स्वर्ण नगरी का जैसल दुर्ग और पाकिस्तान की करारी हार का म्यूज़ियम
31 दिसंबर 2019 (दोपहर 3.00)
व्हाचएचएआई कैम्प जैसलमेर
इस वक्त हम भोजन करके अपने टेण्ट में बैठे है। टेण्ट में बहुत सारी रेत घुस आई थी। अभी टेण्ट की सफाई की है। सुबह जबर्दस्त ठण्ड थी। हड्डियां जमा देने वाली। इसलिए जागरण से लेकर सारे काम बेहद धीमे हुए। काफी हिम्मत के बाद करीब साढे दस बजे स्नान किया। हम लोग करीब सवा ग्यारह बजे तैयार होकर कैम्प से निकल पाए।
सूरज के दर्शन अब तक नहीं हुए थे। अब भी तापमान पांच या छ: डिग्री ही था। कार से निकले। हम जैसलमेर दुर्ग पर जा रहे थे। इस किले का निर्माण जैसलमेर के संस्थापक राणा जैसल ने 1156 में शुरु करवाया था,लेकिन पांच साल में ही महारावल जैसल की मृत्यु हो गई। इसके बाद उनके उत्तराधिकारी शालीवाहन ने इसे पूरा करवाया। वैसे इस किले में बाद के शासकों ने भी कई महल बनवाए और द्वार भी बनवाए। इस किले में शीशमहल गजविलास जैसे कई सुन्दर महल बने है। किले के परकोटे के भीतर नागरिकों के निवास भी बनाए गए थे। ये निवास आज तक आबाद है और किले के भीतर पूरा शहर रहता है। दुकानें है। किले के भीतर जैन मन्दिरों की कारीगरी भी देखने योग्य है। कडे पत्थरों पर इतनी बारीक नक्काशी आश्चर्यचकित करती है। रेतीले इलाके में पीले पत्थरों ने बना जैसलमेर दुर्ग दूर से स्वर्ण महल जैसा लगता है। शायद इसीलिए जैसलमेर को स्वर्णनगरी भी कहा जाता है।
जैसलमेर दुर्ग पर पर्यटकों की भारी भीड थी। गाडी की पार्किंग ढूंढने में ही काफी देर लग गई। गाडी पार्क करने के बाद दुर्ग के बाहर ही एक दुकान पर प्याज की कचौरी,मूंग के बडे,वडा पाव आदि का नाश्ता किया। नाश्ता कैम्प से भी करके चले थे। वहां मीठी थुल्ली खाई था,लेकिन फिर भूख लग आई थी।
जैसलमेर दुर्ग के भीतर पंहुचे। पूरा संग्रहालय देखा। फिर जैन मन्दिर देखा। यहां पत्थरों की नक्काशी देखने लायक है। पत्थर पर इतनी बारीक नक्काशी की गई है कि भरोसा ही नहीं होता कि यह छैनी हथौडे से की गई होगी। किला देखकर पौने दो बजे नीचे आए। फिर सीधे कैम्प पर पंहुचे। यहां आकर भोजन किया।
रतलाम से रमेश तिवारी जी भी सपरिवार यहां पंहुचे हैं। वो सामने ही एक होटल हैरिटेज इन में ठहरे हैं। उनसे शाम को मुलाकात होगी। राजेश पटेल जी ने भी यहां के एक व्यवसायी ऋषभ जैन का नम्बर दिया है। उनसे भी शाम को मुलाकात होगी। फिलहाल हम जैसलमेर वार म्यूजियम देखने जा रहे है।
1 जनवरी 2020 मंगलवार(सुबह 9.30)
व्हाचएचएआई कैम्प जैसलमेर
नए साल की पहली सुबह। यहां अभी दो डिग्री तापमान है,लेकिन यह शून्य डिग्री जैसा महसूस हो रहा है। हम लोग कैम्प के डाइनिंग एरिया में नाश्ता कर रहे है। गरमागरम उपमा और चाय।
कल दोपहर सवा तीन बजे के करीब जैसलमेर का वार म्यूजियम देखने गए। यह जोधपुर रोड पर करीब 12 किमी दूर है। वार म्यूजियम का टिकट 70 रु. है। इस वार म्यूजिमय में 1965 और 1971 के युध्द में पाकिस्तान से छीने हुए टैंक,गाडियां,हथियार और अन्य कई चीजे प्रदर्शित की गई है। यहां पन्द्रह मिनट की एक फिल्म भी दिखाई जाती है। यह फिल्म 65 के युध्द पर आधारित है। इस युध्द में पाकिस्तान की करारी और शर्मनाक पराजय हुई थी। शाम करीब साढे पांच बजे म्यूजियम से बाहर निकले।
जैसलमेर शहर के बाहर गडीसर लेक है। यहां पंहुचे। यहां बोटिंग चल रही थी। अब धूप जा चुकी थी और ठण्ड फिर से बढ गई थी। कुश बोटिंग की जिद कर रहा था,लेकिन ठण्ड के कारण किसी भी इच्छा बोटिंग करने की नहीं थी। यहां के एक दो फोटो लिए। यहां से
ऋषभ जैन को फोन लगाया। राजेश पटेल जी ने इनसे मिलने को कहा था। जैन परिवार रतलाम का ही है। करीब चालीस साल पहले वे रतलाम से यहां आए थे। यहां उनकी आइस्क्रीम की फैक्ट्री है। उनका बडा भाई रतलाम ही गया हुआ है। ऋ षभ जैन से मुलाकात हुई। उन्होने अपने यहां की कुल्फी खिलाई और लस्सी पिलाई। रतलाम से लाया हुआ एरोकेम का गिफ्ट मैने उन्हे दिया।
वहां से लौटे। कैम्प के सामने ही हैरिटेज इन में रमेश तिवारी जी से मुलाकात की और कैम्प पर लौटे। रात के भोजन में दाल बाटी चूरमा बनाया गया था। भोजन करके सोने की तैयारी। कल सोने के लिए स्लीपिंग बैग का उपयोग किया। मजा आ गया। जरा भी ठण्ड नहीं लगी।
रात को किसी वक्त एक बार लघुशंका के लिए उठना पडा। बाहर खतरनाक बर्फीली हवाएं चल रही थी,जान निकल गई। टेण्ट के पीछे की काम निपटाया।
आज तनोट माता के लिए निकलना है। पैक लंच तैयार है। इसे पैक करके स्नान करना है और फिर निकलना है।
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