तुषार कोठारी
जब से देश की केन्द्रीय सत्ता में और अनेक प्रदेशों में भाजपा बहुमत में आई है,भारतीय परंपरा और संस्कृति से अनजान अंग्रेजीदां बुध्दिजीवियों और मीडीया वालों के लिए कई सारे नए कन्फ्यूजन खडे हो गए है। कभी ये भ्रम परंपरा और संस्कृति को नहीं समझ पाने की वजह से होते है तो कभी भाषा की पर्याप्त समझ नहीं होने की वजह से। मजेदार बात यह है कि इस तरह भ्रमित हुए बुध्दिजीवी और मीडीया वाले अपने भ्रम को ही सत्य की तरह प्रस्तुत करते है,तो उनके ग्लैमर के असर में कई सारे लोग इसी को सच भी मानने लगते है।
शुरुआत करे,उत्तर प्रदेश में योगी सरकार से। उत्तर प्रदेश में हिन्दुत्ववादी भाजपा को मिला अपार बहुमत भारतीय परंपरा और संस्कार से दूर रहने वाले इन तथाकथित बुध्दिजीवियों को वैसे ही समझ में नहीं आ रहा था। वे समझ ही नहीं पा रहे थे कि जातियों में बंटे उत्तर प्रदेश के लोग हिन्दुत्व के नाम पर लामबन्द कैसे हो गए? भारतीय परंपरा से कटे लोगों को इस बात का अहसास ही नहीं है कि हिन्दुओं में जातिगत अभिमान के बावजूद अपने धर्म का अभिमान भी होता है,और धर्म अन्तत: जाति से उपर होता है।
कन्फ्यूजन की शुरुआत यहीं से होती है। कट्टर हिन्दुवादी योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने के बाद जैसे ही योगी ने बूचडखानों को बन्द करने का अभियान चलाया,ये बुध्दिजीवी येन केन प्रकारेण यह कहने लगे कि बूचडखानों के खिलाफ कार्यवाही धर्मविशेष के खिलाफ है। इसी के साथ वे यह भी प्रदर्शित करने लगे कि हिन्दुत्व की अवधारणा में मांसाहार को कहीं स्थान ही नहीं है और हिन्दुत्ववादी चाहते है कि सभी लोग मांसाहार छोड कर शाकाहारी हो जाएं। वे यह नहीं जानते कि हिन्दु धर्मावलम्बियों में शाकाहारियों से बडी संख्या मांसाहारियों की है। यहां तक कि बडी संख्या में ब्राम्हण भी ऐसे है,जिनके समुदाय में मांसाहार को बुरा नहीं माना जाता। असल में सारा कन्फ्यूजन हिन्दु धर्म की जटिलता की वजह से है। भारतीय परंपरा को नहीं समझने वाले के लिए तमाम ब्राम्हण एक जैसे है। जबकि वास्तविकता यह है कि ब्राम्हणों में दर्जनों उपजातियां है। इन दर्जनों उपजातियों में से कई उपजातियों में मांसाहार स्वीकार्य है। खासतौर पर हिमालयीन पहाडी क्षेत्रों में और दक्षिण भारतीय समुद्र तटीय क्षेत्रों के ब्राम्हणों में मांसाहार न सिर्फ स्वीकार्य है,बल्कि धार्मिक रीति रिवाजों में भी मांसाहार चलता है।
हिन्दू समाज की अनेक जातियों में मांसाहार मान्य है। यहां तक कि न्यायालय की रोक के बावजूद अनेक मन्दिरों में आज भी पशु बलि दी जाती है और बलि के बाद इसे भगवान का प्रसाद मान कर ग्रहण किया जाता है। कुल मिलाकर हिन्दू समाज में नब्बे प्रतिशत से अधिक लोग मांसाहार के विरोधी नहीं है। ऐसे में यह मानना कि हिन्दुत्ववादी मांसाहार को रोकने के इच्छुक है,सिवाय भ्रम के और कुछ नहीं है। इसलिए जब योगी आदित्यनाथ बूचडखानों पर रोक लगाते है,तो उसका यह अर्थ लगाया जाना कि भाजपा मांसाहार पर रोक लगाना चाहती है,पूरी तरह गलत है। लेकिन यह वही समझ सकता है,जो भारतीय रीति नीति से अच्च्छी तरह परिचित हो। विदेशों में पढकर बुध्दिजीवी बने लोग इसे नहीं समझ सकते।
ठीक यही बात बीफ को लेकर है। हिन्दू समाज में किसी भी जाति का व्यक्ति हो,गाय उसके लिए पूजनीय है। हिन्दू चाहे शाकाहारी हो या मांसाहारी,गाय उसके लिए माता का दर्जा रखती है। किसी मांसाहारी हिन्दू से पूछ कर देखिए कि क्या वह गौमांस खाना स्वीकार करेगा? दुनिया में ऐसा कोई हिन्दू नहीं हो सकता,जो स्वयं को हिन्दू आस्था का बताए और गौमांस खाने से इंकार ना कर दे। गौमांस नहीं खाना और गाय को माता मानना तो हिन्दु होने की आवश्यक शर्त है। लेकिन कन्फ्यूजन तब पैदा होता है,जब गौमांस को अंग्रेजी में बीफ कहा जाता है। वास्तविकता यह है कि भैंस के मांस को भी बीफ ही कहा जाता है। भैंस का मांस खाना हिन्दुओं में निषिध्द नहीं है,बल्कि भैंस की तो बलि दी जाती है। असल समस्या यह है कि अंग्रेजी में गौमांस और भैंस के मांस दोनो को ही बीफ कहा जाता है। भैस का मांस खाने पर रोक नहीं है,गौमांस खाना पूर्णत: निषिध्द है। भैंस का मांस खाने की बात को अंग्रेजी में कहा जाएगा कि बीफ खाया जा रहा है। बाद में इसका हिन्दी अनुवाद यदि गौमांस के रुप में कर लिया जाता है,तो भाषा के लिहाज से तो यह ठीक है,लेकिन धार्मिक भावनाओं के लिहाज से पूरी तरह गलत है।
अंग्रेजी प्रेस यदि बीफ शब्द को छोडकर गौमांस को काउ मीट और भैस के मांस को बफेलो मीट लिखने लग जाए तो,कई समस्याएं समाप्त हो जाएगी। एक बडे अखबार में एक बडे पत्रकार ने अपने लेख में लिखा कि वह गोवा में बीफ खा रहा था। बीफ शब्द के आधार पर ही उसने आगे यह भी लिख दिया कि गोवा में हिन्दुओं को गौमांस से कोई परहेज नहीं है। उक्त बडे पत्रकार को यह नहीं पता है कि गोवा हो या नागालैण्ड,गौमांस को कोई हिन्दू स्वीकार नहीं करता। देश के नागालैण्ड और मेघालय जैसे कुछ राज्य ऐसे है,जहां गौहत्या पर रोक नहीं है और बेधडक गौमांस खाया जाता है। लेकिन इसका कारण यह है कि इन राज्यों में हिन्दुओं की संख्या नगण्य है। नागालैण्ड और मेघालय जैसे राज्यों के वनवासी करीब डेढ सौ सालों से ईसाई बन चुके हैं और हिन्दू संस्कृति से पूरी तरह कटे हुए हैं। इसके अलावा इन राज्यों में मांसाहार सामान्य बात है। ऐसी स्थिति में इन लोगों के लिए गाय भी अन्य जानवरों की तरह एक जानवर है,जिसका मांस खाया जा सकता है। लेकिन यदि नागालैण्ड या मेघालय में हिन्दू धर्म में आस्था रखने वाला कोई व्यक्ति है,तो वह मांसाहारी होने के बावजूद भी गौमांस बिलकुल भी नहीं खाएगा।
कन्फ्यूजन का अगला पडाव है,शराब बन्दी। शराब बन्दी को नैतिकता से जोडकर देखा जाता है। राजनेता अब इसे चुनावी मुद्दा बनाने में भी लग गए है। नीतिश कुमार ने बिहार में पूर्ण शराब बन्दी करने के बाद यह मुद्दा भाजपा की ओर उछाल दिया है। शिवराज सिंह भी कह रहे है कि मध्यप्रदेश चरणबध्द तरीके से शराबबन्दी की ओर बढ रहा है। शराबबन्दी आमलोगों को कन्फ्यूजन में रखने का बडा मुद्दा है। सच्चाई कोई न तो बोलने को राजी है और ना कोई बताना चाहता है। वास्तविकता यह है कि लम्बे समय से शराब बन्दी वाले नरेन्द्र मोदी के गुजरात के हर शहर कस्बे और गांव में शराब आसानी से उपलब्ध है। जो राजस्व सरकार के खजाने में जाना चाहिए था,वह पुलिस,आबकारी विभाग और नेताओं की जेब में जा रहा है। नागालैण्ड भी पूर्ण शराबबन्दी वाला राज्य है। यहां भी हर कहीं शराब मिलती है। बिहार में शराबबन्दी लागू कर नीतिश ने उपरी तौर पर अपनी नैतिकता की छबि को चमकाने की कोशिश की है। इससे थोडे से आम लोग और कुछ महिलाएं कुछ समय के लिए प्रभावित हो सकते है। लेकिन जल्दी ही वहां भी सच्चाई सामने आ जाएगी। सरकार को शराब से मिलने वाला राजस्व अब सरकारी खजाने की बजाय अफसरों और नेताओं की जेब में जाने लगा है। जिस भी राज्य में यह मुद्दा उछलता है,वहां आखिरकार यही होना है। एक तथ्य यह भी है कि हमारी कई धार्मिक परंपराओं में मदिरा का भोग लगाया जाता है।
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