Wednesday, February 19, 2020

गोवा यात्रा-2

कोठारी सम्मलेन और कोठारियो के इतिहास से परिचय 

10 नवंबर 2019 रविवार(सुबह 9.00)
श्री शांतादुर्गा मन्दिर कवळे

इस वक्त इडली वडा सांभर का शानदार भरपेट नाश्ता हो चुका है और अब अरावली जाने की तैयारी है। सुबह छ: बजे उठा था। मन्दिर के बाहर रोड पर अखबार ढूंढने गया। लेकिन मिला नहीं। आकाशवाणी पर समाचार सुनता रहा। आठ बजे तक स्नान से निपट कर वैदेही और मैं देवी दर्शन करने गए। आकर नाश्ता निपटाया। अब जाने की तैयारी। उधर,टोनी का फोन आ चुका है कि वह रतलाम से गोवा के लिए निकल चुका है। वह कल पंहुचेगा। सुबह जब बाहर निकला था उस समय मन्दिर से थोडा आगे दत्तात्रेय भगवान का मन्दिर भी देख आया था। बहुत अच्छा मन्दिर था।

10 नवंबर 2019 (रात 10.40)
श्री शांतादुर्गा मन्दिर
अरावली में हमारे खानदान का मंदिर और कोठारी खानदान का मूल घर देखकर पूरा दिन गुजार कर हम शाम को यहां लौटे थे। इस वक्त सारे काम निपट चुके है।
 सुबह नौ बजे निकलने की योजना थी,लेकिन करीब एक घण्टे की देरी से अरावली के लिए निकल पाए। अरावली गांव वेंगुर्ला जिले में है और यहां से करीब नब्बे किमी दूर है।  अरावली जाने के लिए पणजी होकर ही जाना पडता है। हाईवे पर जगह जगह पुलों का काम चल रहा था और इस वजह से जगह जगह डायवर्शन है। गति धीमी पड जाती है। इसी वजह से अरावली पंहुचने में करीब सवा दो घण्टे का वक्त लगा।
गोवा के घने पेडों,छोटी पहाडियों वाले घुमावदार रास्तो से होते हुए हम करीब सवा बारह बजे अरावली पंहुचे। यहां वेतोबा देव मन्दिर है। यह मन्दिर कोठारी परिवार का ही था,लेकिन अब इस मन्दिर की व्यवस्था में कोठारियों का कोई रोल नहीं बचा है। मन्दिर का ट्रस्ट इसकी देखभाल करता है। वेतोबा देव असल में वेताल है,जिन्हे सम्मान सूचक शब्द बा जोडकर वेतोबा देव बना दिया गया है। कहते है कि करीब दो सौ साल पहले यहां एक सिध्द तांत्रिक रहता था,जिसके कब्जे में वेताल था। जब तांत्रिक के जाने का समय आया तो उसने गांव के लोगों को और खासतौर पर कोठारी परिवार से कहा कि वे इस वेताल को यहां रख लें। तब यह बात हुई कि हम वेताल के लिए मन्दिर बनाएंगे और वेताल सब की रक्षा करेंगे। तब से वेताल को वेतोबा के रुप में यहां स्थापित कर दिया गया। वेतोबा को अत्यन्त जागृत माना जाता है।  कहते हैं यहां जो मन्नत मांगी जाती है,वह पूरी हो जाती है। जिसकी मन्नत पूरी होती है,वह वेतोबा को चप्पल की जोडी भेंट करता है। सामान्य आकार से पांच छ: गुना बडी कोल्हापुरी चप्पलें वेतोबा को भेंट की जाती है। कहते है कि वेतोबा इन्ही चप्पलों को पहन कर गांव में भ्रमण करते है। चमत्कार की बात यह है कि भक्तों द्वारा भेंट की गई नई नकोर चप्पलें यहां पडे पडे कुछ ही दिनों में ऐसी घिस जाती है,जैसे उसे पहन कर रोज चला जा रहा हो।
 वेतोबा को शक्कर और केले पसन्द है। इसलिए भक्त यहां केले और शक्कर चढाते हैं। इसी तरह यहां सांतेरी देवी का भी मन्दिर है। सांतेरी देवी भी अत्यन्त जागृत देवी है। मंदिर में पूजा के बाद देवी भक्तों के प्रश्नों का उत्तर भी देती है।
देव दर्शन के बाद वेतोबा मन्दिर के ही सभागृह में कोठारी सम्मेलन का शुभारंभ हुआ। कोठारी परिवार के दो वरिष्ठ सदस्य डॉ.शशांक कोठारी व कमलाकर कोठारी के साथ दो जमाई भी मंचासीन हुए। डॉ.शशांक कोठारी आर्थोपीडिक सर्जन है और फिलहाल भोपाल एम्स में प्रोफेसर के रुप में कार्यरत है।
उद्घाटन सत्र के बाद भोजन हुआ। भोजन के बाद सम्मेलन में आए कोठारी बंधुओ ने अपना अपना सपरिवार परिचय दिया। सम्मेलन में महेश्वर,दिग्ठान,सागोर,पंढरपुर आदि अनेक स्थानों के कोठारी परिवार आए हैं।
परिचय सत्र के बाद पूणे के डॉ. रवि कोठारी ने कोठारी घराने का इतिहास पर उनके द्वारा किए जा रहे शोध की जानकारी दी। डॉ.रवि कोठारी के मुताबिक शिवाजी के समय भी एक कोठारी का जिक्र आया है,पर वे हमारे ही कोठारी परिवार से थे या नहीं अभी स्पष्ट नहीं हुआ है। डॉ.रवि कोठारी ने कोठारी घराने के इतिहास पर शोध किया है और एक छोटी पुस्तक भी प्रकाशित की है। आगे भी एक अपडेट प्रकाशन की योजना है। उन्होने पिछली बारह पीढियों का वंश वृक्ष भी तैयार किया है।
 सभागृह के कार्यक्रम समाप्त होने के बाद करीब पोने पांच बजे यहां से रवाना हुए तो कोठारी घराने के मूल निवास पर पंहुचे। यहां भाऊ  कोठारी का घर है। इस घर में शुरुआत से एक अखण्ड ज्योति जल रही है। घर को देखने के बाद अब समय था शांतादुर्गा वापसी का। वापसी का सफर करीब ढाई घण्टे का था। हम लोग करीब सवा आठ बजे मंदिर पर लौटे।
पहले जो कार्यक्रम बताया गया था उसमें रात्रि आरती नौ बजे बताई गई थी और भोजन उसके बाद रखा गया था,लेकिन यहां आए तो पता चला कि रात्रि आरती आज रात साढे नौ पर होगी। उससे पहले श्री शांतादुर्गा की शोभायात्रा निकाली जाएगी। भोजन तैयार था,इसलिए सभी को पहले भोजन कर लेने की सूचना दी गई। मुझे भोजन तो करना नहीं था,लेकिन आज शाम कोंकण का खास व्यंजन सोल कढी बनाया गया था। यह दिन में भी था,लेकिन खत्म हो गया था। मैने सोल कढी एक कटोरी में ले ली। यह कोकम से बनने वाला सूप जैसा पेय होता है। सोल कढी बेहद स्वादिष्ट थी। खट्टी और तीखे स्वाद वाली।  गटागट दो कटोरिया पी गया। फिर सब्जियां भी कुछ नई थी। मठ की उसळ और एक फली की सब्जी। दोनो सब्जियां थोडी थोडी चखी। फिर दो कटोरी सोल कढी और पी ली।
कुछ ही देर बाद श्री शांतादुर्गा की शोभायात्रा शुरु हो गई। माता की मूर्ति को एक पालकी में रख कर भक्तजन कंधे पर उठाते है। मंदिर परिसर में मौजूद भक्तों का जुलूस साथ में होता है। शोभायात्रा मंदिर परिसर के भीतर ही मंदिर की परिक्रमा कर पूरी हो जाती है। आगे,दो लोग श्री शांतादुर्गा विजयते का बैनर लेकर चलते है। साथ में नगाडे वाले नगाडे बजाते हुए चलते हैं। एक अभंग गायक तुकाराम के अभंग गाता है। कुछ ही मिनटों में यह शोभायात्रा मंदिर की परिक्रमा पूरी कर लेती है। देवी को मंदिर में फिर से यथास्थान ले जाया जाता है। अब आरती शुरु होती है। आरती शुरु होने के बाद कोई बाहर नहीं जा सकता। आरती समाप्त होने के बाद प्रसाद वितरण होने तक मंदिर में ही रुकना होता है।  हमने भी आरती का लाभ लिया। प्रसाद पाया। श्री शांतादुर्गा संस्थान के सचिव,यहां की भाषा में कमाविसदार श्री गायतोंडे भी यहां मौजूद थे। विकास दादा और हर्षद उनसे मिलने गए। मैं भी वहां पंहुच गया। मंदिर में भी आरती समाप्त होने के बाद मैं विकास दादा से यहां की व्यवस्था के बारे में समझने की कोशिश करता रहा। यहां का सदस्य(महाजन) बनने के लिए एक फार्म भरना पडता है। सदस्य को महाजन कहते हैं। महाजन वोटर होते है,जो पदाधिकारियों का चुनाव करते है। मैं,वैदेही के साथ यहां रुद्राभिषेक कर चुका हूं। आई को आशंका थी कि मुझे रुद्राभिषेक नहीं करने दिया जाएगा,क्योंकि वैदेही पहले मुस्लिम थी। लेकिन उस समय तो कोई समस्या नहीं आई थी। लेकिन आज ही विकास दादा ने बताया कि अब नियम बदल दिए गए हैं। अगर पत्नी गैर सारस्वत है,भले ही महाराष्ट्रीयन ब्राम्हण हो,उसे रुद्राभिषेक नहीं करने दिया जाएगा।  ऐसे व्यक्ति को महाजन भी नहीं बनाया जाता। मैने कहा कि अगर ऐसा है तो मुझे महाजन कैसे बनाएंगे? विकास दादा ने कहा कि फार्म लेकर भर,तब पता चलेगा कि क्या आपत्ति आती है? देखते है कि क्या होता है?
बहरहाल,कोठारी सम्मेलन का पहला दिन छोटी मोटी खींचतान के बावजूद बढिया रहा। कल दिन भर अलग अलग सत्र हैं। इसके बाद परसो समापन है।
 जबसे इस सम्मेलन की योजना बनी,तबसे या उससे भी पहले,जब 2004 में पहला कोठारी सम्मेलन गोवा में हुआ था और तबसे,जब मुझे डॉ रवि कोठारी द्वारा कोठारी घराने का इतिहास लिखे जाने की जानकारी मिली थी,मुझे गर्व का अनुभव हुआ था। अपनी दस बारह पीढी का इतिहास सुरक्षित और जानने के लिए सुगम होना,कोई छोटी बात नहीं। आजकल तो लोग,सिर्फ बाप का नाम याद रखते है,दादा का नहीं,परदादा का तो बिलकुल ही नहीं और परदादा के पिता यानी परपरदादा का तो सवाल ही नहीं। लेकिन अगर लोगों में यह कसक जग जाए कि अपनी जडों को ढूंढा जाए,तो भारत की मुस्लिम और इसाई समस्या हल हो जाएगी। भारत के नब्बे प्रतिशत मुस्लिम चार पांच पीढी पीछे हिन्दू ही है। लेकिन उन्हे लगता है कि वो अरब से यहां आए है। अगर वो अपना वंशवृक्ष ढूंढने लग जाए,तो उन्हे बडी आसानी से पता चल जाएगा कि वो मुस्लिम नहीं थे,इसाई नहीं थे। कुछ अत्याचार मुस्लिमों और इसाईयों के थे और कुछ अत्याचार हमारे अपनों के थे। मुसलमान और इसाईयों ने जबर्दस्ती धर्म परिवर्तन करवाया,हमारे अपनों ने उन्हे फिर से अपने धर्म में लौटने नहीं दिया। अभी तक,यहां शांतादुर्गा मन्दिर में अगर गैर सारस्वत को लेकर इतने बंधन है,तो हम समझ सकते है कि पहले वालों ने क्या किया होगा? इसी का नतीजा देश भुगत रहा है। खैर। कोठारी परिवार या घराने ने सम्मेलन की यह परंपरा बनाई है तो यह चलती रहना चाहिए। मैं तो सिर्फ यही मनोकामना कर सकता हूं। कल शांतादुर्गा से भी यही कहुंगा कि यह आयोजन रिन्तर चलता रहे। अब सोने का वक्त....।

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