6 सितम्बर 2016 मंगलवार
काली नदी के किनारे / दोपहर 12.30इस वक्त हम घनघोर आवाज और तेज बहाव के साथ बहती काली नदी के किनारे बैठे हैं। यहां से महज एक-डेढ किमी की दूरी पर हमारे लिए वाहन खडे हैं जो हमें धारचूला तक पंहुचाएंगे। हमें यहां रोक दिया गया है क्योंकि आगे ब्लास्टिंग हो रही है। करीब पैंतालिस मिनट हमें यहीं इंतजार करना है। काली नदी के तेज बहाव का शोर लगातार सुनाई दे रहा है। नदी के इस तरफ हम हैं और सामने की तरफ की पहाडियां नेपाल में हैं। काली नदी भारत और नेपाल की सीमाओं के बीच बहती है।
बुधी से हमें पांच बजे निकलना था,लेकिन हम साढे पांच पर वहां से निकल पाए। बुधी से ही काली नदी के साथ साथ हम चलते रहे। काली नदी हमारी बाई ओर बह रही है। बुधी से लामारी हो कर मालपा पंहुचना था,जहां हमारे नाश्ते की व्यवस्था थी। बुधी से लामारी नौ किमी है। यह रास्ता बेहद रोमांचक और खतरनाक है। पहाड को काट काट कर संकरा सा रास्ता बनाया गया है। नीचे उबड खाबड पत्थर,उपर चट्टान से सिर टकराने का डर। बीच बीच में उपर से गिरते झरने,जो बारिश का एहसास कराते है। इन झरनों की वजह से नीचे कीचड और फिसलन। बाईं ओर सौ फीट नीचे,तेज बहाव वाली काली नदी। इसी रास्ते में आगे या पीछे से सामान लाद कर आते खच्चरों की कतारें। जब खच्चरों के गले में बंधी घण्टियों की आवाज आती है,हर व्यक्ति चट्टान की ओर दुबक जाता है। खच्चरों के निकलने के बाद फिर से चलना शुरु कर देता है। इन उंचे नीचे उबड खाबड पथरीले रास्तों से चलते चलते हम करीब 8.35 पर मालपा पंहुचे,जहां गर्मागर्म पुडी और सब्जी का नाश्ता किया। मैं कल दिन भर ढंग से खा नहीं पाया था,इसलिए आज दबा के नाश्ता किया। यहां से अभी नौ-दस किमी का सफर और तय करना था। साढे नौ पर हम नाश्ता करके आगे बढे। आगे चलते चलते हम खानडेरा नामक स्थान पर पंहुचे,जहां एक-दो होटल बने हैं। यहां थोडी देर रुक कर चाय पी। खानडेरा से आगे बढे। जब हम गाला से बुधी आए थे,तब 4444 सीढीयां उतरे थे। अब हमें गाला नहीं जाना था वरना फिर से सीढियां चढना पडती। जिस स्थान पर ये सीढियां खत्म होती है,ठीक वहीं से हम नदी के किनारे उतरने लगे। ये उतराई बेहद खतरनाक थी,क्योंकि यहां कोई रास्ता बना हुआ नहीं था। करीब डेढ सौ फीट उतरने के बाद हम बिलकुल नदी के किनारे पर पंहुच गए। फिर नदी के साथ साथ चलने का सिलसिला शुरु हुआ। रास्ता कभी उतार वाला होता और हम नदी के पास पंहुच जाते,फिर चढाई आ जाती और हम नदी से उपर आ जाते। इस वक्त हम नदी की बगल में करीब पचास फीट उपर है। झाडियों की छांव में बैठे है। ब्लास्ट हो चुका है। एक लडका वायरलेस सैट लेकर खडा है,जो यह खबर देगा कि हमें कब चलना है। समय का सदुपयोग सारे लोग सुस्ताने में कर रहे हैं। मैं डायरी लिख रहा हूं।
8 सितम्बर 2016 गुरुवार
नौकुचिया ताल6 सितम्बर को जहां डायरी रुकी थी,उसके बाद सीधे आज डायरी से जुडने का समय मिल पाया।
हम लोग करीब एक घण्टा काली नदी के किनारे बैठे रहे। तब जाकर हमें आगे बढने का संकेत मिला। जब उठकर चलने लगे तो पता चला कि हाथ पांव सब दर्द कर रहे है। शरीर गर्म होता है,तब ये पता नहीं चलता,लेकिन खून ठण्डा होने पर पांव आगे बढने से इंकार कर देते हैं। यहां से आगे का रास्ता बहुत छोटा था। लेकिन बेहद कठिन।अभी हम नदी के साथ साथ चल रहे थे। थोडा ही चले,कि सामने एक टूटे पहाड पर चढने की चुनौती आ गई। इस उंचे पहाड के उपर ही सड़क थी। पहाड ताजा ताजा टूटा था। कोई रास्ता नहीं था। पत्थरों पर पैर रख रख कर उपर जाना था। पत्थर जमें हुए नहीं थे। डर यह था कि यदि पैर रखने से कोई पत्थर फिसला तो हम नीचे गिर सकते थे। हड्डियां टूट सकती थी। हमसे आगे चलने वाले की वजह से यदि कोई पत्थर फिसलता तो हमारे हाथ पैर टूट सकते थे। लेकिन हम तो जैसे तैसे चढ हीगए। समस्या तो रीवा(म.प्र.) से आए अनिल राय व उनकी पत्नी श्रीमती सुमन की थी,जो चल ही नहीं पा रही थी। सुमन जी का पोर्टर विकी (विक्रम धामी) उन्हे जैसे तैसे उठाकर उपर लाया। इसी तरह भुवनेश्वर के तुषार रंजन परिदा जी की श्रीमती सरिता परिदा भी राम राम करके उपर चढ पाई।
उपर चढते ही सड़क मिल गई। यह सड़क धारचूला से गुंजी तक बनना है। लेकिन अभी गर्बाधार तक ही बनी है। गर्बाधार यहां से साढे तीन किमी दूर है। जीप वाले अपनी गाडियां यहां तक ले आए थे,जो पचास पचास रुपए में यात्रियों को गरबाधार चक ले जा रहे थे। गरबाधार में भोजन की व्यवस्था थी। भोजन की बिलकुल इच्छा नहीं थी। हमने यहां चाय पी। कठिनाईयां झेल कर आई महिलाओं के आंसू नहीं रुक रहे थे। गरबाधार से धारचूला करीब 45 किमी है और यह दो सवा दो घण्टे का रास्ता है।
हम शाम को पांच बजे धारचूला पंहुचे। हमारा लगेज थोडी देर बाद पंहुचा। स्नान शेव आदि किया। आज सारे पोर्टर प्रतीक,लोकेश,विकी,विक्रम धामी,धर्मू, नरेन्द्र समेत सारे लडके हमारा इंतजार कर रहे थे। हमने आज सभी को पार्टी देने की घोषणा की थी। इन सब लोगों से हमारी अच्छी दोस्ती हो गई थी। दिक्कत सिर्फ यह थी कि हमें आगली सुबह साढे चार बजे निकलना था। लगेज बांधने खोलने में प्रतीक और विकी ने मदद की,बल्कि ये काम उन्होने ही किया। सारे दोस्तों के नम्बर लिए। अगले साल फिर आने और कान्टेक्ट में रहने का वादा किया। रात को सोते सोते साढे ग्यारह बज गए।
8 सितम्बर 2016 गुरुवार
केएमवीएन टीआरएच नौकुचिया तालसुबह 7.10
कल का सारा दिन बस में गुजर गया। डायरी से जुडने का मौका ही नहीं मिला। धारचूला से रवानगी का वक्त सुबह साढे चार का रखा गया था। रात को लगेज खोलना,पैक करना जैसे काम पडे हुए थे। रात को सोते सोते साढे ग्यारह हो गए थे। इसलिए बीती सुबह चार बजे उठे,नित्यकर्म से निवृत्त हुए,आंखों पर पानी छिडका और बस में सवार हो गए।
केएमवीएन ने यात्रियों के लिए दो छोटी बसों की व्यवस्था की थी। पहाडों में आमतौर पर बडी बसें नहीं चलाई जाती। हम जिस बस में सवार हुए थे,उसमें अलमोडा की कामिनी कश्यप और रुद्रपुर की डॉ.रजनीश बत्रा मौजूद थी। कामिनी जी स्वयं को वकील बताती है और कई बार मानसरोवर हो आई है। इसी वजह से स्वयं को काफी महत्वपूर्ण मानती है। डॉ.बत्रा बुजुर्ग महिला है। प्रोफेसर हैं,लेकिन आदतन खब्ती हैं।
आमतौर पर कैलाश यात्रा में वापसी का सफर जागेश्वर होकर होता है। लेकिन एलओ श्री गुंजियाल जी ने यात्रियों को चौकोडी और नौकुचिया ताल होकर जाने का सुझाव दिया था। सभी यात्रियों ने इस पर सहमति दी थी। इनमें कामिनी कश्यप भी थी। यह निर्णय बुधी के कैम्प में लिया गया था। निर्णय होने के एक-दो घण्टे बाद ही यह मैडम आई,कहने लगी ये एलओ तो उटपटांग निर्णय लेते हैं। लम्बा रास्ता है। तय कार्यक्रम बदलना नहीं चाहिए। कई यात्रियों ने कहा कि आप भी तो निर्णय के वक्त मौजूद थी,तो वे बोली कि तब मुझे समझ में नहीं आया था,कि क्या निर्णय हो रहा है?
अब,जब धारचूला से सुबह साढे चार चलने का निर्णय हुआ,ये दोनो महिलाएं बस में चिल्लपों मचाने लगी कि हमारे साथ गलत हो गया है। सुबह इतनी जल्दी क्यों उठा दिया गया। पहाडों में सुबह छ: बजे से पहले कोई वाहन चलता है क्या? हम लोग और कई सारे यात्री इन बातों का आनन्द ले रहे थे। अभी हमारी बस को चलते हुए एक-डेढ घण्टा हुआ था। रोशनी फैलने लगी थी कि अचानक बस का पिछला टायर पंचर हो गया। एलओ सा.दूसरी गाडी में थे,जो आगे चल रही थी। अब इन महिलाओं को ये कष्ट हो गया कि वह गाडी आगे क्यों चली गई? ड्राइवर ने पहिया बदला,स्टेपनी लगाकर गाडी आगे बढाई। हमारा नाश्ता चौकोडी में तय था। अभी साढे सात-आठ बज रही थी कि ये महिलाएं चीख पुकार मचाने लगी कि सुबह से चाय नाश्ता नहीं मिला है। उधर आईटीबीपी के मिरथी कैम्प में यात्रियों के स्वागत का छोटा सा कार्यक्रम रखा जाता है। चाय वहीं होना थी,लेकिन पहिया पंचर होने से हम पिछड गए थे। इसलिए यह तय हुआ कि हम मिरथी ना जाते हुए सीधे आगे बढ जाएं। मिरथी में पहली बस के यात्रियों का स्वागत सम्मान हो चुका था। इन महिलाओं को अब यह भी कष्ट था कि उन्हे मिरथी क्यों नहीं ले जाया गया। एक-दो अन्य यात्री भी उनके स्वर में स्वर मिलाने लगे थे। चाय की समस्या हल करने के लिए बस को डीडीहाट टीआरएच ले जाया गया। यहां हमारी बस के यात्रियों को चाय पिलाई गई। यहां से गाडी आगे बढी तो चौकोडी टीआरएच में पंहुची,जहां सब्जी पराठे का नाश्ता किया गया। अभी करीब साढे दस हुए थे। चौकोडी ऐसा स्थान है,जहां से कई प्रसिध्द पहाडों की चोटियां एक साथ नजर आती है। हांलाकि आसमान अभी साफ नहीं था,इसलिए ज्यादा कुछ देखा नहीं जा सका।
चौकोडी से चले। यहां से हमारी मंजिल अलमोडा था,जहां दोपहर के भोजन की व्यवस्था थी। यह करीब नब्बे किमी दूर थाऔर अंदाजा यह था कि ढाई या तीन बजे अलमोडा पंहुच जाएंगे। अभी चौकोडी से निकले एकाध घण्टा हुआ था। बीच में सेराघाट नामक स्थान है,जहां अधिकांश बसें रुकती है। सेराघाट से पांच-सात किमी पहले हमारी बस खराब हो गई। स्टार्ट ही होने को तैयार नहीं। ड्राइवर ने कहा इंजन ने एयर ले ली है। उसने काफी प्रयास किए लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला। इस बार,हमारी बस को आगे चलाया जा रहा था। दूसरी बस पीछे थी। करीब चालीस पचास मिनट बाद यह तय हुआ कि दोनो बसों की सवारियां व सामान एक बस में कर दिया जाए। पहले महिलाओं व वृध्दों को उस बस में सीट दी गई। यह तय हुआ कि सारी सीटें भरने के बाद जो बच जाएंगे,वे किसी और व्यवस्था से आगे पंहुचेंगे। खराब बस से सारा सामान व यात्री अच्छी बस में शिफ्ट किए गए। गुंजियाल सा.ने मुझे व आशुतोष को भी इसी बस में जाने को कहा। हम लोग इस बार केबिन में बैठे। लगभग सभी यात्रियों को सीटें मिल गई। एलओ सा.के साथ पांच -छ: लोग रुक गए थे। यहां से अलमोडा 62 किमी था। अलमोडा पंहुचते पंहुचते साढे चार हो गए। अलमोडा में तुरंत भोजन करके वहां से रवाना हुए। अब बस के अलावा दो छोटी गाडियां और आ गई थी। इनमें महिलाओं और बुजुर्गों को बैठाया गया। अब सभी के पास सीटें थी। अलमोडा से नौकुचिया ताल ५५ किमी था। उम्मीद ढाई घण्टे में पंहुचने की थी। शाम करीब सवा आठ बजे हम नौकुचिया ताल पंहुच गए। यहां के केएमवीएन के टीआरएच में हम रुके है। कमरे के ठीक सामने नौकुचिया ताल है। तालाब में पहाड की छाया नजर आ रही है। नौकाएं बंधी हुई है। यहां बोटिंग होती है। कमरे के बाहर खुबसूरत फूल लगे हैं। फूलों के आगे झील है। सुबह आंख खुलते ही सबसे पहले इन दृश्यों को कैमरे में कैद किया।
रात को सवा आठ पर यहां आने के बाद एलओ सा. ने हम लोगों को बिदाई की पार्टी दी। आधी रात के वक्त सोने का समय हुआ। निश्चिन्तता इसलिए थी कि अगली सुबह यानी आज,यहां से साढे दस पर निकलने का तय हुआ था। हम कल करीब बारह-तेरह घण्टे बस में ही रहे थे,लेकिन आज पूरा आराम मिलना था। रात को भरपूर नींद ली। अभी स्नानादि से निवृत्त हो चुके है। जिस वक्त निकलना होगा,हम तैयार है।
यहां से करीब एक घण्टे का रास्ता काठगोदाम का है। वहां से बडी वाल्वो बस में हम सवार होंगे। वहां से करीब पांच घण्टे का रास्ता दिल्ली का है। हम शाम को छ:-सात बजे तक दिल्ली पंहुचेंगे। आज की रात प्रतीक दवे रतलामी के साथ बिताएंगे। वह चण्डीगढ से दिल्ली पंहुचने वाला है।
-----------------------------
(रतलाम में)
नौकुचिया ताल से निकलकर दिल्ली पंहुचने का घटनाक्रम यात्रा की व्यस्तता के कारण लिख हीं नहीं पाया था। हांलाकि उस दिन का पूरा घटनाक्रम अब भी आंखों में घूम रहा है।
नौकुचिया ताल में सुबह उठने के बाद सबसे मिलने जुलने और बिदा लेने का समय था। लगभग सभी यात्रियों ने एक दूसरे के मोबाइल नम्बर सेव किए। कुछेक लोगों ने नौकुचिया ताल में बोटिंग का आनन्द भी लिया। फणिराज ने सभी यात्रियों के विडीयों क्लिपिंग तैयार किए। मैने भी अधिकांश यात्रियों के फोटो लेकर उनके नम्बर सेव किए। हमारे ग्रुप के एलओ संजय गुंजियाल जी ने सभी यात्रियों को गुंजी गांव की ओर से ओम पर्वत के चित्र वाले की चेन स्मृतिचिन्ह के रुप में भेंट किए। यात्रियों की ओर से भी उन्हे स्मृतिचिन्ह भेंट किया गया। हमारे कुछ यात्री साथी यहीं से बिदा ले रहे थे। यात्रा दल के सबसे बुजुर्ग सदस्य उत्तराखण्ड के चण्डीप्रसाद जी बहुगुणा यहीं से बिदा हो रहे थे। उनका वकील पुत्र उन्हे लेने वहीं आ गया था। चण्डी प्रसाद जी के साथ पूरी यात्रा में बहुत आनन्द आता था। वे बुजुर्ग होने के बावजूद बेहद जिन्दादिल व्यक्ति हैं। उनके साथ सभी लोग काफी हंसी मजाक करते थे। वे भी बुरा नहीं मानते थे। बहरहाल,उन्होने सभी से बिदा ली। उत्तराखण्ड की डॉ.रजनीश बत्रा और कामिनी कश्यप जी भी रास्ते से ही बिदा होने वाली थी। टीआरएच में शानदार अल्पाहार करने के बाद करीब साढे दस बजे यहां से रवाना हुए। हमारी अगली मंजिल काठगोदाम था,जहां फिर से केएमवीएन ने संगीतमय स्वागत के साथ दोपहर के भोजन की व्यवस्था रखी थी।
यात्रा का अगला भाग पढने के लिए यहां क्लिक करें
No comments:
Post a Comment