(छठा दिन)13 सितम्बर 2017 बुधवार (शाम 4.20)
चक्रतीर्थ कैम्प
सूरज की धूप खिली हुई है। हमारे टेण्ट लग रहे हैं। कुक देवेन्द्र सूप तैयार कर रहा है। चक्रतीर्थ वह स्थान है,जहां से धर्मराज ने अकेले ही यात्रा की थी। शेष सभी पाण्डव व द्रौपदी पहले ही प्राण त्याग चुके थे। यहां से सतोपंत झील मात्र चार किमी दूर है।
हमारी आज की यात्रा सुबह साढे नौ पर शुरु हुई थी। हम लोग पश्चिम दिसा में चले और पहाड पर बाई ओर घूमते हुए आगे बढे। लगातार बडे बडे पत्थरों पर पैर रखकर उपर की ओर चलना था। यह काफी थका देने वाली चढाई थी। करीब दो घण्टे तक निरन्तर चढाई के बाद सहधारा का पहला झरना आया। यह झरना हमारी बाई ओर था। सहधारा के पहले झरने को पार कर आगे बढे। पांव के नीचे बडे बडे पत्थर,इन्ही पत्थरों में से बहता
झरना। हमारा रास्ता धीरे धीरे एक पर्वतीय कगार पर पंहुच गया। बाई ओर उपर बर्फ से ढंका पहाड,इसी पहाड से बहते झरने। झरने दीवारनुमा पहाड से सीधे नीचे उतर रहे हैं। हमारा रास्ता पर्वतीय कगार से होकर था। इस कगार के दोनो ओर तीखे ढलान। कगार की चौडाई मात्र एक-डेढ फीट। बाई ओर लगातार एक के बाद एक झरने। हमारी बाई ओर जहां झरने गिर रहे थे,वह इस कगार से करीब पांच सौ मीटर दूर। बीच में खाई। ये कगार वाला रास्ता करीब दो ढाई किमी का था। यह रास्ता खत्म होने लगा तो मुझे लगा कि हमारे रुकने का स्थान नजदीक है,इसी उत्साह में आगे चलने लगा। कगार से उतरे तो सामने एक घाटी थी। यह वही घाटी थी,जो कगार पर से बाई ओर नजर आ रही थी। अब हम इसी घाटी में उतर चुके थे। तीनो तरफ उंचे उंचे पहाड। समझ में ही नहीं आया कि रास्ता किधर है?हमारे साथ चल रहे कुक देवेन्द्र ने बताया कि सामने के पहाड पर चढकर उसके पीछे जाना है। सामने राला पहाड सबसे छोटा था। सोचा,चलो इसे पार कर लेते है। पहाड की चोटी पर पंहुचे,तो सामने एक और पहाड नजर आया। अब इसे भी पार करना था। लगातार सीधी खडी चढाई। रास्ते में सिर्फ पत्थर। धीरे धीरे करके इस पर भी चढे। थोडा अऔर चलने के बाद अब ढलान की बारी थी। ढलान नजर आते ही गति तेज हो जाती है। मैं,दशरथ जी और महेश जी आगे चल रहे थे। हमारा कुक देवेन्द्र हमारे साथ चल रहा था। ढलान वाला रास्ता एक सुन्दर घाटी में जाकर समाप्त हुआ,इसी को चक्रतीर्थ कहते है। यहां कुछ टेण्ट पहले से लगे हुए थे।
हमारे पंहुचने के करीब एक घण्टे बाद अनिल ,आशुतोष और प्रकाश भी आ गए। हमारे पोर्टर सबसे आखरी में आए। दोपहर करीब तीन बजे हल्की बारिश भी हो गई। लेकिन थोडी ही देर में फिर धूप आ गई। अब हमारे पोर्टर भी आ गए थे। आज हमने बडे किचन टेण्ट में रहने का निश्चय किया था। बडे टेण्ट में बिस्तर भी लग चुके है।
हम लोग गर्मागर्म सूप पी चुके है। अब भोजन की तैयारी। आज ये निश्चय किया है कि हमारे टेण्ट कल यहीं रहेंगे। सुबह जल्दी सात बजे यहां से सतोपन्त के लिए रवाना हो जाएंगे। लौटकर यहीं रात्रि विश्राम करेंगे।
सुबह गुजराती लोगों का दल हमसे एक घण्टे पहले ही चल दिया था। इस लोगों को हमने सहधारा पर पीछे छोडा था। उन लोगों ने अपने टेण्ट हमसे आगे लगाए हैं।
अब सूर्य आसमान से नदारद हो चुका है। ठण्डक का असर बढने लगा है। चारों ओर बर्फीले पहाड और पहाडों के बीच की इस घाटी में हम रुके हैं। ग्यारह किमी की खडी चढाई चढकर ऐसी घाटी में टेण्ट लगाकर सोने का जो मजा है,वह किसी 5-7 स्टार होटल के वीआईपी सूट में भी नहीं आ सकता। हांलाकि ये मजा हर किसी के भाग्य में भी नहीं होता। पैर दुख रहे हैं। शरीर थकान से चूर है। घाटी में बर्फीली हवा चल रही है। मैं डायरी लिख रहा हूं। अब मेरे हाथ भी ठण्डे होने लगे है। जल्दी से दस्ताने पहनना है।
कल की यात्रा का वर्णन कल.........।
सातवें दिन की यात्रा पढने के लिए यहां क्लिक करें
चक्रतीर्थ कैम्प
सूरज की धूप खिली हुई है। हमारे टेण्ट लग रहे हैं। कुक देवेन्द्र सूप तैयार कर रहा है। चक्रतीर्थ वह स्थान है,जहां से धर्मराज ने अकेले ही यात्रा की थी। शेष सभी पाण्डव व द्रौपदी पहले ही प्राण त्याग चुके थे। यहां से सतोपंत झील मात्र चार किमी दूर है।
झरना। हमारा रास्ता धीरे धीरे एक पर्वतीय कगार पर पंहुच गया। बाई ओर उपर बर्फ से ढंका पहाड,इसी पहाड से बहते झरने। झरने दीवारनुमा पहाड से सीधे नीचे उतर रहे हैं। हमारा रास्ता पर्वतीय कगार से होकर था। इस कगार के दोनो ओर तीखे ढलान। कगार की चौडाई मात्र एक-डेढ फीट। बाई ओर लगातार एक के बाद एक झरने। हमारी बाई ओर जहां झरने गिर रहे थे,वह इस कगार से करीब पांच सौ मीटर दूर। बीच में खाई। ये कगार वाला रास्ता करीब दो ढाई किमी का था। यह रास्ता खत्म होने लगा तो मुझे लगा कि हमारे रुकने का स्थान नजदीक है,इसी उत्साह में आगे चलने लगा। कगार से उतरे तो सामने एक घाटी थी। यह वही घाटी थी,जो कगार पर से बाई ओर नजर आ रही थी। अब हम इसी घाटी में उतर चुके थे। तीनो तरफ उंचे उंचे पहाड। समझ में ही नहीं आया कि रास्ता किधर है?हमारे साथ चल रहे कुक देवेन्द्र ने बताया कि सामने के पहाड पर चढकर उसके पीछे जाना है। सामने राला पहाड सबसे छोटा था। सोचा,चलो इसे पार कर लेते है। पहाड की चोटी पर पंहुचे,तो सामने एक और पहाड नजर आया। अब इसे भी पार करना था। लगातार सीधी खडी चढाई। रास्ते में सिर्फ पत्थर। धीरे धीरे करके इस पर भी चढे। थोडा अऔर चलने के बाद अब ढलान की बारी थी। ढलान नजर आते ही गति तेज हो जाती है। मैं,दशरथ जी और महेश जी आगे चल रहे थे। हमारा कुक देवेन्द्र हमारे साथ चल रहा था। ढलान वाला रास्ता एक सुन्दर घाटी में जाकर समाप्त हुआ,इसी को चक्रतीर्थ कहते है। यहां कुछ टेण्ट पहले से लगे हुए थे।
हम लोग गर्मागर्म सूप पी चुके है। अब भोजन की तैयारी। आज ये निश्चय किया है कि हमारे टेण्ट कल यहीं रहेंगे। सुबह जल्दी सात बजे यहां से सतोपन्त के लिए रवाना हो जाएंगे। लौटकर यहीं रात्रि विश्राम करेंगे।
सुबह गुजराती लोगों का दल हमसे एक घण्टे पहले ही चल दिया था। इस लोगों को हमने सहधारा पर पीछे छोडा था। उन लोगों ने अपने टेण्ट हमसे आगे लगाए हैं।
अब सूर्य आसमान से नदारद हो चुका है। ठण्डक का असर बढने लगा है। चारों ओर बर्फीले पहाड और पहाडों के बीच की इस घाटी में हम रुके हैं। ग्यारह किमी की खडी चढाई चढकर ऐसी घाटी में टेण्ट लगाकर सोने का जो मजा है,वह किसी 5-7 स्टार होटल के वीआईपी सूट में भी नहीं आ सकता। हांलाकि ये मजा हर किसी के भाग्य में भी नहीं होता। पैर दुख रहे हैं। शरीर थकान से चूर है। घाटी में बर्फीली हवा चल रही है। मैं डायरी लिख रहा हूं। अब मेरे हाथ भी ठण्डे होने लगे है। जल्दी से दस्ताने पहनना है।
कल की यात्रा का वर्णन कल.........।
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