
पर्यटन व्यवसाय से जुडे लोगों को उम्मीद है कि चार धाम यात्रा की पुरानी रौनक जल्दी ही लौट आएगी।
पांच मित्रों के परिवारों के साथ हम चौदह लोगों का दल एक सितम्बर की रात ट्रेन से हरिद्वार के लिए रवाना हुआ। इस तीर्थयात्रा दल में मेरे साथ मेरी धर्मपत्नी सौ.वैदेही,पुत्र चिन्तन,मेरे अभिभाषक मित्र दशरथ पाटीदार,उनकी धर्मपत्नी श्रीमती तुलसी और भतीजी अंजली,संतोष त्रिपाठी उनकी धर्मपत्नी श्रीमती भारती व पुत्र विनीत,मन्दसौर से दैनिक गुरु एक्सप्रेस के संपादक आशुतोष नवाल उनकी धर्मपत्नी श्रीमती रश्मि व पुत्र अक्षत और रतलाम के नरेन्द्र शर्मा व श्रीमती सुनीता शामिल थे। हम चौदह लोगों के दल में दस बडे लोग थे,जबकि चार नन्हे बच्चे हमारे साथ थे। यात्रा पर जाने से पहले अधिकांश मित्र परिचितों ने उत्तरांचल के खतरों से आगाह किया था। कईयों का तो कहना था कि इन दिनों वहां जाना बेहद खतरनाक है। यात्रा की तिथी से पहले उत्तरांचल से लगातार भारी वर्षा,भूस्खलन और सड़कों के बह जाने की खबरें भी आ रही थी। लेकिन हम भी तय कर चुके थे,कि चाहे जो हो यात्रा तो करके ही रहेंगे।
हमारी यात्रा का पहला पडाव हरिद्वार में था,जहां सुप्रसिध्द हर की पौडी के नजदीक ही एक धर्मशाला में हमने डेरा जमाया था। 2 सितम्बर 2015 की शाम करीब साढे चार बजे हम हरिद्वार पहुंचेे और धर्मशाला में अपना सामान टिका कर सीधे हर की पौडी पर गंगा स्नान व गंगा आरती का लाभ लेने जा पंहुचे। गंगा तट पर बारिश की तेज बौछारों ने हमारा स्वागत किया। गंगा में डुबकी लगाने से पहले ही हम भीग चुके थे। बारिश की वजह से गंगा आरती भी प्रभावित हुई। लेकिन यात्रा का पहला ही दिन गंगा आरती में शामिल होने की वजह से शानदार साबित हो चुका था।
चार धाम यात्रा के लिए वाहन की व्यवस्था हम फोन से पहले ही कर चुके थे। तय कार्यक्रम के मुताबिक तेरह सीटों वाली टेम्पो ट्रेवलर से 3 सितम्बर को सुबह हमे यात्रा पर रवाना होना था। सुबह निर्धारित समय पर गाडी का ड्राइवर सुभाष पाल हमारे पास आ पंहुचा और प्रारंभिक परिचय के बाद हमारा पूरा दल यात्रा के लिए गाडी में सवार हो गया। वैसे तो हमारे दल में कुल चौदह सदस्य थे,लेकिन आशुतोष का पुत्र अक्षत इस दल का सबसे नन्हा सदस्य था। छ: वर्षीय अक्षत के अलावा सभी के पास अपनी सीटें थी और अक्षत के लिए हर सीट उपलब्ध थी। इसलिए हमारी इस यात्रा में किसी को भी कोई असुविधा नहीं होने वाली थी।
गंगौत्री और यमुनौत्री
यात्रा के लिए वाहन में सवार हुए तो ड्राइवर ने बताया कि तेरह की त्रासदी बाद सभी यात्रियों का रजिस्ट्रेशन अनिवार्य कर दिया गया है। रजिस्ट्रेशन कार्यालय ऋ षिकेश में है। सबसे पहले रजिस्ट्रेशन कार्यालय में पंहुचकर सभी यात्रियों का कम्प्यूटराइज्ड पंजीयन करवाया और यहां से यात्रा के लिए निकल पडे। हमारा पहला पडाव था यमुनौत्री। यमुनौत्री हरिद्वार से 186 किमी दूर है। हमारी बस देहरादूर,मसूरी के रास्ते आगे बढी। जैसे ही पहाडों के रास्ते पर पंहुचे कि यात्रा की पहली चुनौती सामने आने लगी। हमारे दल की अधिकांश महिलाओं और बच्चों को पहाडों के घुमावदार रास्तों के कारण जी घबराने और उल्टी होने की समस्या प्रारंभ हो गई। अपनी पिछली यात्राओं के अनुभव से हम जानते थे कि ऐसी समस्या आ सकती है। आशुतोष जी ने पहले ही गोलियां खरीद ली थी। जिनको भी उल्टियां हुई,उन्हे गोलियां खिला दी गई। हमारा बस का सफर यमुनौत्री से कुछ ही पहले स्यानी चट्टी के एक होटल में जाकर समाप्त हुआ। इस बार यात्री बेहद कम है। हमारी बस के साथ महज तीन चार छोटी बसें और चल रही है। स्यानी चट्टी में हमारे ड्राइवर सुभाष पाल ने हमें बताया कि सुबह पांच बजे यहां से निकलना होगा।
4 सितम्बर की सुबह पांच बजे स्यानी चट्टी से अपना सारा सामान बस में टिका कर निकले। यमुनौत्री के लिए वाहन जानकी चट्टी तक जाते है। जानकी चट्टी से आगे पांच किमी का पैदल रास्ता है। लेकिन वाहन पार्किंग करीब एक किमी पहले होने से हमारे लिए यह रास्ता छ: किमी का था। सुबह करीब पौने सात बजे हम लोगों ने यमुनौत्री की चढाई शुरु की। हमारे दल में से दो महिला सदस्यों ने खच्चर किराये पर ले लिए थे,जबकि शेष सभी पैदल ही चले। यमुनौत्री की चढाई बेहद कठिन और खडी चढाई है। छ: किमी का यह बेहद कठिन रास्ता तय करने में करीब साढे चार घण्टे का समय लग गया। हम लोग करीब साढे ग्यारह बजे यमुनौत्री में पंहुचे। यमुनौत्री में गर्मपानी का कुण्ड है और प्रत्येक यात्री मन्दिर में दर्शन से पहले इस गर्म कुण्ड में स्नान करता है। गर्म कुण्ड में उतरते ही कठिन यात्रा की सारी थकान जैसे दूर हो गई। गर्म कुण्ड के स्नान के बाद यमुनौत्री मन्दिर में पूजा अर्चना की। रतलाम के पण्डे की पोथी में अपना आगमन दर्ज कराया। सुबह से सभी लोग भूखे थे। यमुनौत्री में उपर ही एक साधारण रेस्टोरेन्ट में भोजन किया। वापसी का सफर आसान था। हमने दोपहर करीब एक बजे उतरना शुरु किया और मात्र दो सवा दो घण्टे में हम अपने वाहन तक पंहुच गए।
हमारा अगला लक्ष्य था गंगौत्री। जानकी चट्टी से शाम करीब साढे चार बजे हम रवाना हुए। जानकीचट्टी से करीब 80 किमी चल कर ब्रम्हखाल नामक कस्बे से पांच किमी पहले ही एक होटल में हमने डेरा डाला। गंगौत्री यहां से करीब 160 किमी है। हम सुबह जल्दी रवाना हो गए। गंगौत्री में पैदल नहीं चलना पडता। बस गंगौत्री तक जाती है। गंगौत्री से पहले हर्षिल नामक गांव पडता है,जहां राज कपूर ने अपनी प्रसिध्द फिल्म राम तेरी गंगा मैली की शूटिंग की थी। इस गांव को गाडी में से देखते हुए दोपहर करीब ढाई बजे हम गंगौत्री जा पंहुचे। आज जन्माष्ठमी का दिन था। गंगौत्री मन्दिर में आसपास के गांवों के लोग अपने अपने ग्रामदेवता की मूर्तियों की पालकी लेकर पंहुच रहे थे। मन्दिर परिसर में ही ग्रामीण महिला पुरुषों द्वारा सामूहिक लोकनृत्य किया जा रहा था। इस नृत्य में वैदेही व अन्य महिलाएं भी शामिल हुई,तो हमारे पुरुष साथियों ने भी नृत्य का आनन्द लिया। गंगौत्री की पूजा अर्चना और पण्डे के पास अपना आगमन दर्ज कराकर हम जल्दी ही निवृत्त हो गए। दोपहर करीब साढे चार बजे हम गंगौत्री से निकले तो रात करीब नौ बजे उत्तरकाशी के नजदीक एक होटल में पंहुच कर रुके। ड्राइवर ने हमें बताया कि अगली सुबह सात बजे यहां से रवाना होना है। होटल के प्रांगण में भोजन के बाद हमारे दल ने एक सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन किया,जिसमें सभी बच्चों व बडों ने गीत कविता इत्यादि प्रस्तुत किए। यह रंगारंग कार्यक्रम देर रात तक चला। चार में से दो धाम की यात्रा हम निर्विघ्र पूरी कर चुके थे।
केदारनाथ धाम
6 सितम्बर को रविवार था,जब हम उत्तरकाशी से केदारनाथ के लिए निकले। यात्रा शुरु होते समय बडी इच्छा थी कि कुछ ऐसा संयोग बनें कि सोमवार के दिन केदारनाथ के दर्शन हों। यह सोमवार श्रावण मास का अंतिम सोमवार था। रविवार को सुबह जब उत्तरकाशी से निकले तो तय हो चुका था कि हम सोमवार को ही केदारनाथ के समक्ष होंगे।
केदारनाथ की 2013 त्रासदी के बाद केदारनाथ की यात्रा पहले से भी कठिन हो चुकी है। पहले केदारनाथ जाने के लिए चौदह किमी. पैदल चलना पडता था। पहले यह यात्रा गौरीकुण्ड से शुरु होती थी। गौरीकुण्ड तक वाहन जाते थे। लेकिन त्रासदी के बाद सोनप्रयाग से गौरीकुण्ड का मार्ग क्षतिग्रस्त हो गया है,इसलिए यात्रा सोनप्रयाग से ही शुरु हो जाती है। अब यह यात्रा करीब 22 किमी की हो चुकी है। पहले योजना यह थी कि केदारनाथ जाने के लिए हैलीकाफ्टर का उपयोग करेंगे और आते समय पैदल आएंगे।
सोनप्रयाग से कुछ ही पहले रामपुर नामक कस्बे में एक होटल में हम रुके। हैलीकाप्टर रामपुर से भी पहले गुप्तकाशी से चलता है। गुप्तकाशी में पता चला कि पिछले तीन दिनों से मौसम की खराबी की वजह से हैलीकाप्टर उड नहीं पाया है और इस वजह से हैलीकाप्टर की वेटिंग बहुत लम्बी हो चुकी है। ड्राइवर की सलाह थी कि यदि हम एक ही दिन में केदार बाबा के दर्शन करके लौटना चाहते है.तो हमें खच्चर से जाना चाहिए। यही हमने तय किया और सोमवार 7 सितम्बर की सुबह निकल पडे केदार बाबा के दर्शनों के लिए।
तेरह की त्रासदी के बाद केदारनाथ दर्शन के पहले सभी यात्रियों को मेडीकल कराना होता है। सोनप्रयाग में प्रशासन की ओर से मेडीकल कराने की व्यवस्था थी,लेकिन यह बहुत ही असुविधाजनक व्यवस्था थी। यात्रियों की संख्या ढाई सौ से अधिक थी,जबकि मेडीकल के लिए वहां केवल एक डाक्टर को तैनात किया गया था। डाक्टर भी मेडीकल चैकअप के नाम पर केवल औपचारिकता निभा रहा था। मेडीकल की इस औपचरिकता को पूरा करने में हमें डेढ घण्टे का समय लगा। मेडीकल के फौरन बाद हम खच्चरों पर सवार होकर केदार घाटी के लिए चल पडे। बाइस किमी का यह सफर बेहद खतरनाक और कष्टदायक है। खच्चर पर खडी चढाई चढना भी बेहद कष्टकारक है। खच्चरों की इस यात्रा को बीच में भीमपल्ली नामक स्थान पर कुछ मिनटों के लिए विश्राम दिया जाता है। खच्चरों पर हिचकोले खाते खाते हम लोग दोपहर एक बजे केदारनाथ पर पंहुच गए। खच्चरों के रुकने के स्थान से मन्दिर करीब डेढ किमी दूर है। खच्चरों से उतरते ही आसमान से बूंदाबांदी शुरु हो गई जो जल्दी ही तेज बौछारों में बदल गई। केदारनाथ में हड्डियों को जमा देने वाली ठण्ड थी और उपर से बर्फीले पानी की बौछारों ने सभी का दम निकाल दिया। खच्चर वालों ने वापस लौटने के लिए तीन बजे तक का वक्त दिया था। पानी की तेज बौछारों को सहते हुए हम मन्दिर पंहुचे। मन्दिर में दर्शनार्थियों की कोई भीड नहीं थी। मन्दिर में दर्शन पूजा अर्चना के बाद मन्दिर के पीछे पडे उसे शिलाखण्ड के भी दर्शन किए,जिसकी वजह से 2013 के प्रलयंकारी बहाव से मन्दिर की रक्षा हुई थी। पानी के साथ बहकर आया यह शिलाखण्ड मन्दिर के ठीक पीछे आकर रुक गया था और इस शिलाखण्ड की वजह से पीछे से आने वाला बहाव दो भागों में विभक्त होकर मन्दिर के आस पास से निकल गया। मन्दिर को कोई क्षति नहीं पंहुची।
मन्दिर के बाहर 2013 की बरबादी के चिन्ह अब भी वैसे ही मौजूद है। बाढ से बहे भवन,बिखरा मलबा सबकुछ उस त्रासदी की भयावहता दिखाने के लिए पर्याप्त है। दर्शन के बाद अब लौटने का समय था। हमारे दल की कुछ महिलाएं खच्चर की खतरनाक सवारी से डर गई थी और अब किसी भी कीमत पर खच्चर पर बैठने को राजी नहीं थी। लेकिन केदारनाथ का डरावना मौसम और कडाके की ठण्ड के चलते रात यहां गुजारना भी संभव नहीं था। शुरुआती ना नुकुर के बाद आखिरकार सभी लोग फिर से खच्चरों पर सवार हुए। वापसी का यह सफर जाने की तुलना में और भी अधिक कष्टकारक था। खच्चर पर बैठकर खडी उतराई उतरना बेहद खतरनाक और कष्टदायक होता है। खच्चर की सवारी करने वाले प्रत्येक व्यक्ति की हालत बेहद खराब हो चुकी थी। खच्चर की वजह से जांघों के बीच में रगड लग लग कर सूजन आ गई थी। पीठ और गर्दनें अकड गई थी। शरीर का पोर पोर दर्द कर रहा था। यह कष्टदायक यात्रा शाम साढे सात पर समाप्त हुई। खच्चरों से उतरी महिलाएं इतनी बुरी हालत में थी कि रोने लगी थी। असीमित कष्ट उठाकर हम चार धामों में से तीसरे धाम केदारनाथ की यात्रा पूरी कर चुके थे। केदारनाथ यात्रा के घाव अभी कई दिनों तक कष्ट देने वाले थे। रात करीब आठ बजे रामपुर स्थित होटल पर पंहुचे। होटल संचालक ने स्थिति की नजाकत को देखते हुए गर्म पानी की व्यवस्था करके रखी थी। आते ही चाय भी पिलाई और भोजन भी तैयार करके रखा था। दर्द से बेहाल थके हुए यात्रियों में से आधे तो भोजन करने की भी स्थिति में नहीं थे। वे कमरों में पंहुचे और बिस्तर को छूते ही सो गए।
बद्रीनाथ धाम
चार धाम में से अंतिम बद्रीनाथ धाम की यात्रा के लिए मंगलवार को रामपुर से निकल गए थे। केदारनाथ यात्रा के कष्टों से घबराए सभी यात्रियों ने तय कर लिया था कि अगले दिन देर तक सोएंगे और कोई जल्दबाजी नहीं करेंगे। हमारे ड्राइवर सुभाष पाल ने बताया था कि नजदीक ही त्रियुगी नारायण का मन्दिर है,जहां शिव पार्वती का विवाह हुआ था। कहते है कि शिव पार्वती के विवाह का हवनकुण्ड तब से लेकर आज तक प्रज्वलित है। इसके अलावा रास्ते में चोपता नामक स्थान है जिसे उत्तरांचल का मिनी स्विट्डरलैण्ड कहा जाता है। ड्राइवर का सुझाव था कि एक रात चोपता में गुजार कर आगे बढा जाए। 8 सितम्बर मंगलवार को दोपहर बाद रामपुर से निकले,तो पहले त्रियुगी नारायण मन्दिर में दर्शन और पूजा अर्चना की और फिर लौट कर चोपता के लिए निकल पडे। चोपता पंहुचने तक अन्धेरा घिर आया था। यहां ठण्ड बहुत अधिक थी। रात चोपता में गुजारी। पता चला कि चोपता से उपर साढे तीन किमी पर तुंगनाथ मन्दिर है और उससे करीब डेढ किमी उपर चन्द्रशिला है। केदारनाथ के कष्टों से डरे प्रत्येक व्यक्ति ने तुंगनाथ जाने से साफ इंकार कर दिया था। लेकिन अगली सुबह हमारे दल में से आधे लोगों का मन तुंगनाथ जाने का हो आया। खच्चरों का खतरा उठा चुके ये लोग एक बार फिर खच्चरों का उपयोग करने को राजी हो गए थे। उन्होने जाते समय तो खच्चरों का उपयोग किया और आते वक्त पैदल आए। हमारे साथी दोपहर साढे बारह तक तुंगनाथ के दर्शन करके लौट आए। उत्तरांचल में कहते है कि बद्रीनाथ और केदारनाथ के पांच पांच रुप है। तुंगनाथ को केदारनाथ का तीसरा रुप माना जाता है।
तुंगनाथ के बाद हमारी आखरी मंजिल थी बद्रीनाथ धाम। बद्रीनाथ धाम यहां से करीब 160 किमी की दूरी पर था। मुझे कम ही उम्मीद थी कि आज की रात बद्रीनाथ पंहुच सकेंगे। वहां से चले तो शाम करीब छ: बजे जोशीमठ पंहुच गए। जाते समय जोशीमठ रुकने की बजाय सीधे बद्रीनाथ ही जाने का निर्णय किया और चल पडे। जोशी मठ से बद्रीनाथ तक का 40 किमी का रास्ता बेहद खराब है। पिछले दिनों हुई तेज बारिश के कारण अनेक जगहों पर भूस्खलन हुआ और कई स्थानों पर सड़क टूट गई थी। पूरे रास्ते में तबाही के मंजर नजर आते रहे। हम लोग रात करीब सवा आठ बजे बद्रीनाथ धाम पंहुच गए। बद्री विशाल के दर्शन अब सुबह ही होना थे। बद्रीनाथ में कडाके की ठण्ड थी। सुबह पांच बजे उठे और करीब छ: बजे बद्रीनाथ मन्दिर के बाहर तप्त कुण्ड पर स्नान के लिए पंहुच गए। तप्त कुण्ड में स्नान के बाद मन्दिर में पंहुचे। यहां भगवान बद्रीनाथ की आरती में शामिल होने का सौभाग्य भी हमें मिला। आरती में शामिल होने के बाद होटल लौटे। अब समय था वापसी का। उत्तरांचल के चारों धामों की निर्विघ्र यात्रा पूरी हो चुकी थी।
शंकराचार्य मठ
आदिगुरु शंकराचार्य का ज्योतिर्मठ बद्रीनाथ से नीचे जोशीमठ में है। छ: महीने जब बद्रीनाथ में बर्फ जमी होती है,जोशीमठ में ही भगवान बद्रीनारायण की पूजा होती है। जोशीमठ में ही आदिगुरु शंकराचार्य ने अपना मठ स्थापित किया है। ज्योतिर्मठ के स्थान पर ही भगवान शंकराचार्य ने तपस्या की थी। उन्होने जिस वृक्ष के नीचे तपस्या की थी,वह आज भी मौजूद है। शहतूत के इस पेड को कल्पवृक्ष माना जाता है। शंकराचार्य की तपस्या का ही प्रभाव है कि विगत छब्बीस सौ वर्षों से यह वृक्ष जीवित है। वृक्ष की पुरानी जडें और तना बदल जाता है,उसके स्थान पर नई शाखाएं आ जाती है। शंकराचार्य मठ में स्फटिक का शिवलिंग भी है। कहते है कि बद्रीनाथ मन्दिर का जीर्णोध्दार भी शंकराचार्य ने ही किया था। करीब छब्बीस सौ वर्ष पूर्व बौध्द धर्मावलम्बियों ने बद्रीनाथ मन्दिर को क्षतिग्रस्त कर भगवान के विग्रह को नारद कुण्ड में फेंक दिया था। आदिगुरु शंकराचार्य ने ही बद्रीनारायण के विग्रह को नारद कुण्ड से निकाल कर पुन: मन्दिर की स्थापना की थी।
जोशीमठ से निकलकर हम हरिद्वार की ओर बढ रहे थे। रास्ते में लांगसू नामक स्थान पर हमने रात्रिविश्राम किया। अगले दिन रुद्रप्रयाग के दर्शन किए और दोपहर करीब साढे तीन बजे हम ऋ षिकेश पंहुच गए। ऋ षिकेश में लक्ष्मण झूला व अन्य मन्दिरों में दर्शन कर रात करीब आठ बजे हम फिर से हरिद्वार पंहुच गए। 3 सितम्बर 2015 को हरिद्वार से प्रारंभ हुई हमारी चार धाम यात्रा 11 सितम्बर की रात आठ बजे हरिद्वार पंहुचने के साथ पूरी हो चुकी थी। हमारा वापसी का आरक्षण 13 सितम्बर का था और हरिद्वार घुमने के लिए हमारे पास पूरा एक दिन था। इस एक दिन का पूरा उपयोग हमने मंसा माता,चण्डी देवी और भारत माता मन्दिर इत्यादि प्रसिध्द स्थानो को देखने में बिताया और 14 सितम्बर को रतलाम वापसी के साथ हमारी यह यात्रा संपन्न हुई।
-तुषार कोठारी
वर्ष 2013 में हुई केदारनाथ की त्रासदी अब भी उत्तरांचल के लोगों की आंखों में नजर आ जाती है। उत्तरांचल के चार धाम की यात्रा पर केदारनाथ त्रासदी की छाया दो साल गुजरने के बाद अब भी दिखाई देती है। जिन स्थानों पर कभी पैर धरने की जगह नहीं होती थी,वहां अब यात्रियों की नगण्य संख्या है। होटलें और धर्मशालाओं में रुकने वाले ही नहीं है,इसलिए कई होटल और धर्मशालाएं बन्द है। लेकिन श्रध्दा और आस्था जैसे तत्व भगवान के भक्तों को रुकने नहीं देते। तमाम खतरों के बावजूद धीरे धीरे तीर्थयात्रियों का आना जाना बढने लगा है।
पर्यटन व्यवसाय से जुडे लोगों को उम्मीद है कि चार धाम यात्रा की पुरानी रौनक जल्दी ही लौट आएगी।
पांच मित्रों के परिवारों के साथ हम चौदह लोगों का दल एक सितम्बर की रात ट्रेन से हरिद्वार के लिए रवाना हुआ। इस तीर्थयात्रा दल में मेरे साथ मेरी धर्मपत्नी सौ.वैदेही,पुत्र चिन्तन,मेरे अभिभाषक मित्र दशरथ पाटीदार,उनकी धर्मपत्नी श्रीमती तुलसी और भतीजी अंजली,संतोष त्रिपाठी उनकी धर्मपत्नी श्रीमती भारती व पुत्र विनीत,मन्दसौर से दैनिक गुरु एक्सप्रेस के संपादक आशुतोष नवाल उनकी धर्मपत्नी श्रीमती रश्मि व पुत्र अक्षत और रतलाम के नरेन्द्र शर्मा व श्रीमती सुनीता शामिल थे। हम चौदह लोगों के दल में दस बडे लोग थे,जबकि चार नन्हे बच्चे हमारे साथ थे। यात्रा पर जाने से पहले अधिकांश मित्र परिचितों ने उत्तरांचल के खतरों से आगाह किया था। कईयों का तो कहना था कि इन दिनों वहां जाना बेहद खतरनाक है। यात्रा की तिथी से पहले उत्तरांचल से लगातार भारी वर्षा,भूस्खलन और सड़कों के बह जाने की खबरें भी आ रही थी। लेकिन हम भी तय कर चुके थे,कि चाहे जो हो यात्रा तो करके ही रहेंगे।
हमारी यात्रा का पहला पडाव हरिद्वार में था,जहां सुप्रसिध्द हर की पौडी के नजदीक ही एक धर्मशाला में हमने डेरा जमाया था। 2 सितम्बर 2015 की शाम करीब साढे चार बजे हम हरिद्वार पहुंचेे और धर्मशाला में अपना सामान टिका कर सीधे हर की पौडी पर गंगा स्नान व गंगा आरती का लाभ लेने जा पंहुचे। गंगा तट पर बारिश की तेज बौछारों ने हमारा स्वागत किया। गंगा में डुबकी लगाने से पहले ही हम भीग चुके थे। बारिश की वजह से गंगा आरती भी प्रभावित हुई। लेकिन यात्रा का पहला ही दिन गंगा आरती में शामिल होने की वजह से शानदार साबित हो चुका था।
चार धाम यात्रा के लिए वाहन की व्यवस्था हम फोन से पहले ही कर चुके थे। तय कार्यक्रम के मुताबिक तेरह सीटों वाली टेम्पो ट्रेवलर से 3 सितम्बर को सुबह हमे यात्रा पर रवाना होना था। सुबह निर्धारित समय पर गाडी का ड्राइवर सुभाष पाल हमारे पास आ पंहुचा और प्रारंभिक परिचय के बाद हमारा पूरा दल यात्रा के लिए गाडी में सवार हो गया। वैसे तो हमारे दल में कुल चौदह सदस्य थे,लेकिन आशुतोष का पुत्र अक्षत इस दल का सबसे नन्हा सदस्य था। छ: वर्षीय अक्षत के अलावा सभी के पास अपनी सीटें थी और अक्षत के लिए हर सीट उपलब्ध थी। इसलिए हमारी इस यात्रा में किसी को भी कोई असुविधा नहीं होने वाली थी।
गंगौत्री और यमुनौत्री
यात्रा के लिए वाहन में सवार हुए तो ड्राइवर ने बताया कि तेरह की त्रासदी बाद सभी यात्रियों का रजिस्ट्रेशन अनिवार्य कर दिया गया है। रजिस्ट्रेशन कार्यालय ऋ षिकेश में है। सबसे पहले रजिस्ट्रेशन कार्यालय में पंहुचकर सभी यात्रियों का कम्प्यूटराइज्ड पंजीयन करवाया और यहां से यात्रा के लिए निकल पडे। हमारा पहला पडाव था यमुनौत्री। यमुनौत्री हरिद्वार से 186 किमी दूर है। हमारी बस देहरादूर,मसूरी के रास्ते आगे बढी। जैसे ही पहाडों के रास्ते पर पंहुचे कि यात्रा की पहली चुनौती सामने आने लगी। हमारे दल की अधिकांश महिलाओं और बच्चों को पहाडों के घुमावदार रास्तों के कारण जी घबराने और उल्टी होने की समस्या प्रारंभ हो गई। अपनी पिछली यात्राओं के अनुभव से हम जानते थे कि ऐसी समस्या आ सकती है। आशुतोष जी ने पहले ही गोलियां खरीद ली थी। जिनको भी उल्टियां हुई,उन्हे गोलियां खिला दी गई। हमारा बस का सफर यमुनौत्री से कुछ ही पहले स्यानी चट्टी के एक होटल में जाकर समाप्त हुआ। इस बार यात्री बेहद कम है। हमारी बस के साथ महज तीन चार छोटी बसें और चल रही है। स्यानी चट्टी में हमारे ड्राइवर सुभाष पाल ने हमें बताया कि सुबह पांच बजे यहां से निकलना होगा।
4 सितम्बर की सुबह पांच बजे स्यानी चट्टी से अपना सारा सामान बस में टिका कर निकले। यमुनौत्री के लिए वाहन जानकी चट्टी तक जाते है। जानकी चट्टी से आगे पांच किमी का पैदल रास्ता है। लेकिन वाहन पार्किंग करीब एक किमी पहले होने से हमारे लिए यह रास्ता छ: किमी का था। सुबह करीब पौने सात बजे हम लोगों ने यमुनौत्री की चढाई शुरु की। हमारे दल में से दो महिला सदस्यों ने खच्चर किराये पर ले लिए थे,जबकि शेष सभी पैदल ही चले। यमुनौत्री की चढाई बेहद कठिन और खडी चढाई है। छ: किमी का यह बेहद कठिन रास्ता तय करने में करीब साढे चार घण्टे का समय लग गया। हम लोग करीब साढे ग्यारह बजे यमुनौत्री में पंहुचे। यमुनौत्री में गर्मपानी का कुण्ड है और प्रत्येक यात्री मन्दिर में दर्शन से पहले इस गर्म कुण्ड में स्नान करता है। गर्म कुण्ड में उतरते ही कठिन यात्रा की सारी थकान जैसे दूर हो गई। गर्म कुण्ड के स्नान के बाद यमुनौत्री मन्दिर में पूजा अर्चना की। रतलाम के पण्डे की पोथी में अपना आगमन दर्ज कराया। सुबह से सभी लोग भूखे थे। यमुनौत्री में उपर ही एक साधारण रेस्टोरेन्ट में भोजन किया। वापसी का सफर आसान था। हमने दोपहर करीब एक बजे उतरना शुरु किया और मात्र दो सवा दो घण्टे में हम अपने वाहन तक पंहुच गए।
हमारा अगला लक्ष्य था गंगौत्री। जानकी चट्टी से शाम करीब साढे चार बजे हम रवाना हुए। जानकीचट्टी से करीब 80 किमी चल कर ब्रम्हखाल नामक कस्बे से पांच किमी पहले ही एक होटल में हमने डेरा डाला। गंगौत्री यहां से करीब 160 किमी है। हम सुबह जल्दी रवाना हो गए। गंगौत्री में पैदल नहीं चलना पडता। बस गंगौत्री तक जाती है। गंगौत्री से पहले हर्षिल नामक गांव पडता है,जहां राज कपूर ने अपनी प्रसिध्द फिल्म राम तेरी गंगा मैली की शूटिंग की थी। इस गांव को गाडी में से देखते हुए दोपहर करीब ढाई बजे हम गंगौत्री जा पंहुचे। आज जन्माष्ठमी का दिन था। गंगौत्री मन्दिर में आसपास के गांवों के लोग अपने अपने ग्रामदेवता की मूर्तियों की पालकी लेकर पंहुच रहे थे। मन्दिर परिसर में ही ग्रामीण महिला पुरुषों द्वारा सामूहिक लोकनृत्य किया जा रहा था। इस नृत्य में वैदेही व अन्य महिलाएं भी शामिल हुई,तो हमारे पुरुष साथियों ने भी नृत्य का आनन्द लिया। गंगौत्री की पूजा अर्चना और पण्डे के पास अपना आगमन दर्ज कराकर हम जल्दी ही निवृत्त हो गए। दोपहर करीब साढे चार बजे हम गंगौत्री से निकले तो रात करीब नौ बजे उत्तरकाशी के नजदीक एक होटल में पंहुच कर रुके। ड्राइवर ने हमें बताया कि अगली सुबह सात बजे यहां से रवाना होना है। होटल के प्रांगण में भोजन के बाद हमारे दल ने एक सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन किया,जिसमें सभी बच्चों व बडों ने गीत कविता इत्यादि प्रस्तुत किए। यह रंगारंग कार्यक्रम देर रात तक चला। चार में से दो धाम की यात्रा हम निर्विघ्र पूरी कर चुके थे।
केदारनाथ धाम
6 सितम्बर को रविवार था,जब हम उत्तरकाशी से केदारनाथ के लिए निकले। यात्रा शुरु होते समय बडी इच्छा थी कि कुछ ऐसा संयोग बनें कि सोमवार के दिन केदारनाथ के दर्शन हों। यह सोमवार श्रावण मास का अंतिम सोमवार था। रविवार को सुबह जब उत्तरकाशी से निकले तो तय हो चुका था कि हम सोमवार को ही केदारनाथ के समक्ष होंगे।
केदारनाथ की 2013 त्रासदी के बाद केदारनाथ की यात्रा पहले से भी कठिन हो चुकी है। पहले केदारनाथ जाने के लिए चौदह किमी. पैदल चलना पडता था। पहले यह यात्रा गौरीकुण्ड से शुरु होती थी। गौरीकुण्ड तक वाहन जाते थे। लेकिन त्रासदी के बाद सोनप्रयाग से गौरीकुण्ड का मार्ग क्षतिग्रस्त हो गया है,इसलिए यात्रा सोनप्रयाग से ही शुरु हो जाती है। अब यह यात्रा करीब 22 किमी की हो चुकी है। पहले योजना यह थी कि केदारनाथ जाने के लिए हैलीकाफ्टर का उपयोग करेंगे और आते समय पैदल आएंगे।
सोनप्रयाग से कुछ ही पहले रामपुर नामक कस्बे में एक होटल में हम रुके। हैलीकाप्टर रामपुर से भी पहले गुप्तकाशी से चलता है। गुप्तकाशी में पता चला कि पिछले तीन दिनों से मौसम की खराबी की वजह से हैलीकाप्टर उड नहीं पाया है और इस वजह से हैलीकाप्टर की वेटिंग बहुत लम्बी हो चुकी है। ड्राइवर की सलाह थी कि यदि हम एक ही दिन में केदार बाबा के दर्शन करके लौटना चाहते है.तो हमें खच्चर से जाना चाहिए। यही हमने तय किया और सोमवार 7 सितम्बर की सुबह निकल पडे केदार बाबा के दर्शनों के लिए।
तेरह की त्रासदी के बाद केदारनाथ दर्शन के पहले सभी यात्रियों को मेडीकल कराना होता है। सोनप्रयाग में प्रशासन की ओर से मेडीकल कराने की व्यवस्था थी,लेकिन यह बहुत ही असुविधाजनक व्यवस्था थी। यात्रियों की संख्या ढाई सौ से अधिक थी,जबकि मेडीकल के लिए वहां केवल एक डाक्टर को तैनात किया गया था। डाक्टर भी मेडीकल चैकअप के नाम पर केवल औपचारिकता निभा रहा था। मेडीकल की इस औपचरिकता को पूरा करने में हमें डेढ घण्टे का समय लगा। मेडीकल के फौरन बाद हम खच्चरों पर सवार होकर केदार घाटी के लिए चल पडे। बाइस किमी का यह सफर बेहद खतरनाक और कष्टदायक है। खच्चर पर खडी चढाई चढना भी बेहद कष्टकारक है। खच्चरों की इस यात्रा को बीच में भीमपल्ली नामक स्थान पर कुछ मिनटों के लिए विश्राम दिया जाता है। खच्चरों पर हिचकोले खाते खाते हम लोग दोपहर एक बजे केदारनाथ पर पंहुच गए। खच्चरों के रुकने के स्थान से मन्दिर करीब डेढ किमी दूर है। खच्चरों से उतरते ही आसमान से बूंदाबांदी शुरु हो गई जो जल्दी ही तेज बौछारों में बदल गई। केदारनाथ में हड्डियों को जमा देने वाली ठण्ड थी और उपर से बर्फीले पानी की बौछारों ने सभी का दम निकाल दिया। खच्चर वालों ने वापस लौटने के लिए तीन बजे तक का वक्त दिया था। पानी की तेज बौछारों को सहते हुए हम मन्दिर पंहुचे। मन्दिर में दर्शनार्थियों की कोई भीड नहीं थी। मन्दिर में दर्शन पूजा अर्चना के बाद मन्दिर के पीछे पडे उसे शिलाखण्ड के भी दर्शन किए,जिसकी वजह से 2013 के प्रलयंकारी बहाव से मन्दिर की रक्षा हुई थी। पानी के साथ बहकर आया यह शिलाखण्ड मन्दिर के ठीक पीछे आकर रुक गया था और इस शिलाखण्ड की वजह से पीछे से आने वाला बहाव दो भागों में विभक्त होकर मन्दिर के आस पास से निकल गया। मन्दिर को कोई क्षति नहीं पंहुची।
मन्दिर के बाहर 2013 की बरबादी के चिन्ह अब भी वैसे ही मौजूद है। बाढ से बहे भवन,बिखरा मलबा सबकुछ उस त्रासदी की भयावहता दिखाने के लिए पर्याप्त है। दर्शन के बाद अब लौटने का समय था। हमारे दल की कुछ महिलाएं खच्चर की खतरनाक सवारी से डर गई थी और अब किसी भी कीमत पर खच्चर पर बैठने को राजी नहीं थी। लेकिन केदारनाथ का डरावना मौसम और कडाके की ठण्ड के चलते रात यहां गुजारना भी संभव नहीं था। शुरुआती ना नुकुर के बाद आखिरकार सभी लोग फिर से खच्चरों पर सवार हुए। वापसी का यह सफर जाने की तुलना में और भी अधिक कष्टकारक था। खच्चर पर बैठकर खडी उतराई उतरना बेहद खतरनाक और कष्टदायक होता है। खच्चर की सवारी करने वाले प्रत्येक व्यक्ति की हालत बेहद खराब हो चुकी थी। खच्चर की वजह से जांघों के बीच में रगड लग लग कर सूजन आ गई थी। पीठ और गर्दनें अकड गई थी। शरीर का पोर पोर दर्द कर रहा था। यह कष्टदायक यात्रा शाम साढे सात पर समाप्त हुई। खच्चरों से उतरी महिलाएं इतनी बुरी हालत में थी कि रोने लगी थी। असीमित कष्ट उठाकर हम चार धामों में से तीसरे धाम केदारनाथ की यात्रा पूरी कर चुके थे। केदारनाथ यात्रा के घाव अभी कई दिनों तक कष्ट देने वाले थे। रात करीब आठ बजे रामपुर स्थित होटल पर पंहुचे। होटल संचालक ने स्थिति की नजाकत को देखते हुए गर्म पानी की व्यवस्था करके रखी थी। आते ही चाय भी पिलाई और भोजन भी तैयार करके रखा था। दर्द से बेहाल थके हुए यात्रियों में से आधे तो भोजन करने की भी स्थिति में नहीं थे। वे कमरों में पंहुचे और बिस्तर को छूते ही सो गए।
बद्रीनाथ धाम
चार धाम में से अंतिम बद्रीनाथ धाम की यात्रा के लिए मंगलवार को रामपुर से निकल गए थे। केदारनाथ यात्रा के कष्टों से घबराए सभी यात्रियों ने तय कर लिया था कि अगले दिन देर तक सोएंगे और कोई जल्दबाजी नहीं करेंगे। हमारे ड्राइवर सुभाष पाल ने बताया था कि नजदीक ही त्रियुगी नारायण का मन्दिर है,जहां शिव पार्वती का विवाह हुआ था। कहते है कि शिव पार्वती के विवाह का हवनकुण्ड तब से लेकर आज तक प्रज्वलित है। इसके अलावा रास्ते में चोपता नामक स्थान है जिसे उत्तरांचल का मिनी स्विट्डरलैण्ड कहा जाता है। ड्राइवर का सुझाव था कि एक रात चोपता में गुजार कर आगे बढा जाए। 8 सितम्बर मंगलवार को दोपहर बाद रामपुर से निकले,तो पहले त्रियुगी नारायण मन्दिर में दर्शन और पूजा अर्चना की और फिर लौट कर चोपता के लिए निकल पडे। चोपता पंहुचने तक अन्धेरा घिर आया था। यहां ठण्ड बहुत अधिक थी। रात चोपता में गुजारी। पता चला कि चोपता से उपर साढे तीन किमी पर तुंगनाथ मन्दिर है और उससे करीब डेढ किमी उपर चन्द्रशिला है। केदारनाथ के कष्टों से डरे प्रत्येक व्यक्ति ने तुंगनाथ जाने से साफ इंकार कर दिया था। लेकिन अगली सुबह हमारे दल में से आधे लोगों का मन तुंगनाथ जाने का हो आया। खच्चरों का खतरा उठा चुके ये लोग एक बार फिर खच्चरों का उपयोग करने को राजी हो गए थे। उन्होने जाते समय तो खच्चरों का उपयोग किया और आते वक्त पैदल आए। हमारे साथी दोपहर साढे बारह तक तुंगनाथ के दर्शन करके लौट आए। उत्तरांचल में कहते है कि बद्रीनाथ और केदारनाथ के पांच पांच रुप है। तुंगनाथ को केदारनाथ का तीसरा रुप माना जाता है।
तुंगनाथ के बाद हमारी आखरी मंजिल थी बद्रीनाथ धाम। बद्रीनाथ धाम यहां से करीब 160 किमी की दूरी पर था। मुझे कम ही उम्मीद थी कि आज की रात बद्रीनाथ पंहुच सकेंगे। वहां से चले तो शाम करीब छ: बजे जोशीमठ पंहुच गए। जाते समय जोशीमठ रुकने की बजाय सीधे बद्रीनाथ ही जाने का निर्णय किया और चल पडे। जोशी मठ से बद्रीनाथ तक का 40 किमी का रास्ता बेहद खराब है। पिछले दिनों हुई तेज बारिश के कारण अनेक जगहों पर भूस्खलन हुआ और कई स्थानों पर सड़क टूट गई थी। पूरे रास्ते में तबाही के मंजर नजर आते रहे। हम लोग रात करीब सवा आठ बजे बद्रीनाथ धाम पंहुच गए। बद्री विशाल के दर्शन अब सुबह ही होना थे। बद्रीनाथ में कडाके की ठण्ड थी। सुबह पांच बजे उठे और करीब छ: बजे बद्रीनाथ मन्दिर के बाहर तप्त कुण्ड पर स्नान के लिए पंहुच गए। तप्त कुण्ड में स्नान के बाद मन्दिर में पंहुचे। यहां भगवान बद्रीनाथ की आरती में शामिल होने का सौभाग्य भी हमें मिला। आरती में शामिल होने के बाद होटल लौटे। अब समय था वापसी का। उत्तरांचल के चारों धामों की निर्विघ्र यात्रा पूरी हो चुकी थी।
शंकराचार्य मठ
आदिगुरु शंकराचार्य का ज्योतिर्मठ बद्रीनाथ से नीचे जोशीमठ में है। छ: महीने जब बद्रीनाथ में बर्फ जमी होती है,जोशीमठ में ही भगवान बद्रीनारायण की पूजा होती है। जोशीमठ में ही आदिगुरु शंकराचार्य ने अपना मठ स्थापित किया है। ज्योतिर्मठ के स्थान पर ही भगवान शंकराचार्य ने तपस्या की थी। उन्होने जिस वृक्ष के नीचे तपस्या की थी,वह आज भी मौजूद है। शहतूत के इस पेड को कल्पवृक्ष माना जाता है। शंकराचार्य की तपस्या का ही प्रभाव है कि विगत छब्बीस सौ वर्षों से यह वृक्ष जीवित है। वृक्ष की पुरानी जडें और तना बदल जाता है,उसके स्थान पर नई शाखाएं आ जाती है। शंकराचार्य मठ में स्फटिक का शिवलिंग भी है। कहते है कि बद्रीनाथ मन्दिर का जीर्णोध्दार भी शंकराचार्य ने ही किया था। करीब छब्बीस सौ वर्ष पूर्व बौध्द धर्मावलम्बियों ने बद्रीनाथ मन्दिर को क्षतिग्रस्त कर भगवान के विग्रह को नारद कुण्ड में फेंक दिया था। आदिगुरु शंकराचार्य ने ही बद्रीनारायण के विग्रह को नारद कुण्ड से निकाल कर पुन: मन्दिर की स्थापना की थी।
जोशीमठ से निकलकर हम हरिद्वार की ओर बढ रहे थे। रास्ते में लांगसू नामक स्थान पर हमने रात्रिविश्राम किया। अगले दिन रुद्रप्रयाग के दर्शन किए और दोपहर करीब साढे तीन बजे हम ऋ षिकेश पंहुच गए। ऋ षिकेश में लक्ष्मण झूला व अन्य मन्दिरों में दर्शन कर रात करीब आठ बजे हम फिर से हरिद्वार पंहुच गए। 3 सितम्बर 2015 को हरिद्वार से प्रारंभ हुई हमारी चार धाम यात्रा 11 सितम्बर की रात आठ बजे हरिद्वार पंहुचने के साथ पूरी हो चुकी थी। हमारा वापसी का आरक्षण 13 सितम्बर का था और हरिद्वार घुमने के लिए हमारे पास पूरा एक दिन था। इस एक दिन का पूरा उपयोग हमने मंसा माता,चण्डी देवी और भारत माता मन्दिर इत्यादि प्रसिध्द स्थानो को देखने में बिताया और 14 सितम्बर को रतलाम वापसी के साथ हमारी यह यात्रा संपन्न हुई।
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