देवलोक के द्वार तक का सफर
02 मार्च 2018 शुक्रवार (रात 9.30)
रुम न. 1 सर्किट हाउस अगरतला (त्रिपुरा)
हम भोजन कर चुके हैं। अब हमें अपने कक्ष क्र.7 में जाकर सोना है। हमारा कक्ष उपरी मंजिल पर है। अनिल बाहर अपने घर पर बात कर रहा है। दशरथ जी और संतोष जी ताश खेल रहे हैं। इसी बाच अनिल भी कमरे में आ चुका है।आज की सुबह साढे पर हम तैयार हो चुके थे। सवा सात पर ड्राइवर बीएल डे का फोन आ चुका था। हम लोग साढे सात,सात चलीस तक तैयार हो चुके थे। बाहर निकले,गाडी आल्टो नहीं थी,बल्कि मारुति की ही इको थी।
हम गाडी में सवार हुए और चल पडे।
ड्राइवर को बताया कि हमें नाश्ता करना है। शहर की कई सडक़ों पर घूमते हुए एक बडे होटल पर पंहुचे। पता चला कि आज होली है,इसलिए कुछ नहीं मिलेगा। आगे बढे,एक छोटी सी दुकान पर पंहुचे। यहां मैदे की रोटियां और मटर की सब्जी थी। तभी अचानक मुझे याद आया कि छोटा कैमेरा गो प्रो सर्किट हाउस पर ही छूट गया है। संतोष जी और दशरथ जी को होटल पर ही छोडकर मैं और अनिल वापस सर्किट हाउस पर लौटे। वहां सै कैमरा लेकर वापस होटल पर आए। मैदे की रोटियां थी,जैसे तैसे दो रोटियां हलक से नीचे उतारी,कद्दू की सब्जी बच गई। सब्जी वहीं छोडी और आगे बढ चले। आज हमारी मंजिल थी छबिमुरा। नाश्ते के बाद एक दुकान पर पावडर वाले दूध की चाय पी और रवाना हो गए। एगरतला शहर छोडा। हम उदयपुर जा रहे थे। रास्ता शुरुआत में बेहद शानदार था,लेकिन थोडी ही देर में पता चला कि सडक़ का काम चालू है। थोडा रास्ता शानदार,फिर निर्माण कार्य,कच्चा उबड खाबड रास्ता। डेढे-मेढे रास्तों से होते हुए करीब सवा दस बजे पचास किमी चलकर उदयपुर जा पंहुचे। कभी उदयपुर त्रिपुरा की राजधानी हुआ करता था। विश्व प्रसिध्द त्रिपुरा सुन्दरी मन्दिर यहीं है। यह भावन शक्तिपीठों में से इक्यावनावं शक्तिपीठ है। यहां कोई कहता है कि सती का पैर गिरा था,हमारा ड्राइवर कहता है कि सती के पैर की कनिष्ठिका गिरी थी। खैर यह तय है कि यह शक्तिपीठ है। यहां पंहुचे। छोटे कैमरे और गो प्रो से कई विडीयो बनाए। कई फोटो लिए। मंदिर के पीछे बडा सा तालाब है। इसमें बडी संख्या में मछलियां है। इनके फोटो भी लिए,विडीयो भी बनाए। देवी को प्रसाद भी चढाया।
दोपहर ग्यारह बजे यहां से छबिमुरा के लिए चले। अभी तक का रास्ता समतल था। अब पहाडी रास्ता सामने था। कल रात को जब ड्राइवर से बात हुई वह बदल गया। ड्राइवर पहले सौलह सौ रु.प्रतिदिन में जाने को राजी था,फोन पर बात हुई तो बोला आठ सौ रु.प्रतिदिन और आठ रु.प्रति किमी। फिर सात सौ रु.प्रतिदिन और सात रु.प्रति किमी पर बात तय हुई। इसी किराये पर हम चल रहे थे।
ग्यारह बजे उदयपुर से चले। अब पहाडी रास्ता था। हांलाकि उत्तर पूर्व में उंची पहाडियां नहीं है,लेकिन रास्ता बेहद मजेदार था। उंचा नीचा,नागमोडी रास्ता। सडक़ के दोनो ओर घने घनघोर जंगल। ड्राइवर को छबिमुरा का रास्ता भी पता नहीं था। कई गांवों में पूछते पाछते पंहुचना था।
त्रिपुरा के गांव बडे सुन्दर है। घरों पर पतरे डले है,लेकिन रचना और रंग संयोजन बेहद आकर्षक है। इन्ही पहाडों रास्तों में चलते-चलते महारानी गांव में होली मनाते बच्चों की टोली मिली। दशरथ जी गाडी से उतरे तो बच्चों ने बडे प्यार से उन्हे रंगा। मैं उतरा,फोटो विडीयो बनाने लगा। बच्चों ने मुझे भी रंग लगाया,लेकिन मैरे निवेदन पर पक्का रंग नहीं लगाया। सिर्फ गुलाल लगाया। होली खेल कर विडीयो बनाकर आगे बढे। बेहद संकरी सडक़,त्रिपुरा के सुन्दर गांव। उंचे नीचे रास्ते,घना जंगल। हम करीब साढे बारह बजे छबिमुरा के उस स्थान पर पंहुचे,जहां सडक़ समाप्त हो जाती है। आगे गोमती नदी है। दोनो ओर उंचे पहाड,पेड और लताओं से आच्छादित इन पहाडों के बीच गोमती नदी धीर गंभीर गति से चलती है। यहां से आगे नाव की सवारी लेना पडता है। आजकल यहां मोटर बोट चलने लगी है,जिसका किरया पन्द्रह सौ रुपए है। यह पन्द्रह लोगों के लिए है। हम तो कुल चार ही थे। एक ड्राइवर था। इस तरह सिर्फ पांच। पांच लोगों के लिए पन्द्रह सौ रु.देना थे। कुछ ही मिनटों में एक बोलेरो आई। इस एक साधु जैसे व्यक्ति,एक अधेड दम्पत्ति,उनकी विवाहित कन्या और उसकी बालिका थी। ये लोग कोलकाता से आए थे। हमारा खर्चा कम हो सकता था। हमने चौदह सौ की रसीद कटवाई और उस परिवार को आधे किराये में अपने साथ ले लिया।
छबिमुरा की हमारी यात्रा शुरु हुई। यात्रा शुरु होते ही हमारी दाई ओर पहाड़ पर कई देवी देवताओं की मूर्तियां उंकेरी हुई थी। मैं न तो फोटो ले पाया,न विडीयो बना पाया। यहां से आगे बढे। नदी आडी तिरछी बह रही थी। नागमोडी बहाव में हम आगे बढते रहे। यह सफर करीब आठ किमी का था। नदी में नाव पर सवार होकर हम करीब सात किमी आगे पंहुचे,तो एक स्थान पर बोट रोकी गई। देखा कि दाहीनी ओर पहाड पर देवी की बहुत बडी प्रतिमा बनाई गई है। ये दो हजार वर्ष से भी अधिक पुरानी है,और नदी के किनारे काफी उंचाई पर है। दो हजार साल पहले जब यहां घनघोर जंगल था,जो कि आज भी है,किसने यह शिल्प बनाया होगा..?
यहां उतरे। पहाडी पर उपर चढे। कई सारे फोटो व विडीयो बनाए। यहां सफर खत्म हो गया। यहां से वापस लौटना था। तो फिर देवलोक का द्वार कहां गया..? नाव वाले से पूछा,गुफा कहां है। उसने बताया कि अब गुफा पर जाएंगे। नाव वापस लौटने लगी। कुछ ही दूर चले थे कि बाईं ओर नदी का एक हिस्सा जाता हुआ दिखाई दिया। वहीं नाव रोकी गई। नाव से एक लडक़ा हमारा गाईड बनकर आगे चला। दो पहाडों के बीच की खोह,कोई पहाडी झरना बहकर आ रहा है। पानी की तेज धार के बावजूद हम आगे बढने लगे। कीचड वाला दलदली रास्ता। दोनो ओर उंचे पहाड,घना जंगल। घनघोर जंगल के कारण धूप भी यहां नहीं पंहुच पा रही थी और अंधेरा सा छाया हुआ था। आगे बढे। इस कठिन रास्ते की बडी कठिनाईयां अभी आगे आने वाली थी।
आगे बढने पर सामने एक टीला सा था। इस पर बांस की सीढी रखी हुई थी। इस सीढी पर चढकर आगे जाना था। जैसे तैसे इस सीढी पर चढे और आगे बढे। आगे तो इससे भी खतरनाक,तीन गुनी उंचाई वाली बांस की सीढी बनी हुई थी। यह सीढी दो पहाडों के बीच की खोह में टिकाई गई थी और सीढी के नीचे तेज बहाव वाला झरना बह रहा था। जरा सा पैर फिसला कि कई फीट नीचे पंहुच सकते है।
कठिनाई यहीं खत्म नहीं होती। यहां सीढी खत्म हो रही थी,वहां तेज बहाव वाली धारा को पार करने के लिए एख बांस लगाया गया था। इस पर चलकर आगे बढना था। आगे चट्टानों के बीच तेज धार बह रही है और आप को भीगे हुए फिसलन भरे पहाडों पर पैर टिकाकर आगे बढना है। हमारे साथ आए अधिकांश यात्री तो बांस की लम्बी सीढी चढने से ही कतरा गए। मैं और दशरथ जी आगे बढे। इस चट्टान को पार कर उस गुफा तक पंहुचा जाता है,जहां से देवलोक का द्वार मिलता है। मैं और दशरथ जी आखिरकार इस गुफा तक पंहुच गए।
गुफा में घनघोर अंधेरा था। मोबाइल की टार्च जलाकर गुफा के भीतर घुसे। भीतर दो छोटी छोटी गुफाएं थी। दाहीनी ओर की गुफा में पानी भरा हुआ था,जबकि बाई ओर की गुफा में पानी नीचे बह रहा था। यह गुफा मुश्किल से ढाई फीट उंचाई की थी। इसको लेटकर ही पार किया जा सकता है। बाहर से देखने पर इसकी लम्बाई पन्द्रह बीस फीट नजर आ रही थी। नाव से आए गाईड से पूछा कि यह गुफा कहां जाती है। उसका उत्तर था कि यही देवलोक का द्वार है। आजतक कोई भी इसका दूसरा सिरा नहीं देख पाया है। हमने गुफा को देखा,खुद को तौला और फिर फैसला किया कि हम इसके भीतर नहीं जा सकते। यहीं फोटो लिए और वापस लौट चले। रास्ता तो कठिन था लेकिन वापसी आसान थी। वापस लौट कर नाव में सरार हुए। सफर की शुरुआत में जिन मूर्तियों के फोटो नहीं ले पाए थे,उनके फोटो और विडीयो बनाए। दोपहर करीब ढाई बजे हम वापस आ चुके थे। वाहन में सवार हुए। वापसी में हमने उन यात्रियों के वाहन का पीछा किया,जो नाव में हमारे साथ थे। वे लोग अच्छे और छोटे रास्ते से आए थे। हम भी उसी रास्ते से जल्दी ही पहाडों से बाहर निकले। अब भूख सताने लगी थी। एक छोटे से बंगाली निरामिष भोजनालय में चावल थाली का आर्डर दिया। दाल चावल के साथ यहां कई तरह की अलग अलग सब्जियां और नई नई चीजे थी। भोजन में मजा आ गया। लेकिन खाना महंगा था। चार लोगों का भोजन छ: सौ रु.में हुआ।
अब वापसी की यात्री। उसी रास्ते पर चलते हुए शाम करीब छ: बजे यहां सर्किट हाउस लौटे। लौट कर आईबी एसपी दीक्षित जीसे बात हुई। वे कल मुलाकात करेंगे। उत्तराखण्ड आईजी संजय गुंजियाल जी से भी बात हुई। वे हैरान थे कि मैं अगरतला से काल कर रहा हूं।
दोपहर में भोजन के वक्त वैदेही से विडीयो काल पर बात हुई। रतलाम में होली जोर शोर से मनाई जा रही थी। होली खेलते चिंतन,वैदेही ,आशु घोटीकर,राजेश घोटीकर,राजेश पाण्डेय से विडीयो काल पर बात हुई। हर कोई रंगारंग था। होली हमने भी खेली लेकिन औपचारिक रुप से। रतलाम में धुंआधांर होली चल रही थी।
बहरहाल,अब सोने का वक्त। कल सुबह फिर सात बजे रवाना होना है। कल त्रिपुरा का परिणाम आना है। लोगों को डर है कि यदि भाजपा जीत गई तो हिंसा होगी। हमारा ड्राइवर भी डर रहा था। हमने दबाव बनाया कि डरने की कोई बात नहीं,हम घूमने जाएंगे। देखते है कि वह (ड्राइवर) कल आता है या नहीं...?
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