Saturday, April 7, 2012

Monday, March 19, 2012

दुनिया चाहे नकारे,हम नहीं छोडेंगे अंग्रेजी मीडीयम

शिक्षा की भाषा-कुछ विचारणीय बिन्दु
(तुषार कोठारी)
ग्लोबलाईजेशन के इस जमाने में अनपढ और गरीब व्यक्ति भी अपने बच्चे को पढा लिखा कर बडा और सफल आदमी बनाने की चाहत रखता है। मध्यमवर्गीय और नौकरीपेशा व्यक्ति के लिए तो बच्चों की सुव्यवस्थित शिक्षा बडी चुनौती है ही। हर व्यक्ति अपने बच्चों को लगातार तेेज होती जा रही शैक्षणिक प्रतिस्पर्धा में जीतने वाला बनाना चाहता है। इन सारी चुनौतियों में भारत के आम आदमी की धारणा यह भी है कि उच्चस्तरीय शिक्षा की एकमात्र चाबी है अंग्रेजी।

Tuesday, June 7, 2011

पर्यटन की आड में देश में बढता तबलीगी खतरा


दुनिया के सबसे खतरनाक आतंकवादी ओसामा बिन लादेन के खात्मे के बाद अमरिका जहां लादेन के कुख्यात आतंकी संगठन अल कायदा के विश्वव्यापी नेटवर्क को नष्ट करने की योजनाओं में जुटा है वहीं पाकिस्तान में हुए आत्मघाती हमलों के बाद अलकायदा की सक्रियता के संकेत भी मिले है। अलकायदा के नेटवर्क को ध्वस्त करने की मुहिम के दौरान अमेरिका के जांचकर्ताओं के हाथ कुछ ऐसे तथ्य भी लगे है जिनसे यह मालूम पडता है कि अल कायदा के आतंकी, किसी न किसी रुप में तबलीगी जमातों का उपयोग अपने हित में करते थे।

Friday, May 20, 2011


ये फोटो रतलाम में हुई भा ज पा की प्रथम कार्यकारिणी की बैठक का है। फरवरी माह में हुई इस बैठक के दौरान राष्ट्रिय अध्यक्ष नितिन गडकरी का आमंत्रित जनों के लिए व्याख्यान आयोजित किया गया था.इस गरिमामय कार्यक्रम के सञ्चालन की जिम्मेदारी मुझे सौपी गई थी। मंच पर श्री गडकरी के अलावा मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ,प्रदेश अध्यक्ष प्रभात झा महापौर शेलेन्द्र डागा और पूर्व संसद सदस्य डा लक्ष्मी नारायण पाण्डेय भी मौजूद थे। यह फोटो आज मेरे फोटो ग्राफर मित्र हेमेंद्र उपाध्याय ने आज मुझे दिया.

Tuesday, April 26, 2011

अधिकांश लोग नहीं जानते कौन है अण्णा हजारे


भ्रष्टाचार के विरुध्द ऐतिहासिक आन्दोलन कर केवल चार दिनों मे सरकार को झुका देने वाले अण्णा हजारे को लेकर लगता है कि पूरे देश में भ्रम का वातावरण बना हुआ है। आन्दोलन शुरु होते ही देश भर की मीडीया में अण्णा हजारे को गांधीवादी घोषित कर दिया गया। अब लेखक उनके पीछे हटने,अकेला पड जाने और अलग थलग पड जाने पर विश्लेषण कर रहे है।

Friday, April 15, 2011

बनाने वालों को ही दुख देगा जन लोकपाल बिल

रालेगढ शिंदी (रालेगांव) नामक गांव का कायापलट कर चर्चाओं में आए अण्णा साहेब हजारे अब पूरे देश में छाए हुए है। भ्रष्टाचार पर रोक लगाने के लिए जन लोकपाल बिल के मसले पर उन्होने सरकार को न सिर्फ झुका दिया बल्कि उनके आन्दोलन में पूरा देश उनके पीछे खडा नजर आया। अण्णा साहेब ने भ्रष्टाचार के जिस मुद्दे को छेडा है उससे आज देश का कोई व्यक्ति अछूता नहीं है। बडा सवाल यह है कि अण्णा साहेब की यह पहल कोई बडा बदलाव ला पाएगी या नहीं?

Tuesday, April 5, 2011

क्रिकेट की जीत के जश्न में छुपे है कई सवाल भी

विश्व कप फाईनल में भारतीय टीम द्वारा ऐतिहासिक जीत दर्ज किए जाने के बाद पूरे देश में उत्साह का जो वातावरण देखने को मिला उसकी कोई तुलना नहीं की जा सकती। देश का कोई शहर कस्बा यां गांव ऐसा नहीं बचा होगा जहां आधी रात तक लोगों ने जश्न ना मनाया गया हो। युवक अधेड बुजुर्ग यहां तक कि महिलाएं और छोटे बच्चें तक सड़कों पर आकर खुशी का ईजहार कर रहे थे। होली और दीवाली एक साथ मनाई जा रही थी। राष्ट्रीय भावना का ऐसा ज्वार उठता दिखाई दे रहा था जैसे राष्ट्रीय भावनाओं की सुनामी आ गई हो। इस सबके बीच में एक बडा सवाल यह है कि क्या हम भारतीयों की राष्ट्रीय भावना सिर्फ क्रिकेट तक ही है? देशप्रेम का ऐसा अभूतपूर्व प्रदर्शन क्रिकेट के अलावा और किसी मौके पर क्यो नजर नहीं आता? जाति,धर्म,भाषा,क्षेत्र के सारे भेदभाव सिर्फ क्रिकेट में ही क्यों भुलाए जाते है? क्या क्रिकेट का विश्व कप जीत लेने भर से देश की सारी समस्याएं समाप्त हो गई है?
आतंकवाद,अशिक्षा,अभाव और ना जाने कितनी समस्याओं से जूझते एक सौ इक्कीस करोड की आबादी वाले इस देश के लोग महज चौदह देशों की एक स्पर्धा को जीत लेने पर कुछ समय को लिए अपने सारे दुख दर्द भूल जाते है। यह ऐसा नहीं लगता जैसे दुनिया के दु:ख दर्दो से पीडीत कोई गरीब मजदूर शराब या ड्रग्स की खुराक लेकर अपनी समस्याओं से आंखे मूंद लेता है। ठीक उसी तरह भारत की गरीब जनता के लिए भी क्रिकेट एक नशा सा बन गया है।
विश्व कप स्पर्धा का आयोजन शुरु हुआ तब से लेकर इसके समापन तक के बयालीस दिनों में इस गरीब देश के अरबों कार्यघण्टे क्रिकेट पर कुर्बान हो गए। दफ्तरों में क्रिकेट का बुखार इस कदर हावी रहा कि सारे जरुरी काम लम्बित कर दिए गए। निजी संस्थानों के काम काज तक क्रिकेट से प्रभावित हुए। सरकारें भी जनता के इस नशें को बढाने में पीछे नहीं रही। भारत पाक क्रिकेट मैच के मौके पर कई राज्य सरकारों ने आधे दिन का अवकाश ही घोषित कर दिया। इलेक्ट्रानिक और प्रिन्ट मीडीया के लिए भी विश्व कप आयोजन के ये दिन सिर्फ क्रिकेट को ही समर्पित रहे। कई महत्वपूर्ण खबरों को क्रिकेट के नाम पर नजर अंदाज कर दिया गया।
क्रिकेट संभवत: विश्व में सबसे कम देशों द्वारा खेला जाने वाला खेल है। विश्व का कोई भी विकसित राष्ट्र क्रिकेट नहीं खेलता। अमेरिका,जापान,रुस,चीन,फ्रान्स,जर्मनी इत्यादि तमाम विकसित राष्ट्रोंने क्रिकेट को कभी नहीं अपनाया। इसका सीधा सा कारण यही है कि इस खेल में सबसे अधिक समय लगता है और आज के प्रतिस्पर्धा के युग में कोई भी देश अपना ज्यादा समय महज खेल देखने पर व्यय करने को राजी नहीं है। दुनिया फुटबाल के पीछे पागल है,जिसमें महज डेढ घण्टे में निर्णय हो जाता है।
हम भारतीय उन खेलों में बेहद पीछे है जिनमें अनेक देशों से कडी प्रतिस्पर्धा करना पडती है। फुटबॉल जैसे सर्वाधिक लोकप्रिय खेल में हमारी टीम क्वालिफाई करने तक की स्थिति में नहीं है। ओलम्पिक जैसी सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्पर्धा में हमारे कुछ खिलाडी अपनी मेहनत के बलबूते पर पदक ले भी आते है तो देश की जनता को वह खुशी नहीं होती जो क्रिकेट का कोई मैच जीतने पर होती है। क्रिकेट के अलावा अन्य खेलों के खिलाडियों के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार किया जाता है।
इन सारी परिस्थितियों के बावजूद,जब विश्वकप जीतने पर राष्ट्रप्रेम का ज्वार उठने लगता है तो यह सवाल भी सिर उठाने लगता है कि यदि देश के सामने कभी युध्द जैसी कोई चुनौती खडी हो गई,उस समय क्रिकेट की जीत में सड़कों पर देशप्रेम का प्रदर्शन करने वाले क्या उसी तरह की भावनाएं प्रदर्शित करेंगे?
पिछले कुछ सालों में जब जब देश पर खतरे के बादल मण्डराए है हमारे नेताओं को कडे निर्णय लेने में यही डर सताता रहा है कि देश की जनता का समर्थन नहीं मिलेगा। याद कीजिए संसद पर आतंकवादी हमला। तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने दुनियाभर की बडी बडी बातें की। कडी कार्रवाई और आर पार का संघर्ष करने के दावे किए लेकिन जब संघर्ष का मौका आया सीमा पर तैनात की गई फौज को पीछे बुला लिया गया। 911 के मुंबई हमले की यादें तो अब भी लोगों के जेहन में ताजा है। भारत का एक एक व्यक्ति जानता था कि यह पाकिस्तान की करतूत है और हमारी सरकार ने इस बार भी बडी बडी बातें की थी। पाकिस्तान सरकार को कडी चेतावनी दी गई थी। भारत पाक वार्ता तभी से बंद थी। भारत सरकार ने शर्त रखी थी कि जब तक पाकिस्तान अपनी धरती से चलने वाली आतंकवादी कार्रवाईयों पर रोक नहीं लगाता,तब तक किसी भी हालत में वार्ता नहीं होगी। भारत सरकार ने पाकिस्तान के खिलाफ कडी कार्रवाई तो की नहीं उल्टे विश्वकप में भारत पाक मैच तय हो गया तो बडी बेशर्मी से पाकिस्तान के नेताओं को मेच देखने को बुला लिया। मीडीया भी क्रिकेट डिप्लोमैसी की तारीफों में खो गया। यह सवाल उठा ही नहीं कि आतंकवाद के मुद्दे पर परिस्थिति में कौनसा परिवर्तन आ गया जो भारत पाक वार्ता शुरु हो गई। क्रिकेट के बहाने देशप्रेम का प्रदर्शन करने वाले करोडों भारतीयों को भी इस घटना से कोई फर्क नहीं पडा। क्रिकेट के नशे के आदी हमारे देशवासी क्रिकेट में पाकिस्तान के खिलाफ जीत को ही असली जीत समझ कर खुशियां मनाने में मशगुल हो गए। किसी ने यह पूछने की जरुरत तक नहीं समझी कि क्या भारत पर से पाक प्रायोजित आतंकवाद का खतरा हमेशा के लिए समाप्त हो गया है,जो भारत पाक से क्रिकेट के रिश्ते बना रहा है।
देश के नेता बहुत चालाक है। वे जानते कि भारतवासियों को क्रिकेट के नशे में चूर रखे रखने में ही फायदा है। क्रिकेट के नशे में चूर देशवासी यह पूछने की स्थिति में ही नहीं होते कि देश की सुरक्षा का क्या हो रहा है। आतंकवाद को पनपाने वाले पाकिस्तान को रोकने के लिए भारत की सरकार क्या कर रही है। संसद हमले के दोषी को अब तक फांसी क्यो नहीं दी जा रही है। इसी नशे का असर है कि करोडों निर्दोष भारतीयों का खून बहा चुके पाकिस्तान जैसे शत्रु राष्ट्र की गतिविधियों पर भारतवासियों को कोई आपत्ति तब तक नहीं होती जब तक क्रिकैट जारी रहता है। शायद यही कारण है कि भारत में और कोई भी मौसम लगातार नहीं बना रहता लेकिन क्रिकेट का मौसम बारहों महीने छाया रहता है। अभी विश्व कप निपटा नहीं कि आईपीएल चर्चाओं में आ चुका है। महंगाई घोटाले,भ्रष्टाचार आतंकवाद इत्यादि सभी चलते रहेंगे लेकिन जब क्रिकेट का नशा कायम है देशवासियों को किसी बात से दुख नहीं होगा। जय भारत।

Saturday, March 5, 2011

12 Novembe...r, 2008 02:42;00फ्रैंको'स गोतिये

कश्मीर में हिन्दुओं का सफाया किसने किया?
साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर की गिरफ्तारी के बाद "हिन्दू आतंकवाद" शब्द चर्चा में है. मैं कई अखबारों के लिए कालम लिखता हूं तो मुझे कहा गया कि आप इस बारे में कुछ लिखिए. लोग जानते हैं कि मैं आजन्म कैथोलिक ईसाई हूं, लेकिन २५ सालों तक दक्षिण एशियाई देशों में रहकर फ्रांस के अखबारों के लिए काम किया है इसलिए मैं इस भू-भाग मैं फैली हिन्दू संस्कृति को नजदीक से जानता समझता हूं.
१९८० के शुरूआत में जब मैंने दक्षिण एशिया में फ्रीलांसिग शुरू की थी तो सबसे पहला काम किया था कि मैंने अयप्पा उत्सव पर एक फोटो फीचर किया था. उसी दौरान मैंने हिन्दू जीवन दर्शन में व्याप्त वैज्ञानिकता को अनुभव किया. मैंने अनुभव किया कि हिन्दू दर्शन के हर व्यवहार में आध्यात्म कूट-कूट कर निहित है. अगर आप भारत के गांवों में घूमें तो आप जितने भी गांवों में जाएंगे वहां आपको आपके रूप में ही स्वीकार कर िलया जाएगा. आप किस रंग के हैं, कौन सी भाषा बोलते हैं या फिर आपका पहनावा उनके लिए किसी प्रकार की बाधा नहीं बनता. आप ईसाई हैं, मुसलमान हैं, जैन हैं, अरब हैं, फ्रेच हैं या चीनी हैं, वे आपको उसी रूप में स्वीकार कर लेते हैं. आपके ऊपर इस बात का कोई दबाव नहीं होता कि आप अपनी पहचान बदलें. यह भारत ही है जहां मुसलमान सिर्फ मुसलमान होता है न कि भारतीय मुसलमान या फिर ईसाई सिर्फ ईसाई होता है न कि भारतीय ईसाई. जैसा कि दुनिया के दूसरे देशों में होता है कि यह सऊदी मुसलमान है या फिर यह फ्रेंच ईसाई है. यह भारत ही है जहां हिन्दुओं में आम धारणा है कि परमात्मा विभिन्न रूपों में विभिन्न नाम धारण करके अपने आप को अभिव्यक्त करता है. सभी धर्मग्रन्थ उसी एक सत्य को उद्घाटित करते हैं. अपने ३५०० साल के इतिहास में हिन्दू कभी आक्रमणकारी नहीं रहे हैं, न ही उन्होंने अपनी मान्यताओं को दूसरे पर थोपने की कभी कोशिश की है. धर्मांतरण जैसी बातों की तो कल्पना ही नहीं की जा सकती.

बाबरी मस्जिद का विध्वंस एक ऐसी घटना जरूर है जो हिन्दुओं के धैर्य का परीक्षा लेती दिखाई देती है. फिर भी इसमें एक भी मुसलमान की हत्या नहीं हुई थी. जबकि इस घटना के विरोध में मुंबई में जो बम धमाके किये गये उसमें सैकड़ों हिन्दू मारे गये थे. फिर भी मैं देखता हूं कि भारत में पत्रकार मुंबई बमकाण्ड से भी बड़ी "डरावनी" घटना बाबरी मस्जिद के गिरने को बताते हैं. हो सकता है कि मैं राजनीतिक रूप से सही न पाया जाऊं लेकिन मैंने दक्षिण एशिया में रहते हुए जो कुछ अनुभव किया उसको वैसे ही लिखा है.

हिन्दू आतंकवाद के बारे में भी मैं अपने विचार सीधे तौर पर आपके सामने रखना चाहता हूं. पहली बार अरब के आक्रमणकारियों के भारत पर हमले के साथ ही हिन्दू लगातार मुस्लिम आक्रमणकारियों के निशाने पर रहे हैं. १३९९ में तैमूर ने एक ही दिन में एक लाख हिन्दुओं का कत्ल कर दिया था. इसी तरह पुर्तगाली मिशनरियों ने गोआ के बहुत सारे ब्राह्मणों को सलीब पर टांग दिया था. तब से हिन्दुओं पर धार्मिक आधार पर जो हमला शुरू हुआ वह आज तक जारी है. कश्मीर में १९०० में दस लाख हिन्दू थे. आज दस हजार भी नहीं बचे है. बाकी हिन्दुओं ने कश्मीर क्यों छोड़ दिया? किन लोगों ने उन्हें कश्मीर छोड़ने पर मजबूर किया? अभी हाल की घटना है कि अपने पवित्रम तीर्थ तक पहुंचने के लिए हिन्दुओं को थोड़ी सी जमीन के लिए लंबे समय तक आंदोलन चलाना पड़ा, जबकि इसी देश में मुसलमानों को हज के नाम पर भारी सब्सिडी दी जाती है. एक ८४ साल के वृद्ध संन्यासी की हत्या कर दी जाती है जिसपर भारतीय मीडिया कुछ नहीं बोलता लेकिन उसकी प्रतिक्रिया में जो कुछ हुआ उसको शर्मनाक घोषित करने लगता है.

कई बार मुझे लगता है कि यह तो अति हो रही है. दशकों, शताब्दियों तक लगातार मार खाते और बूचड़खाने की तरह मरते-कटते हिन्दू समाज को लतियाने की परंपरा सी कायम हो गयी है. क्या किसी धर्म विशेष, जो कि इतना सहिष्णु और आध्यात्मिक रहा हो इतना दबाया या सताया जा सकता है? हाल की घटनाएं इस बात की गवाह है कि इसी हिन्दू समाज से एक वर्ग ऐसा पैदा हो रहा है जो हमलावरों को उन्हीं की भाषा में जवाब दे रहा है. गुजरात, कंधमाल, मंगलौर और मालेगांव सब जगह यह दिखाई पड़ रहा है. हो सकता है आनेवाले वक्त में इस सूची में कोई नाम और जुड़ जाए. इसमें महत्वपूर्ण बात यह है कि अगर व्यापक हिन्दू समाज ने अपने स्तर पर आतंकी घटनाओं और हमलों के जवाब देने शुरू कर दिये तो क्या होगा? आज दुनिया में करीब एक अरब हिन्दू हैं. यानी, हर छठा इंसान हिन्दू धर्म को माननेवाला है. फिर भी सबसे शांत और संयत समाज अगर आपको कहीं दिखाई देता है तो वह हिन्दू समाज ही है. ऐसे हिन्दू समाज को आतंकवादी ठहराकर हम क्या हासिल करना चाहते हैं? क्या आतंकवादी शब्द भी हिन्दू समाज के साथ सही बैठता है? मेरे विचार में यह अतिवाद है.

लेखक पेरिस स्थित "La Revue de l'Inde" (Review of India)के मुख्य संपादक हैं.

http://visfot.com/index.php/bat_karamat/495.html
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Saturday, February 19, 2011

शिक्षा नीति के बदलाव से पहले व्यवहार में बदलाव की जरुरत-

शिक्षा नीति को लेकर देश में लम्बे समय से बहस जारी है। शिक्षा नीति कैसी हो, शिक्षा का लक्ष्य क्या हो जैसे मुद्दों को लेकर आए दिन बहस मुबाहसें होते रहते है,लेकिन शिक्षा का सबसे महत्वपूर्ण पहलू कहीं अनछुआ रह जाता है। देश की वर्तमान शिक्षा नीति में कई सारी खामियां हैं और इसमें आमूल चूल परिवर्तन जरुरी है लेकिन इससे भी पहले इससे और ज्यादा महत्वपूर्ण मुद्दे पर चिंतन किया जाना चाहिए। शिक्षा नीति पर बहस से पहले इस पर विचार किया जाना चाहिए कि शिक्षा दी किस तरह जाए।
प्राथमिक स्तर से लेकर उच्चस्तर तक शिक्षक और विद्यार्थी के सम्बन्धों पर पहले विचार किया जाना जरुरी है। यदि शिक्षा ग्रहण करने वाले के मन में शिक्षा देने वाले के प्रति आत्मीयता का भाव होगा तो शिक्षा लेना और देना दोनो ही काम आसान हो सकते है। वर्तमान समय में इसी बात की सबसे ज्यादा कमी है। यह विषय सीधे सीधे मनोविज्ञान से जुडा है। प्राथमिक और पूर्व प्राथमिक स्तर की शिक्षा पर नजर डालें तो ज्ञात होता है कि स्कूलों की एलकेजी यूकेजी और प्राथमिक कक्षाओं में जाने वाले नन्हे बच्चों के मामले में उनके अभिभावकों और शिक्षकों के बीच में कहीं कोई समन्वय दिखाई नहीं देता। एक आम भारतीय दम्पत्ति को जब अपने नन्हे बालक को स्कूल से पहला परिचय कराना होता है तो उसके सामने उंचे या बडे नाम वाले महंगे और अधिकांश बार अंग्रेजी माध्यम के स्कूल में भेजने का सपना होता है। जिस स्कूल में बच्चे का दाखिला करवाया जाता है उस स्कूल के प्रबन्धन और शिक्षक की सोच ये रहती है कि उनके पास आए बच्चे को दो चार अंग्रेजी की कविताएं और अंग्रेजी के कुछ खास शब्द याद हो जाए ताकि उस बच्चे के अभिभावक अपने घर आए मेहमानों के सामने अपने बच्चे की क्षमताओं का प्रदर्शन कर सके और परिचितों में उनकी वाहवाही हो जाए। यदि बच्चे का प्रदर्शन ठीक होगा तो स्कूल का अच्छा प्रचार होगा और धन्धा ठीक से चल सकेगा।
समस्या यहीं से शुरु हो जाती है। जिस समय अभिभावक और शिक्षक का लक्ष्य ये होना चाहिए कि नन्हे बच्चे के कोमल मन में स्कूल और शिक्षा के प्रति आकर्षण उत्पन्न हो तब वे बच्चे के प्रदर्शन की चिन्ता करते है। अपने जीवन की शुरुआत में ही उस बच्चे को रटना सिखाया जाता है। बच्चे को नन्ही उम्र में चंद अंग्रेजी की पंक्तियां रटने के लिए दबाव डाला जाता है ताकि उसका और उसके स्कूल का नाम चल सके। प्राथमिक और पूर्व प्राथमिक स्तर की शिक्षा देने का काम आमतौर पर महिला शिक्षिकाओं के हाथ में है। नन्हे बच्चे के कोमल मन में अपनी शिक्षिका के प्रति अत्यधिक स्नेह और आदर का भाव होता है। कई मामलों में तो बच्चा अपने माता पिता से ज्यादा अपनी शिक्षिका की बात मानता है। लेकिन अधिकांश मामलों में शिक्षिकाओं के लिए इन नन्हे बच्चो को पढाने का काम महज उनकी नौकरी है,जिसे वे जैसे तैसे अंजाम दे देती है। नन्हे बच्चों के मन में विद्यालय या शिक्षा के प्रति आकर्षण बढ सके इसकी कोई चिंता उन्हे नहीं होती। बच्चों को शिक्षा के प्रथम परिचय में सिर्फ रटने और नकल करने की सीख दी जाती है। यही सिलसिला फिर जीवन भर चलता रहता है। बच्चे के मन में अपनी शिक्षिका से अतिरिक्त स्नेह पाने की इच्छा दबी ही रह जाती है।
जब बच्चा माध्यमिक स्तर पर पंहुचता है,तब उसकी समझ कुछ विकसित हो चुकी होती है। लेकिन तब भी उसे अपनी कक्षा में आने वाले शिक्षक शिक्षिकाओं में सिर्फ ऐसे लोग दिखाई देते है जिनके सामने सिर्फ कोर्स पूरा होने का महत्व होता है,बच्चे के मन में कोई झांकना नहीं चाहता। बच्चों को वे शिक्षक शिक्षिकाएं सर्वाधिक अच्छे लगते है जो पढाई के साथ साथ बच्चों से हंसी मजाक भी कर लेते है और कभी कभार विषय को छोडकर अन्य बातें भी पूछ लेते है। हांलाकि ऐसे लोग बेहद कम है। जब शिक्षक या शिक्षिका का अपने छात्रों के साथ अपनेपन का रिश्ता बन जाता है तो उस शिक्षक या शिक्षिका की कक्षा में बच्चों का प्रदर्शन भी अन्य लोगों की तुलना में बेहतर रहता है। छात्रों को महसूस होता है कि जो शिक्षक या शिक्षिका उन्हे स्नेह दे रहे है, उनकी अपेक्षाओं पर खरा उतरना चाहिए। इसी वजह से वे अधिक मेहनत करते है और अच्छे परिणाम हासिल होते है। सिर्फ इतना ही नहीं स्कूली जीवन में जिन छात्रों को अपने किसी शिक्षक या शिक्षिका से अतिरिक्त स्नेह मिला है,जीवनभर उनके मन में अपने उस शिक्षक या शिक्षिका के प्रति आदर का भाव रहता है। ये अनुभव वह प्रत्येक व्यक्ति कर चुका होगा जो कभी न कभी स्कूल या कालेज गया है।
विचारणीय पहलू यह भी है कि आजकल शिक्षकों के लिए बीएड की डिग्री को लगभग अनिवार्य कर दिया है। बीएड के पाठयक्रम में भी शिक्षा के नए तौर तरीके तो बताए गए है लेकिन इस विद्यार्थियों से शिक्षकों के तादात्म्य के महत्व पर कहीं कोई बात नहीं समझाई जाती। पूरे पाठयक्रम में किताबी बातें है लेकिन सर्वाधिक महत्वपूर्ण पहलू नदारद है।
महाविद्यालयों में छात्रों की बढती उश्रृंखलता के प्रश्न का समाधान भी इसी तथ्य में है। कालेज चाहे सरकारी हो या निजी,वहां छात्रों को पढाने वाले प्राध्यापकों में से अधिकांश छात्रों के प्रति या तो पूर्वाग्रहों से ग्रस्त रहते है,या उनके मन में युवाओं से कहीं न कहीं डर बना रहता है। नतीजा यह होता है कि अधिकांश प्राध्यापक अपने विद्यार्थियों से बिना जुडे किसी न किसी तरह कोर्स पूरा करने के चक्कर में लगे रहते है। चूंकि प्राध्यापकों का व्यवहार इस तरह का होता है,असीम उर्जा से भरे युवा छात्र भी विद्रोही होने लगते है। प्राध्यापकों में सम्मान प्राप्त करने की योग्यता नदारद सी हो गई है। किसी भी कालेज के क्लास रुम को नजदीक से देखिए,वहां प्राध्यापक कोर्स पढाने वाले रोबोट की तरह नजर आएगा और ऐसी स्थिति में निस्संदेह छात्र भी उसे मशीन ही मान कर धमाल मस्ती में लगे हुए दिखाई देंगे।
इसके विपरित चाहे प्राथमिक स्तर हो या माध्यमिक या उच्च स्तर,प्रत्येक स्तर पर कुछ ऐसे शिक्षक या प्राध्यापक होते है जो छात्रों में लोकप्रिय होते है। उनकी लोकप्रियता का मुख्य कारण ही यह होता है कि वे अपने छात्रों से जुड कर उन्हे पढाते है। छात्रों को जब अपनापन मिलता है तो वे भी बदले में अपने शिक्षक को सम्मान देने में नहीं हिचकते। हांलाकि शिक्षा के क्षेत्र में बढती व्यावसायिकता ने भी शिक्षकों के व्यवहार को प्रभावित किया है। आज के अनेक शिक्षक प्राध्यापक यह भी मानते है कि यदि वे स्कूल कालेज की क्लास में ही सही ढंग से पढा लेंगे तो टयूशन का उनका व्यवसाय कैसे चलेगा। लेकिन इसके बावजूद यदि अपने विद्यार्थियों के प्रति उनके मन में स्नेह का भाव होगा तो उन्हे कहीं अधिक लोकप्रियता और सफलता मिल सकती है।
बहरहाल,शिक्षा नीति के बदलाव से पहले शिक्षा देने वालों के व्यवहार में बदलाव लाना जरुरी है। उन्हे यह समझाया जाना जरुरी है कि उनके छात्र उनसे चाहते क्या है। यदि शिक्षा देने वाले इस बात का महत्व समझ जाएंगे तो नई पीढी के बच्चों की क्षमताओं का अधिक से अधिक उपयोग हो सकेगा और गुरु का घटता महत्व फिर से स्थापित हो सकेगा।

Thursday, January 28, 2010

republic day- a day for thinking about nation

This year we've celibrated our 61 th republic day before two days. today i'm writing on republic day. 60 year ago,in year of 1950 we have created our constituion and our leaders of that time like Mr.Jawaharlal Nehru and other congress leaders wrote INDIA THAT IS BHARAT. The biggest Question of last six decades is that where is Bharat. We becomes indian but nobudy wants to be Bharatiy. We are a Nation who has'nt our National language till today. we could'nt made our national language in sixty years. Gujrat High court commented some day before that hindi is not national language. We have only a language which we have got from our old ruler that we called british. Our supreem court works in English not in any Bharatiy language. Even i'm writing my blog also in English. Only language is not sublect there are so many things that we have not achived yet. We are devided in casts,states and in languages also.late have a look on Maharashtra's insidentes.We hav'nt national pride yet.We feel pruod in following weston culter.whenever we celibrats any birthaday we are happy in cake cutting but we dont like any Puja Or yagya which are our culter.

Tuesday, January 19, 2010

भारत की जनता-प्रयोगशाला के चूहे

भारत की जनता शायद प्रयोगशाला के चूहों के समान है। कम से कम भारत की सरकार और विदेशी कम्पनिया तो यही मानती है। शायद इसीलिए भारत सरकार ने अमेरिका की कंपनी US Agrochemicals and Bio technology (Monsanto) को भारत में बी टी बैंगन के बीज बेचने और इसके उत्पादन की अनुमति दे दी है। भारत में बी टी कोटन पहले से आ चूका है लेकिन यह खाने की नहीं उपयोग की वस्तु थी । भारत में लाये गए बी टी बैंगन की मार्केटिंग महाराष्ट्र हायब्रिड सीड्स कम्पनी लिमिटेड Mahyco कर रही है। इस बी टी बैंगन को Genetic Engineering Approval Commitee GEAC ने भारत में उत्पादन करने की अनुमति दी है कहा जाता है की बी टी किस्मे रोग प्रतिरोधक होती है। उत्पादक कंपनी का यह भी दावा है कि इसके उत्पादन से किसानो की गरीबी दूर होगी।
अब देखिये कि बी टी की असलियत क्या है । भारत में सबसे पहले बी टी काला फार्मूला कपास के लिए आया । कहा गया कि बी टी काटन से किसानो की तकदीर बदल जाएगी । किसानो ने भी महंगे दामो पर बी टी काटन के बीज ख़रीदे और बुवाई शुरू की । लेकिन कुछ समय बाद सचाई सामने आने लगी । आंध्र प्रदेश की सरकार ने अपने किसानो को चेतावनी दी है की वे जिन खेतो में बी टी काटन की फसले ली गई है वहा अपने मवेशियों को न जाने दे ।जहा बी टी काटन की फसले ली गई थी वहा चरने वाले कई मवेशियों की मौत हो गई। पता चला की उनकी किडनी और लीवर ख़राब हो गए थे। तब निष्कर्ष निकला गया की बी टी से किडनी और लीवर को नुकसान होने काला खतरा है। शायद यही कारन रहा की केरल और उड़ीसा सरकारों ने अपनी सीमाओं के भीतर

GM Food (Geneticaly modified food) के ट्रायल पर रोक लगा दी है । उत्तर प्रदेश,छत्तीसगढ़ और पश्चिम बंगाल ने जीएम फ़ूड की फिल्ड ट्रायल में अनियमितताओ और जी इ ऐ सी की कमजोर मोनिटरिंग की शिकायते की है। अंतर राष्र्टीय ख्यातिप्राप्त खाध्य सुरक्षा विशेषग्य देवेन्द्र शर्मा के मुताबिक जी इ ऐ सी पर आरोप है की उसने भारत में बी टी बैंगन को अनुमति देने के मामले में अंतर राष्ट्रीय बायो टेक इंडस्ट्री के दबाव में सुरक्षा और पर्यावरण को नजर अंदाज किया। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री रहे अम्बुमणि रामदौस ने भी बी टी बैंगन का विरोध इस आधार पर किया था की इससे होने वाले प्रभावो पर पर्याप्त शोध नहीं किया गया है। इसकी वजह से स्वास्थ्य सुरक्षा और पर्यवारव पर क्या असर होगा इस पर भी शोध नहीं किया गया है। इसी आरोप को फ़्रांस के विशेषग्य गिलिस एरिक सेरालिनी ने भी सही ठहराया।

फ़्रांस के कीन विश्व विद्यालय के प्रोफ़ेसर गिलिस एरिक सेरालिनी के नेतृत्व में गठित commitee for indipendent research and information on genetic engineering ने बी टी बैंगन पर व्यापक शोध किया और पाया की बी टी बैंगन मानव जीवन के लिए पूरी तरह असुरक्षित है। कमिटी ने महाराष्ट्र हाय ब्रिड सीड्स कंपनी द्वारा उपलब्ध कराये गए तथ्यों (डाटा) को भी संदिग्ध बताया। कमिटी के अध्ययन से स्पष्ट हुआ की बी टी बैंगन खाने से बकरियों को भूख लगाना कम हो गया। चूहों में खून के थक्के बनने लगे और बायलर चिकन में ग्लूकोज का स्टार कम होने लगा। इससे इन प्राणियों में केनामयसीन नामक एंटी बायोटिक तत्व कम होने लगा। कमिटी ने महाराष्ट्र हाय ब्रीड्स कंपनी द्वारा किये गए सुरक्षा परीक्षणों पर भी प्रश्न चिन्ह लगाये है। ग्रीन पिस संस्था से जुड़े श्री सेरालिनी ने अपनी भारत यात्रा के दौरान उम्मीद जताई की भारत की सरकार अपनी जनता को प्रयोगशाला के चूहे नहीं बनने देगी जिन पर बी टी बैंगन का परिक्षण किया जाना हो। यूरोप में भी जनमत बी टी के खिलाफ है। इटली और ऑस्ट्रिया में बी टी पर करवाए गए शोध जी एम् फ़ूड के खिलाफ परिणाम देने वाले साबित हुए। यह तथ्य भी सामने आया की जी एम् फ़ूड काला उपयोग महिलाओ को बाँझ बना सकता है।

डेल्ही हाय कोर्ट ne मार्च २००८ में दिए अपने एक निर्णय में बी टी बैंगन के विरुध कई प्रमाण दिए है। अब भी सर्वोच्च न्यायलय में एक याचिका विचाराधीन है। इस सब के बावजूद अमेरिका की यह कंपनी अब बी टी मक्का और सोयाबीन के बिज बनाने की तयारी कर रही है.

Thursday, December 24, 2009

who will be president

Election of Ratlam carporation has finished successfully and now everyone is busy in talks about the selection of president. The big question is who will be the president of RMC. As we know that the picture of RMC is a hung board.There are 23 carporators won the election on BJP ticket and 22 won by Congress.Four carporators are indipendent but three indipendents are connected with BJP idology. The house is having totel 49 seats and The Mayor is also a voter of presidential election. So that who wants to become president he need atleast 26 votes. BJP is hopefull for election b'coz BJP wnats only tow corporators support. The planners of BJP thougts that they will arrenge two vote from Indioendents. Othere side The congress leaders also hopefull for it.Leaders of congress think about cross voting. Congress leadership dosent ruled out the possibility of horse treading and they are trying for it.
In BJP there are many corporators dreaming to become president.Some female corporators also think so. It is a intresting senerio of politics which will be mentene for some more days.Only Time will decided that who will be preident of RMC

अयोध्या-3 /रामलला की अद्भुत श्रृंगार आरती

(प्रारम्भ से पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करे )  12 मार्च 2024 मंगलवार (रात्रि 9.45)  साबरमती एक्सप्रेस कोच न. ए-2-43   अयोध्या की यात्रा अब समाप्...