Wednesday, May 29, 2019

Bhutan Sikkim Journey-4

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यात्रा वृतान्त-31/ शांति का देश भूटान-
बर्फ़बारी के फंस कर गाड़ी में गुजारे वो 15 घंटे

(4 जनवरी 2019 से 14 जनवरी 2019 तक)

10 जनवरी 2019 गुरुवार(सुबह साढे नौ/10.00 भूटान)
दोचूला पास रेस्टोरेन्ट

कल रात हमें पुनाखा किला(झोंग) देखकर पारो पंहुच जाना था। लेकिन हम बीती पूरी रात बर्फ में फंसे रहे। हम पुनाखा किला देखकर शाम करीब पांच बजे पारो के लिए निकले थे। तभी बूंदाबांदी होने लगी थी,लेकिन देखते ही देखते बर्फबारी शुरु हो गई,जो जल्दी ही तेज हो गई।
 शुरुआत में तो बर्फबारी देखर मजा आ रहा था। लेकिन थोडी ही देर में सडक़ पर जाम लग गया। हम करीब साढे पांच बजे जाम में फंसे। उममीद थी कि जाम खुलेगा और हम पारो पंहुच जाएगें। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। जाम खुलने को राजी ही नहीं था। छ: से सात,सात से आठ और आठ से नौै बज गए।
इन तीन घंटों में कई सारी गाडियां आगे बढने की बजाय वापस लौट गई। अब सडक़ पर गाडियां कम हो गई थी। बाहर अंधेरा फैल गया था। बर्फबारी  भी कुछ धीमी हो गई थी। हमारे ड्राइवर मारकुश थापा को थोडा आगे चलने को कहा। ना नुकुर के बाद उसने गाडी आगे बढाई। दो तीन सौ मीटर आगे बढकर फिर से एक मोड पर गाडी  रोकना पड गई। इस वक्त करीब नौ बज गए थे। बाहर चारो ओर जबर्दस्त बर्फ हड्डियों को जमा देने वाली ठंड। हमारी गाडी से थोडी दूर,सडक़ पर रुके हुए ट्रक ड्राइवरों ने लकडियां जला ली थी। मैं और अनिल वहां पंहुच गए। आग की तपन राहत दे रही थी,लेकिन शरीर का पिछला हिस्सा ठंडा हुआ जा रहा था। पिछले हिस्से को गर्म करने जाओ तो अगला हिस्सा ठंडा हो रहा था। चार बजे जब पुनाखा से चले थे,उसके बाद किसी ने पानी तक नहीं पिया था। सभी को प्यास लग रही थी,लेकिन पानी नहीं था,सिर्फ बर्फ थी।







आग ताप रहे थे,तो आशुतोष भी आ गया। काफी देर तक तापने के बाद हम सभी गाडी में लौट आए। गाडी में बैठना भी आसान नहीं था। अगली सीट पर ड्राइवर के साथ दशरथ जी थे। बीच में मैं,अनिल और आशुतोष। हिमांशु पिछली सीट पर। उसके पास पैर लंबे करने की सुविधा थी,इसलिए उसे नींद भी आ गई थी।
 करीब ग्यारह बजे तक वहीं टिके रहे। इसी बीच सामने के मोड से दो तीन गाडियां धक्का ले लेकर आगे बढ गई। हमारे ड्राइवर मारकुश को भी साहस आया कि अगर हम पांचों धक्का देंगे तो गाडी आगे निकल सकती है। हम लोग राजी हो गए। सडक़ पर बर्फ जम गई थी और इतनी फिसलन हो गई थी कि पैर टिकाना भी मुश्किल था। जब पैर ही नहीं जम रहे थे,तो धक्का कैसे दे पाते? फिर भी जैसे तैसे कोशिश की। इसी कोशिश में अनिल फिसल कर गिरा। भगवान का शुक्र था कि उसने खुद को संभाल लिया,कोई चोट नहीं आई। गाडी बहुत फिसल रही थी। गाडी को पीछे फिसलने से रोकने के लिए पिछले पहियों में पत्थर  लगाना जरुरी था। दोनो एक्शन साथ करने थे। पहले तो,चढाई पर गाडी को धक्का देकर आगे धकेलना और अगर गाडी आगे ना बढे,पीछे फिसलने लगे,तो फौरन पिछले पहिये में पत्थर लगा देना। मैने एक बडा सा पत्थर हाथों में उठाया,बाकी लोगों ने धक्का देना शुरु किया। सामने खडी चढाई,बर्फ की जबर्दस्त फिसलन। गाडी पीछे फिसलने लगी। मैने और दशरथ जी ने पिछले पहियों में पत्थर लगाए। लेकिन यह क्या,पत्थर भी फिसलने लगे। गाडी फिसलती जा रही थी। एक ओर हजारों फीट गहरी खाई। फिर जैसे तैसे गाडी रुक पाई। एक बार फिर सबने मिलकर गाडी को धकेला। मैने हाथों में पत्थर उठाया। इस बार किस्मत ने साथ दिया। गाडी के पहिये बर्फ पर फिसल कर घूमते रहे और गाडी इंच इंच कर आगे बढी। इस बार धक्का देने में दूसरी गाडियों के ड्राइवर भी शामिल थे। इंच इंच सरकते गाडी आगे बढी और चाल पकड गई।  हम सब गाडी से नीचे थे। चूंकि गाडी रोलिंग पकड गई थी,इसलिए मारकुश ने गाडी रोकी नहीं। वह गाडी को करीब आधा  किमी आगे लेकर गया और कम बर्फ वाले एक स्थान पर उसने गाडी रोक दी।  हम फिसलन से बचते हुए गाडी की तरफ दौडने लगे। काफी देर तक पत्थर मैने हाथों में पकडा हुआ था। बेहद ठंडा पत्थर हाथों में काफी देर तक उठाने से मेरी हथेलियों का खून जम गया था। हाथ सुन्न हो गए थे। मैने तेजी से हाथों को रगडना शुरु किया।  हाथों में थोडी सी जान महसूस हुई। हम गाडी के पास पंहुच गए। यहां सडक़ साफ थी। हम सभी को लगा कि बस पार हो गए। इसी खुशी में हम नाचने लगे। फिर गाडी में सवार हुए और करीब डेढ दो किमी गाडी निर्विघ्र चलती रही। अब डोचूला पास केवल 6 किमी दूर था। लेकिन डेढ दो किमी चलने के बाद फिर से एक दाहीने मोड पर भारी बर्फ जमी मिली।  यहां से दो तीन गाडियां तो हमारी आंखो के सामने पार हो गई,लेकिन कुछ गाडियां अटक गई। इसी मोड पर चढने की कोशिश करता एक ट्रक हमारे सामने ही पीछे की ओर फिसलने लगा। ट्रक वाले ने जैसे तैसे ट्रक को काबू में किया और खडा कर दिया। सामने से आ रहे एक ट्रक ने भी वहीं रुकना उचित समझा। इधर पांच-छ: छोटी गाडियां फंसी हुई थी। सारे ड्राइवर मिलकर एक एक गाडी को निकलवा रहे थे। हम में से कोई अब गाडी में से उतरना नहीं चाह रहा था।  लेकिन वो सारे ड्राइवर हमे उलाहना देने लगे। आखिरकार हम सब उतरे। आगे सडक़ पर पहले से भी ज्यादा फिसलन थी। खडे रहना भी संभव नहीं था। इसके बावजूद गाडी को आगे बढाने की दो कोशिशें की,लेकिन गाडी फिसलती जा रही थी। दो कोशिशों के बाद समझ में आ गया कि अब गाडी आगे नहीं जा सकती। रात यहीं गुजारना होगी। इस वक्त रात के करीब बारह बज चुके थे।बीच बीच में हलकी बर्फबारी अब भी हो रही थी। बाहर का तापमान शून्य से पांच छ: डिग्री नीचे था। अब सुबह होने तक का सारा वक्त गाडी में ही गुजारना था।
 गाडी में बैठे बैछे वक्त गुजारना बेहद कठिन हो था,लेकिन और कोई चारा नहीं था। वहां रुके ट्रक ड्राइवरों ने हमारी गाडी से करीब सौ मीटर दूर एक अलाव जला लिया था। मैं और दशरथ जी अलाव तापने पंहुच गए। गाडी से वहां तक जाने का हर कदम सावधानी से रखना जरुरी था। धीरे धीरे चलने में भी पैर फिसल रहे थे। सडक़ किनारे पडी बर्फ में चलने पर फिसलने का डर कम था,लेकिन इससे पैर सुन्न पडने लगते थे।  करीब आधा घंटा आग के साथ गुजार कर हम वापस लौटे। मैने सोने की कोशिश की,लेकिन पैरों में तकलीफ होने लगी थी। करीब आधा घन्टा गाडी में गुजारने के बाद मैं फिर से मोबाइल टार्च की रोशनी के सहारे आग के पास पंहुच गया। एक ट्रक ड्राइवर भी  वहां आ गया। लेकिन अब आग कमजोर पड गई थी। थोडी देर में वह ट्रक ड्राइवर वहां से चला गया। मैं अकेला रह गया। आग की तपन कम हो गई थी। चारों ओर अंधेरे में झांकती बर्फ से ढंकी चट्टानें,सांय सांय करता डरावना माहौल। आखिरकार मैं भी गाडी में लौट पडा। इस वक्त रात के डेढ बज चुके थे। हड्डियां जमा देने वाली ठंड में पूरी रात गाडी में ही काटना थी। नींद तो आना नहीं थी,लेकिन बीच बीच में झपकियां लगती रही,आंख खुलती रही। पूरी रात और कोई गतिविधि संभव नहीं थी। यहां तक कि लघुशंका निवारण  के लिए भी गाडी से बाहर निकलने में यह डर था कि गाडी का फाटक खोलते ही ठंडक भीतर कब्जा जमा लेगी। ठंड की वजह से प्यास भी कम परेशान कर रही थी। प्यास महसूस तो हो रही थी,लेकिन बगैर पानी के भी काम चल रहा था। सुबह साढे पांच पर आंख खुली तो बाहर रोशनी फैलने लगी थी। अब पूरा इंतजार इस बात का था कि कब धूप निकलेगी और कब राहत मिलेगी। करीब सात बजे,मेरी दाईं ओर की खिडकी से दिखाई दे रही सामने वाली पहाडी के पेडों के उपरी सिरे चमकते हुए दिखाई दिए। वहां धूप आने लगी थी। धूप देखकर थोडी हिम्मत  तो आई,लेकिन जहां हमारी गाडी खडी थी,वहां धूप आने की कोई संभावना नजर नहीं आ रही थी। हम गाडी के भीतर ही बैठे रहे।  करीब आधे पौने घंटे के बाद सामने के पेडों पर धूप पूरी तरह आ गई,लेकिन हमारी जगह पर धूप नहीं थी। करीब साढे आठ बजे तक धूप काफी निकल आई,लेकिन ये हमसे बहुत दूर थी। इसी दौरान एक दो गाडियां उस मोड को पार करके निकल गई,जहां हम अटके हुए थे। इसे देखकर हमारे ड्राइवर मारकुश थापा ने भी साहस जुटाया। हम सभी लोग गाडी से बाहर निकल पडे।

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