गाडी की छत पर बन्दरों का कब्जा
29 जुलाई 2020 बुधवार (शाम 7.20)
होटल खालसा लेक व्यू
पचमढी के प्रमुख स्थानों को पैरों से नाप कर और करीब 18 किमी की ट्रोकिंग करके हम इसी वक्त होटल में लौटे हैं। हम बुरी तरह थक चुके हैं।
हमारी आज की यात्रा चौरागढ के ट्रैक से शुरु हुई थी। करीब साढे ग्यारह बजे हमने पंजाबी ढाबे में आलू और पनीर पराठे का भोजन जैसा नाश्ता किया। नाश्ते के बाद हम चौरागढ के लिए निकल पडे। चौरागढ का रास्ता महादेर गुफा से ही आगे है। महादेव गुफा यहां से करीब नौ किमी दूर है। बीच में एक पहाड पार करना पडता है। इस पहाड का रास्ता एक सौ अस्सी डिग्री के मोड वाला सर्पिला रास्ता है।
महादेव गुफा पर बन्दरों का बडा आतंक है। लाल मुंह वाले बंदर चलती गाडी पर चढ जाते हैं। खिडकी खुली हो तो भीतर घुस जाते है। बेहद दुस्साहसी और दुष्ट लाल मुंह वाले बन्दर।
पिछली बार हम जब यहां आए थे,तब चौरागढ की पैदल यात्रा महादेव गुफा से ही शुरु हो जाती थी,लेकिन अब यहां से करीब एक किमी आगे तक गाडी जाने का कच्चा रास्ता बन गया है। गाडी लेकर पंहुचे। उतरने के समय पहले अनिल गाडी में से उतरा। मलय पीछे वाली सीट पर बैग में पानी की बाटल आदि रख रहा था कि उसी समय गाडी के खुले दरवाजे से एक बन्दर गाडी के भीतर घुस गया। बडी मुश्किल से इस बन्दर को गाडी में से बाहर भगाया। वहां कई सारे बन्दर इकट्ठा हो गए थे। इसी समय मोटर साइकिल से एक स्थानीय दम्पत्ति वहां पंहुचे थे। पति पत्नी,एक युवती और एक छोटा बच्चा। इनके पास एक दो बैग भी थे। मोटर साइकिल से इनके उतरते ही बन्दरों ने उनके बैग छीन लिए। बन्दरों ने बैग छीन कर बैग मे रखा सारा सामान बाहर फेंक दिया। हम लोग मौजूद थे,तो वहीं पडी लकडियां उठा कर हमने इन बन्दरों को भगाया। लम समझ चुके थे कि बन्दर रास्ते भर परेशान करेंगे। हमने वहां पडी लकडियां हाथों में ले ली,ताकि बन्दरों को भगाया जा सके।
इसी स्थान पर गाडी को खडा करके हम चौरागढ के लिए चल पडे। यहां से सीधे नीचे उतरती सीढियां है। कई सारी सीढियां उतरने के बाद सामने एक पहाड आता है,जहां एक द्वार बना हुआ है। यही चौरागढ का प्रथम द्वार है। द्वार की बगल में एक छोटा सा शिवंिलंग स्थापित है। कई त्रिशूल यहां लगे हुए हैं। द्वार पर घण्टियां भी टंगी हुई है। सीधी खडी चढाई वाली सीढियां यहां से शुरु होती है। शिवलिंग के दर्शन करके द्वार की घण्टियां बजाकर हमने यह चढाई चढना शुरु किया। कढी चढाई वाली सीढियां,जल्दी ही दम फूल गया। लेकिन ये हिमालय नहीं है। यहां आक्सिजान की कोई कमी नहीं है। सांसे जल्दी व्यवस्थित हो जाती है। इसी वजह से चलने की गति भी तेज रहती है।
पहाड के उपर पंहुचने के बाद अब कुछ नीचे उतरने की बारी थी। अब हम दूसरे पहाड पर पंहुच गए थे। इस पहाड पर अब लगातार उपर चढना था। सीढियां और बीच बीच में पहाडी रास्ता। दोनो ओर घना जंगल। आज मौसम साथ दे रहा था। आसमान पर बादल छाए हुए थे,धूप अब नदारद हो चुकी थी,इसलिए चलने में आसानी थी। हांलाकि लगातार उपर चढने से पसीना लगातार बह रहा था। हम पसीने से भीगे जा रहे थे। चौरागढ का मन्दिर सामने की एक पहाडी की चोटी पर नजर आने लगा था। मन्दिर पर जाने के लिए पूरा रास्ता एक पहाडी कगार पर होकर है। दोनो ओर खाइयां। हांलाकि रास्ता बेहद कठिन खडी चढाई वाला है,लेकिन यह हिमालयीन पहाडों जैसा खतरनाक नहीं है।
चलते चलते अब हम चौरागढ मंदिर वाले पहाड पर आ गए। अब लगातार सीढियां थी। यहां पत्थरों से बनी सीढियां भी थी,जो लम्बाई में घूम कर उपर जाती है,जबकि लोहे की सीढियां छोटी लेकिन एकदम खडी चढाई वाली थी। आप चाहे जिन सीढियों से उपर चढ सकते हैं। जाते समय तो मैं भी विडीयो बनाने के चक्कर में लोहे की खडी सीढियों से चढ गया। लगातार सीढियां चढते चढते आखिरकार सामने मन्दिर नजर आने लगा,लेकिन सीढियों की चढाई अभी बाकी थी। इन सीढियों पर चढते हुए हम करीब एक बजकर बीस मिनट पर मन्दिर में पंहुच गए। सीढियां मन्दिर के पिछले हिस्से में खत्म होती है,फिर पूरे मन्दिर परिसर का चक्कर लगाकर मन्दिर के मुख्य प्रवेश द्वार पर पंहुचते हैं। यहीं भी बन्दरों की दादागिरी है। हम डण्डे हाथों में ही लिए हुए थे।
मन्दिर में प्रवेश किया। दर्शन कर काफी देर बैठे रहे। यहां बेहद शांति और सुकून मिलता है। भगवान के सामने काफी देर बैठ कर बाहर निकले। मन्दिर की व्यवस्था देवदास महाराज सम्हालते हैं। उनसे चर्चा की। मन्दिर के इतिहास की जानकारी ली। उनका विडीयो बनाया। मन्दिर में फोटो ग्राफी की अनुमति नहीं है। महाराज का इंटरव्यू मन्दिर के बाहर ही लिया।
29 जुलाई 2020 (रात 11.00)
डायरी लिख रहा था कि अगले कार्यक्रम की पुकार लग गई। भोजन करके,बाहर टहल के,विडीयो कालिंग पर घर में वैदेही और चिंतन से बात करने के बाद अब फिर से डायरी से जुडा हूं। बात अब वहीं से जहां छोडी थी।
मन्दिर के महाराज जी का इंटरव्यू लिया। बाबा जी उत्साहित हो गए। सारे क्षेत्र का ईतिहास बताने लग गए।
देवदास महाराज ने बताया कि इस स्थान पर चौरा बाबा ने तपस्या की थी। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर शिव जी प्रकट हुए,उन्हे दर्शन दिए और वरदान दिया कि इस स्थान को चौरा बाबा के नाम से जाना जाएगा और शिव जी यहीं रहेंगे। तभी से इसे चौरागढ कहा जाता है।
पूरे भारत का इकलौता मन्दिर है,जहां श्रध्दालुजन अपनी मन्नत पूरी होने पर शिवजी को त्रिशूल चढाते हैं। साल भर में यहां लाखों त्रिशूल इकट्ठे हो जाते है। बाद में आश्रम वाले इन्हे नीलाम कर देते है। त्रिशूल भी हर प्रकार के चढाए जाते हैं। छोटे त्रिशूल से लगाकर विशालकाय त्रिशूल जिन्हे कोई एक व्यक्ति अकेला उठा भी नहीं सकता। अपनी अपनी मन्नत और श्रध्दा के हिसाब से त्रिशूल का आकार छोटा या बडा होता है। पूरे पचमढी में जहां कहीं शिवलिंग स्थापित हैं.वहीं त्रिशूलों की भरमार है। चौरागढ में तो जहां से चढाई शुरु होती हैं,वहीं त्रिशूलों की सत्ता नजर आने लगती है।
बाबा जी ने चौरागढ के पूरा इतिहास बताया। हमने पूरा रेकार्ड किया। मन्दिर से बाहर पूरी पहाडी पर चारों ओर घूम कर बाबा जी दूर दराज के अन्य स्थानों की जानकारी भी देते रहे। कहां गांव है,कहां मेला लगता है,इत्यादि। मन्दिर के बाहर,पहाडी के खुले मैदान के बीच में चौरागढ को चढाए गए त्रिशूलों को रखा जाता है। यहां हजारों त्रिशूल है। इन त्रिशूलों को देखना भी रोमांचक है। हम करीब आधा घण्टा यहां रुके। मन्दिर की पहाडी पर भी बन्दरों की बदमाशियां जारी थी। बाबा जी बता रहे थे कि बन्दर बेहद शैतान है,लेकिन चौरागढ का चमत्कार है कि बन्दरों के हमलों के बावजूद घाव जल्दी भर जाते है और कोई ज्यादा दिक्कत नहीं आती।
अब वापसी का सफर। लगातार सीढियां उतरना थी। उतरने में सांस नहीं भरीत लेकिन घुनों की हालत खराब हो जाती है। घुटनों पर झटके खाते हुए उतरते रहे। उतरने में गति भी बढ जाती है। हम केवल पैंतालिस मिनट में नीचे अपनी गाडी पर आ गए।
यहां आए,गाडी में सवार हुए तो पता चला कि गाडी में से हमारा महत्वपूर्ण सामान चोरी हो गया है। तब ध्यान में आया कि हम जाते समय गाडी को लाक करना भूल गए थे। गाडी दशरथ जी चला रहे थे। प्रत्यक्षत: तो ये जिम्मेदारी उनकी थी,लेकिन अन्य लोगों को भी ध्यान रखना चाहिए था। सामान चोरी हो चुका था। अब हमारे सामने यही चारा बचा था कि इस झटके को सहन कर लिया जाए। असल में हमारे जाने के बाद दो गाडियां और यहां आई थी। इनमें से एक गाडी में 4-6 युवक आए थे। ये कारस्तानी उन्ही की होगी। लेकिन अब कुछ नहीं हो सकता था। हमने तीन हजार का झटका खाना मंजूर किया और यहां से आगे बढे।
लौटने के रास्ते में हाण्डी खो नामक स्थान था। हाण्डी खो के लिए सडक़ की बाई ओर एक कच्चा रास्ता बना हुआ था। इस रास्ते पर चलकर कुछ ही दूरी पर हाण्डी खो है। हाण्डी खो गहगी पहाडी खाई है,जो कि अत्यन्त दर्शनीय है। यहां कुछेक फोटो लिए विडीयो भी बनाए।
अब दोपहर के साढे तीन बज गए थे। सभी को भूख लग आई थी। लौट कर रसोई ढाबे पर भोजन किया। भोजन के बाद हमारी मंजिल थी धूपगढ,जोकि यहां से ग्यारह किमी दूर था। हम धूपगढ के लिए निकल पडे। धूपगढ की चढाई शुरु होने से पहले वनविभाग का बैरियर और गेट बना हुआ है। वनकर्मियों ने हमें भीतर जाने से रोक दिया। उन्होने बताया कि हमारी डीजल गाडी यहां अलाउ नहीं है। वनकर्मियों ने लमें बताया कि रीछगढ में आपकी गाडी बाहर खडी करके आप जा सकते हो। इसलिए अब हमने तय किया कि हम रीछगढ देख लेते है।
यहां से रीछगढ का रास्ता संकरी सिंगल सडक पर था लेकिन सडक़ बेहद शानदार। दोनो तरफ घनी झाडियां,जो बार बार गाडी से टकरा रही थी। कुछ किमी चलने पर सडक़ की बाई ओर रीछगढ का बोर्ड नजर आ गया। यहां भी वनविभाग का बैरियर बना हुआ था,लेकिन चैकपोस्ट खाली था। यहां कोई कर्मचारी मौजूद नहीं था। पहले तो हम गाडी को सडक़ पर खडी करके पैदल ही जा रहे थे,लेकिन सोचा कि जब कोई रोकने वाला नहीं है तो गाडी भीतर ही ले लेते है। बैरियर उंचा करके गाडी भीतर ले ली। लेकिन यह क्या? भीतर केवल साठ सत्तर मीटर तक ही सडक़ है,इसके बाद सीढियां है। गाडी यहीं तक जाती है। सडक़ खत्म होने के बाद आगे सीढियां बनी हुई थी,जो एक नाले में उतर रही थी। नाले को पार करके आगे फिर कुछ सीढियां कुछ जंगली रास्ता। इस तरह करीब एक किमी की दूरी तय करके हम रीछगढ की गुफा पर पंहुच गए। रीछ गढ की गुफा बहुत बडी गुफा है। गुफा के भीतर भी कई छोटी छोटी गुफाएं है। गुफा में उतरने के बाद काफी गहराई तक उतरना पडता है। गुफा के भीतर रास्ता करीब पचास फीट नीचे उतरता है। नीचे उतरने के बाद हम दो पहाडों के बीच की तलहटी में पंहुच जाते है। गुफा के दूसरी तरफ पगडंडीनुमा रास्ता है,जो निश्चय ही किसी गांव को जाता होगा। गुफा में काफी देर गुजार कर कई सारे फोटो आदि लिए। अब शाम ढलती जा रही थी। हलकी बूंदाबांदी भी हो रही थी। हम गुफा से निकल कर गाडी पर आ गए।
रीछगढ जाते समय,रीछगढ से कुछ पहले सडक़ की बाई ओर रम्य कुण्ड़ का एक बोर्ड नजर आया था। रीछगढ से लौटते समय रम्य कुण्ड को भी देख लेने का विचार किया। इससे पहले मैं दो बार पचमढी आ चुका था,लेकिन रम्य कुण्ड का न तो नाम सुना था,ना ही यहां आ सका था। एक नया स्थान देखने की उत्सुकता थी। अभी अंधेरा होने में भी समय था।लौटते समय रम्यकुण्ड के बोर्ड पर रुके। यहां भी वन विभाग का बैरियर लगा हुआ था,लेकिन यहां भी कोई कर्मचारी मौजूद नहीं था। लेकिन रीछगढ के अनुभव से हमने गाडी को बाहर ही छोड देने का फैसला किया और बैरियर से भीतर घुस गए। लमें उम्मीद थी कि यह रास्ता भी छोटा ही होगा। हम पैदल कच्चे रास्ते पर चल पड। मालूम हुआ कि गाडी को बाहर रखना ही ठीक रहा। रास्ता बेहद संकरा और उबड खाबड था। ये रास्ता जिप्सी के लिए ही ठीक था,हमारी गाडी इस पर नहीं चल सकती थी।
हम चलते रहे,लेकिन रास्ता तो खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा था। घने जंगल वाला पहाड का उंचा नीचा रास्ता। रास्ते में एक बार मलय ने कहा भी कि हमें एक पाइन्ट तय करना चाहिए,जहां से लौटा जाए,लेकिन बाकी सब ने कहा कि अब आ ही गए हैं तो कुण्ड तक ही चलेंगे। चलते रहे। शाम ढलती जा रही थी और रोशनी भी कम होने लगी थी। हम लोग करीब चार किमी चलते रहे। चार किमी की दूरी तय करने के बाद एक कमरा सा बना हुआ था। यहाम जाकर रास्ता खत्म हुआ। जिप्सीयां यहां तक आती होंगी। यहां से आगे सीढियां थी,जो नीचे उतर रही थी। सीढियों से पहाड उतरने लगे। अब सीढियां थी कि खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही थी।लगातार नीचे उतरते रहे। एक जगह सीढियों के बदल के एक पत्थर से नीचे झांका तो करीब तीन सौ मीटर नीचे और काफी आगे कुण्ड नजर आ गया। अब प्रकाश ने कहा कि कुण्ड तो देख ही लिया है,वापस चलते है,लेकिन मैने कहा कि यहां तक आ गए हैं तो कुण्ड तक भी चल ही लेते है। इसी समय दशरथ जी का प्रेशर बन गया। वे फ्रेश होने के लिए रुक गए। हम लोग आगे उतरते रहे। कई सौ सीढियां उतर कर आगे दो पहाडियों के बीच की तलहटी में गली सी बनी हुई थी,जिसमें पानी भी बह रहा था। इस पानी में से चलते हुए आखिरकार हम रम्य कुण्ड पर पंहुच गए। कुण्ड में बहद साफ कांच जैसा पानी था,लेकिन शुरुआत में ही बोर्ड लगा हुआ था,रम्य कुण्ड में नहाना मना है,नहाने पर एक हजार रु.अर्थदण्ड़ लगेगा। हममें से किसी की भी फिलहाल स्नान की इच्छा नहीं थी। अब रोशनी बेहद कम हो गई थी और फोटोग्राफी भी संभव नहीं थी। हमको फिर से कई सौ सीढियां चढकर उपर जाना था और फिर चार किमी का रास्ता तय करके गाडी पर पंहुचना था। हांलाकि वापसी आसान रही। हम जल्दी ही सीढियां चढकर उपर आ गए और फिर 4 किमी का रास्ता तय करके गाडी पर आ गए। अब शाम के पौने सात बज गए थे। लौटते समय पचमढी नाश्ते वाले की दुकान पर चाय मिल गई। चाय पीकर होटल लौटे तो सवा सात बज चुके थे। दिन भर में कई बार पसीने से तरबतर हुए थे,इसलिए होटल में गर्म गुनगुने पानी से स्नान किया। थकान काफी मिट गई थी।फिर भोजन करते कराते रात के बारह बजे सोने का वक्त हुआ।
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