(आठवां दिन)15 सितम्बर 2017 शुक्रवार (सुबह 7.05)
चक्रतीर्थ कैम्प
पहाडों के उपर सूरज की रोशनी नजर आने लगी है,लेकिन हमारे कैम्प से अभी यह काफी दूर है। धूप दिखने की हिम्मत से ही सारे साथी नित्यकर्म से निवृत्त हो चुके है। इस कैम्प की खासियत यह है कि पूरे मैदान में पहाडी झरनों से उतरते पानी की प्राकृतिक नहर सी बनी हुई है। पानी की सारी जरुरत इसी नहर से पूरी हो जाती है। हांलाकि ये पानी बर्फीला है और जमा देता है। हाथ धो लो तो हाथ सुन्न पड जाते है।
इस वक्त हम लोग चाय पी चुके है। मैगी तैयार हो रही है। आज योजना सीधे बद्रीनाथ जाने की है,जबकि पहले बीच में एक रात रुकने का कार्यक्रम था। हमें जल्दी निकलना है। इसलिए हम जल्दी उठकर तैयार हो रहे है।
कल की शाम बेहद मजेदार रही। हमारे टेण्ट में ही भोजन बन रहा था। दाल और चावल। दशरथ जी और महेश जी के लिए रोटियां भी बनी थी। शाम सात बजे तक तो भोजन भी हो गया। बाहर अंधेरा फैलने लगा था। अब किसी के पास कोई काम नहीं था। गनीमत यह थी कि तेज हवा रुक चुकी थी,लेकिन ठण्ड कडाके की थी। हमारी यात्रा के गाईड सूरज और कुक देवेन्द्र ने हमारे पोर्टर प्रकाश,निर्मल आदि की मदद से जंगली पौधे मंगवाकर अलाव जलाया। हम देर तक इस अलाव का आनन्द लेते रहे। महेश जी,दशरथ जी और मैं,हम तीनों अलाव का मजा ले रहे थे,जबकि बाकी तीनों टेण्ट में ही दुबके पडे थे। थोडी देर बाद महेश जी भी चले गए। गाईड सूरज और कुक देवेन्द्र उनकी कच्ची ले आए और दोहरी गर्मी लेते रहे। फिर देवेन्द्र ने मोबाइल पर एक दक्षिण की हिन्दी डब फिल्म लगा दी। बडी मजेदार फिल्म थी। करीब आधे पौन घण्टे फिल्म देखी और अब सोने चले।
स्लिपींग बेग में सोना बेहद कठिन है। ऐसा लगता है पीरे शरीर को बांध दिया गया है। हाथ-पैर हिला नहीं सकते। बस ठण्ड से पूरा बचाव हो जाता है,गर्मी भी आ जाती है,लेकिन नींद नहीं आती। करवटें बदलते हुए रात गुजरती है। रात को दो-तीन बार ळघुशंका निवारण के लिए उठने की हिम्मत भी कर डाली।
जंगल के इस जीवन की दिक्कतें ढेर हैं,लेकिन शायद इन्ही में मजा भी है। हमारे पास स्टोव एक ही है। ठण्डा पानी पी नहीं सकते। गर्म पानी करके बाटल में भरो तो दस-पन्द्रह मिनट में ठण्डा हो जाता है। जब एक चीज बन रही हो तो दूसरी बन नहीं सकती। ठण्डे पानी में हाथ डालने की हिम्मत नहीं होती। खाना जैसे तैसे बनता है। टेण्ट के बाहर निकलने की इच्छा नहीं होती। भीतर बैठे -बैठे भी परेशान हो जाते है। बाहर बर्फीली हवा जान निकाल देती है। सुबह के नित्यकर्म का मामला भी कठिन है। बर्फीले पानी की बोटल लेकर दूर जाना होता है।
घुटनों पर बैठना वैसे ही कठिन है। जर्किन और इनर खोल नहीं सकते। इन परेशानियों का एक अच्छा नतीजा यह हुआ कि मेरी शाम को एक बार निवृत्त होने की आदत छूट गई है। दो दिन से मैने शाम को जाने की जहमत नहीं उठाई।
नौवें दिन की यात्रा पढने के लिए यहां क्लिक करें
चक्रतीर्थ कैम्प
पहाडों के उपर सूरज की रोशनी नजर आने लगी है,लेकिन हमारे कैम्प से अभी यह काफी दूर है। धूप दिखने की हिम्मत से ही सारे साथी नित्यकर्म से निवृत्त हो चुके है। इस कैम्प की खासियत यह है कि पूरे मैदान में पहाडी झरनों से उतरते पानी की प्राकृतिक नहर सी बनी हुई है। पानी की सारी जरुरत इसी नहर से पूरी हो जाती है। हांलाकि ये पानी बर्फीला है और जमा देता है। हाथ धो लो तो हाथ सुन्न पड जाते है।
इस वक्त हम लोग चाय पी चुके है। मैगी तैयार हो रही है। आज योजना सीधे बद्रीनाथ जाने की है,जबकि पहले बीच में एक रात रुकने का कार्यक्रम था। हमें जल्दी निकलना है। इसलिए हम जल्दी उठकर तैयार हो रहे है।
कल की शाम बेहद मजेदार रही। हमारे टेण्ट में ही भोजन बन रहा था। दाल और चावल। दशरथ जी और महेश जी के लिए रोटियां भी बनी थी। शाम सात बजे तक तो भोजन भी हो गया। बाहर अंधेरा फैलने लगा था। अब किसी के पास कोई काम नहीं था। गनीमत यह थी कि तेज हवा रुक चुकी थी,लेकिन ठण्ड कडाके की थी। हमारी यात्रा के गाईड सूरज और कुक देवेन्द्र ने हमारे पोर्टर प्रकाश,निर्मल आदि की मदद से जंगली पौधे मंगवाकर अलाव जलाया। हम देर तक इस अलाव का आनन्द लेते रहे। महेश जी,दशरथ जी और मैं,हम तीनों अलाव का मजा ले रहे थे,जबकि बाकी तीनों टेण्ट में ही दुबके पडे थे। थोडी देर बाद महेश जी भी चले गए। गाईड सूरज और कुक देवेन्द्र उनकी कच्ची ले आए और दोहरी गर्मी लेते रहे। फिर देवेन्द्र ने मोबाइल पर एक दक्षिण की हिन्दी डब फिल्म लगा दी। बडी मजेदार फिल्म थी। करीब आधे पौन घण्टे फिल्म देखी और अब सोने चले।
स्लिपींग बेग में सोना बेहद कठिन है। ऐसा लगता है पीरे शरीर को बांध दिया गया है। हाथ-पैर हिला नहीं सकते। बस ठण्ड से पूरा बचाव हो जाता है,गर्मी भी आ जाती है,लेकिन नींद नहीं आती। करवटें बदलते हुए रात गुजरती है। रात को दो-तीन बार ळघुशंका निवारण के लिए उठने की हिम्मत भी कर डाली।
जंगल के इस जीवन की दिक्कतें ढेर हैं,लेकिन शायद इन्ही में मजा भी है। हमारे पास स्टोव एक ही है। ठण्डा पानी पी नहीं सकते। गर्म पानी करके बाटल में भरो तो दस-पन्द्रह मिनट में ठण्डा हो जाता है। जब एक चीज बन रही हो तो दूसरी बन नहीं सकती। ठण्डे पानी में हाथ डालने की हिम्मत नहीं होती। खाना जैसे तैसे बनता है। टेण्ट के बाहर निकलने की इच्छा नहीं होती। भीतर बैठे -बैठे भी परेशान हो जाते है। बाहर बर्फीली हवा जान निकाल देती है। सुबह के नित्यकर्म का मामला भी कठिन है। बर्फीले पानी की बोटल लेकर दूर जाना होता है।
घुटनों पर बैठना वैसे ही कठिन है। जर्किन और इनर खोल नहीं सकते। इन परेशानियों का एक अच्छा नतीजा यह हुआ कि मेरी शाम को एक बार निवृत्त होने की आदत छूट गई है। दो दिन से मैने शाम को जाने की जहमत नहीं उठाई।
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