अण्डमान निकोबार की यात्रा के अंतिम चरण में तिरुपति बालाजी पंहुचे थे। इससे पहले दक्षिण की यात्रा के दौरान भी आशुतोष की जिद्द के कारण तिरुपति आए थे,लेकिन उस समय मैने दर्शन नहीं किए थे। अण्डमान की यात्रा के दौरान जब तिरुपति पंहुचे थे,तो मैने सोचा था कि यदि आसानी से दर्शन हो सकेंगे तो जरुर करुंगा और दर्शन आसानी से हो गए थे। तिरुपति पंहुचे ही थे,कि एक बडे काम के होने के संकेत मिले और उसी समय तिरुपति से यह प्रार्थना की थी कि यदि काम हो गया तो फौरन तिरुपति आएंगे। जब लौटे तो आखिरकार काम हो ही गया।
तिरुपति की कृपा मान कर तिरुपति से किया हुआ वादा निभाने के लिए तिरुपति की तीसरी यात्रा 14 नवंबर 2014 से 17 नवंबर 2014 के बीच की। यह पारिवारिक यात्रा थी। इसमें मेरे साथ वैदेही और चिन्तन के अलावा अमित लामा जी और उनकी धर्मपत्नी श्रीमती नीरू लामा भी थी। यह यात्रा यूं भी खास थी कि यह पूरी हवाई यात्रा थी और हम मात्र तीन दिन में तिरुपति जाकर लौट आए थे। यात्रा की शुरुआत जरुर ट्रेन से हुई थी। इस तेज यात्रा के दौरान डायरी लिखना संभव नहीं था। लेकिन लौटने के बाद लगातार इच्छा होती रही थी कि इस यात्रा का वृत्तान्त भी लिख लिया जाए। इस यात्रा का वृत्तान्त लिखने का योग यात्रा के करीब पांच महीने बाद बना। हांलाकि अब भी यात्रा की सारी स्मृतियां ऐसे जीवित है,जैसे यह कल की बात हो। जबकि तिरुपति यात्रा के बाद मैं अरुणाचल प्रदेश की एक लम्बी यात्रा और कर आया हूं।
26 अपै्रल 2015 रविवार
दोपहर 1.00 बजे(अपने आफिस में)
तिरुपति की यह यात्रा हमने 14 नवंबर 2014 की शाम को प्रारंभ की थी। हमने अवन्तिका एक्सप्रेस में थ्री एसी कोच में आरक्षण करवाया था। निर्धारित समय पर ट्रेन से चले। भोजन घर से पैक करके चले थे। ट्रेन में भोजन किया और सो गए। ट्रेन सुबह साढे पांच बजे मुंबई पंहुचना थी। मैने चलने से पहले मुंबई रेलवे स्टेशन पर रिटायरिंग रुम बुक करवा लिया था,जबकि लामा जी को उनके किसी रिश्तेदार से मिलना था। हमने योजना यह बनाई थी कि शाम को सीधे एयर पोर्ट पर मिलेंगे।
15 नवंबर 2014
सुबह अवन्तिका से उतरे,तो सीधे रिटायरिंग रुम का रुख किय। रिटायरिंग रुम का रिजर्वेशन आनलाइन करवाया था। उपर जाकर जब अटेण्डेन्ट से कहा तो उसने साफ मना कर दिया। उसका कहना था कि उसके पास कोई सूचना नहीं आती है। उसने कहा नीचे रिजर्वेशन काउण्टर पर जाकर स्लिप लाइए,तब प्रवेश मिलेगा। नीचे जाकर पूछा तो उसका कहना था कि ट्रांजेक्शन आईडी बताएंगे तब बुकींग कन्फर्म होगी। मैं बेहद परेशान।आईआरसीटीसी के कस्टमर केयर पर फोन लगाया,लेकिन कोई हल नहीं निकला। अचानक याद आया कि इसका एसएमएस आया होगा। मोबाइल में एसएमएस ढूंढा। बडी परेशानी के बाद एसएमएस मिला। एसएमएस दिखाने पर रुम की चाबी मिली। इस सारी मशक्कत में दो घण्टे निकल गए।
कमरे में जाकर स्नान आदि से निवृत्त हुए। चैन्नई की फ्लाईट शाम को साढे आठ बजे थी। सवाल यह था कि अब सारा दिन क्या करें। एक उपाय तो यह था कि विकास दादा के घर चले जाते। खारघर जाना ढाई घण्टे का रास्ता है। फिर विचाार किया कि मुंबई ही घूम लिया जाए। ढाई हजार रुपए में एक टैक्सी की। टैक्सी से घूमने निकले। सबसे पहले गेटवे आफ इण्डिया पंहुचे,जहंा वडा पाव का फेमस नाश्ता किया। कबूतरों के फोटो खींचे,समुद्र का नजारा देखा। टैक्सी वाले ने मुंबई के कई प्रसिध्द स्थान दिखाए। हैंगिंग गार्डन,जूताघर,मरीन ड्राइव और हाजी अली दरगाह आदि स्थानों पर गए। वैदेही की बडी इच्छा थी,हाजी अली जाने की। वह इस यात्रा में पूरी हो गई। इसी दौरान महालक्ष्मी और सिध्दी विनायक के दर्शन भी कर लिए। मुंबई घूमते घूमते दोपहर हो गई थी। मुंबई सेन्ट्रल रेलवे स्टेशन के पीछे ही एक होटल में भोजन किया। लामा जी और मैने यह योजना बनाई थी कि फ्लाईट से करीब दो घण्टे पहले एयर पोर्ट पंहुच जाए। हमने टैक्सी वाले से कहा कि हमें छ: बजे तक छत्रपति शिवाजी एयर पोर्ट के टर्मिनल 22 पर पंहुचा देना। हम तो निर्धारित समय पर एयर पोर्ट पर पंहुच गए। लेकिन लामा जी को आने में कुछ देर लगी। एयर पोर्ट पर जल्दी पंहुचने का एक कारण यह था कि लौटते समय हमें एक रात या तो एयर पोर्ट पर गुजारनी थी या कोई नजदीकी व्यवस्था ढूंढना थी। मुझे उम्मीद थी कि इन्टरनेशनल एयरपोर्ट पर रेलवे स्टेशन जैसी डोरमैट्री या रिटायरिंग रुम जैसी व्यवस्था जरुर होगी। लेकिन मुझे बडी निराशा हुई,जब पता चला कि ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है। जो है,वह सिर्फ विदेशी उडानों के यात्रियों के लिए है।
बहरहाल मुंबई एयरपोर्ट से शाम साढे आठ बजे हमारी फ्लाईट चली तो हम रात साढे दस बजे चैन्नई एयरपोर्ट पर उतरे। होटल हमने पहले ही आनलाईन बुक कर लिया था। एयरपोर्ट से टैक्सी लेकर होटल पंहुचने में करीब चालीस मिनट लग गए। रात ग्यारह बजे चैन्नई में होटल आदि बन्द हो जाते है। जिस होटल में हम ठहरे थे,वहां किचन बन्द होने का समय हो चुका था। बडी मुश्किल से वे चावल संाभर देने को राजी हुए। हम होटल से नीचे उतरे तो सड़क किनारे की एक दुकान पर वडा सांभर की दुकान बन्द होने को थी। हमने उससे भी वडा सांभर ले लिया,ताकि कुछ खाने को मिल सके। हमारा कार्यक्रम इतना टाइट था कि उसमें कुछ अतिरिक्त कर पाने की कोई जगह नहीं थी।
हमें सोते सोते रात करीब बारह बज चुके थे। हमने चैन्नई से तिरुपति जाने के लिए पहले ही एक ट्रैवल एजेंसी से बात कर ली थी। हमें चैन्नई से तिरुपति ले जाकर दर्शन करवाने,भोजन और वापस चैन्नई एयरपोर्ट छोडने तक की जिम्मेदारी ट्रेवल एजेंसी की थी। एजेंसी का कहना था कि सुबह छ: बजे होटल पर गाडी लग जाएगी और हमें छ: बजे निकलना होगा। सुबह जल्दी उठने की उधेडबुन में हम सोए।
16 नवंबर 2014
सुबह छ: बजे निकलना था,लेकिन स्नान आदि करते करते निकलने में सात बज गए। खैर हम निकले,वाहन में झपकियां लेेते लेते चैन्नई से सफर शुरु हुआ। रास्ते में एक स्थान पर रुके। रास्ता बेहद खराब था। करीब डेढ सौ किमी का सफर था,लेकिन इसमें काफी अधिक समय लगने वाला था। हमारे ट्रेवल एजेन्ट ने दर्शन के लिए साढे बारह से डेढ बजे का समय लिया था। हमें तिरुपति पंहुचने में देरी हो रही थी। हम करीब ग्यारह बजे तिरुमाला पंहुचे। यहां के एक होटल में हमारे नाश्ते का प्रबन्ध था। नाश्ते में दक्षिण भारतीय व्यंजन थे,जिसका हमने आनन्द लिया और यहां से उपर तिरुपति जाने के लिए निकले। तिरुपति उपर पहाडी पर है। पहाडी पर जाने से पहले हर वाहन और यात्री की कडी सुरक्षा जांच होती है। इस जांच में काफी वक्त जाया हो गया। हमें अब घबराहट होने लगी थी कि हम निर्धारित समय पर तिरुपति पंहुच सकेंगे या नहीं। खैर उपर पंहुचते पंहुचते एक बज गए। हमारा समय शुरु हो चुका था। जल्दी जल्दी लुंगी खरीदी और पेन्ट को हाथों में लेकर लुगी लपेट कर दर्शन की लाइन में लग गए। हमारे एजेन्ट ने हमारे लिए तीन सौ रुपए वाले टिकट लिए थे। इसलिए करीब ४० मिनट में हम तिरुपति के सामने थे। इस बार मन्दिर के भीतर भी बडी अच्छी व्यवस्था थी। बडे आराम से हमने दर्शन किए। बाहर निकले अपने ही टिकट पर प्रसाद काउण्टर से प्रसाद लिया। अब समय था,लौटने का। मन्दिर परिसर से बाहर निकले तो टैक्सी वाले की तलाश शुरु की। दोपहर के साढे तीन बज चुके थे। चैन्नई से हमारी फ्लाईट रात साढे आठ बजे की थी। हमे किसी भी हालत में सात बजे तक चैन्नई पंहुचना था। तिरुपति से चैन्नई पंहुचने में कम से कम तीन घण्टे लगना थे। साढे
तीन मन्दिर में बज चुके थे। नीचे आते आते चार बज गए। अब हमें भोजन करना था। भोजन की व्यवस्था भी उसी होटल में थी,जहां सुबह हमने नाश्ता किया था। करीब साढे चार बजे भोजन से निवृत्त हुए और चैन्नई के लिए रवाना हुए। हम शाम करीब सवा सात बजे चैन्नई एयरपोर्ट पंहुचे और फ्लाइट में चढने की औपचारिकताओं में जुट गए। लौटने की फ्लाइट एयर इण्डिया की थी। साढे आठ बजे की फ्लाइट साढे दस बजे मुंबई पंहुचना थी। मुंबई से सुबह छ: बजे इन्दौर की फ्लाईट थी। समस्या यह थी कि यदि रात गुजारने के लिए कोई होटल ढूंढते तो वहां पंहुचने में कम से कम एक घण्टा लगता और सुबह आने में भी एक घण्टा लगता। इस तरह हमें होटल में आराम करने को महज चार घण्टे का वक्त मिल पाता। फिर यही तय हुआ कि रात मुंबई के एयरपोर्ट पर गुजारी जाए।
एयर इण्डिया की फ्लाइट में अच्छी बात यह थी कि शाम का भोजन फ्लाइट में ही सर्व किया गया। उडान के दौरान भोजन भी एक बडी समस्या थी। एयरपोर्ट का भोजन अत्यन्त महंगा होता है। लेकिन प्लेन में ही भोजन दिए जाने से समस्या हल हो चुकी थी। रात साढे दस बजे हमारा विमान मुंबई एयरपोर्ट पर उतरा और अराइवल लाउंज में बाहर आते आते ग्यारह बज गए।
एयरपोर्ट पर बडी समस्या यह भी थी कि यदि एक बार एयरपोर्ट से बाहर निकल गए तो फिर प्रवेश डिपार्चर लाउंज से ही संभव है। जबकि हम लोग अराइवल लाउंज में थे। इसलिए कहीं आने जाने की स्थिति नहीं थी। डिपार्चर लाउंज में तो हर तरह की दुकानें आदि होती है,जबकि अराइवल लाउज में सिर्फ टैक्सी वालों के आफिस। एयरपोर्ट पर लगी बैंचों को जोडकर जैसे तैसे रात गुजारी।
17 नवंबर 2014
सुबह करीब साढे चार पर आंखे खुल गई। बैंचों पर जैसी नींद आ सकती थी,वैसी नींद निकाली। एयरपोर्ट के सुविधाघर पर ही नित्यकर्म से निवृत्त हुए और तब तक जाने का समय हो गया। सुबह छ: बजे विमान में सवार हुए। डेढ घण्टे की यह उडान साढे सात बजे इन्दौर के देवी अहिल्याबाई होलकर विमानतल पर समाप्त हुई। यहां से रतलाम जाने के लिए वाहन की व्यवस्था पहले ही कर ली थी। दोपहर साढे ग्यारह बजे हम रतलाम लौट आए।
तिरुपति की कृपा मान कर तिरुपति से किया हुआ वादा निभाने के लिए तिरुपति की तीसरी यात्रा 14 नवंबर 2014 से 17 नवंबर 2014 के बीच की। यह पारिवारिक यात्रा थी। इसमें मेरे साथ वैदेही और चिन्तन के अलावा अमित लामा जी और उनकी धर्मपत्नी श्रीमती नीरू लामा भी थी। यह यात्रा यूं भी खास थी कि यह पूरी हवाई यात्रा थी और हम मात्र तीन दिन में तिरुपति जाकर लौट आए थे। यात्रा की शुरुआत जरुर ट्रेन से हुई थी। इस तेज यात्रा के दौरान डायरी लिखना संभव नहीं था। लेकिन लौटने के बाद लगातार इच्छा होती रही थी कि इस यात्रा का वृत्तान्त भी लिख लिया जाए। इस यात्रा का वृत्तान्त लिखने का योग यात्रा के करीब पांच महीने बाद बना। हांलाकि अब भी यात्रा की सारी स्मृतियां ऐसे जीवित है,जैसे यह कल की बात हो। जबकि तिरुपति यात्रा के बाद मैं अरुणाचल प्रदेश की एक लम्बी यात्रा और कर आया हूं।
26 अपै्रल 2015 रविवार
दोपहर 1.00 बजे(अपने आफिस में)
तिरुपति की यह यात्रा हमने 14 नवंबर 2014 की शाम को प्रारंभ की थी। हमने अवन्तिका एक्सप्रेस में थ्री एसी कोच में आरक्षण करवाया था। निर्धारित समय पर ट्रेन से चले। भोजन घर से पैक करके चले थे। ट्रेन में भोजन किया और सो गए। ट्रेन सुबह साढे पांच बजे मुंबई पंहुचना थी। मैने चलने से पहले मुंबई रेलवे स्टेशन पर रिटायरिंग रुम बुक करवा लिया था,जबकि लामा जी को उनके किसी रिश्तेदार से मिलना था। हमने योजना यह बनाई थी कि शाम को सीधे एयर पोर्ट पर मिलेंगे।
15 नवंबर 2014
सुबह अवन्तिका से उतरे,तो सीधे रिटायरिंग रुम का रुख किय। रिटायरिंग रुम का रिजर्वेशन आनलाइन करवाया था। उपर जाकर जब अटेण्डेन्ट से कहा तो उसने साफ मना कर दिया। उसका कहना था कि उसके पास कोई सूचना नहीं आती है। उसने कहा नीचे रिजर्वेशन काउण्टर पर जाकर स्लिप लाइए,तब प्रवेश मिलेगा। नीचे जाकर पूछा तो उसका कहना था कि ट्रांजेक्शन आईडी बताएंगे तब बुकींग कन्फर्म होगी। मैं बेहद परेशान।आईआरसीटीसी के कस्टमर केयर पर फोन लगाया,लेकिन कोई हल नहीं निकला। अचानक याद आया कि इसका एसएमएस आया होगा। मोबाइल में एसएमएस ढूंढा। बडी परेशानी के बाद एसएमएस मिला। एसएमएस दिखाने पर रुम की चाबी मिली। इस सारी मशक्कत में दो घण्टे निकल गए।
कमरे में जाकर स्नान आदि से निवृत्त हुए। चैन्नई की फ्लाईट शाम को साढे आठ बजे थी। सवाल यह था कि अब सारा दिन क्या करें। एक उपाय तो यह था कि विकास दादा के घर चले जाते। खारघर जाना ढाई घण्टे का रास्ता है। फिर विचाार किया कि मुंबई ही घूम लिया जाए। ढाई हजार रुपए में एक टैक्सी की। टैक्सी से घूमने निकले। सबसे पहले गेटवे आफ इण्डिया पंहुचे,जहंा वडा पाव का फेमस नाश्ता किया। कबूतरों के फोटो खींचे,समुद्र का नजारा देखा। टैक्सी वाले ने मुंबई के कई प्रसिध्द स्थान दिखाए। हैंगिंग गार्डन,जूताघर,मरीन ड्राइव और हाजी अली दरगाह आदि स्थानों पर गए। वैदेही की बडी इच्छा थी,हाजी अली जाने की। वह इस यात्रा में पूरी हो गई। इसी दौरान महालक्ष्मी और सिध्दी विनायक के दर्शन भी कर लिए। मुंबई घूमते घूमते दोपहर हो गई थी। मुंबई सेन्ट्रल रेलवे स्टेशन के पीछे ही एक होटल में भोजन किया। लामा जी और मैने यह योजना बनाई थी कि फ्लाईट से करीब दो घण्टे पहले एयर पोर्ट पंहुच जाए। हमने टैक्सी वाले से कहा कि हमें छ: बजे तक छत्रपति शिवाजी एयर पोर्ट के टर्मिनल 22 पर पंहुचा देना। हम तो निर्धारित समय पर एयर पोर्ट पर पंहुच गए। लेकिन लामा जी को आने में कुछ देर लगी। एयर पोर्ट पर जल्दी पंहुचने का एक कारण यह था कि लौटते समय हमें एक रात या तो एयर पोर्ट पर गुजारनी थी या कोई नजदीकी व्यवस्था ढूंढना थी। मुझे उम्मीद थी कि इन्टरनेशनल एयरपोर्ट पर रेलवे स्टेशन जैसी डोरमैट्री या रिटायरिंग रुम जैसी व्यवस्था जरुर होगी। लेकिन मुझे बडी निराशा हुई,जब पता चला कि ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है। जो है,वह सिर्फ विदेशी उडानों के यात्रियों के लिए है।
बहरहाल मुंबई एयरपोर्ट से शाम साढे आठ बजे हमारी फ्लाईट चली तो हम रात साढे दस बजे चैन्नई एयरपोर्ट पर उतरे। होटल हमने पहले ही आनलाईन बुक कर लिया था। एयरपोर्ट से टैक्सी लेकर होटल पंहुचने में करीब चालीस मिनट लग गए। रात ग्यारह बजे चैन्नई में होटल आदि बन्द हो जाते है। जिस होटल में हम ठहरे थे,वहां किचन बन्द होने का समय हो चुका था। बडी मुश्किल से वे चावल संाभर देने को राजी हुए। हम होटल से नीचे उतरे तो सड़क किनारे की एक दुकान पर वडा सांभर की दुकान बन्द होने को थी। हमने उससे भी वडा सांभर ले लिया,ताकि कुछ खाने को मिल सके। हमारा कार्यक्रम इतना टाइट था कि उसमें कुछ अतिरिक्त कर पाने की कोई जगह नहीं थी।
हमें सोते सोते रात करीब बारह बज चुके थे। हमने चैन्नई से तिरुपति जाने के लिए पहले ही एक ट्रैवल एजेंसी से बात कर ली थी। हमें चैन्नई से तिरुपति ले जाकर दर्शन करवाने,भोजन और वापस चैन्नई एयरपोर्ट छोडने तक की जिम्मेदारी ट्रेवल एजेंसी की थी। एजेंसी का कहना था कि सुबह छ: बजे होटल पर गाडी लग जाएगी और हमें छ: बजे निकलना होगा। सुबह जल्दी उठने की उधेडबुन में हम सोए।
16 नवंबर 2014
सुबह छ: बजे निकलना था,लेकिन स्नान आदि करते करते निकलने में सात बज गए। खैर हम निकले,वाहन में झपकियां लेेते लेते चैन्नई से सफर शुरु हुआ। रास्ते में एक स्थान पर रुके। रास्ता बेहद खराब था। करीब डेढ सौ किमी का सफर था,लेकिन इसमें काफी अधिक समय लगने वाला था। हमारे ट्रेवल एजेन्ट ने दर्शन के लिए साढे बारह से डेढ बजे का समय लिया था। हमें तिरुपति पंहुचने में देरी हो रही थी। हम करीब ग्यारह बजे तिरुमाला पंहुचे। यहां के एक होटल में हमारे नाश्ते का प्रबन्ध था। नाश्ते में दक्षिण भारतीय व्यंजन थे,जिसका हमने आनन्द लिया और यहां से उपर तिरुपति जाने के लिए निकले। तिरुपति उपर पहाडी पर है। पहाडी पर जाने से पहले हर वाहन और यात्री की कडी सुरक्षा जांच होती है। इस जांच में काफी वक्त जाया हो गया। हमें अब घबराहट होने लगी थी कि हम निर्धारित समय पर तिरुपति पंहुच सकेंगे या नहीं। खैर उपर पंहुचते पंहुचते एक बज गए। हमारा समय शुरु हो चुका था। जल्दी जल्दी लुंगी खरीदी और पेन्ट को हाथों में लेकर लुगी लपेट कर दर्शन की लाइन में लग गए। हमारे एजेन्ट ने हमारे लिए तीन सौ रुपए वाले टिकट लिए थे। इसलिए करीब ४० मिनट में हम तिरुपति के सामने थे। इस बार मन्दिर के भीतर भी बडी अच्छी व्यवस्था थी। बडे आराम से हमने दर्शन किए। बाहर निकले अपने ही टिकट पर प्रसाद काउण्टर से प्रसाद लिया। अब समय था,लौटने का। मन्दिर परिसर से बाहर निकले तो टैक्सी वाले की तलाश शुरु की। दोपहर के साढे तीन बज चुके थे। चैन्नई से हमारी फ्लाईट रात साढे आठ बजे की थी। हमे किसी भी हालत में सात बजे तक चैन्नई पंहुचना था। तिरुपति से चैन्नई पंहुचने में कम से कम तीन घण्टे लगना थे। साढे
तीन मन्दिर में बज चुके थे। नीचे आते आते चार बज गए। अब हमें भोजन करना था। भोजन की व्यवस्था भी उसी होटल में थी,जहां सुबह हमने नाश्ता किया था। करीब साढे चार बजे भोजन से निवृत्त हुए और चैन्नई के लिए रवाना हुए। हम शाम करीब सवा सात बजे चैन्नई एयरपोर्ट पंहुचे और फ्लाइट में चढने की औपचारिकताओं में जुट गए। लौटने की फ्लाइट एयर इण्डिया की थी। साढे आठ बजे की फ्लाइट साढे दस बजे मुंबई पंहुचना थी। मुंबई से सुबह छ: बजे इन्दौर की फ्लाईट थी। समस्या यह थी कि यदि रात गुजारने के लिए कोई होटल ढूंढते तो वहां पंहुचने में कम से कम एक घण्टा लगता और सुबह आने में भी एक घण्टा लगता। इस तरह हमें होटल में आराम करने को महज चार घण्टे का वक्त मिल पाता। फिर यही तय हुआ कि रात मुंबई के एयरपोर्ट पर गुजारी जाए।
एयर इण्डिया की फ्लाइट में अच्छी बात यह थी कि शाम का भोजन फ्लाइट में ही सर्व किया गया। उडान के दौरान भोजन भी एक बडी समस्या थी। एयरपोर्ट का भोजन अत्यन्त महंगा होता है। लेकिन प्लेन में ही भोजन दिए जाने से समस्या हल हो चुकी थी। रात साढे दस बजे हमारा विमान मुंबई एयरपोर्ट पर उतरा और अराइवल लाउंज में बाहर आते आते ग्यारह बज गए।
एयरपोर्ट पर बडी समस्या यह भी थी कि यदि एक बार एयरपोर्ट से बाहर निकल गए तो फिर प्रवेश डिपार्चर लाउंज से ही संभव है। जबकि हम लोग अराइवल लाउंज में थे। इसलिए कहीं आने जाने की स्थिति नहीं थी। डिपार्चर लाउंज में तो हर तरह की दुकानें आदि होती है,जबकि अराइवल लाउज में सिर्फ टैक्सी वालों के आफिस। एयरपोर्ट पर लगी बैंचों को जोडकर जैसे तैसे रात गुजारी।
17 नवंबर 2014
सुबह करीब साढे चार पर आंखे खुल गई। बैंचों पर जैसी नींद आ सकती थी,वैसी नींद निकाली। एयरपोर्ट के सुविधाघर पर ही नित्यकर्म से निवृत्त हुए और तब तक जाने का समय हो गया। सुबह छ: बजे विमान में सवार हुए। डेढ घण्टे की यह उडान साढे सात बजे इन्दौर के देवी अहिल्याबाई होलकर विमानतल पर समाप्त हुई। यहां से रतलाम जाने के लिए वाहन की व्यवस्था पहले ही कर ली थी। दोपहर साढे ग्यारह बजे हम रतलाम लौट आए।
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