Thursday, July 20, 2017

पं.नेहरु की नासमझी का कष्ट भुगत रहे हैं भारत,तिब्बत और भूटान

(सन्दर्भ-डोकलाम सीमा विवाद)

- तुषार कोठारी

वर्तमान में डोकलाम के चीनी भारत सीमा विवाद को शायराना अंदाज में कुछ यूं कहा जा सकता है कि लम्हो ने खता की,सदियों ने सजा पाई। यह देश के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरु की नासमझी थी,जिसका कष्ट आज तक भारत,तिब्बत और भूटान भुगत रहे हैं। पं. नेहरु की नासमझी इतनी अधिक थी कि इसे सरासर मूर्खता भी कहा जा सकता है। यदि किसी व्यक्ति को यह बता दिया जाए कि दीवार पर सिर मारने से उसका सिर फूट जाएगा और वह घायल हो जाएगा। यह स्पष्ट तौर पर समझाने के बावजूद यदि कोई व्यक्ति दीवार पर अपना सिर मार कर घायल होता है,तो उसे नासमझ कहेंगे या मूर्ख और पागल....? यदि स्नेह अधिक हो,तो ऐसे व्यक्ति को नासमझ कह लिया जाएगा,वरना तो ऐसा कृत्य मूर्खता या पागलपन की श्रेणी में ही आता है।

 भारत,तिब्बत और भूटान को लेकर चीन द्वारा खडी की जाने वाली तमाम समस्याएं,देश के प्रथम प्रधानमंत्री स्वनामधन्य पं. जवाहरलाल नेहरु की नासमझी और अदूरदर्शिता की देन तो है ही,लेकिन ऐतिहासिक तथ्य यह है कि पण्डित कहे जाने वाले जवाहरलाल नेहरु को कई बरसों पूर्व यह साफ साफ बता दिया गया था कि चीन धोखा देगा। चीन की  कपटभरी चालबाजियों का साफ साफ वर्णन नेहरु जी के समक्ष कर दिया गया था। इसके बावजूद पं. नेहरु नहीं माने। इसका परिणाम जहां सन 1962 में भारत के हजारों वीर सैनिकों के बलिदान के बावजूद चीन से करारी हार और भारत की 62 हजार वर्गमील भूमि पर चीन के अनाधिकृत कब्जे के रुप में सामने आया,वहीं भारत और भूटान को आज तक चीन की कारस्तानियों को भुगतना पड रहा है। भूटान की सीमा के भीतर डोकलाम का ताजा विवाद इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है।
 महात्मा गांधी के अनुचित दबाव के कारण भारत जैसे विशाल देश के सर्वाधिक महत्वपूर्ण पद पर आसीन हुए जवाहरलाल नेहरु के चीन सम्बन्धी निर्णयों पर आज नजर डाले तो साफ जाहिर होता है कि उनमें इस महत्वपूर्ण पद को संभालने की योग्यता ही नहीं थी। यदि उनमें थोडी भी योग्यता होती तो उन्होने सरदार वल्लभ भाई पटेल की उस नसीहत को मान लिया होता जो उन्हे चीन आक्रमण के 12 वर्ष पूर्व दी गई थी।
प्रधानमंत्री पद के योग्य दावेदार सरदार पटेल ने महात्मा गांधी के दबाव में प्रधानमंत्री पद छोडकर स्वतंत्र भारत की पहली सरकार में उप प्रधानमंत्री का पद स्वीकार कर लिया था। इसके बावजूद देश की सुरक्षा के मामले में उनकी दूरदर्शिता अद्भुत थी। साम्यवाद को पसन्द करने वाले पं. नेहरु चीन को साम्यवादी देश होने के कारण पसन्द करते थे,लेकिन चीन की चालबाजियां उन्हे नजर नहीं आती थी। अपनी नासमझी के चलते पं. नेहरु ने जहां तिब्बत पर चीन के आक्रमण का कोई विरोध नहीं किया वहीं संयुक्त राष्ट्र में चीन को सदस्यता दिलाने और यहां तक कि सुरक्षा परिषद की अपनी सीट चीन को सौंप देने के लिए अपनी पूरी ताकत लगा दी।
 उप प्रधानमंत्री सरदार पटेल,जवाहरलाल नेहरु की इन नासमझियों से बेहद नाराज थे। इसके बावजूद उन्होने 7 नवंबर 1950 को प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु को तिब्बत और उत्तर पूर्वी राज्यों के सम्बन्ध में एक लम्बा पत्र लिखा। अपने इस पत्र में सरदार पटेल ने अत्यन्त साफ तौर पर यह चेतावनी दी थी कि चीन का व्यवहार भावी शत्रु जैसा व्यवहार है और वह किसी भी समय भारत पर आक्रमण कर सकता है। सरदार पटेल द्वारा साफ साफ चेतावनी दिए जाने के बाद भी जवाहरलाल नेहरु ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया और वे हिन्दी चीनी भाई भाई के नारे लगाने में ही मस्त रहे। इसी का नतीजा 1962 में चीन द्वारा भारत पर आक्रमण के रुप में सामने आया।
 अपने पत्र में सरदार पटेल ने जवाहरलाल नेहरु को साफ लिखा था कि पूरे इतिहास में भारत को कभी भी हिमालय श्रृंखला की ओर से शत्रुओं के आक्रमण का खतरा नहीं रहा है,क्योंकि तिब्बत जैसे हिमालयीन राष्ट्र भारत के स्थायी मित्र रहे हैं। लेकिन तिब्बत पर चीन के अतिक्रमण के बाद अब खतरा बिलकुल सिर पर आ गया है। सरदार पटेल ने यह भी साफ लिखा था कि चीन की कुदृष्टि सिर्फ तिब्बत पर नहीं बल्कि भारत के उत्तर पूर्वी राज्यों असम आदि पर भी है। सरदार पटेल ने सिक्किम,भूटान,बर्मा,नेपाल आदि क्षेत्रों का जिक्र करते हुए लिखा था कि चीन इन पर भी अपनी नजरें गडाए बैठा है।
सरदार पटेल ने अपने पत्र में साफ तौर पर कहा था कि इन सारे क्षेत्रों में सेना का तैयारियां पर्याप्त नहीं है और ना ही आवागमन और संचार की अच्छी सुविधाएं है। उन्होने साफ तौर पर कहा था कि चीनी खतरे से निपटने के लिए भारत को युध्द स्तर पर इन क्षेत्रों में आवागमन और संचार के साधन जुटाने चाहिए तथा सेनाओं को पर्याप्त रुप से सज्जित कर तैयार रखना चाहिए। सरदार पटेल का साफ कहना था कि चीन पर विश्वास करने का कोई कारण ही नहीं है। वह विश्वासघात करेगा यह तय है।
चीनी आक्रमण के 12 वर्ष पहले साफ साफ चेतावनी दिए जाने के बावजूद जवाहरलाल नेहरु,चीन से प्यार की पींगे बढाते रहे,जिसका खामियाजा देश ने अपने हजारों वीर सैनिकों की जान देकर और देश की हजारों वर्गमील जमीन देकर चुकाया।
अगर उस समय सरदार पटेल की चेतावनी पर ध्यान दिया जाता,तो आज ये स्थितियां सामने ना आई होती। अगर तिब्बत पर चीनी आक्रमण के समय भारत ने तिब्बत का साथ दिया होता,तो आज चीन की हैसियत नहीं होती कि वह भूटान,सिक्किम और यहां तक कि अरणाचल पर अपना दावा ठोंक पाता।
 हमारे नीति निर्धारक तब से लेकर आज तक ऐतिहासिक तथ्यों से अनजान बने बैठे है। चीन तिब्बत को अपना क्षेत्र बताता है,लेकिन एक भी ऐतिहासिक तथ्य इस दावे का समर्थन नहीं करता। तिब्बत सदैव से स्वतंत्र देश रहा है। एक समय तो वह भी था,जब चीन का अधिकांश हिस्सा तिब्बत के अधीन था। पिछली एक सहस्त्राब्दि में बहुत थोडे समय के लिए चीन का तिब्बत पर कब्जा रहा,लेकिन तिब्बतियों ने जल्दी ही स्वयं को स्वतंत्र कर लिया था। 1949 में भारतीय नीति निर्धारकों की गलती के चलते चीन तिब्बत पर कब्जा करने में सफल हो पाया। अगर भारत ने तिब्बत के साथ असहयोग ना किया होता,तो उस समय चीन की हैसियत नहीं थी कि वह तिब्बत पर कब्जा कर पाता। यही स्थितियां हिमालय के अन्य क्षेत्रों की है। चीन आज भूटान पर अपना दावा ठोंक रहा है,जबकि भूटान कभी भी चीन का क्षेत्र नहीं रहा। भूटान प्रारंभ से ही एक स्वतंत्र देश रहा है। इसी तरह सिक्किम की 97 प्रतिशत जनता ने एक मत से सिक्किम को भारत का राज्य बनाने का अनुरोध भारत से किया था और तब 1975 में सिक्किम को भारत के पूर्ण राज्य का दर्जा दिया गया था। चीन की बेशर्मी अब यहां तक बढ गई है कि वह अरुणाचल प्रदेश को भी अपना हिस्सा बताने लगा है।
    भारत के नीति निर्धारकों की समस्या यह है कि वे नेहरु की नीति को बदलने और सच को सच कहने का साहस ही नहीं जुटा पा रहे है। वास्तविकता यह है कि सारे हिमालयीन राष्ट्रों जैसे,नेपाल,भूटान,तिब्बत आदि से भारत के सदियों पुराने सम्बन्ध रहे हैं। राजनैतिक तौर पर ये सभी क्षेत्र भले ही अलग राज्य रहे हो,लेंकिन सांस्कृतिक तौर पर ये सदियों से भारत राष्ट्र के अभिन्न अंग रहे हैं। इतिहास में इसके हजारों प्रमाण मौजूद है। भारत का इतिहास ही बताता है कि भारतवर्ष राजनैतिक तौर पर भले ही अलग अलग राज्यों में बंटा हुआ था,लेकिन सांस्कृतिक तौर पर यह एक अभिन्न राष्ट्र रहा है। राज्यों में राजनैतिक संघर्षों के बावजूद राष्ट्रीयता का भाव सदा ही बना रहा। कभी किसा भारतीय को तिब्बत के कैलाश मानसरोवर की यात्रा के लिए पृथक से अनुमति नहीं लेना पडती थी। लेकिन चीन के अतिक्रमण के बाद अब किसी भी भारतीय को तिब्बत में प्रवेश के लिए चीन की अनुमति लेना पडती है।
 वर्तमान परिदृश्य में जरुरत इस बात की है कि भारत की विदेश नीति को नेहरु के साये से मुक्त किया जाए। नीति निर्धारकों को विश्व समुदाय के सामने साफ तौर पर कहना चाहिए कि चीन ने तिब्बत में अतिक्रमण किया है और इस प्रकार के अतिक्रमणों को अब भारत बर्दाश्त नहीं करेगा। भारत को अब तिब्बत की स्वतंत्रता के मुद्दे को भी साफ तौर पर उठाना चाहिए। स्वतंत्रता के बाद जवाहरलाल नेहरु  जैसे नेताओं द्वारा की गई गलतियों को अब ढोया नहीं जाना चाहिए। पहले जो गलतियां हो चुकी है,अब उन्हे सुधारने का समय है।


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