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30 अगस्त मंगलवार (शाम 8.35)
संजय होटल भरमौर
इस वक्त रात के साढे आठ बज चुके है? हम लोग भरमौर के संजय होटल में भोजन कर चुके है और सोने की तैयारी में है। आशुतोष और प्रकाश बगल के कमरे में सौ चुके है। हमारे कमरे में दशरथ जी गहरी नींद में जा चुके है। डा.राव को अभी नींद नहीं आ रही है। मैैं डायरी के साथ हूं।
कहानी सुबह से,बल्कि कल रात से। मुझे मेरे साथियों को ढूंढने में एक घण्टे से ज्यादा का वक्त लग गया था। फिर मैैं टेण्ट में पंहुचा। मेरे पांव सुन्न हो रहे थे। कम्बल में दबा कर उन्हेगरम किया। मणिमहेश के सामने डल झील के किनारे पर हम रुके थे। मैैं बाहर निकला,मेरे साथ डा.राव भी आ गए। उनके मोबाइल से डल झील के आसपास का एक विडीयो बनाया। उसी वक्त झील की आरती भी हो रही थी। एक महन्त जी नंगे पांव झील की परिक्रमा कर रहे थे। उनके साथ पूरा प्रोटोकाल था,लेकिन यह पता नहीं लग पाया कि वे कौन थे।
इसके बाद मेरे पास सौ जाने के अलावा कोई काम नहीं था। डा. राव,प्रकाश राव और नवाल सा.डल झील में स्नान कर पुण्यलाभ अर्जित कर चुके थे। कुल मिलाकर रात को करीब साढे नौ बजे सारे लोग कम्बलों में घुस गए सोने के लिए। वैसे तो सब सौ गए थे,लेकिन हाई अल्टी का असर था कि हम पांचों में से एक भी व्यक्ति रात को ठीक से सौ नहीं सका। सारे लोग जाग ही रहे थे।
जैसे तैसे सुबह हुई। सुबह पांच बजे मैने सोचा कि फ्रेश हो जाता हूं। मैने इनर पहना,टोपी लगाई,स्लीपर पहन कर चला। जबर्दस्त फिसलन वाला रास्ता था। काफी दूर टायलेट बने थे। जैसे तैसे वहां पंहुचा। टायलेट में घुस गया,लेकिन मुझे लगा कि ठीक से फ्रैश नहीं हो पाया। लेकिन इतनी ही देर में मेरे पैर सुन्न हो गए। फ्रैश होने के बाद हाथ धोए तो हाथ भी सुन्न हो गए। बाहर घनघोर अंधेरा था। अपनी हैटलाइट के सहारे वापस लौटा,तो पहली इच्छा यही हुई कि कम्बल में घुस कर हाथ पैर गरम कर लूं।
कुछ ही देर बाद मैने दशरथ जी को आवाज दी कि उठो। हम दो ही थे, जिन्हे पैदल नीचे जाना था। वे तब नहीं उठे। फिर करीब साढे छ: बजे वे उठे। मै दोबारा से फ्रैश होने के लिए चल पडा। इस बार लम्बे इंतजार के बाद ये काम पूरा हुआ। वहां से लौटे तो चलने की तैयारी में लग गए। हमें लग रहा था कि हम दोनो के अलावा बाकी तीनो घोडो पर ही आएंगे। डा.राव ने थोडा साहस दिखाया कि मैैं पैदल ही चलने की कोशिश करता हूं,लेकिन मैने मना कर दिया। मेरे मना करने के बाद भी ये तीनों पैदल चले।
हम लोग 7.45 पर मणिमहेश से चल दिए। थोडी ही देर में पता चला कि डा.राव और आशुतोष ने घोडे कर लिए है,जो उन्हे गौरीकुण्ड में लेने वाले थे।
गौरीकुण्ड मणिमहेश के नीचे है और करीब डेढ किमी लगातार खडी ढलान है। गौरीकुण्ड में एक लंगर में हम नाश्ता करने रुके। वहां सब्जी पुडी का नाश्ता था। मेरी कोई इच्छा नहीं थी,फिर भी मैने नाश्ता किया। वहीं से डा.राव और नवाल सा.घोडे पकड कर चल दिए। प्रकाश राव हमारे साथ पैदल उतरने लगे। अभी हम सौ डेढ सौ मीटर ही चले थे कि हमारे पोर्टर लक्ष्मण ने चलने के लिए नया रास्ता दिखा दिया। हम उसी नए रास्ते पर बढ गए। 10 हजार फीट से ज्यादा की उंचाई 15 किमी में उतरना थी। खतरनाक तीखीं ढलानें। हमारा भाग्य अच्छा था कि आज सूर्य नारायण पूरी ताकत से धूप दे रहे थे। बारिश का नामोनिशान नहीं था। बारिश के बगैर भी रास्ता बेहद फिसलन भरा था। आपका एक गलत कदम आपकी हड्डियां तोड सकता था। हम लोग संभल संभल कर उतरते रहे। इस नए रास्ते में हम रावी नदी की दूसरी तरफ चल रहे थे,जबकि जाते समय परली तरफ से चले थे। इसका नतीजा ये हुआ कि हमने सुन्दरासी को काट दिया और सीधे धनछो की तरफ बढ गए। हम लगातार तीखी ढलानों पर पैर जमाते जमाते धनछो पंहुच गए। यहां भी ज्यादा देर नहीं रुके। प्रकाश की हालत कमजोर हो रही थी,लेकिन वह भी दम भर रहा था। धनछो से अगली मंजिल वैसे तो हडसर ही है,लेकिन बीच में एक लंगर और कई सारी दुकानें भी है। हमने कुछ वक्त यहां गुजारा,लेकिन हाथ पैर के जवाब दे चुकने के बाद भी हम लगातार नीचे उतरते जा रहे थे।
कुछ ही देर बाद हमारा एन्डिंग पाइन्ट नजर आने लगा। लेकिन वहां पंहुचने के लिए भी नीचे ही उतरना था। उतरते वक्त दिल और फेफडों पर कोई असर नहीं पडता,लेकिन घुटनों और पैरों की हालत खराब हो जाती है। हमारे पैरों की हालत खराब हो चुकी थी,लेकिन इस बेहद खराब हालत के बाद भी हम चलते रहे। हम तीनों के पैर और पूरा शरीर अब जवाब दे चुका था।
धनछो के बाद में वो जगह भी आई,जहां से हमें बेहद तेज बहाव वाली रावी नदी को दो अस्थाई कच्चे पुलों पर चलकर पार करना था। नदी के पास तक उतरने के रास्ते में कई जगहों पर पानी बह रहा था और इस वजह से बहुत अधिक फिसलन हो रही थी। इन कच्चे पुलों के नीचे से नदी तेज शोर के साथ बह रही थी। इन पुलों को पार करने के बाद अब अंतिम बिन्दु नजदीक ही था,लेकिन फिर भी लगातार उतरते जाना था।
मैैं सबसेपहले करीब 2.45 पर एन्डिंग पाइन्ट पर पंहुचा। मैने ट्रेकिंग का आखरी विडीयो बनाया। मुझे पता था कि दशरथ जी और प्रकाश राव पीछे है। मैैं जगह कन्धों पर से बैग उतार कर उनका इंतजार करने लगा। बैग की वजह से कन्धे भी बुरी तरह दर्द करने लगे थे। काफी लम्बे इंतजार के बाद दशरथ जी आते हुए दिखाई दिए। फिर प्रकाश राव भी नजर आ गए। हम लोग एन्डिंग पाइन्ट पर पंहुचे,लेकिन हमारा पोर्टर लक्ष्मण कहीं नजर नहीं आया।
हमारी गाडी यहां से करीब दो किमी आगे नीचे उतरकर पार्क की हुई थी। वहां तक भी पैदल ही जाना था। फिर हमने प्रकाश को वहीं रोका। मैैं और दशरथ जी गाडी लेने के लिए चले गए। मुझे लगा था कि पोर्टर शायद गाडी के पास हमारा इंतजार कर रहा होगा। गाडी के पास पंहुचे,लेकिन पोर्टर वहां भी नहीं था। गाडी लेकर लौटे तब तक भी पोर्टर का पता नहीं था। पहाडों में सड़क पर गाडी रोकना बडा गुनाह है। पुलिस कान्स्टेबल को समझाबुझा कर गाडी वहीं खडी की और पोर्टर के बारे में इधर उधर पूछताछ की। एक पोर्टर ने बताया कि लक्ष्मण पीछे है। फिर उसी ने बता दिया कि वो देखो लक्ष्मण आ रहा है।उसके आते ही सारा सामान गाडी में रखा। उसका भुगतान किया और आगे बढ गए।
जिस वक्त में अपने साथियों का इंतजार करता हुआ बैठा तो उस वक्त मोबाइल का नेटवर्क आ चुका था। मेरे फोन पर आशुतोष का फोन आ गया कि वो लोग हडसर छोडकर भरमौर पंहुच गए है और होटल में आराम कर रहे है। हम बेहद थके हारे हडसर से चले,13 किमी का रास्ता पन्द्रह मिनट में पार हो सकता है,लेकिन रास्ते में दो बार जाम लग गए। जैसे तैसे जाम खुले और हम लोग करीब पांच बजे भरमौर में होटल के कमरों में पंहुचे। यही तय किया कि जल्दी भोजन करके सौ जाओ। मैने शेविंग की स्नान किया। भोजन मुझे करना नहीं था। इसी बीच एसडीएम भरमौर से भी चर्चा हो गई। कल उनसे मुलाकात करना है। यहां के 84 मन्दिर देखना है और दोपहर तक यहां से निकलना है।
एक विशेष बात लौटने के बाद पता चली। सुबह डलझील से निकलने के पहले दो तीन बार मणि महेश के दर्शन होते रहे थे। मैैं और दशरथ जी तो जल्दी निकल गए थे। लेकिन डा. दिनेश राव सूर्योदय का दृश्य देखने के लिए रुके हुए थे। उन्हे कोई जल्दी भी नहीं थी,क्योकि उन्हे घोडे से उतरना था। मणिमहेश पर्वत पर सूर्योदय का दृश्य देखते हुए उन्होने अपने मोबाइल से इसकी रेकार्डिंग की थी। बाद में रेकार्डिंग देखने पर वह चमत्कार सामने आया,जिसे देखने के लिए लोग तरसते रहते है। डा. राव के मोबाइल की रेकार्डिंग में मणिमहेश पर्वत पर मणि घूमती हुई साफ नजर आ रही थी। हैरानी की बात यह थी कि पर्वत के पीछे से सूर्योदय हो रहा था,ऐसे समय पर पर्वत पर मणि नजर आ रही थी,जबकि पीछे से सूर्योदय होने के कारण ऐसा होना संभव नहीं लगता।
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