-तुषार कोठारी
देश की स्वतंत्रता के बाद बनी लोकतांत्रिक सरकारों में से प्रत्येक सरकार ने देश के गरीब और पिछडे वर्गों की बेहतरी के लिए तमाम योजनाएं बनाई और लागू की। सात दशकों के इस लम्बे कालखण्ड में बनाई गई तमाम योजनाएं इतनी आकर्षक प्रतीत होती थी,कि लगता था कि इनके लागू होने के बाद समस्या जड से समाप्त हो जाएगी। लेकिन ये योजनाएं जब क्रियान्वयन के स्तर पर पंहुची तो पता चला कि योजनाओं का असर दस प्रतिशत भी नहीं हुआ। परिणाम यह है कि सत्तर साल पहले देश में जो समस्याएं थी,कमोबेश वही समस्याएं आज भी मुंह बाए खडी है।
आखिर ऐसा क्यो हुआ? इस प्रश्न पर देश में शायद कभी गंभीरता से विचार ही नहीं किया गया। मध्यप्रदेश को ही लीजिए। मध्यप्रदेश में व्यक्ति के जन्म से लेकर विवाह और फिर वृध्द होने तक ढेरों योजनाएं चलाई जा रही है। गरीब परिवारों को एक दिन की मजदूरी में तीस दिन का राशन देने,गर्भवती महिला की प्रसव पूर्व देखभाल से लेकर प्रसव कराने और प्रसव पश्चात की देखभाल करने,शिशुओं की देखभाल,उनके बडे होने पर शिक्षा दीक्षा,बालिका के जन्म लेने पर उसकी परवरिश,वयस्क होने पर कन्यादान की व्यवस्था,वृध्द होने पर तीर्थयात्रा कराने तक की योजना सरकार द्वारा चलाई जा रही है। यदि इन सारी योजनाओं का क्रियान्वयन सुव्यवस्थित ढंग से होने लगे तो मध्यप्रदेश के किसी व्यक्ति को काम करने की आवश्यकता ही नहीं रह जाएगी।
इतनी सारी योजनाओं के बावजूद,स्कूल में बच्चे जा नहीं रहे है। बच्चों की मजदूरी पर रोक होने के बावजूद बच्चे मजदूरी कर रहे है। स्कूल जा रहे बच्चों को बेहद घटिया और कम मात्रा में भोजन दिया जा रहा है। बच्चे कुपोषित है। गर्भवती महिलाओं को पोषण आहार नहीं मिल रहा है। आंगनवाडियों में दाल दलिये का वितरण नहीं हो रहा है। मतलब यह कि सारी समस्याएं यथावत है।
ऐसा नहीं कि सरकारें इन योजनाओं के क्रियान्वयन की समीक्षा नहीं करती। सरकारी तंत्र में प्रत्येक स्तर पर योजनाओं की समीक्षा की जाने की व्यवस्था है। शासन द्वारा लागू किसी योजना की कम से कम सात स्तरों पर समीक्षा की जाती है। ये समीक्षाएं तो शासकीय अधिकारियों द्वारा की जाती है। इसके अतिरिक्त निर्वाचित जनप्रतिनिधि भी इन योजनाओं की समीक्षा करते है।
राज्य में संचालित किसी योजना की समीक्षा कैसे की जाती है,इसे देखना भी आवश्यक है। समग्र स्वच्छता अभियान में ग्रामीण घरों में पक्के शौचालय बनाने हेतु सहायता राशि देने की योजना क्रियान्वित की जा रही है। अब देखिए कि इस योजना की समीक्षा कैसे की जाती है। योजना लागू होने पर प्रत्येक ग्राम पंचायत के लिए लक्ष्य निर्धारित किया जाता है। इस लक्ष्य के आधार पर उन हितग्राहियों की सूचि बनाई जाती है,जिनके घरों पर पक्के शौचालय बनाए जाने है। फिर ग्राम पंचायत सचिव इन हितग्राहियों के प्रकरण तैयार करता है और इसी आधार पर जनपद पंचायत द्वारा ग्राम पंचायत को राशि आवंटित कर दी जाती है। राशि आवंटन के पश्चात ग्राम पंचायतों से पालन प्रतिवेदन या पूर्णता प्रमाणपत्र ले लिया जाता है।
अब बारी आती है योजना के क्रियान्वयन की समीक्षा की। पहली समीक्षा की जाती है,जनपद पंचायत स्तर पर। जनपद पंचायत का मुख्य कार्यपालन अधिकारी तमाम पंचायत सचिवों से उन्हे दिए गए लक्ष्य और लक्ष्य के विरुध्द किए गए कार्य की जानकारी मांगता है। कुछ सचिव बताते है कि वे शत प्रतिशत लक्ष्य प्राप्त कर चुके है। जबकि कुछ अभी लक्ष्य प्राप्त नहीं कर पाए है। जिनकी लक्ष्यपूर्ति नहीं हुई है,उन्हे फटकार लगाई जाती है। अगली समीक्षा जिला पंचायत में होती है। अब जिला पंचायत का सीईओ तमाम जनपदों के सीईओ से आंकडे पूछता है। जनपद सीईओ पंचायत सचिवों से मिले आंकडों को एकत्रित करके इन्हे जिला पंचायत सीईओ के समक्ष प्रस्तुत कर देगा। अब अगली समीक्षा कलेक्टर द्वारा की जाएगी। इस समीक्षा में विभाग के अधिकारी वे ही आंकडे प्रस्तुत करेंगे जो सबसे पहले जनपद पंचायत की समीक्षा में रखे गए थे। यह समीक्षा बैठक भी घण्टों चलेगी और इसमें इन्ही आंकडों को घिसा जाएगा। जहां आंकडे शत प्रतिशत के है,वहां तो ठीक,लेकिन जहां कुछ कमी है,उन्हे फटकारा जाएगा,अनुशासनात्मक कार्यवाही की धमकी भी दी जाएगी।
इससे अगली समीक्षा संभागायुक्त करेंगे। वे अपने प्रभार के तमाम जिला कलेक्टरों और जिला पंचायत सीईओ से उनके जिलों के आंकडे मांगेगे। कितने शौचालय बने? कितनी राशि आवंटित हुई? जो राशि आवंटित नहीं हो पाई,वो क्यो नहीं हो पाई? इस तरह की समीक्षा की जाएगी। जिन कलेक्टरों के आंकडे पूरे होंगे उन्हे प्रशंसा मिलेगी,जिनके अधूरे होंगे,उन्हे प्रताडना मिलेगी।
समीक्षा का क्रम यहीं नहीं रुकेगा। अब अगली समीक्षा विभाग के प्रमुख सचिव द्वारा विभागीय अधिकारियों की बैठक लेकर की जाएगी। वहां भी वे ही सवाल पूछे जाएंगे,जो सबसे पहले जनपद पंचायत की समीक्षा बैठक में पूछे गए थे। यहां अन्तर सिर्फ यह होगा कि ये प्रश्न संपूर्ण जिले के सम्बन्ध में होंगे। इससे अगली समीक्षा विभाग के मंत्री द्वारा की जाएगी। विभाग का मंत्री उन्ही सवालों को दोहराएगा,जो निचली समीक्षाओं में किए जाते रहे है। अन्तर सिर्फ यह होगा कि मंत्री की समीक्षा बैठक अखबारों में छपेगी। इसके बाद अगली समीक्षा मुख्यमंत्री स्वयं करेंगे। यह समीक्षा भी अखबारों में हाईलाईट होगी। कहा जाएगा कि मुख्यमंत्री के सफल नेतृत्व में प्रदेश स्वच्छता के पथ पर चल पडा है। प्रदेश के इतने हजार गांवों के इतने लाख घरों में पक्के शौचालय बना दिए गए है। प्रदेश के इतने हजार गांव खुले में शौच की समस्या से मुक्त घोषित हो गए है।
लेकिन अगली ही सुबह ट्रेन में सवार होकर निकला कोई व्यक्ति देखेगा कि रेल पटरियों के किनारे कई सारे लोग मलत्याग कर रहे है। कार में बैठकर गांवों से गुजरने वाला व्यक्ति भी देखेगा कि जिस गांव को खुले में शौच से मुक्त घोषित किया गया था,वहां बडी तादाद में लोग खुले में ही मलत्याग कर रहे है।
इतनी समीक्षाओं के बावजूद आखिर गडबडी क्यो हो रही है? ये वो लाख टके का सवाल है,जिस पर किसी भी राजनीतिक दल के नेता का ध्यान नहीं जाता। जब किसी गांव प्रत्येक शौचालय रहित घर के लिए धनराशि जारी हो गई और आंकडे भी प्रस्तुत कर दिए गए कि लक्ष्य प्राप्ति हो चुकी है,तब ऐसे में काम अधूरा क्यो रह गया?
पिछले सात दशकों समीक्षा का यही तरीका चुना गया है,लेकिन योजनाएं बनाने वालों ने कभी इसकी चिन्ता नहीं की,कि योजनाओं के क्रियान्वयन को सफल कैसे बनाया जाए।
जिले के कलेक्टर सारा सारा दिन बैठके करते रहते है। यही हाल जनपद और जिला पंचायतों के कार्यपान अधिकारियों का है। विभागों के जिला अधिकारी भी यही करते है। लेकिन आज तक किसी अधिकारी को यह नहीं कहा गया कि वह स्वयं किसी एक गांव में जाकर पंचायत सचिव या जनपद पंचायत द्वारा दिए गए आंकडों का भौतिक सत्यापन करे। कलेक्टरों को गांवों में रात गुजारने के निर्देश तो दिए जाते है,लेकिन वे इस रात गुजारी में राजाओं की तरह ग्रामीणों की समस्याएं सुनते है। चालू वर्ष में संचालित किसी योजना का वास्तविक परीक्षण नहीं करते। समीक्षा बैठकों में प्रस्तुत आंकडों को उस गांव में मौजूद तथ्यों से मिलान कभी नहीं करते। यही हाल कलेक्टर,कमिश्नर और उच्चाधिकारियों का है। वे गांव में भी जाते है,तो वहां भी बैठक ही करते है। परीक्षण नहीं करते। यदि अधिकारियों के एक एक गांव की वास्तविक समीक्षा करने के निर्देश दिए जाए और एक एक हितग्राही को मौके पर ही बुलाकर पूछताछ की जाए,तो शायद आधे सरकारी कर्मचारियों को तुरंत निलम्बित करना पड जाएगा। तंत्र की विफलता का कारण भी यही है। प्रशासकीय मशीनरी,सिर्फ आंकडे देती है, वास्तविकता को कभी भी सामने नहीं आने देती। प्रशासन का सारा खेल आंकडेबाजी पर है,वास्तविक परिवर्तन उनकी चिन्ता का विषय नहीं है। प्रशासनिक मशीनरी पर काबू रखने का दायित्व शासन पर अर्थात निर्वाचित जनप्रतिनिधियों पर है। मुख्यमंत्री और विभागीय मंत्री उद्घाटन और शिलान्यासों के भाषणों से ही अघा जाते है। वे सोच ही नहीं पाते कि यह काम उनका है कि वे गांव के भीतर पंहुचकर वहां के उस हितग्राही का परीक्षण करें,जिसे लाभान्वित बताया जा रहा है। यदि मंत्री सीधे किसी हितग्राही से उसके गांव में जाकर पूछेगा तो हितग्राही बताएगा कि योजना का लाभ उसे वास्तव में मिला भी है या उसका नाम सिर्फ कागजों पर है।
योजनाओं के क्रियान्वयन और समीक्षा के तौर तरीकों में आमूलचूल परिवर्तन किए बगैर जनकल्याण कारी राज्य स्थापित नहीं हो सकता। वर्तमान व्यवस्था अंग्रेजों की देन है। सारा देश आंखे मूंद कर इस पर चल रहा है। लेकिन यदि देश को सचमुच में आगे ले जाना है तो व्यवस्था परिवर्तन आवश्यक है। और इसके लिए प्रशासनिक कार्यप्रणाली में बदलाव जरुरी है। इसमें मौलिकता लाने की जरुरत है। फाईलों में योजनाएं और क्रियान्वयन किए जाने की बजाय धरातल पर योजनाओं के क्रियान्वयन की योजना बनेगी,तभी देश में वास्तविक परिवर्तन आएगा।
देश की स्वतंत्रता के बाद बनी लोकतांत्रिक सरकारों में से प्रत्येक सरकार ने देश के गरीब और पिछडे वर्गों की बेहतरी के लिए तमाम योजनाएं बनाई और लागू की। सात दशकों के इस लम्बे कालखण्ड में बनाई गई तमाम योजनाएं इतनी आकर्षक प्रतीत होती थी,कि लगता था कि इनके लागू होने के बाद समस्या जड से समाप्त हो जाएगी। लेकिन ये योजनाएं जब क्रियान्वयन के स्तर पर पंहुची तो पता चला कि योजनाओं का असर दस प्रतिशत भी नहीं हुआ। परिणाम यह है कि सत्तर साल पहले देश में जो समस्याएं थी,कमोबेश वही समस्याएं आज भी मुंह बाए खडी है।
आखिर ऐसा क्यो हुआ? इस प्रश्न पर देश में शायद कभी गंभीरता से विचार ही नहीं किया गया। मध्यप्रदेश को ही लीजिए। मध्यप्रदेश में व्यक्ति के जन्म से लेकर विवाह और फिर वृध्द होने तक ढेरों योजनाएं चलाई जा रही है। गरीब परिवारों को एक दिन की मजदूरी में तीस दिन का राशन देने,गर्भवती महिला की प्रसव पूर्व देखभाल से लेकर प्रसव कराने और प्रसव पश्चात की देखभाल करने,शिशुओं की देखभाल,उनके बडे होने पर शिक्षा दीक्षा,बालिका के जन्म लेने पर उसकी परवरिश,वयस्क होने पर कन्यादान की व्यवस्था,वृध्द होने पर तीर्थयात्रा कराने तक की योजना सरकार द्वारा चलाई जा रही है। यदि इन सारी योजनाओं का क्रियान्वयन सुव्यवस्थित ढंग से होने लगे तो मध्यप्रदेश के किसी व्यक्ति को काम करने की आवश्यकता ही नहीं रह जाएगी।
इतनी सारी योजनाओं के बावजूद,स्कूल में बच्चे जा नहीं रहे है। बच्चों की मजदूरी पर रोक होने के बावजूद बच्चे मजदूरी कर रहे है। स्कूल जा रहे बच्चों को बेहद घटिया और कम मात्रा में भोजन दिया जा रहा है। बच्चे कुपोषित है। गर्भवती महिलाओं को पोषण आहार नहीं मिल रहा है। आंगनवाडियों में दाल दलिये का वितरण नहीं हो रहा है। मतलब यह कि सारी समस्याएं यथावत है।
ऐसा नहीं कि सरकारें इन योजनाओं के क्रियान्वयन की समीक्षा नहीं करती। सरकारी तंत्र में प्रत्येक स्तर पर योजनाओं की समीक्षा की जाने की व्यवस्था है। शासन द्वारा लागू किसी योजना की कम से कम सात स्तरों पर समीक्षा की जाती है। ये समीक्षाएं तो शासकीय अधिकारियों द्वारा की जाती है। इसके अतिरिक्त निर्वाचित जनप्रतिनिधि भी इन योजनाओं की समीक्षा करते है।
राज्य में संचालित किसी योजना की समीक्षा कैसे की जाती है,इसे देखना भी आवश्यक है। समग्र स्वच्छता अभियान में ग्रामीण घरों में पक्के शौचालय बनाने हेतु सहायता राशि देने की योजना क्रियान्वित की जा रही है। अब देखिए कि इस योजना की समीक्षा कैसे की जाती है। योजना लागू होने पर प्रत्येक ग्राम पंचायत के लिए लक्ष्य निर्धारित किया जाता है। इस लक्ष्य के आधार पर उन हितग्राहियों की सूचि बनाई जाती है,जिनके घरों पर पक्के शौचालय बनाए जाने है। फिर ग्राम पंचायत सचिव इन हितग्राहियों के प्रकरण तैयार करता है और इसी आधार पर जनपद पंचायत द्वारा ग्राम पंचायत को राशि आवंटित कर दी जाती है। राशि आवंटन के पश्चात ग्राम पंचायतों से पालन प्रतिवेदन या पूर्णता प्रमाणपत्र ले लिया जाता है।
अब बारी आती है योजना के क्रियान्वयन की समीक्षा की। पहली समीक्षा की जाती है,जनपद पंचायत स्तर पर। जनपद पंचायत का मुख्य कार्यपालन अधिकारी तमाम पंचायत सचिवों से उन्हे दिए गए लक्ष्य और लक्ष्य के विरुध्द किए गए कार्य की जानकारी मांगता है। कुछ सचिव बताते है कि वे शत प्रतिशत लक्ष्य प्राप्त कर चुके है। जबकि कुछ अभी लक्ष्य प्राप्त नहीं कर पाए है। जिनकी लक्ष्यपूर्ति नहीं हुई है,उन्हे फटकार लगाई जाती है। अगली समीक्षा जिला पंचायत में होती है। अब जिला पंचायत का सीईओ तमाम जनपदों के सीईओ से आंकडे पूछता है। जनपद सीईओ पंचायत सचिवों से मिले आंकडों को एकत्रित करके इन्हे जिला पंचायत सीईओ के समक्ष प्रस्तुत कर देगा। अब अगली समीक्षा कलेक्टर द्वारा की जाएगी। इस समीक्षा में विभाग के अधिकारी वे ही आंकडे प्रस्तुत करेंगे जो सबसे पहले जनपद पंचायत की समीक्षा में रखे गए थे। यह समीक्षा बैठक भी घण्टों चलेगी और इसमें इन्ही आंकडों को घिसा जाएगा। जहां आंकडे शत प्रतिशत के है,वहां तो ठीक,लेकिन जहां कुछ कमी है,उन्हे फटकारा जाएगा,अनुशासनात्मक कार्यवाही की धमकी भी दी जाएगी।
इससे अगली समीक्षा संभागायुक्त करेंगे। वे अपने प्रभार के तमाम जिला कलेक्टरों और जिला पंचायत सीईओ से उनके जिलों के आंकडे मांगेगे। कितने शौचालय बने? कितनी राशि आवंटित हुई? जो राशि आवंटित नहीं हो पाई,वो क्यो नहीं हो पाई? इस तरह की समीक्षा की जाएगी। जिन कलेक्टरों के आंकडे पूरे होंगे उन्हे प्रशंसा मिलेगी,जिनके अधूरे होंगे,उन्हे प्रताडना मिलेगी।
समीक्षा का क्रम यहीं नहीं रुकेगा। अब अगली समीक्षा विभाग के प्रमुख सचिव द्वारा विभागीय अधिकारियों की बैठक लेकर की जाएगी। वहां भी वे ही सवाल पूछे जाएंगे,जो सबसे पहले जनपद पंचायत की समीक्षा बैठक में पूछे गए थे। यहां अन्तर सिर्फ यह होगा कि ये प्रश्न संपूर्ण जिले के सम्बन्ध में होंगे। इससे अगली समीक्षा विभाग के मंत्री द्वारा की जाएगी। विभाग का मंत्री उन्ही सवालों को दोहराएगा,जो निचली समीक्षाओं में किए जाते रहे है। अन्तर सिर्फ यह होगा कि मंत्री की समीक्षा बैठक अखबारों में छपेगी। इसके बाद अगली समीक्षा मुख्यमंत्री स्वयं करेंगे। यह समीक्षा भी अखबारों में हाईलाईट होगी। कहा जाएगा कि मुख्यमंत्री के सफल नेतृत्व में प्रदेश स्वच्छता के पथ पर चल पडा है। प्रदेश के इतने हजार गांवों के इतने लाख घरों में पक्के शौचालय बना दिए गए है। प्रदेश के इतने हजार गांव खुले में शौच की समस्या से मुक्त घोषित हो गए है।
लेकिन अगली ही सुबह ट्रेन में सवार होकर निकला कोई व्यक्ति देखेगा कि रेल पटरियों के किनारे कई सारे लोग मलत्याग कर रहे है। कार में बैठकर गांवों से गुजरने वाला व्यक्ति भी देखेगा कि जिस गांव को खुले में शौच से मुक्त घोषित किया गया था,वहां बडी तादाद में लोग खुले में ही मलत्याग कर रहे है।
इतनी समीक्षाओं के बावजूद आखिर गडबडी क्यो हो रही है? ये वो लाख टके का सवाल है,जिस पर किसी भी राजनीतिक दल के नेता का ध्यान नहीं जाता। जब किसी गांव प्रत्येक शौचालय रहित घर के लिए धनराशि जारी हो गई और आंकडे भी प्रस्तुत कर दिए गए कि लक्ष्य प्राप्ति हो चुकी है,तब ऐसे में काम अधूरा क्यो रह गया?
पिछले सात दशकों समीक्षा का यही तरीका चुना गया है,लेकिन योजनाएं बनाने वालों ने कभी इसकी चिन्ता नहीं की,कि योजनाओं के क्रियान्वयन को सफल कैसे बनाया जाए।
जिले के कलेक्टर सारा सारा दिन बैठके करते रहते है। यही हाल जनपद और जिला पंचायतों के कार्यपान अधिकारियों का है। विभागों के जिला अधिकारी भी यही करते है। लेकिन आज तक किसी अधिकारी को यह नहीं कहा गया कि वह स्वयं किसी एक गांव में जाकर पंचायत सचिव या जनपद पंचायत द्वारा दिए गए आंकडों का भौतिक सत्यापन करे। कलेक्टरों को गांवों में रात गुजारने के निर्देश तो दिए जाते है,लेकिन वे इस रात गुजारी में राजाओं की तरह ग्रामीणों की समस्याएं सुनते है। चालू वर्ष में संचालित किसी योजना का वास्तविक परीक्षण नहीं करते। समीक्षा बैठकों में प्रस्तुत आंकडों को उस गांव में मौजूद तथ्यों से मिलान कभी नहीं करते। यही हाल कलेक्टर,कमिश्नर और उच्चाधिकारियों का है। वे गांव में भी जाते है,तो वहां भी बैठक ही करते है। परीक्षण नहीं करते। यदि अधिकारियों के एक एक गांव की वास्तविक समीक्षा करने के निर्देश दिए जाए और एक एक हितग्राही को मौके पर ही बुलाकर पूछताछ की जाए,तो शायद आधे सरकारी कर्मचारियों को तुरंत निलम्बित करना पड जाएगा। तंत्र की विफलता का कारण भी यही है। प्रशासकीय मशीनरी,सिर्फ आंकडे देती है, वास्तविकता को कभी भी सामने नहीं आने देती। प्रशासन का सारा खेल आंकडेबाजी पर है,वास्तविक परिवर्तन उनकी चिन्ता का विषय नहीं है। प्रशासनिक मशीनरी पर काबू रखने का दायित्व शासन पर अर्थात निर्वाचित जनप्रतिनिधियों पर है। मुख्यमंत्री और विभागीय मंत्री उद्घाटन और शिलान्यासों के भाषणों से ही अघा जाते है। वे सोच ही नहीं पाते कि यह काम उनका है कि वे गांव के भीतर पंहुचकर वहां के उस हितग्राही का परीक्षण करें,जिसे लाभान्वित बताया जा रहा है। यदि मंत्री सीधे किसी हितग्राही से उसके गांव में जाकर पूछेगा तो हितग्राही बताएगा कि योजना का लाभ उसे वास्तव में मिला भी है या उसका नाम सिर्फ कागजों पर है।
योजनाओं के क्रियान्वयन और समीक्षा के तौर तरीकों में आमूलचूल परिवर्तन किए बगैर जनकल्याण कारी राज्य स्थापित नहीं हो सकता। वर्तमान व्यवस्था अंग्रेजों की देन है। सारा देश आंखे मूंद कर इस पर चल रहा है। लेकिन यदि देश को सचमुच में आगे ले जाना है तो व्यवस्था परिवर्तन आवश्यक है। और इसके लिए प्रशासनिक कार्यप्रणाली में बदलाव जरुरी है। इसमें मौलिकता लाने की जरुरत है। फाईलों में योजनाएं और क्रियान्वयन किए जाने की बजाय धरातल पर योजनाओं के क्रियान्वयन की योजना बनेगी,तभी देश में वास्तविक परिवर्तन आएगा।
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