आम चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की भारी-भरकम जीत के साथ ही यह तय हो गया था कि अब देश में इतिहास को लेकर विवाद उठेगा. भारतीय जनता पार्टी की सरकार इतिहास को फिर से लिखने की कोशिश करेगी, जिसका विरोध भी होगा. सरकार के अभी सौ दिन पूरे नहीं हुए हैं, लेकिन यह विवाद भी शुरू हो गया और विरोध का बिगुल भी फूंक दिया गया. जब अटल जी की सरकार बनी थी, तब भी इतिहास को फिर से लिखने की कोशिश की गई थी. सबसे पहले एनसीईआरटी की किताबें बदली गईं. लेकिन तत्कालीन मानव संसाधन मंत्री मुरली मनोहर जोशी ने यह काम ऐसे लोगों के हाथों में दे दिया, जो इतिहास की किताबें लिखने में अपरिपक्व साबित हुए.
वे मजाक के पात्र बन गए. जब अटल जी की सरकार चली गई, तो उन किताबों को भी कूड़ेदान में फेंक दिया गया. फिर से मार्क्सवादी इतिहासकारों ने अपना कब्जा जमा लिया. पहला सवाल यह है कि क्या इतिहास को फिर से लिखना उचित है? दूसरा सवाल यह है कि देश के इतिहास का आधार और औचित्य क्या होना चाहिए? तीसरा सवाल यह कि पुनर्लेखन के नाम पर मिथकों को सच बताना क्या इतिहास है?
भारत दुनिया का शायद अकेला ऐसा देश होगा, जहां के आधिकारिक इतिहास की शुरुआत में ही यह बताया जाता है कि भारत में रहने वाले लोग यहां के मूल निवासी नहीं हैं. भारत में रहने वाले अधिकांश लोग भारत के हैं ही नहीं. ये सब विदेश से आए हैं. इतिहासकारों ने बताया कि हम आर्य हैं. हम बाहर से आए हैं. कहां से आए? इसका कोई सटीक जवाब नहीं है. फिर भी बाहर से आए. आर्य कहां से आए, इसका जवाब ढूंढने के लिए कोई इतिहास के पन्नों को पलटे, तो पता चलेगा कि कोई सेंट्रल एशिया कहता है, तो कोई साइबेरिया, तो कोई मंगोलिया, तो कोई ट्रांस कोकेशिया, तो कुछ ने आर्यों को स्कैंडेनेविया का बताया. आर्य धरती के किस हिस्से के मूल निवासी थे, यह इतिहासकारों के लिए आज भी मिथक है. मतलब यह कि किसी के पास आर्यों का सुबूत नहीं है, फिर भी साइबेरिया से लेकर स्कैंडेनेविया तक, हर कोई अपने-अपने हिसाब से आर्यों का पता बता देता है. भारत में आर्य अगर बाहर से आए, तो कहां से आए और कब आए, यह एक महत्वपूर्ण सवाल है. यह भारत के लोगों की पहचान का सवाल है. विश्वविद्यालयों में बैठे बड़े-बड़े इतिहासकारों को इन सवालों का जवाब देना है. सवाल पूछने वाले की मंशा पर सवाल उठाकर इतिहास के मूल प्रश्नों पर पर्दा नहीं डाला जा सकता है.
भारत की सरकारी किताबों में आर्यों के आगमन को आर्यन इन्वेजन थ्योरी कहा जाता है. इन किताबों में आर्यों को घुमंतू या कबीलाई बताया जाता है. इनके पास रथ था. यह बताया गया कि आर्य अपने साथ वेद भी साथ लेकर आए थे. उनके पास अपनी भाषा थी, स्क्रिप्ट थी. मतलब यह कि वे पढ़े-लिखे खानाबदोश थे. यह दुनिया का सबसे अनोखा उदाहरण है. यह इतिहास अंग्रेजों ने लिखा था. वर्ष 1866 में भारत में आर्यों की कहानी मैक्समूलर ने गढ़ी थी. इस दौरान आर्यों को एक नस्ल बताया गया. मैक्स मूलर जर्मनी के रहने वाले थे. उन्हें उस जमाने में दस हज़ार डॉलर की पगार पर ईस्ट इंडिया कंपनी ने वेदों को समझने और उनका अनुवाद करने के लिए रखा था. अंग्रेज भारत में अपना शासन चलाना चाहते थे, लेकिन यहां के समाज के बारे में उन्हें जानकारी नहीं थी. इसी योजना के तहत लॉर्ड मैकॉले ने मैक्स मूलर को यह काम दिया था. यह लॉर्ड मैकॉले वही हैं, जिन्होंने भारत में एक ऐसे वर्ग को तैयार करने का बीड़ा उठाया था, जो अंग्रेजों और उनके द्वारा शासित समाज यानी भारत के लोगों के बीच संवाद स्थापित कर सकें. इतना ही नहीं, मैकॉले कहते हैं कि यह वर्ग ऐसा होगा, जो रंग और खून से तो भारतीय होगा, लेकिन आचार-विचार, नैतिकता और बुद्धि से अंग्रेज होगा. इसी एजेंडे को पूरा करने के लिए उन्होंने भारत में शिक्षा नीति लागू की, भारत के धार्मिक ग्रंथों का विश्लेषण कराया और सरकारी इतिहास लिखने की शुरुआत की. आज़ादी से पहले और आज़ादी के बाद भारत के शासक वर्ग ने लॉर्ड मैकॉले के सपने को साकार करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. इतिहासकारों ने भी इसी प्रवृत्ति का परिचय दिया.
अंग्रेजों की एक आदत अच्छी है. वे दस्तावेज़ों को संभाल कर रखते हैं. यही वजह है कि वेदों को समझने और उनके अनुवाद के पीछे की कहानी की सच्चाई का पता चल जाता है. मैक्स मूलर ने वेदों के अध्ययन और अनुवाद के बाद एक पत्र लिखा, जिसमें उन्होंने साफ़-साफ़ लिखा कि भारत के धर्म को अभिशप्त करने की प्रक्रिया पूरी हो गई है और अगर अब ईसाई मिशनरी अपना काम नहीं करते हैं, तो इसमें किसका दोष है. मैक्स मूलर ने ही भारत में आर्यन इन्वेजन थ्योरी को लागू करने का काम किया था, लेकिन इस थ्योरी को सबसे बड़ी चुनौती 1921 में मिली. अचानक से सिंधु नदी के किनारे एक सभ्यता के निशान मिल गए. कोई एक जगह होती, तो और बात थी. यहां कई सारी जगहों पर सभ्यता के निशान मिलने लगे. इसे सिंधु घाटी सभ्यता कहा जाने लगा. यहां की खुदाई से पता चला कि सिंधु नदी के किनारे कई शहर दबे पड़े हैं. इन शहरों में सड़कें थीं, हर जगह और घरों से नालियां निकल रही थीं. पूरे शहर में एक सुनियोजित ड्रेनेज सिस्टम था. बाज़ार के लिए अलग जगह थी. रिहाइशी इलाक़ा अलग था. इन शहरों में स्वीमिंग पूल थे, जिनका डिजाइन भी 21वीं सदी के बेहतरीन स्वीमिंग पूल्स की तरह था. अनाज रखने के लिए गोदाम थे. नदियों के किनारे नौकाओं के लिए बंदरगाह बना हुआ था. जब इन शहरों की उम्र का अनुमान लगाया गया, तो पता चला कि यह दुनिया की सबसे प्राचीन सभ्यता है. यह आर्यों के आगमन के पहले से है. अब सवाल यह उठ खड़ा हुआ है कि जब आर्य बाहर से आए थे, तो यहां कौन रहते थे. सिंधु घाटी सभ्यता के शहर स़िर्फ ज़मीन में धंसे हुए शहर नहीं थे, बल्कि इतिहास के सुबूतों के भंडार थे. अंग्रेज इतिहासकारों ने इतिहास के इन सुबूतों को दरकिनार कर दिया और अपनी आर्यों की थ्योरी पर डटे रहे. होना तो यह चाहिए था कि सिंधु घाटी सभ्यता से मिली नई जानकारी की रौशनी में इतिहास को फिर से लिखा जाता, लेकिन अंग्रेजी इतिहासकारों ने सिंधु घाटी सभ्यता का इस्तेमाल आर्यन इन्वेजन थ्योरी को सही साबित करने में किया.
यह इतिहास के साथ सबसे बड़ा धोखा था, लेकिन किसी ने सवाल नहीं उठाया. उन्होंने लिख दिया कि आर्य बाहर से स़िर्फ आए ही नहीं, बल्कि सिंधु घाटी सभ्यता का विनाश भी किया. भारत के मार्क्सवादी इतिहासकारों की सबसे बड़ी चूक यही है कि किसी ने आर्यन इन्वेजन थ्योरी को नए प्रमाणों की रौशनी में नहीं परखा. इस भ्रामक थ्योरी पर सवाल खड़ा नहीं किया. अंग्रेजों ने जो लिख दिया, उसे सत्य मानकर बैठ गए. आज़ादी के बाद भी इतिहासकारों ने इसे बदलने की कोशिश नहीं की. इतिहास में नए तथ्यों या प्रमाणों के आधार पर बदलाव नहीं किया गया, तो कुछ सवाल उठने लाजिमी हैं. यह कैसे संभव है कि खानाबदोश आर्यों के पास रहने के लिए अपना घर न हो, लेकिन वेद जैसा ग्रंथ हो. अपनी भाषा हो और अपनी स्क्रिप्ट भी. और, जो लोग सुनियोजित शहरों में रह रहे थे, जो स्वीमिंग पूल में नहाते थे, अपना अनाज गोदामों में रखते थे, जो व्यापार करते थे, उनके पास न तो कोई भाषा थी, न स्क्रिप्ट थी और न कोई धर्म ग्रंथ था. और वे इतने कायर और कमज़ोर थे कि खानाबदोश लोगों ने उन्हें उनके शहर से मार भगाया. भारतीय इतिहासकारों ने इन्हीं अंग्रेजों के लिखे इतिहास पर आर्यों और द्रविड़ों का भेद किया. बताया कि सिंधु घाटी में रहने वाले लोग द्रविड़ थे, जो यहां से पलायन कर दक्षिण भारत चले गए. अब यह सवाल भी उठता है कि सिंधु घाटी से जब वे पलायन कर दक्षिण भारत पहुंच गए, तो क्या उनकी बुद्धि और ज्ञान सब ख़त्म हो गया. वे शहर बनाना भूल गए, स्वीमिंग पूल बनाना भूल गए, नालियां बनाना भूल गए. और, बाहर से आने वाले आर्य, जो मूल रूप से खानाबदोश थे, कबीलाई थे, वे वेदों का निर्माण कर रहे थे. दरअसल, वामपंथी इतिहासकारों ने देश के इतिहास को मजाक बना दिया.
भारत का प्राचीन इतिहास विवादों से घिरा है. इस विवाद की जड़ में इतिहास लेखन प्रणाली है. भारत का इतिहास मूल रूप से भाषाई अध्ययन पर लिखा गया है. भारत जैसे देश में जहां पुरातात्विक अवशेषों और स्थलों का भंडार है, वहां के इतिहास लेखन में पुरातत्व को नज़रअंदाज़ किया जाए, यह उचित नहीं है. दरअसल, यह राजनीति का हिस्सा है. देश की सभी इतिहास लेखन संस्थाओं, विश्वविद्यालयों और अनुसंधानिक संस्थाओं पर वामपंथी इतिहासकारों का क़ब्ज़ा है. एक स़िर्फ पुरातत्व विभाग है, जहां वामपंथियों का क़ब्ज़ा नहीं हो सका है. यही वजह है कि भारत के नामी-गिरामी इतिहासकार पुरातात्विक सुबूतों को सुबूत नहीं मानते, अनर्गल दलील देकर उन्हें दरकिनार कर देते हैं. यही वजह है कि प्राचीन भारत का इतिहास आज भी वही है, जो अंग्रेजों द्वारा लिखा गया था. कुछ सतही फेरबदल ज़रूर किए गए हैं, लेकिन उसका चरित्र आज भी मैकॉले द्वारा स्थापित मापदंड पर कायम है. जिसका सार यह है कि भारत में जो कुछ प्राचीन है, वह बुरा है, असभ्य है और शोषक है. यह इतिहास लिखे 150 साल हो गए हैं. इस दौरान विज्ञान का विकास हुआ है, नई खोजें हुई हैं. ऐतिहासिक प्रमाणों के परीक्षण के लिए तकनीक मौजूद है. दुनिया भर में बहु-विषयक दृष्टिकोण के साथ इतिहास लेखन का काम हो रहा है, लेकिन भारत के वामपंथी इतिहासकार भाषाई अध्ययन को ही एकमात्र सत्य मानकर इतिहास का गला घोंट रहे हैं. वे रूढ़िवादी बन गए हैं. जो कोई उनके द्वारा लिखे इतिहास पर सवाल उठाता है, उस पर वे एक गैंग की तरह हमलावर हो जाते हैं.
हक़ीक़त यह है कि देश-विदेश के कई पुरातत्वविदों, भौतिकशास्त्रियों, भूगर्भशास्त्रियों, खगोलशास्त्रियों, वैज्ञानिकों, गणितज्ञों और इतिहासकारों के लिए सिंधु घाटी सभ्यता रुचि का विषय बन चुकी है. भारत ही नहीं, बल्कि दुनिया भर में अनुसंधान हो रहे हैं, किताबें लिखी जा रही हैं. ऐसा इसलिए, क्योंकि सिंधु घाटी सभ्यता की खुदाई से मिली जानकारियां हैरान करने वाली और अविश्वसनीय हैं.
इतिहास में रुचि रखने वाले किसी भी व्यक्ति के लिए यह आश्चर्य का विषय है कि जब ग्रीस, रोम और एथेंस का नामोंनिशान नहीं था, तब यहां के लोग विश्वस्तरीय शहर बनाने में कैसे कामयाब हो गए, टाउन-प्लानिंग का ज्ञान कहां से आया और उन्होंने स्वीमिंग पूल बनाने की तकनीक कैसे सीखी? अफ़सोस इस बात का है कि भारत के लोग जब अपने ही इतिहास को पढ़ते हैं, तो उन्हें गर्व की अनुभूति नहीं होती है. इसका कारण यह भी है कि देश के महान इतिहासकारों ने इस ढंग से इतिहास लिखा है कि जो एक बार पढ़ ले, तो उसकी इतिहास से रुचि ही ख़त्म हो जाती है. यह भी एक कारण है कि इतिहास को फिर से लिखा जाना चाहिए. वैसे अब तो और भी नए सुबूत आ गए हैं. सिंधु घाटी सभ्यता से जुड़े 700 से ज़्यादा पुरातात्विक स्थलों की खोज हो चुकी है. भारत में राजस्थान, गुजरात, हरियाणा, पंजाब आदि राज्यों में नई खोज हो चुकी है. इनकी वैज्ञानिक जांच होनी चाहिए और जो भी वैज्ञानिक तथ्य सामने आते हैं, उन्हें इतिहास की किताबों में शामिल करना चाहिए. फिर से इतिहास लिखने की ज़रूरत पड़े, तो लिखना चाहिए. इतिहास लिखते समय यह ध्यान रखना ज़रूरी है कि नया इतिहास बहु-विषयक दृष्टिकोण लेखन प्रणाली से लिखा गया इतिहास हो. विज्ञान द्वारा प्रमाणित साक्ष्यों पर आधारित हो. प्राचीन इतिहास को मिथकों और धार्मिक मान्यताओं से दूर रखने की ज़रूरत है.
इतिहास कोई आसमानी किताब नहीं है, जिसे बदला न जा सके. नए साक्ष्य, नई खोज और नई तकनीक की वजह से हर व़क्त हमें भूतकाल के बारे में नई जानकारियां मिलती हैं. विज्ञान और तकनीकी विकास की वजह से कई राज से पर्दा हटाया जा सकता है. इन साक्ष्य, तकनीक और सुबूतों के आधार पर इतिहास को बदलना ही सही इतिहास का सृजन करना है. भारत में आज़ादी के बाद से इतिहास लिखने का काम शुरू हुआ. लेखकों ने कॉपी और पेस्ट करके पुरानी बातों को नए अंदाज और नई दलीलों के साथ परोस दिया. किताबों को ऐसे लिखा गया कि यदि कोई एक बार पढ़ ले, तो फिर उसकी इतिहास के बारे में जानने की इच्छा ही ख़त्म हो जाए. इतिहासकारों ने भूतकाल के बारे में बताने से ज़्यादा छिपाने का काम किया. जो बताया, उसमें भी राजनीति और विचारधारा का घालमेल कर दिया. इतिहास घृणा करने की वस्तु नहीं है. वामपंथी इतिहासकारों का दोष यही है कि उन्होंने इतिहास को ही घृणित बना दिया. भारत एक राष्ट्र नहीं, राज्य नहीं और न ही किसी ऐसे-वैसे भूखंड का नाम है. यह दुनिया की सबसे पुरातन सभ्यता है. यहां हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई, बौद्ध और न जाने कितने धर्मों को मानने वाले लोग रहते हैं. इतिहास ऐसा होना चाहिए, जिससे हर भारतवासी को गर्व हो, जिससे आपस में भाईचारा और एकता का संचार हो और जो हमारा हौसला बुलंद कर सके कि हम मानव विकास के मानदंडों पर दुनिया में अग्रणी रहे हैं. एक ऐसा इतिहास लिखा जाना चाहिए, जो मिथकों या धार्मिक कथा-कहानियों पर नहीं, बल्कि सत्य और सुबूतों पर आधारित हो. भारत में इतिहास को फिर से लिखने की ज़रूरत है. इतिहासकारों को नए साक्ष्य, सुबूतों, विज्ञान और तकनीक का इस्तेमाल इतिहास लेखन में करना चाहिए. मनगढ़ंत बातों के लिए इतिहास में कोई जगह नहीं होनी चाहिए.
आर्यन इन्वेजन थ्योरी का सच
यह बहुत कम लोग जानते हैं कि आर्यन इन्वेजन थ्योरी (आर्य आक्रमण सिद्धांत) की उत्पत्ति की जड़ में ईसाई-यहूदी वैचारिक लड़ाई है. आर्यन इन्वेजन थ्योरी की उत्पत्ति 18वीं शताब्दी में यूरोप, ख़ासकर जर्मनी में हुई. उस वक्त के इतिहासकारों एवं दार्शनिकों ने यूरोपीय सभ्यता को जुडाइज्म (यहूदी) से मुक्त करने के लिए यह थ्योरी प्रचारित की. कांट एवं हरडर जैसे दार्शनिकों ने भारत और चीन के मिथकों तथा दर्शन को यूरोपीय सभ्यता से जोड़ने की कोशिश की. वे नहीं चाहते थे कि यूरोपीय सभ्यता को जुडाइज्म से जोड़कर देखा जाए. इसलिए उन्होंने यह दलील दी कि यूरोप में जो लोग हैं, वे यहूदी नहीं, बल्कि चीन और भारत से आए हैं. उनका नाम उन्होंने आर्य रखा. समझने वाली बात यह है कि चीन और भारत के सभी लोग आर्य नहीं थे. उनके मुताबिक़, एशिया के पहाड़ों में रहने वाले सफेद चमड़ी वाले कबीलाई लोग आर्य थे, जो यूरोप में आकर बसे और ईसाई धर्म अपनाया. यूरोप में आर्य को एक अलग रेस माना जाने लगा. यह एक सर्वमान्य थ्योरी मानी जाने लगी. आर्यन इन्वेजन थ्योरी की उत्पत्ति मूल रूप से यूरोप के लिए की गई थी. जब अंग्रेजों ने भारत का इतिहास समझना शुरू किया, तो आश्चर्य की बात यह है कि उन्होंने इस थ्योरी को भारत पर भी लागू कर दिया. 1866 से आर्यन इन्वेजन थ्योरी ऑफ इंडिया को भारत के इतिहास का हिस्सा बना दिया गया. बताया गया कि भारत के श्वेत रंग के, उच्च जाति के शासक वर्ग और यूरोपीय उपनिवेशक एक ही प्रजाति के हैं. यह थ्योरी अंग्रेजों के काम भी आई. अंग्रेज बाहरी नहीं है और उनका भारत पर शासन करना उतना ही अधिकृत है, जितना यहां के राजाओं का. अंग्रेजों को भारत में शासन करने के लिए इन हथकंडों की ज़रूरत थी. लेकिन यह बात समझ में नहीं आती कि आज़ादी के बाद भी वामपंथी इतिहासकारों ने इस थ्योरी को जड़-मूल से ख़त्म क्यों नहीं किया? जबकि हमें यह पता है कि इस मनगढ़ंत थ्योरी की वजह से हिटलर जैसे तानाशाह पैदा हुए. वह भी तब, जब यूरोप में विज्ञान के विकास के साथ-साथ रेस थ्योरी को अविश्वसनीय और ग़ैर-वैज्ञानिक घोषित कर दिया गया. पिछले 70 सालों से आर्यन रेस पर कई अनुसंधान हुए. अलग-अलग देशों ने इसमें हिस्सा लिया है, अलग-अलग क्षेत्र के वैज्ञानिकों ने अपना योगदान दिया है. सबने एक स्वर में आर्यन के एक रेस होने की बात को मिथक और झूठा करार दिया है. ये स़िर्फ वामपंथी इतिहासकार हैं, जो अभी तक इस रेस थ्योरी को पकड़ कर बैठे हैं. 10 दिसंबर, 2011 को एक ख़बर आई कि सेलुलर मोलिकुलर बायोलॉजी के वैज्ञानिकों ने कई महाद्वीपों के लोगों पर एक रिसर्च किया. इस रिसर्च में कई देशों के वैज्ञानिक शामिल थे. यह रिसर्च 3 सालों तक किया गया और लोगों के डीएनए की सैंपलिंग पर किया गया. इस रिसर्च से पता चला कि भारत में रहने वाले चाहे वे दक्षिण भारत के हों या उत्तर भारत के, उनके डीएनए की संरचना एक जैसी है. इसमें बाहर से आई किसी दूसरी प्रजाति या रेस का कोई मिश्रण नहीं है और यह दावे के साथ कहा जा सकता है कि पिछले 60 हज़ार सालों से भारत में कोई भी बाहरी जीन नहीं है. इस रिसर्च की रिपोर्ट में कहा गया है कि डीएनए सैंपलिंग के जरिये यह बिना किसी शक के दावा किया जा सकता है कि आर्यों के आक्रमण की कहानी एक मिथक है. इस रिसर्च की रिपोर्ट को अमेरिकन जनरल ऑफ ह्यूमन जेनेटिक्स में 9 दिसंबर, 2011 को प्रकाशित किया गया. यह एक प्रामाणिक रिसर्च है. इसमें विज्ञान की सबसे उच्च कोटि की तकनीकों का इस्तेमाल हुआ है. कई देशों के वैज्ञानिक इसमें शामिल थे. यह रिपोर्ट आए तीन साल होने वाले हैं. देश के इतिहासकार क्यों चुप हैं? हक़ीक़त यह है कि भारत का इतिहास राजनीति से ग्रसित है. इतिहास की किताबों ने सच बताने से ज़्यादा सच को छिपाने का काम किया है.
आधुनिक इतिहास का कांग्रेसीकरण
आधुनिक भारत का इतिहास सन् 1857 की क्रांति से लेकर 1947 तक माना जाता है. प्राचीन इतिहास जहां भारत की पहचान के लिए ज़रूरी है, उसी तरह आधुनिक इतिहास भारत की एकता, अखंडता और प्रजातंत्र को सींचने के लिए महत्वपूर्ण है. अफ़सोस इस बात का है कि आधिकारिक इतिहासकारों ने इसमें वामपंथ और कांग्रेसी विचारधारा का ऐसा घालमेल किया कि कई लोग मुख्य धारा से अलग-थलग हो गए. आधुनिक भारत का पूरा इतिहास गांधी, नेहरू, कांग्रेस और वामपंथी संगठनों तक सीमित कर दिया गया. सेकुलरिज्म और कम्युनलिज्म के चश्मे से लिखा गया वामपंथी इतिहास पर पुनर्विचार करने की ज़रूरत है. इंस्टीट्यूट ऑफ आब्जेक्टिव स्टडीज ने एक किताब प्रकाशित की, जिसमें आज़ादी की लड़ाई में शामिल कई मुस्लिम नेताओं और क्रांतिकारियों के बारे में जानकारी दी गई. ये वे नाम हैं, जिनका मुख्य धारा के इतिहास में न तो कोई जिक्र है और न ही उनके योगदान की चर्चा है. मुस्लिम लीग में शामिल मुस्लिम नेताओं को आधुनिक भारत के इतिहास से निकाल कर बाहर फेंक दिया गया. इतना ही नहीं, मदन मोहन मालवीय, लाला लाजपत राय, बाल गंगाधर तिलक के योगदान को भी भुला दिया गया, जबकि वे कांग्रेस के नेता भी रहे. दरअसल, वामपंथी लेखन प्रणाली ने आधुनिक भारत का इतिहास सेकुलर-कम्युनल चश्मे से लिखा. इसमें मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा को कम्युनल संगठन बताकर उनके योगदान को जड़ से उखाड़ कर फेंक दिया गया. जबकि हक़ीक़त यह है कि मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा काफी समय तक कांग्रेस का हिस्सा रही. कांग्रेस उस वक्त कोई संगठन नहीं, बल्कि एक आंदोलन था, जिसमें कई संगठन शामिल थे. मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा के ज़मीनी कार्यकर्ता और स्थानीय नेता आज़ादी के आंदोलन में किसी से पीछे नहीं थे. वैसे भी सेकुलरिज्म और कम्युनलिज्म के चश्मे से लिखा गया वर्तमान इतिहास न स़िर्फ अधूरा है, बल्कि विरोधाभासों से भरा पड़ा है. इसके अलावा इन किताबों को पढ़कर लगता है कि पूरे के पूरे नॉर्थ-ईस्ट की स्वतंत्रता संग्राम में कोई हिस्सेदारी ही नहीं थी. नॉर्थ-ईस्ट के वे कौन लोग थे, जिन्होंने आज़ादी के लिए जानें दीं, आंदोलन किया और अंग्रेजों के डंडे खाए, यह वर्तमान इतिहास में नहीं है. कांग्रेस सरकारों द्वारा चयनित वामपंथी इतिहासकारों ने इतिहास को राजनीति का अखाड़ा बना दिया. उन्होंने इतिहास के नाम पर कुछ झूठ कहा, कुछ सच छिपाए और कई मनगढ़ंत कहानियां गढ़ दीं.
वामपंथ बनाम दक्षिणपंथ
यह देश का दुर्भाग्य होगा कि पुनर्लेखन के नाम पर मिथकों और इतिहास का घालमेल कर दिया जाए. आज के युवाओं को यह स्वीकार नहीं होगा कि हमारी किताबों में यह लिखा हो कि स्टेम सेल तकनीक का विकास महाभारत काल में हुआ था और मोटरकार का आविष्कार वैदिक काल में ही हो गया था. 21वीं सदी के भारत को ऐसे इतिहास की ज़रूरत नहीं है, जिसमें यह लिखा जाए कि भारत में महाभारत काल में इस तकनीक का उपयोग होता था. कुंती का बेटा सूर्य के समान तेजस्वी था. गांधारी जब दो साल तक गर्भधारण नहीं कर पा रही थीं, तो उन्होंने गर्भपात कराया. उस दौरान उनके गर्भाशय से बड़ी मात्रा में मांस निकला. ऋषि द्वैपायन व्यास ने उस मांस में औषधियां मिलाकर उसे एक ठंडे टैंक में रख दिया. बाद में उन्होंने उसके 100 टुकड़े किए और हर टुकड़े को घी से भरे 100 अलग-अलग टैंकों में दो साल तक रखा. दो साल के बाद उसी से 100 कौरवों का जन्म हुआ. ऐसी कहानियां कथावाचकों के लिए तो ठीक हैं, लेकिन इतिहास की किताबों में इनकी कोई जगह नहीं है. भारत का प्राचीन इतिहास वैसे ही गौरवशाली है. जो सुबूत उपलब्ध हैं, वही हमें दुनिया की सबसे पुरातन और अग्रणी सभ्यता साबित करने के लिए काफी हैं. इसके लिए यह ज़रूरी नहीं है कि इतिहास की किताबों में यह लिखा जाए कि वैदिक काल में भी मोटरकारें थीं, जिन्हें अनश्व रथ कहा जाता था. सामान्य तौर पर रथ को घोड़े खींचते हैं, लेकिन अनश्व रथ बगैर घोड़ों के दौड़ता था. इसे यंत्र रथ भी कहा जाता था और यही आज की मोटरकार है. या फिर हम पुष्पक विमान के बारे में यह बताएं कि उस जमाने में ही भारत में हवाई जहाज का आविष्कार हो चुका था.
भारत का इतिहास वैसे ही गौरवशाली है. भारत का प्राचीन काल हर दृष्टि से दुनिया में अग्रणी रहा है. ज़रूरत इस बात की है कि इतिहास को प्रामाणिक सुबूतों के साथ लिखा जाए, ताकि उस पर कोई उंगली न उठा सके. अगर संघ और उससे जुड़े कुछ लोग पिछली बार की तरह इतिहास के नाम पर मिथ्या को सच बताने लगेंगे, तो ऐसे इतिहास की वजह से भारत पूरे विश्व में उपहास का पात्र बन जाएगा.
वे मजाक के पात्र बन गए. जब अटल जी की सरकार चली गई, तो उन किताबों को भी कूड़ेदान में फेंक दिया गया. फिर से मार्क्सवादी इतिहासकारों ने अपना कब्जा जमा लिया. पहला सवाल यह है कि क्या इतिहास को फिर से लिखना उचित है? दूसरा सवाल यह है कि देश के इतिहास का आधार और औचित्य क्या होना चाहिए? तीसरा सवाल यह कि पुनर्लेखन के नाम पर मिथकों को सच बताना क्या इतिहास है?
भारत दुनिया का शायद अकेला ऐसा देश होगा, जहां के आधिकारिक इतिहास की शुरुआत में ही यह बताया जाता है कि भारत में रहने वाले लोग यहां के मूल निवासी नहीं हैं. भारत में रहने वाले अधिकांश लोग भारत के हैं ही नहीं. ये सब विदेश से आए हैं. इतिहासकारों ने बताया कि हम आर्य हैं. हम बाहर से आए हैं. कहां से आए? इसका कोई सटीक जवाब नहीं है. फिर भी बाहर से आए. आर्य कहां से आए, इसका जवाब ढूंढने के लिए कोई इतिहास के पन्नों को पलटे, तो पता चलेगा कि कोई सेंट्रल एशिया कहता है, तो कोई साइबेरिया, तो कोई मंगोलिया, तो कोई ट्रांस कोकेशिया, तो कुछ ने आर्यों को स्कैंडेनेविया का बताया. आर्य धरती के किस हिस्से के मूल निवासी थे, यह इतिहासकारों के लिए आज भी मिथक है. मतलब यह कि किसी के पास आर्यों का सुबूत नहीं है, फिर भी साइबेरिया से लेकर स्कैंडेनेविया तक, हर कोई अपने-अपने हिसाब से आर्यों का पता बता देता है. भारत में आर्य अगर बाहर से आए, तो कहां से आए और कब आए, यह एक महत्वपूर्ण सवाल है. यह भारत के लोगों की पहचान का सवाल है. विश्वविद्यालयों में बैठे बड़े-बड़े इतिहासकारों को इन सवालों का जवाब देना है. सवाल पूछने वाले की मंशा पर सवाल उठाकर इतिहास के मूल प्रश्नों पर पर्दा नहीं डाला जा सकता है.
भारत की सरकारी किताबों में आर्यों के आगमन को आर्यन इन्वेजन थ्योरी कहा जाता है. इन किताबों में आर्यों को घुमंतू या कबीलाई बताया जाता है. इनके पास रथ था. यह बताया गया कि आर्य अपने साथ वेद भी साथ लेकर आए थे. उनके पास अपनी भाषा थी, स्क्रिप्ट थी. मतलब यह कि वे पढ़े-लिखे खानाबदोश थे. यह दुनिया का सबसे अनोखा उदाहरण है. यह इतिहास अंग्रेजों ने लिखा था. वर्ष 1866 में भारत में आर्यों की कहानी मैक्समूलर ने गढ़ी थी. इस दौरान आर्यों को एक नस्ल बताया गया. मैक्स मूलर जर्मनी के रहने वाले थे. उन्हें उस जमाने में दस हज़ार डॉलर की पगार पर ईस्ट इंडिया कंपनी ने वेदों को समझने और उनका अनुवाद करने के लिए रखा था. अंग्रेज भारत में अपना शासन चलाना चाहते थे, लेकिन यहां के समाज के बारे में उन्हें जानकारी नहीं थी. इसी योजना के तहत लॉर्ड मैकॉले ने मैक्स मूलर को यह काम दिया था. यह लॉर्ड मैकॉले वही हैं, जिन्होंने भारत में एक ऐसे वर्ग को तैयार करने का बीड़ा उठाया था, जो अंग्रेजों और उनके द्वारा शासित समाज यानी भारत के लोगों के बीच संवाद स्थापित कर सकें. इतना ही नहीं, मैकॉले कहते हैं कि यह वर्ग ऐसा होगा, जो रंग और खून से तो भारतीय होगा, लेकिन आचार-विचार, नैतिकता और बुद्धि से अंग्रेज होगा. इसी एजेंडे को पूरा करने के लिए उन्होंने भारत में शिक्षा नीति लागू की, भारत के धार्मिक ग्रंथों का विश्लेषण कराया और सरकारी इतिहास लिखने की शुरुआत की. आज़ादी से पहले और आज़ादी के बाद भारत के शासक वर्ग ने लॉर्ड मैकॉले के सपने को साकार करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. इतिहासकारों ने भी इसी प्रवृत्ति का परिचय दिया.
अंग्रेजों की एक आदत अच्छी है. वे दस्तावेज़ों को संभाल कर रखते हैं. यही वजह है कि वेदों को समझने और उनके अनुवाद के पीछे की कहानी की सच्चाई का पता चल जाता है. मैक्स मूलर ने वेदों के अध्ययन और अनुवाद के बाद एक पत्र लिखा, जिसमें उन्होंने साफ़-साफ़ लिखा कि भारत के धर्म को अभिशप्त करने की प्रक्रिया पूरी हो गई है और अगर अब ईसाई मिशनरी अपना काम नहीं करते हैं, तो इसमें किसका दोष है. मैक्स मूलर ने ही भारत में आर्यन इन्वेजन थ्योरी को लागू करने का काम किया था, लेकिन इस थ्योरी को सबसे बड़ी चुनौती 1921 में मिली. अचानक से सिंधु नदी के किनारे एक सभ्यता के निशान मिल गए. कोई एक जगह होती, तो और बात थी. यहां कई सारी जगहों पर सभ्यता के निशान मिलने लगे. इसे सिंधु घाटी सभ्यता कहा जाने लगा. यहां की खुदाई से पता चला कि सिंधु नदी के किनारे कई शहर दबे पड़े हैं. इन शहरों में सड़कें थीं, हर जगह और घरों से नालियां निकल रही थीं. पूरे शहर में एक सुनियोजित ड्रेनेज सिस्टम था. बाज़ार के लिए अलग जगह थी. रिहाइशी इलाक़ा अलग था. इन शहरों में स्वीमिंग पूल थे, जिनका डिजाइन भी 21वीं सदी के बेहतरीन स्वीमिंग पूल्स की तरह था. अनाज रखने के लिए गोदाम थे. नदियों के किनारे नौकाओं के लिए बंदरगाह बना हुआ था. जब इन शहरों की उम्र का अनुमान लगाया गया, तो पता चला कि यह दुनिया की सबसे प्राचीन सभ्यता है. यह आर्यों के आगमन के पहले से है. अब सवाल यह उठ खड़ा हुआ है कि जब आर्य बाहर से आए थे, तो यहां कौन रहते थे. सिंधु घाटी सभ्यता के शहर स़िर्फ ज़मीन में धंसे हुए शहर नहीं थे, बल्कि इतिहास के सुबूतों के भंडार थे. अंग्रेज इतिहासकारों ने इतिहास के इन सुबूतों को दरकिनार कर दिया और अपनी आर्यों की थ्योरी पर डटे रहे. होना तो यह चाहिए था कि सिंधु घाटी सभ्यता से मिली नई जानकारी की रौशनी में इतिहास को फिर से लिखा जाता, लेकिन अंग्रेजी इतिहासकारों ने सिंधु घाटी सभ्यता का इस्तेमाल आर्यन इन्वेजन थ्योरी को सही साबित करने में किया.
यह इतिहास के साथ सबसे बड़ा धोखा था, लेकिन किसी ने सवाल नहीं उठाया. उन्होंने लिख दिया कि आर्य बाहर से स़िर्फ आए ही नहीं, बल्कि सिंधु घाटी सभ्यता का विनाश भी किया. भारत के मार्क्सवादी इतिहासकारों की सबसे बड़ी चूक यही है कि किसी ने आर्यन इन्वेजन थ्योरी को नए प्रमाणों की रौशनी में नहीं परखा. इस भ्रामक थ्योरी पर सवाल खड़ा नहीं किया. अंग्रेजों ने जो लिख दिया, उसे सत्य मानकर बैठ गए. आज़ादी के बाद भी इतिहासकारों ने इसे बदलने की कोशिश नहीं की. इतिहास में नए तथ्यों या प्रमाणों के आधार पर बदलाव नहीं किया गया, तो कुछ सवाल उठने लाजिमी हैं. यह कैसे संभव है कि खानाबदोश आर्यों के पास रहने के लिए अपना घर न हो, लेकिन वेद जैसा ग्रंथ हो. अपनी भाषा हो और अपनी स्क्रिप्ट भी. और, जो लोग सुनियोजित शहरों में रह रहे थे, जो स्वीमिंग पूल में नहाते थे, अपना अनाज गोदामों में रखते थे, जो व्यापार करते थे, उनके पास न तो कोई भाषा थी, न स्क्रिप्ट थी और न कोई धर्म ग्रंथ था. और वे इतने कायर और कमज़ोर थे कि खानाबदोश लोगों ने उन्हें उनके शहर से मार भगाया. भारतीय इतिहासकारों ने इन्हीं अंग्रेजों के लिखे इतिहास पर आर्यों और द्रविड़ों का भेद किया. बताया कि सिंधु घाटी में रहने वाले लोग द्रविड़ थे, जो यहां से पलायन कर दक्षिण भारत चले गए. अब यह सवाल भी उठता है कि सिंधु घाटी से जब वे पलायन कर दक्षिण भारत पहुंच गए, तो क्या उनकी बुद्धि और ज्ञान सब ख़त्म हो गया. वे शहर बनाना भूल गए, स्वीमिंग पूल बनाना भूल गए, नालियां बनाना भूल गए. और, बाहर से आने वाले आर्य, जो मूल रूप से खानाबदोश थे, कबीलाई थे, वे वेदों का निर्माण कर रहे थे. दरअसल, वामपंथी इतिहासकारों ने देश के इतिहास को मजाक बना दिया.
भारत का प्राचीन इतिहास विवादों से घिरा है. इस विवाद की जड़ में इतिहास लेखन प्रणाली है. भारत का इतिहास मूल रूप से भाषाई अध्ययन पर लिखा गया है. भारत जैसे देश में जहां पुरातात्विक अवशेषों और स्थलों का भंडार है, वहां के इतिहास लेखन में पुरातत्व को नज़रअंदाज़ किया जाए, यह उचित नहीं है. दरअसल, यह राजनीति का हिस्सा है. देश की सभी इतिहास लेखन संस्थाओं, विश्वविद्यालयों और अनुसंधानिक संस्थाओं पर वामपंथी इतिहासकारों का क़ब्ज़ा है. एक स़िर्फ पुरातत्व विभाग है, जहां वामपंथियों का क़ब्ज़ा नहीं हो सका है. यही वजह है कि भारत के नामी-गिरामी इतिहासकार पुरातात्विक सुबूतों को सुबूत नहीं मानते, अनर्गल दलील देकर उन्हें दरकिनार कर देते हैं. यही वजह है कि प्राचीन भारत का इतिहास आज भी वही है, जो अंग्रेजों द्वारा लिखा गया था. कुछ सतही फेरबदल ज़रूर किए गए हैं, लेकिन उसका चरित्र आज भी मैकॉले द्वारा स्थापित मापदंड पर कायम है. जिसका सार यह है कि भारत में जो कुछ प्राचीन है, वह बुरा है, असभ्य है और शोषक है. यह इतिहास लिखे 150 साल हो गए हैं. इस दौरान विज्ञान का विकास हुआ है, नई खोजें हुई हैं. ऐतिहासिक प्रमाणों के परीक्षण के लिए तकनीक मौजूद है. दुनिया भर में बहु-विषयक दृष्टिकोण के साथ इतिहास लेखन का काम हो रहा है, लेकिन भारत के वामपंथी इतिहासकार भाषाई अध्ययन को ही एकमात्र सत्य मानकर इतिहास का गला घोंट रहे हैं. वे रूढ़िवादी बन गए हैं. जो कोई उनके द्वारा लिखे इतिहास पर सवाल उठाता है, उस पर वे एक गैंग की तरह हमलावर हो जाते हैं.
हक़ीक़त यह है कि देश-विदेश के कई पुरातत्वविदों, भौतिकशास्त्रियों, भूगर्भशास्त्रियों, खगोलशास्त्रियों, वैज्ञानिकों, गणितज्ञों और इतिहासकारों के लिए सिंधु घाटी सभ्यता रुचि का विषय बन चुकी है. भारत ही नहीं, बल्कि दुनिया भर में अनुसंधान हो रहे हैं, किताबें लिखी जा रही हैं. ऐसा इसलिए, क्योंकि सिंधु घाटी सभ्यता की खुदाई से मिली जानकारियां हैरान करने वाली और अविश्वसनीय हैं.
इतिहास में रुचि रखने वाले किसी भी व्यक्ति के लिए यह आश्चर्य का विषय है कि जब ग्रीस, रोम और एथेंस का नामोंनिशान नहीं था, तब यहां के लोग विश्वस्तरीय शहर बनाने में कैसे कामयाब हो गए, टाउन-प्लानिंग का ज्ञान कहां से आया और उन्होंने स्वीमिंग पूल बनाने की तकनीक कैसे सीखी? अफ़सोस इस बात का है कि भारत के लोग जब अपने ही इतिहास को पढ़ते हैं, तो उन्हें गर्व की अनुभूति नहीं होती है. इसका कारण यह भी है कि देश के महान इतिहासकारों ने इस ढंग से इतिहास लिखा है कि जो एक बार पढ़ ले, तो उसकी इतिहास से रुचि ही ख़त्म हो जाती है. यह भी एक कारण है कि इतिहास को फिर से लिखा जाना चाहिए. वैसे अब तो और भी नए सुबूत आ गए हैं. सिंधु घाटी सभ्यता से जुड़े 700 से ज़्यादा पुरातात्विक स्थलों की खोज हो चुकी है. भारत में राजस्थान, गुजरात, हरियाणा, पंजाब आदि राज्यों में नई खोज हो चुकी है. इनकी वैज्ञानिक जांच होनी चाहिए और जो भी वैज्ञानिक तथ्य सामने आते हैं, उन्हें इतिहास की किताबों में शामिल करना चाहिए. फिर से इतिहास लिखने की ज़रूरत पड़े, तो लिखना चाहिए. इतिहास लिखते समय यह ध्यान रखना ज़रूरी है कि नया इतिहास बहु-विषयक दृष्टिकोण लेखन प्रणाली से लिखा गया इतिहास हो. विज्ञान द्वारा प्रमाणित साक्ष्यों पर आधारित हो. प्राचीन इतिहास को मिथकों और धार्मिक मान्यताओं से दूर रखने की ज़रूरत है.
इतिहास कोई आसमानी किताब नहीं है, जिसे बदला न जा सके. नए साक्ष्य, नई खोज और नई तकनीक की वजह से हर व़क्त हमें भूतकाल के बारे में नई जानकारियां मिलती हैं. विज्ञान और तकनीकी विकास की वजह से कई राज से पर्दा हटाया जा सकता है. इन साक्ष्य, तकनीक और सुबूतों के आधार पर इतिहास को बदलना ही सही इतिहास का सृजन करना है. भारत में आज़ादी के बाद से इतिहास लिखने का काम शुरू हुआ. लेखकों ने कॉपी और पेस्ट करके पुरानी बातों को नए अंदाज और नई दलीलों के साथ परोस दिया. किताबों को ऐसे लिखा गया कि यदि कोई एक बार पढ़ ले, तो फिर उसकी इतिहास के बारे में जानने की इच्छा ही ख़त्म हो जाए. इतिहासकारों ने भूतकाल के बारे में बताने से ज़्यादा छिपाने का काम किया. जो बताया, उसमें भी राजनीति और विचारधारा का घालमेल कर दिया. इतिहास घृणा करने की वस्तु नहीं है. वामपंथी इतिहासकारों का दोष यही है कि उन्होंने इतिहास को ही घृणित बना दिया. भारत एक राष्ट्र नहीं, राज्य नहीं और न ही किसी ऐसे-वैसे भूखंड का नाम है. यह दुनिया की सबसे पुरातन सभ्यता है. यहां हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई, बौद्ध और न जाने कितने धर्मों को मानने वाले लोग रहते हैं. इतिहास ऐसा होना चाहिए, जिससे हर भारतवासी को गर्व हो, जिससे आपस में भाईचारा और एकता का संचार हो और जो हमारा हौसला बुलंद कर सके कि हम मानव विकास के मानदंडों पर दुनिया में अग्रणी रहे हैं. एक ऐसा इतिहास लिखा जाना चाहिए, जो मिथकों या धार्मिक कथा-कहानियों पर नहीं, बल्कि सत्य और सुबूतों पर आधारित हो. भारत में इतिहास को फिर से लिखने की ज़रूरत है. इतिहासकारों को नए साक्ष्य, सुबूतों, विज्ञान और तकनीक का इस्तेमाल इतिहास लेखन में करना चाहिए. मनगढ़ंत बातों के लिए इतिहास में कोई जगह नहीं होनी चाहिए.
आर्यन इन्वेजन थ्योरी का सच
यह बहुत कम लोग जानते हैं कि आर्यन इन्वेजन थ्योरी (आर्य आक्रमण सिद्धांत) की उत्पत्ति की जड़ में ईसाई-यहूदी वैचारिक लड़ाई है. आर्यन इन्वेजन थ्योरी की उत्पत्ति 18वीं शताब्दी में यूरोप, ख़ासकर जर्मनी में हुई. उस वक्त के इतिहासकारों एवं दार्शनिकों ने यूरोपीय सभ्यता को जुडाइज्म (यहूदी) से मुक्त करने के लिए यह थ्योरी प्रचारित की. कांट एवं हरडर जैसे दार्शनिकों ने भारत और चीन के मिथकों तथा दर्शन को यूरोपीय सभ्यता से जोड़ने की कोशिश की. वे नहीं चाहते थे कि यूरोपीय सभ्यता को जुडाइज्म से जोड़कर देखा जाए. इसलिए उन्होंने यह दलील दी कि यूरोप में जो लोग हैं, वे यहूदी नहीं, बल्कि चीन और भारत से आए हैं. उनका नाम उन्होंने आर्य रखा. समझने वाली बात यह है कि चीन और भारत के सभी लोग आर्य नहीं थे. उनके मुताबिक़, एशिया के पहाड़ों में रहने वाले सफेद चमड़ी वाले कबीलाई लोग आर्य थे, जो यूरोप में आकर बसे और ईसाई धर्म अपनाया. यूरोप में आर्य को एक अलग रेस माना जाने लगा. यह एक सर्वमान्य थ्योरी मानी जाने लगी. आर्यन इन्वेजन थ्योरी की उत्पत्ति मूल रूप से यूरोप के लिए की गई थी. जब अंग्रेजों ने भारत का इतिहास समझना शुरू किया, तो आश्चर्य की बात यह है कि उन्होंने इस थ्योरी को भारत पर भी लागू कर दिया. 1866 से आर्यन इन्वेजन थ्योरी ऑफ इंडिया को भारत के इतिहास का हिस्सा बना दिया गया. बताया गया कि भारत के श्वेत रंग के, उच्च जाति के शासक वर्ग और यूरोपीय उपनिवेशक एक ही प्रजाति के हैं. यह थ्योरी अंग्रेजों के काम भी आई. अंग्रेज बाहरी नहीं है और उनका भारत पर शासन करना उतना ही अधिकृत है, जितना यहां के राजाओं का. अंग्रेजों को भारत में शासन करने के लिए इन हथकंडों की ज़रूरत थी. लेकिन यह बात समझ में नहीं आती कि आज़ादी के बाद भी वामपंथी इतिहासकारों ने इस थ्योरी को जड़-मूल से ख़त्म क्यों नहीं किया? जबकि हमें यह पता है कि इस मनगढ़ंत थ्योरी की वजह से हिटलर जैसे तानाशाह पैदा हुए. वह भी तब, जब यूरोप में विज्ञान के विकास के साथ-साथ रेस थ्योरी को अविश्वसनीय और ग़ैर-वैज्ञानिक घोषित कर दिया गया. पिछले 70 सालों से आर्यन रेस पर कई अनुसंधान हुए. अलग-अलग देशों ने इसमें हिस्सा लिया है, अलग-अलग क्षेत्र के वैज्ञानिकों ने अपना योगदान दिया है. सबने एक स्वर में आर्यन के एक रेस होने की बात को मिथक और झूठा करार दिया है. ये स़िर्फ वामपंथी इतिहासकार हैं, जो अभी तक इस रेस थ्योरी को पकड़ कर बैठे हैं. 10 दिसंबर, 2011 को एक ख़बर आई कि सेलुलर मोलिकुलर बायोलॉजी के वैज्ञानिकों ने कई महाद्वीपों के लोगों पर एक रिसर्च किया. इस रिसर्च में कई देशों के वैज्ञानिक शामिल थे. यह रिसर्च 3 सालों तक किया गया और लोगों के डीएनए की सैंपलिंग पर किया गया. इस रिसर्च से पता चला कि भारत में रहने वाले चाहे वे दक्षिण भारत के हों या उत्तर भारत के, उनके डीएनए की संरचना एक जैसी है. इसमें बाहर से आई किसी दूसरी प्रजाति या रेस का कोई मिश्रण नहीं है और यह दावे के साथ कहा जा सकता है कि पिछले 60 हज़ार सालों से भारत में कोई भी बाहरी जीन नहीं है. इस रिसर्च की रिपोर्ट में कहा गया है कि डीएनए सैंपलिंग के जरिये यह बिना किसी शक के दावा किया जा सकता है कि आर्यों के आक्रमण की कहानी एक मिथक है. इस रिसर्च की रिपोर्ट को अमेरिकन जनरल ऑफ ह्यूमन जेनेटिक्स में 9 दिसंबर, 2011 को प्रकाशित किया गया. यह एक प्रामाणिक रिसर्च है. इसमें विज्ञान की सबसे उच्च कोटि की तकनीकों का इस्तेमाल हुआ है. कई देशों के वैज्ञानिक इसमें शामिल थे. यह रिपोर्ट आए तीन साल होने वाले हैं. देश के इतिहासकार क्यों चुप हैं? हक़ीक़त यह है कि भारत का इतिहास राजनीति से ग्रसित है. इतिहास की किताबों ने सच बताने से ज़्यादा सच को छिपाने का काम किया है.
आधुनिक इतिहास का कांग्रेसीकरण
आधुनिक भारत का इतिहास सन् 1857 की क्रांति से लेकर 1947 तक माना जाता है. प्राचीन इतिहास जहां भारत की पहचान के लिए ज़रूरी है, उसी तरह आधुनिक इतिहास भारत की एकता, अखंडता और प्रजातंत्र को सींचने के लिए महत्वपूर्ण है. अफ़सोस इस बात का है कि आधिकारिक इतिहासकारों ने इसमें वामपंथ और कांग्रेसी विचारधारा का ऐसा घालमेल किया कि कई लोग मुख्य धारा से अलग-थलग हो गए. आधुनिक भारत का पूरा इतिहास गांधी, नेहरू, कांग्रेस और वामपंथी संगठनों तक सीमित कर दिया गया. सेकुलरिज्म और कम्युनलिज्म के चश्मे से लिखा गया वामपंथी इतिहास पर पुनर्विचार करने की ज़रूरत है. इंस्टीट्यूट ऑफ आब्जेक्टिव स्टडीज ने एक किताब प्रकाशित की, जिसमें आज़ादी की लड़ाई में शामिल कई मुस्लिम नेताओं और क्रांतिकारियों के बारे में जानकारी दी गई. ये वे नाम हैं, जिनका मुख्य धारा के इतिहास में न तो कोई जिक्र है और न ही उनके योगदान की चर्चा है. मुस्लिम लीग में शामिल मुस्लिम नेताओं को आधुनिक भारत के इतिहास से निकाल कर बाहर फेंक दिया गया. इतना ही नहीं, मदन मोहन मालवीय, लाला लाजपत राय, बाल गंगाधर तिलक के योगदान को भी भुला दिया गया, जबकि वे कांग्रेस के नेता भी रहे. दरअसल, वामपंथी लेखन प्रणाली ने आधुनिक भारत का इतिहास सेकुलर-कम्युनल चश्मे से लिखा. इसमें मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा को कम्युनल संगठन बताकर उनके योगदान को जड़ से उखाड़ कर फेंक दिया गया. जबकि हक़ीक़त यह है कि मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा काफी समय तक कांग्रेस का हिस्सा रही. कांग्रेस उस वक्त कोई संगठन नहीं, बल्कि एक आंदोलन था, जिसमें कई संगठन शामिल थे. मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा के ज़मीनी कार्यकर्ता और स्थानीय नेता आज़ादी के आंदोलन में किसी से पीछे नहीं थे. वैसे भी सेकुलरिज्म और कम्युनलिज्म के चश्मे से लिखा गया वर्तमान इतिहास न स़िर्फ अधूरा है, बल्कि विरोधाभासों से भरा पड़ा है. इसके अलावा इन किताबों को पढ़कर लगता है कि पूरे के पूरे नॉर्थ-ईस्ट की स्वतंत्रता संग्राम में कोई हिस्सेदारी ही नहीं थी. नॉर्थ-ईस्ट के वे कौन लोग थे, जिन्होंने आज़ादी के लिए जानें दीं, आंदोलन किया और अंग्रेजों के डंडे खाए, यह वर्तमान इतिहास में नहीं है. कांग्रेस सरकारों द्वारा चयनित वामपंथी इतिहासकारों ने इतिहास को राजनीति का अखाड़ा बना दिया. उन्होंने इतिहास के नाम पर कुछ झूठ कहा, कुछ सच छिपाए और कई मनगढ़ंत कहानियां गढ़ दीं.
वामपंथ बनाम दक्षिणपंथ
यह देश का दुर्भाग्य होगा कि पुनर्लेखन के नाम पर मिथकों और इतिहास का घालमेल कर दिया जाए. आज के युवाओं को यह स्वीकार नहीं होगा कि हमारी किताबों में यह लिखा हो कि स्टेम सेल तकनीक का विकास महाभारत काल में हुआ था और मोटरकार का आविष्कार वैदिक काल में ही हो गया था. 21वीं सदी के भारत को ऐसे इतिहास की ज़रूरत नहीं है, जिसमें यह लिखा जाए कि भारत में महाभारत काल में इस तकनीक का उपयोग होता था. कुंती का बेटा सूर्य के समान तेजस्वी था. गांधारी जब दो साल तक गर्भधारण नहीं कर पा रही थीं, तो उन्होंने गर्भपात कराया. उस दौरान उनके गर्भाशय से बड़ी मात्रा में मांस निकला. ऋषि द्वैपायन व्यास ने उस मांस में औषधियां मिलाकर उसे एक ठंडे टैंक में रख दिया. बाद में उन्होंने उसके 100 टुकड़े किए और हर टुकड़े को घी से भरे 100 अलग-अलग टैंकों में दो साल तक रखा. दो साल के बाद उसी से 100 कौरवों का जन्म हुआ. ऐसी कहानियां कथावाचकों के लिए तो ठीक हैं, लेकिन इतिहास की किताबों में इनकी कोई जगह नहीं है. भारत का प्राचीन इतिहास वैसे ही गौरवशाली है. जो सुबूत उपलब्ध हैं, वही हमें दुनिया की सबसे पुरातन और अग्रणी सभ्यता साबित करने के लिए काफी हैं. इसके लिए यह ज़रूरी नहीं है कि इतिहास की किताबों में यह लिखा जाए कि वैदिक काल में भी मोटरकारें थीं, जिन्हें अनश्व रथ कहा जाता था. सामान्य तौर पर रथ को घोड़े खींचते हैं, लेकिन अनश्व रथ बगैर घोड़ों के दौड़ता था. इसे यंत्र रथ भी कहा जाता था और यही आज की मोटरकार है. या फिर हम पुष्पक विमान के बारे में यह बताएं कि उस जमाने में ही भारत में हवाई जहाज का आविष्कार हो चुका था.
भारत का इतिहास वैसे ही गौरवशाली है. भारत का प्राचीन काल हर दृष्टि से दुनिया में अग्रणी रहा है. ज़रूरत इस बात की है कि इतिहास को प्रामाणिक सुबूतों के साथ लिखा जाए, ताकि उस पर कोई उंगली न उठा सके. अगर संघ और उससे जुड़े कुछ लोग पिछली बार की तरह इतिहास के नाम पर मिथ्या को सच बताने लगेंगे, तो ऐसे इतिहास की वजह से भारत पूरे विश्व में उपहास का पात्र बन जाएगा.
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