-तुषार कोठारी
उत्तर प्रदेश और उत्तरांचल में भाजपा को मिली प्रचण्ड जीत का विश्लेषण
हर कोई अपने अपने ढंग से कर रहा है। कई लोग मोदी लहर को राम लहर से बडी भी
बता रहे हैं। इसे विकास के नारे की जीत भी माना जा रहा है। इन विश्लेषणों
से भी आगे अगर उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र के नतीजों को साथ रख कर देखा जाए
तो पता चलता है कि देश की राजनीति की दिशा बदल रही है। देश की राजनीति अब
अल्पसंख्यकों के तुष्टिकरण से हिन्दुत्व की दिशा में बढने लगी है।उत्तर प्रदेश की राजनीति को देखिए। राजनीतिज्ञ हो या राजनीतिक विश्लेषक,टीवी की बहस हो या अखबारों के लेख। सभी में उत्तर प्रदेश की चुनावी राजनीति का आकलन जातियों के आधार पर किया जा रहा था। चुनाव परिणाम आने के बाद जरुर इन विश्लेषणों में हिन्दुत्व का जिक्र भी आने लगा था। हांलाकि इस सीधी बात को सीधे शब्दों में बहुत कम कहा गया कि उत्तर प्रदेश में हिन्दुत्व,जातिवाद पर भारी पडा। जातियों में बंटे बहुसंख्यक समाज को धर्म की बडी छतरी में लाने का ही असर है कि अल्पसंख्यक तुष्टिकरण की राजनीति का दौर समाप्त होने की स्थिति में आ गया। गैर भाजपाई विपक्षी दलों का पूरे चुनाव में प्रमुख आरोप भी तो यही था कि भाजपा ने ध्रुवीकरण कर दिया।
उत्तर प्रदेश ही नहीं देश के अधिकांश राज्यों के इतिहास पर नजर डाले,पता चलता है कि अब तक की सारी राजनीति मुस्लिम थोकबन्द वोटों को अपनी तरफ खींचने के इर्द गिर्द ही केन्द्रित होती थी। उत्तर प्रदेश या बिहार जैसे बडे राज्यों में जो नेता जिस चुनाव में मुस्लिम वोट अपनी ओर खींच लेता था,सत्ता पर कब्जा कर लेता था। मुलायम सिंह ने कारसेवकों पर गोलियां बरसा कर खुद को मुस्लिमों का रहनुमा साबित किया था और आजम खान को समाजवादी पार्टी में बडी हैसियत दी थी। यही कारण था कि मुलायम सिंह उत्तर प्रदेश की राजनीति पर छाए रहे। उनका एम वाय फैक्टर चलता रहा। जब बहन जी ने दलित मुस्लिम कार्ड खेला तो वह भी मुख्यमंत्री की कुर्सी तक जा पंहुची थी।
वर्तमान चुनाव में भी मायावती और अखिलेश राहूल की जोडी इन दोनो प्रमुख प्रतिद्वंदियों ने खुद को सबसे बडी मुस्लिम परस्त बताने में कहीं कोई कसर नहीं छोडी थी। बसपा प्रमुख मायावती तो मंच से सीधे सीधे यह बता रही थी कि उन्होने सौ से ज्यादा मुस्लिम प्रत्याशियों को टिकट दिए है,इसलिए उनसे बडा मुस्लिमों का खैरख्वाह कोई हो ही नहीं सकता। अखिलेश ने भी मुस्लिम वोटों का बंटवारा रोकने के ही लिए कांग्रेस से आगे बढकर गठबन्धन किया था। उनके चुनाव प्रचार में भी यही सन्देश जारी किए जाते रहे कि मुस्लिमों के असली रहनुमा वे ही हैं। भाजपा द्वारा एक भी मुस्लिम प्रत्याशी को टिकट नहीं दिए जाने को इन दोनो ही पार्टियों ने खूब उछाला था। और शायद यही बात भाजपा के फायदे की रही।
कट्टर हिन्दूवादी छबि के नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में जैसे ही भाजपा ने लोकसभा का चुनाव लडा,कई दशकों से हिन्दुओं को संगठित करने में लगे आरएसएस का पूरा कैडर पूरी ताकत से चुनाव में जुट गया। मुस्लिम वोटों की जुगाड में लगे नेता यह समझ ही नहीं पाए कि उनकी लगातार मुस्लिम परस्ती से देश का बहुसंख्यक समाज उनसे कटने लगा है। लोकसभा चुनाव में मिली कल्पनातीत विजय के बाद भी गैर भाजपाई और हिन्दुत्व विरोधी पार्टियां यह समझ नहीं पाई कि अब राजनीति की दिशा बदल रही है। इन पार्टियों के नेता अपनी बरसों पुरानी मुस्लिम वोटों को आकर्षित करने की तकनीकों में ही जुटे रहे। दूसरी ओर
भाजपा नेता द्वारा श्मशान और कब्रिस्तान जैसे मुद्दे चतुराई से उठाते रहे और अपनी हिन्दूवादी छबि को स्थापित करते रहे। अखिलेश को बहुत देरी से समझ में आया कि यूपी में फिर से ध्रुवीकरण हो रहा है। अपनी इसी गलती को दुरुस्त करने के लिए वे अंतिम दौर में काशी विश्वनाथ के दर्शन करने पंहुचे,लेकिन तब तक देर हो चुकी थी।
नतीजा सामने है। उत्तर प्रदेश में सौ से ज्यादा मुस्लिम प्रत्याशियों को टिकट देने वाली बहन जी का तो अस्तित्व ही खतरे में पड गया है। कांग्रेस भी इतिहास की गर्त में जाने को तैयार है। अखिलेश की सपा भी बुरी तरह रौंद दी गई है। इस सबका सामूहिक निष्कर्ष यह भी है कि बहुसंख्यक मतदाता अल्पसंख्यक तुष्टिकरण की बेशर्म राजनीति से परेशान हो चुके है।
यह तथ्य महाराष्ट्र में और अधिक स्पष्ट रुप से सामने आया था। महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव को याद कीजिए। एक ही जैसी हिन्दुत्व की विचारधारा की दो पार्टियां शिवसेना और भाजपा अपनी लम्बी दोस्ती को ताक पर रखकर आमने सामने थी। मुस्लिम कार्ड खेलने में सिध्दहस्त कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी भी मैदान में थी। महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव का नतीजा क्या रहा था? भाजपा सबसे बडे दल के रुप में उभरी थी और दूसरे नम्बर पर शिवसेना थी। कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस की हालत नाजुक हो गई थी। हाल में हुए बीएमसी के चुनाव में भी यही दोहराव हुआ। पूरी राजनीति भाजपा और शिवसेना के बीच बंट गई,जबकि कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस का सूपडा साफ हो गया।
पूरे देश के परिप्रेक्ष्य में देखें,तो अब देश में भाजपा के अलावा कोई राष्ट्रीय स्तर की पार्टी नहीं बची है। जिन प्रदेशों में व्यक्ति आधारित पार्टियां सत्ता में थी,वहां भी परिस्थितियां बदलने लगी है। उत्तर प्रदेश का हश्र तो सामने ही है। एक बिहार बचा है,जहां लालू सत्ता में होने के बावजूद इतने मजबूत नहीं है कि अकेले के दम पर सरकार बना सके। यही हालत नीतिश की भी है। बहुसंख्यक मतदाता अब जातिवाद और व्यक्तिवाद की राजनीति की बजाय बडे मुद्दों की राजनीति पसन्द करने लगा है। अब मतदाता को हिन्दुत्व अधिक पसन्द आने लगा है। स्थितियां परिस्थितियां इसी तरह चलेगी तो यह तय है कि राजनीति की दिशा हिन्दुत्व की ओर बढेगी और सत्ता का संघर्ष शिवसेना जैसी कट्टर हिन्दुवादी पार्टी और माडरेट हिन्दुत्व वाली भाजपा जैसी पार्टियों के बीच जा कर टिक जाएगा। भाजपा शासित मध्यप्रदेश और गुजरात जैसे राज्यों के अल्पसंख्यक इस बात का प्रमाण भी देते है कि भाजपा से जितना उन्हे डराया जाता था,वैसा कुछ भी नहीं है। भाजपा शासित राज्यों में कहीं भी अल्पसंख्यकों को समस्या नहीं है। इन बातों का असर पूरे देश तक पंहुचता है। शायद यही कारण है कि यूपी चुनाव में थोडे ही सही लेकिन मुस्लिम मतदाताओं ने भी भाजपा को वोट दिया है।
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