4 सितम्बर 2016 रविवार
केएमवीएन कैम्प गुंजी/ शाम 4.4010370 फीट
अब हम तिब्बत छोडकर भारत में आ चुके हैं। बीती रात सोते सोते ग्यारह बज गए थे और सुबह 5 बजे तकलाकोट से निकलना था। सुबह 4 बजे उठा। शेविंग करने के बाद दूध और कार्नफ्लेक्स का नाश्ता किया और बस में सवार हो गए। बस हमे सबसे पहले कस्टम आफिस ले गई,जहां बैग इत्यादि स्कैन किए गए। फिर बस में सवार हो कर लिपूलेख पास के लिए रवाना हो गए। तकलाकोट 12930 फीट पर है,जबकि लिपूलेख पास 16780 फीट है। तकलाकोट से निकलते ही बस पहाडों पर चलने लगी। इस बस ने हमें लिपूलेख पास से
करीब पांच किमी पहले उंचे पहाड पर उतारा।
यहां से उपर जाने के लिए छोटी गाडियां थी। इन गाडियों ने हमें लिपूलेख पास से महज एक किमी नीचे छोडा। यानी कि ये गाडियां करीब सौलह हजार फीट की उंचाई तक पंहुची थी। इससे भी मजेदार बात यह थी कि इन गाडियों में से एक गाडी चीनी अधिकारी श्री नवांग खुद चला रहे थे। एक गाडी में एक बार में मात्र पांच यात्री जा सकते थे। वहां कुल तीन गाडियां थी। सभी गाडियों ने तीन-तीन चक्कर लगाए। मैं,आशुतोष,एलओ सा. आदि अंतिम राउण्ड में गए। गाडियों से उतर कर हम पैदल एक किमी की खडी चढाई चढने लगे। लिपूपास के उपर आईटीबीपी के जवान व डाक्टर हमारा इंतजार कर रहे थे। चीनी अधिकारी श्री नवांग,हमारा गाइड गुरु व अन्य चीनी अधिकारी भी पैदल चढकर लिपूपास के उपर तक आए। उन्होने उपर आकर अंतिम बिन्दू पर हमारे दल को बिदाई दी। लिपूपास पर जब पहली बार पंहुचे थे,तब बारिश और बर्फबारी ने सभी यात्रियों की हालत खराब कर दी थी। आज मौसम पूरी तरह साफ था और शानदार धूप खिली हुई थी। उंचाई पर ठण्ड तो थी लेकिन धूप के कारण ठण्ड का असर कम था। पहाड से उतरना चढने की बजाय काफी आसान होता है। हांलाकि इसमें पैरों को अधिक कष्ट होता है। लिपूपास पर मैने कैमरे से फोटो और विडीयो भी बनाए। हमारा गाइड/पोर्टर प्रतीक हमे लेने नीचे ही आ गया था और उसने मेरा बैग भी ले लिया था। हम तेजी से नीचे उतरने लगे। हमें सिर्फ नाबीडांग तक जाना था। इससे आगे एलओ सा.की मेहरबानी से गुंजी तक वाहन की व्यवस्था थी। हम करीब साढे नौ बजे नाबीडांग के केएमवीएन कैम्प पर पंहुच गए। नाबीडांग के कैम्प से ओम पर्वत का सुस्पष्ट नजारा होता है। हांलाकि अब ओम पर्वत से बर्फ पिघल चुकी थी,लेकिन फिर भी ओम की आकृति स्पष्ट देखी जा सकती थी। इसके फोटो विडीयो आदि बनाए। कैलाश जाने के समय जब हम नाबीडांग पंहुचे थे,ओम पर्वत बादलों में छुपा हुआ था। लेकिन आज इसका स्पष्ट नजारा हो गया।
नाबीडांग में ही अल्पाहार की व्यवस्था थी। कई दिनों बाद भारतीय खाना मिला था। नाश्ते में पोहे,पुडी और छोले की व्यवस्था थी। नाश्ता करके चाय पी। नाबीडांग कैम्प पहाडों की तलहटी में है,जबकि सड़क करीब पांच सौ फीट की उंचाई पर है। सड़क पर पंहुचे। यहां आईटीबीपी की गाडी और एक खुला ट्रक खडा था। बन्द गाडी में महिलाओं और वृध्दों को बैठा दिया गया। खुले ट्रक में,पहाडी रास्तों पर यात्रा करना बेहद जोखिमभरा और रोमांचक होता है। खुले ट्रक में हम यात्री गण,हमारे पोर्टर और आईटीबीपी के कुछ जवानों के साथ साथ आदि कैलाश यात्रा के कुछ यात्री भी चढ गए। इस तरह इस ट्रक में पचास से भी ज्यादा लोग हो गए। हमारी यात्रा मात्र नौ किमी की थी। लेकिन खुले ट्रक में,एक दूसरे के पैरों पर पैर रखते हुए,एक दूसरे के शरीरों से संतुलन बनाते हुए यात्रा करना एक खतरनाक रोमांचक अनुभव है। ये नौ किमी की यात्रा इतनी खतरनाक थी कि हर पल यह डर बना हुआ था कि कहीं लोगों का वजन पडने से हाथ पैर ना टूट जाए। जब भी ट्रक चढाई पर चढता,सारे यात्री पीछे की ओर गिरने लगते,जबकि उतार पर सारे लोग आगे गिरने लगते। हमारे साथ चल रहा नासिक का सीए फणिराज तो इतना परेशान हो गया कि कहने लगा कि अब वह पहाडों में गाडी में यात्रा ही नहीं करेगा। चाहे उसके लिए बीएमडब्ल्यू ही क्यों न बुलवा ली जाए। फणिराज के पिता पार्थसारथी जी लगातार आठवीं बार मानसरोवर की यात्रा पर आए हैं,लेकिन फणिराज पहली बार आया है। वह यात्रा की शुरुआत से ही परेशान है। हाई एल्टीट्यूड के कारण यात्रा की शुरुआत से ही उसका सिर दर्द करने लगा था। अब वापसी की यात्रा में उसे थोडा ठीक महसूस हो रहा था । लेकिन खुले ट्रक की परेशानीभरी यात्रा से वह बेहद परेशान हो गया था।
कालापानी के केएमवीएन टीआरएच में हमारे भोजन की व्यवस्था थी। कई दिनों बाद अच्छा भारतीय भोजन मिला। हरी सब्जी,दाल,चावल,पुलाव का शानदार भोजन किया। फिर आईटीबीपी औव आईबी के चैकपोस्ट पर भारत आगमन की एन्ट्री करवाई। आईबी वालों ने पासपोर्ट पर मोहर लगाई। काली नदी के उद्गम पर बने देवी के मन्दिर में दर्शन किए और फिर से ट्रक में सवार हो गए। इस बार ट्रक की यात्रा आसान थी,क्योंकि अब लोग कम हो गए थे। सभी लोग आराम से बैठ गए। कालापानी से गुंजी तक की नौ किमी की यह यात्रा आनन्ददायी रही। गाडी में नहीं बेठने की घोषणाएं करने वाला फणिराज भी ट्रक में आ गया था और हमारे साथ बडे आराम से गुंजी तक पंहुच गया था।
वैसे चीन से भारत में प्रवेश करने वाले कैलाश यात्रियों को लिपूलेख से गुंजी तक पैदल ही आना पडता है,लेकिन चूंकि हमारे एलओ संजय गुंजियाल जी का यहां खासा प्रभाव है,इसलिए हमलोगों के लिए गाडी उपलब्ध हो गई थी।
हम लोग करीब दो बजे गुंजी पंहुच गए। अब यहां हमें सिर्फ आराम करना था। आते ही एलओ सा.ने यात्रियों की मीटींग की । यह तय किया गया कि धारचूला से आगे का सफर जागेश्वर से जाने की बजाय चौकोडी और भीमताल होते हुए किया जाएगा। चौकोडी और भीमताल दोनो ही बेहद दर्शनीय स्थल है। मार्ग परिवर्तन के कारण नए स्थानों पर रुकने की व्यवस्था भी केएमवीएन के एमडी से चर्चा कर करवाई जाएगी। यह परिवर्तन भी इसीलिए संभव था क्योंकि हमारे एक श्री गुंजियाल सा.थे।
मीटींग में यात्रियों से पांच-पांच सौ रुपए और लेने का निर्णय भी किया गया। चाय के साथ मीटींग समाप्त हुई। अब हमें कोई काम नहीं था। थोडी देर टेण्ट में आकर आराम के मुड में आया कि तभी मेरे गाइड प्रतीक के साथ लोकेश व विकी आ गए। मैं उनके साथ काफी देर तक घूमता रहा। ये सभी लडके पढाई करते हैं और यात्रा के दिनों में पोर्टर का काम करते हैं। ये सभी मेरे अच्छे दोस्त बन गए है। करीब दो घण्टे तक इनसे यात्राओं की बातें होती रही। अगले साल सितम्बर में स्वर्गारोहिणी जाने की योजना भी बनी।
शाम के भोजन की व्यवस्था आईटीबीपी की ओर से थी। आज से ठीक नौ दिन पहले 26 अगस्त को जिस कमरे में सारे यात्री सहमें हुए बैठे थे,वहीं भोजन का आयोजन था। जो डाक्टर उस दिन लोगों को डरा रहे थे,वे ही हंस हंस कर स्वागत कर रहे थे। संक्षिप्त भाषण हुए। पार्थसारथी जी और भावसार जी ने आईटीबीपी को धन्यवाद दिया। एलओ श्री गुंजियाल सा. ने भी आईटीबीपी को उनके उत्कृष्ट कार्यों के लिए सैल्यूट किया। शानदार भोजन बनाया गया था। भोजन के साथ ही भारत में वापसी के पहले दिन का समापन हुआ।
कल की यात्रा भी आसान है। कल हम बडे आराम से अल्पाहार करके सुबह नौ बजे यहां से बुधी के लिए रवाना होंगे। वाहन हमें छियालेख से 2 किमी पहले उतार देंगे। फिर हमें 2 किमी चलकर छियालेख पंहुचना होगा और वहां से तीन किमी की खडी ढलान पारकर हम बुधी पंहुच जाएंगे। दोपहर का भोजन बुधी में ही होगा।
5 सितम्बर 2016 सोमवार / गणेश चतुर्थी
केएमवीएन बुधी/रात 10.30(8500 फीट)
केएमवीएन कैम्प बुधी में अब पूरे दिन की कहानी याद आ रही है। आज सुबह गुंजी से निकलने की कोई जल्दी नहीं थी। आईटीबीपी के खुले ट्रक से गभ्र्यांग तक जाना था।वहां से मात्र 5 किमी का ट्रैक था। इसलिए सुबह नौ बजे नाश्ता करके निकलने का कार्यक्रम तय था। बीती रात गुंजी में एलओ गुंजियाल जी के सत्संग में रात की ग्यारह बज गई थी। फिर भी कोई चिंता नहीं थी।सुबह बडे आराम से छ: बजे उठा। शेविंग की। स्नान भी कर लिया। इडली सांभर,सब्जी पुडी का नाश्ता किया।
हमारे दोस्त पोर्टर भी आ चुके थे। आईटीबीपी का ट्रक छोटा था। सारे पोर्टरों को उतार दिया गया। सिर्फ यात्री ट्रक में रहे। करीब अठारह किमी का पहाडी सफर बेहद हिला देने वाला और खतरनाक है। हम लोग गर्बयांग तक तो डम्फर में आ गए। डम्फर छियालेख तक जा रहा था,लेकिन एलओ साहब ने इस डम्फर में से हम सभी को उतार लिया और दूसरी बन्द सुरक्षित गाडी में यहां तक पंहुची महिलाओं और वृध्दों को डम्फर में चढाया गया। उन्हे केवल तीन किमी का सफर इस डम्फर में करना था। लेकिन हमें पता चला कि छियालेख तक पंहुचते पंहुचते कई महिलाएं रोने लगी थी।
इधर मैं और आशुतोष एलओ साहब के साथ चले। जगजीत और तनु भी हमारे साथ थे। गर्बयांग एलओ सा. का ननिहाल भी है और ससुराल भी। गांव में उनके कई रिश्तेदार व परिचित मिल रहे थे। सारे यात्री आगे जा चुके थे। एलओ सा.हमें उनके मामाजी के घर ले गए। मिट्टी से बना और गोबर से लिपा ग्रामीण घर। ऐसे घरों में सुकून और शांति का एहसास होता है। कमरे के बीचो बीच तीन तरफ से पतरे से ढंका चूल्हा था,जिसकी चिमनी छत से बाहर निकाली गई थी। यह देसी तकनीक का श्रेष्ठ उदाहरण था। इस बन्द चूल्हे के उपर की ओर बीच में एक बडा छिद्र था,जबकि तीन-चार छोटे छिद्र थे। इस चूल्हे पर एक साथ तीन चार चीजें पकाई जा सकती है। धुंआ बाहर निकल जाता है। तीनों तरफ से पतरे से बन्द होने के कारण यह चूल्हा कमरे को भी गर्म रखता है।
इसी कमरे में गुंजियाल जी के मामजी और कुछ अन्य रिश्तेदारों व हम चार लोग बैठे। कुमाउं की परंपरा के मुताबिक ऐसे अवसरों पर वे अपने पूर्वजों को श्रध्दांजलि देने के लिए चकती का भोग लगाते है। उनके मामाजी ने पहले घर में बने छोटे से मन्दिर में दिया चलाया। फिर हम सभी को जौ के कुछ दाने दिए,जो हमने अपनी हथेलियो पर रख लिए। इसके बाद ग्लास लाए गए,इनमें भी जौ के दाने डाले गए। फिर चकती का भोग लगाकर सभी ग्लासों में चकती डाली गई। हाथों में रखे जौ के दानें सभी ने अपने उपर छिडक लिए। तब चकती को प्रसाद लिया गया।
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गर्बयांग से चले। फूलों की घाटी छियालेख के बाद तीन किमी की खडी ढलान उतरना थी। हमें बुधी पंहुचने की कोई जल्दी नहीं थी। हमारे पास पर्याप्त समय था। हम बडे आराम से चल रहे थे। छियालेख के बाद की ढलान उतरना कठिन काम था। चूंकि हम सबसे पीछे रह गए थे,इसलिए केएमवीएन के कर्मचारी हमारे साथ चल रहे थे। उनकी जिम्मेदारी थी कि अंतिम यात्री के कैम्प पर पंहुचने तक उन्हे साथ रहना होता है। उत्तराड्ड पुलिस का एक जवान भी हमारे साथ चल रहा था।
खडी ढलान उतरने के बाद अब कैम्प ज्यादा दूर नहीं था। मैं मार्ग के किनारे एक बडे पत्थर पर सुस्ताने के लिए बैठना चाहता था। जैसे ही मै उस पर टिका,पीछे से बिच्छू घांस ने मुझे काटा। कुमाउं के इस इलाके में बिच्छू घांस बहुतायत में मिलती है और बडी खतरनाक होती है। हांलाकि इस क्षेत्र के लोग इसे औषधीय गुणों वाला और दर्द निवारक के रुप में काम आने वाली औषधि बताते है। बिच्छू घांस त्वचा को छूते ही बिच्छू के डंक का एहसास कराती है। संकरी पगडंडियों पर दोनो तरह बिच्छू घांस उगी होती है और चलते समय हाथ,बिच्छू घांस से छू ही जाते है। जैसे ही बिच्छू घांस त्वचा से छूती है,तुरंत तेज जलन होती है,जो बिच्छू के डंक जैसी होती है। यह जलन काफी देर तक बनी रहती है।
अब कैम्प नजदीक था। कैम्प तक पंहुचते पंहुचते हम थक चुके थे। सबसे पीछे के शेड में हमें टिकने की जगह मिगी। शेड में पंहुचते ही आराम करने की इच्छा हुई और सौ गए।
आज गणेश चतुर्थी का दिन है। बुधी के कैम्प में पं.आशुतोष मुकर्जी ने मिट्टी के गणेश जी बनाकर उनकी स्थापना की। आगे के एक शेड में गणेश पूजा का कार्यक्रम हुआ। मैने वहां जाकर गणपति अथर्वशीर्ष के पाठ का सुझाव दिया। गणपति अथर्वशीर्ष के पाठ और भजन पूजन के बाद गणेश विसर्जन का कार्यक्रम भी संपन्न हुआ। सभी यात्रियों ने बडी श्रध्दा के साथ गणेशोत्सव मनाया।
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